प्रगतिवाद : अवधारणा और स्वरूप

प्रगतिवाद : अवधारणा और स्वरूप

प्रगतिवाद सामाजिक यथार्थवाद के नाम पर चलाता गया वह साहित्यिक आंदोलन है जिसमें जीवन और यथार्थ के वस्तु- सत्य को उत्तर छायावाद काल में प्रश्रय मिला और जिसने सर्वप्रथम यथार्थवाद की ओर समस्त साहित्यिक चेतना को अग्रसर होन की प्रेरणा दी। प्रगतिवाद का उद्देश्य था साहित्य में उस सामाजिक यथार्थवाद को प्रतिष्ठित करना जो छायावाद के पतनोन्मुख काल की विकृतियों को नष्ट करके एक नये साहित्य और नये मानव की स्थापना करें और उस सामाजिक सत्य को, उसके विभिन्न स्तरों को, साहित्य में प्रतिपादित होने का अवसर प्रदान करें। वर्ग-संघर्ष की साम्यवादी विचारधारा और उस संदर्भ में नये मानव, नये हीरो की कल्पना इस साहित्य का उद्देश्य था।
इसकी मूल प्रेरणा मार्क्सवाद से विकसित हुई थी। इसका उद्देश्य और लक्ष्य जनवादी शक्तियों को संघटित करके मार्क्सवाद और भौतिक यथार्थवाद के आधार पर निर्मित मूल्यों को प्रतिष्ठित करना था। उसकी आत्मा साम्यवाद में थी, दृष्टि रूस के साहित्यिक इतिहास की ओर थी, प्रेरणा राजनीतिक मंतव्यों द्वारा अनुशासित थी और कल्पना प्रोलेतरियत सत्ताशाही से अनुशासित थी। उसकी खोज उस नये मानव की थी, जो समस्त पतनशील प्रवृत्तियों के विरोध में उपर्युक्त स्थापनाओं को विकसित करके एक प्रोलेतेरियत शासन सत्ता को उभारने का अवसर दे। इसकी मूल स्थापना सैद्धांतिक रूप से प्रगतिशील थी, इसलिए इस साहित्यिक आंदोलन को ‘प्रगतिशील आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से जिस प्रकार का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद प्रेमचंद के उपन्यास और अन्य कलाकृतियों में विकसित हो रहा था, उसमें काफी अंश उस बौद्धिक जागरूकता का, जो रूस की क्रांति के बाद समस्त बौद्धिक जनों के मानसिक स्तरों को आंदोलित कर रहा था। 1936 ई0 में प्रेमचंद के सभापतित्व में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई और धीरे-धीरे इसका संपूर्ण गठन समस्त देश और विभिन्न भाषा भाषी प्रांतों में फैलाया गया। प्रारंभिक काल में इसके नये आग्रहों में जिस मानव-मुक्ति और मानवता की बात उठायी गयी थी, उसका मेल उस समय की राष्ट्रीय चेतना एवं यथार्थवादी चेतना के संदर्भ में बड़ा ही प्रभावपूर्ण लगा। किसान, मजदूर, समाज का उपेक्षित वर्ग, पद दलित वर्ग चंतना और वर्ग- भावना के यथार्थ ने भी लेखकों को प्रभावित किया। इसने एक ओर छायावाद की पतनोन्मुख प्रवृत्ति का खंडन
किया, दूसरी आर उस आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का समर्थन किया, जो प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त हो रहा था। एक ओर इसने पतनशील तत्वों के विरोध में स्वर उठाया और दूसरी ओर उस नियोजित यथार्थवाद को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जो मंतव्यपूर्ण, परिकल्पित साम्यवाद के अन्तर्गत था। (हिंदी साहित्य कांश) सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो नामवर सिंह के अनुसार, “छायावाद के गर्भ से सन् 1930 के आसपास नवीन सामाजिक चेतना से युक्त जिस साहित्य धारा का जन्म हुआ, उसे सन् 1936 में प्रगतिशील साहित्य अथवा प्रगतिवाद की संज्ञा दी गई और तब से इस नाम के औचित्य अन्योचित्य को लेकर काफी विवाद होने के बावजूद छायावाद के बाद की प्रधान साहित्य धारा को प्रगतिवाद के नाम से पुकारा जाता है।’ प्रगतिवादी रचनाकारों में प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, नागार्जुन, निराला, अमृतराय, रांगेय राघव आदि का नाम महत्वपूर्ण है।
रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त, भगवतशरण उपाध्याय, डा0 नामवर सिंह तथा डा0 चंद्रबली सिंह प्रमुख प्रगतिवादी आलोचक माने जाते हैं।
 नागार्जुन : काव्य-विषय
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रो0 नामवर सिंह नागार्जुन की कविता के संदर्भ में लिखते हैं, “कविता को उठान तो कोई नागार्जुन से सीखें और नाटकीयता में तो वे जैसे लाजबाव ही हैं। जैसी सिद्धि छंदों, में वैसा ही अधिकार बेछंद या मुक्तछंद की कविता पर। उनकं बात करने के हजार ढंग हैं। और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने स्तर हैं कि कोई भी अभिभूत हो सकता है।”
आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद या प्रगतिशील धारा के प्रमुख रचनाकार नागार्जुन की कविता एवं कथा-साहित्य में समान रूप से महत्वपूर्ण योगदान है। व्यक्तित्व, रचना एवं कार्यो में सादृश्य के कारण ‘आधुनिक कबीर’ का सम्मान पानवाले नागार्जुन स्वाधीन भारत के प्रतिनिधि जनकवि के रूप में भी पहचाने जाते हैं। नागार्जुन की ख्याति हिंदीतर भारतीय भाषाओं के साथ ही अन्तर- राष्ट्रीय भी हैं। दृष्टिकोण, विचारधारा, संवेदना, कला और भाषा – इन सभी स्तरों पर नागार्जुन का साहित्य जन – प्रतिबद्ध है। यहाँ ‘जन’ से आशय बहुसंख्य जन से है जो विभिन्न स्तरों पर मनुष्योचित अधिकार, सम्मान और गरिमा के लिए संघर्षरत हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समानता
तथा न्याय के लिए जो संघर्ष भारतीय समाज में निरंतर चल रहा है, नागार्जुन उसके साथ हैं, चिंतन, रचना, आचरण आदि के सभी धरातलों पर। उनका संपूर्ण साहित्य भारतीय जनता की अपराजेय जिजीविषा, संकल्प और संघर्ष का साक्ष्य है।
नागार्जुन के काव्य में व्यर्थ की भावुकता, रोमानीपन, काल्पनिकता और शब्द क्रीड़ा के लिए स्थान नहीं है। व्यर्थ के गर्जन- तर्जन, जोश और उत्साह के हवाई प्रदर्शन, ललकार और चीख-पुकार – इन सबसे बचते हुए वे प्रकृति, जीवन, समाज और मानव- संबंधों के यथार्थ पर अपनी अचूक और बेधरक दृष्टि जमाए रखते हैं। दूर की कौड़ी लाने के लोभ में पड़कर वे जीवन-जगत की खुरदुरी और विषम वास्तविकता से आँखें नहीं चुराते, मुँह नहीं मोड़ते, वे उसका चित्रण करते हैं तथा उसके माध्यम से आदमी के जीवन-सरोकारों और सच्चाईयों को सामने लाकर मनुष्य में हमार विश्वास को बल प्रदान करते हैं।
समाज का शोषित-दलित-वंचित वर्ग नागार्जुन की संवेदना और सहानुभूति का विशेषभाजन बना है, किंतु उसकी संवेदना उस वर्ग के प्रति भावुकतापूर्ण सहानुभूति नहीं जगाती, बल्कि उसकी विषम दशा के कारणों की पड़ताल के लिए उकसाती हुई उसके पक्ष में एक तरह  की मोर्चेबंदी के लिये अभिप्रेरित करती है। इस तरह उनका साहित्य सक्रिय प्रतिरोध का साहित्य बन जाता है। नागार्जुन का काव्य व्यंग्य का जैसा सोद्देश्य रचनात्मक उपयोग करता है वह अलग से उल्लेखनीय है। उनका व्याय कबीर की तरह ही और सामाजिक है। डा0 रामविलास शर्मों की मान्यता है कि, “उनकी कविताएं लोक संस्कृति के इतना नजदीक है कि उसी का एक विकसित रूप मालूम होती है, किंतु वे लोकगीतों से भिन्न हैं, सबसे पहले अपनी भाषा खड़ी बोली के कारण, उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण, और अंत में
बोलचाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नए-नए प्रयोगों के कारण। हिंदी भाषी किसान और मजदूर जिस तरह की भाषा सिमझते और बोलते हैं, उसका निखरा हुआ काव्यमय रूप नागार्जुन के यहाँ है। (दिगंत, भाग)
नागार्जुन का जन्म सन् 1911 ई0 में ग्राम – तरौनी, जिला दरभंगा, बिहार में हुआ और निधन 5 नवम्बर 1998 को। उनका
वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। मैथिली साहित्य में वे ‘यात्री के नाम से जाने जाते हैं और हिंदी साहित्य में नागार्जुन के नाम से। नागार्जुन को परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्ष मिली थी। वे कई जन आंदोलनों से गहरे जुड़े थे। बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के उनका नाम नातार्जुन हो गया था। मैथिली काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। युगधारा, सतरंगे पंखों वाली; प्यासी पथराई आँखें, तालाब की मछलियाँ, चंदना, खिचड़ी विप्लव देखा मैंने, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कारस, हजार-हजार बांहों वाली आदि उनके प्रमुख हिंदी कविता संग्रह हैं। भूमिजा, भस्मांकुर उनका खंडकाव्य है। चित्रा और पत्रहीन नग्न गाछ मैथिली काव्य संग्रह है। रतिनाथ की चाची, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, बलचनमा, वरूण के बेटे, नई पौध उनके महत्वपूर्ण हिंदी उपन्यास हैं। पारी
और नवतुरिया उनका मैथिली उपन्यास है। ‘धर्मलोक शतकम्’ में उनकी संस्कृत कविता संकलित है।
वसंत की आगवानी : विषय-वस्तु
‘वसंत की आगवानी’ कविता नागार्जुन की प्रकृति-सौंदर्य और प्रकृति-प्रेम की बेहतरीन कविता है। नागार्जुन को ऋतु परिवर्तन का आभास एक किसान के समान सहज इन्द्रिय-बोध के स्तर पर होता है – खासतौर से वसंत और पावस के आगमन का। इस ऐंद्रियता का सबसे सूक्ष्म चित्र वसंत की आगवानी’ की इन पंक्तियों में मिलता है, टेसू निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराये, अलसी के नीले फूलों पर नभ मुस्काया।
नागार्जुन की इस तरह की कविताएं यह विश्वास जगाती हैं कि सारी अमानुषिकता के बावजूद गाँव के साधारण जन का
प्रकृति-साहचर्य एकदम समाप्त नहीं हो गया है और न उसका इंद्रिय-बोध, सौंदर्यबोध ही मर पाया है। गाँव खेत का प्रकृति सौंदर्य देखते ही नागार्जुन का मन खुशी से मचलने लगता है। आम के बगीचे में कोयली के कूक पर नागार्जुन
रोझ जाते हैं, शाम होते ही झिंगुरों की आवाज कवि को शहनाई का-सा आनंद देता है। हरी-भरी वृक्षों का तो कहना ही क्या सूखे पेड़ों और उसकी टहनियों के पोर-पोर में नवजीवन का संचार हो जाता है। वसंत के आते ही पेड़ों में नये पत्ते आ जाते हैं और फूल के पौधों में गुच्छा-का-गुच्छा फूल खिल उठता है। अलसी के नीले-नीले फूलों को देखकर आकाश भी मस्ती में झूम उठा। ऐसे में बांसुरी की फूंक और उँगलियों का थिरकना स्वाभाविक है।
ऐसे वृद्ध-वृद्धाओं के पिचके गालों पर भी लालिमा छा जाती है। ऐसे मदमस्त वसंत के आते ही आम की मंजरियों पर भौरें मंडराने लगते हैं। सहजन की कोमल डालों पर मधुमक्खियाँ लुधकी हुई हैं, कवि को आशंका है कि ये मधुमक्खियों के भार से कहीं उसकी डाल टूट न जाये। खेतों में जौ और गेहूँ की हरी-भरी बालें शोभायमान हैं। इन बालों में सूर्यदेव की असीम कृपा है। ठंडी हवा, गुलाबी ठंडक और है
सुनहली धूप वसंत के आगवानी में उपस्थित है। नागार्जुन की यह कविता उनके ग्राम्य-प्रेम को दर्शाता है। कविता पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि स्वयं कवि अत्यंत प्रसन्न है। कवि की मंगलकामना इसी तरह हरियाली बनी रहने की है। मुक्त छंद में रचित उक्त कविता की लयात्मकता देखते ही बनती है।
वे और तुम : अर्थ एवं भाव
प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की वर्ग प्रतिहिंसा कविता में व्यंग्यों के रूप में प्रकट हुई हैं। बकौल प्रो नामवर सिंह, “बिना हिचक के कहा जा सकता है कि कबीर के बाद हिंदी में नागार्जुन से बड़ा दूसरा व्यायकार पैदा नहीं हुआ।” वे और तुम कविता में इस पैने व्यंग्य को देखा जा सकता है। कविता में ‘वे’ शोषित, दमित श्रमिक वर्ग है और तुम धनी, सप्पन, कला-प्रेमी-साहित्यकार हैं। शोषक-वर्ग का कोई भी तबका नागार्जुन की व्याय की मार से बचने नहीं पाया है। इनके व्यंग्य के विषय ही विविध नहीं है, व्यंग्य के काव्य-रूप भी विविध हैं। नागार्जुन के ये व्यंग्य भारतीय जनता की प्रखर राजनीतिक चेतना के साथ ही, उसके सहज बोध और जिंदादिली के भी अचूक प्रमाण हैं।
‘वे और तुम’ कविता में नागार्जुन कहते हैं कि जो श्रमिक हैं, वे दिन-रात लोहा पीटते हैं तब जाकर उन्हें रोटी मिल पाती है। और तुम सौंदर्य प्रेमी रचनाकार मन को पीटते हो। वे एक-एक तार को जोड़ने में लगे रहते हैं और तुम सपने देखने और जोड़ने का काम करते हो। वे घुट-घुट कर अपनी जिंदगी गुजारते हैं, उनकी घुटन ठहाकों में कहीं गुम हो जाती हैं। और तुम्हारी घुटन उनींदी घड़ियों में गायब हो जाती है। वे अपने फसलों को देखकर खुश होते हैं और तुम चितकबरी चांदनी को देखकर प्रसन्न होते हो। उन्हें इस बात का दुख है कि पाला ने उनके आम के फसलों को बर्बाद कर दिया है और तुम्हें दुख है कि तुम्हारी रचनाओं को दीमक चाट गया है।
उक्त कविता में दो वर्गो; एक श्रमिक और दूसरा सुविधा सम्पन्न साहित्यकार जो उच्च वर्ग का है, का तुलनात्मक रूप उपस्थित किया गया है। नागार्जुन ऐसे व्यंग्यकार हैं जो अपने को भी नहीं छोड़ते। इस कविता में उन्होंने साहित्य रचनाकारों पर करारा व्यंग्य किया है। इस छोटी-सी कविता में नागार्जुन ने वर्ग-वैषम्य के यथार्थ को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है।
पारिभाषिक शब्दावली
सामाजिक यर्थाथवाद :
सामाजिक यथार्थ दार्शनिक दृष्टि से प्रत्यक्ष जगत् से बिल्कुल भिन्न है। प्रत्यय मानव मस्तिष्क से संबंधित हैं, किंतु सामाजिक यथार्थ के भीतर वे शक्तियाँ आती हैं जो मानव-मस्तिष्क के बाहर हैं। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों का समुच्चय ही सामाजिक यथार्थ है। ये शक्तियाँ मिलकर उस सामाजिक वातावरण का निर्माण करती है, जिनसे हमारे संस्कारों का सृजन होता है।
आदर्शवाद जहाँ काव्य और कला को मनुष्य के शेष व्यापारों, उसकी जीवन प्रक्रिया से विच्छिन्न एक असाधारण, अलौकिक अथवा आध्यात्मिक सर्जन प्रक्रिया का परिणाम मानता है, वहीं इसके विपरीत यथार्थवाद काव्य और कला को जीवन से नि:सृत और उसका अभिव्यंजक मानता है। यथार्थवाद को प्रश्रय देनेवाली रचना जीवन की वास्तविकताओं का चित्रण करती है। यथार्थवादी चित्रण में आत्मनिष्ठ  पूर्वाग्रह, आदर्शवाद अथवा रोमांचकता का कोई स्थान नहीं।
सामाजिक यथार्थवाद वस्तुतः प्रतिनिधि व्यक्तित्व अथवा चरित्र को सहज स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करता है। इस प्रकार चरित्र वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हुए भी अपनी विशेषता अक्षुण्ण रखता है। इसके विकास में मार्क्सवाद का बहुत बड़ा हाथ है।
उत्तर छायावाद:
छायावाद के बाद वाले समय को उत्तर छायावाद कहते हैं। उत्तर का अर्थ पश्चात् यानी बाद होता है। छायावाद के बाद हिंदी में प्रगतिवादी प्रवृत्ति से हमारा साक्षात्कार होता है।
नया मानव :
आधुनिक काल का वह मानव जो भौतिक सच्चाई में विश्वास करता है। ऐसा मानव पारलौकिकता, भाग्यवाद और अंधविश्वास के विपरीत तर्क, वैज्ञानिक दृष्टि और यथार्थ के प्रति सचेत रहता है। नया मानव अपनी सीमा और सामर्थ्य दोनों से परिचित होता है। वर्ग-संघर्ष महान चिंतक कार्ल मार्क्स के अनुसार दो ही प्रमुख वर्ग होते हैं एक उच्च वर्ग और दूसरा निम्न वर्ग। उच्च वर्ग जो शोषक होता है, वह निम्न वर्ग यानी शोषितों का शोषण करता है। कई मुद्दों पर इन दोनों वर्गों के बीच या तो युद्ध होता रहता है या युद्ध की नौबत आती रहती है, यही वर्ग-संघर्ष कहलाता है।
मार्क्स के अनुसार सारा समाज विभिन्न आर्थिक वर्गों में बंटा हुआ है। इन विभिन्न वर्गों की विभिन्न आवश्यकताएँ है। इन्हीं आवश्यकताओं के बीच जब उच्च-वर्ग और धनी-वर्ग के बीच टकराहट होती है, तो इसे वर्ग-संघर्ष की संज्ञा दी जाती है।
साम्यवाद ‘साम्यवाद’ शब्द अंग्रेजी के ‘कम्युनिज्म’ का पर्याय है और सन् 1834-1839 ई0 में पेरिस के गुप्त क्रांतिकारी संगठनों द्वारा गढ़ा गया था। कार्ल मार्क्स और फंडरिक एंजिल्स ने इस शब्द का बहुत प्रयोग किया है। यहाँ तक कि उनकी विचारधारा के लिए यह शब्द रूढ हो गया है। उनकी विचारधारा से प्रभावित श्रमिक दल अपने को समाजवादी कहकर पुकारते रहे, किंतु लेनिन ने अपने क्रांतिकारी आंदोलन को सन् 1918 ई0 में समाजवादी आंदोलन से विच्छेद कर अपने दल को साम्यवादी कहना आरंभ किया। तब से ‘साम्यवाद’ शब्द का व्यापक प्रयोग होने लगा। वैयक्तिक के बदले सामूहिक अथवा सार्वजनिक उत्पादन, प्रबंध और उपभोग के सिद्धांत पर आधारित समाज-व्यवस्था साम्यवादी
समाज-व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध है।
जनवादी शक्तियाँ :
जनवाद के मूल में स्थित ‘जन’ शब्द काफी पुराना है। भारतीय वाङ्मय में ‘जनपद’ शब्द जन की प्रतिष्ठा का सूचक है। जनवाद के लिए यह कहा जा सकता है कि यह कला, साहित्य और जीवन के प्रति विशेष दृष्टिकोण है, जो जनसामान्य को महत्व देता है। कला और साहित्य में आज जनवाद जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, उसके पीछे एक विशिष्ट जीवन-दर्शन है। कार्ल मार्क्स ने जो समाज और उसके विविध रूपों और विचारों को ऐतिहासिक व्याख्याएं को, वे कला और साहित्य पर भी लागू होती है। साहित्य की जो मार्क्सवादी विवेचना हुई, उसी में जनवादी शक्तियाँ कहलाती हैं।
जनवादी विचारधारा के अनुसार साहित्य में मानव के सामूहिक भावों की ही अभिव्यक्ति होनी चाहिए। व्यक्ति वैचित्र्य के लिए उसमें स्थान नहीं है। लेखक में शक्ति जनता से आती है, जनता के साथ उसका संबंध जितना ही घनिष्ठ होता है, उसमें उतनी ही अधिक रचना-शक्ति आती है और उसकी रचना में उतना ही अधिक सौंदर्य बढ़ता है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद :
यह शब्द अंग्रेजी के ‘डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म’ का हिंदी रूपांतर है। इस शब्द का पारिभाषिक प्रयोग सर्वप्रथम कार्ल मार्क्स (1818-1883) के लेखों में प्राप्त होता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद केवल भौतिकवादी दर्शन ही नहीं है प्रत्युत उसकी एक विशिष्ट प्रणाली भी है, जिसके अनुसार वह सृष्टि और समाज का भौतिकवादी अध्ययन करता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद हमारे अनुभवों और पर्यवेक्षणों पर आधारित है। नित्यप्रति के जीवन में हम यह देखते हैं कि संसार को हर वस्तु अन्त में नष्ट हो जाती है। जिसे जीवन प्राप्त हुआ, मरण उसका अनिवार्य उपसंहार है। सम्पूर्ण प्रकृति इसी सत्य की साक्षी है। परिवर्तन हो इस सृष्टि का मूल सत्य है, गत्यात्मकता उसका जीवन है। यहाँ स्थायित्व नहीं है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद वह दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार सृष्टि का तत्व ‘मैटर’ है, जिसका निस्तर रूप परिवर्तन हो रहा है। इस परिवर्तन की प्रणाली द्वंद्वात्मक है, जिसके अनुसार हर एक परिस्थिति के मूल में संघर्ष स्थित है और संघर्ष इसलिए है कि उस परिस्थिति विशेष में ही उसके नाश के उपकरण सन्निहित हैं। परिस्थिति विशेष के इन्हीं विरोधी उपकरणों में संघर्ष होता है, जो कालांतर में नयी व्यवस्था का सृजन करता है।
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद :
आदर्शवाद तथा यथार्थ का समन्वय करने वाली विचारधारा। इस प्रवृत्ति की ओर प्रथम महत्वपूर्ण संकेत प्रेमचंद का है। उन्होंने कथा-साहित्य को यथार्थवादी रखते हुए भी आदर्शोन्मुख बनाने की प्रेरणा दी और स्वतः अपने उपन्यासों तथा कहानियों में इस प्रवृत्ति को जीवंत रूप में अंकित किया।

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