फ्रायड का मनोलैंगिक विकास सिद्धान्त की विकास अवस्थाओं की विस्तृत व्याख्या कीजिये |

फ्रायड का मनोलैंगिक विकास सिद्धान्त की विकास अवस्थाओं की विस्तृत व्याख्या कीजिये |

उत्तर— फ्रायड का मनोलैंगिक विकास सिद्धान्त ( Freud’s Psycho-sexual Development)– मानव विकास के संदर्भ में सिगमण्ड फ्रायड के सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा यह है कि किसी “व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास पर उसके भीतर पायी जाने वाली काम शक्ति का व्यापक प्रभाव पड़ता है। फ्रायड ने इस काम शक्ति को लिबिडो की संज्ञा दी है और इस संप्रत्यय का बड़े ही व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को जीवनपर्यन्त सक्रिय बनाए रखती है। वस्तुत: वह उसके सम्पूर्ण आनन्द का स्रोत है। फ्रायड के अनुसार, यह काम-शक्ति जीवन के प्रारम्भ से ही बालक में विद्यमान रहती है जिसका प्रकाशन एवं प्रदर्शन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्नभिन्न रूपों से होता रहता है। व्यक्ति के भीतर कामुकता और व्यक्तित्व का विकास साथ-साथ चलता है और भावी व्यक्तित्व पर बाल्यकालीन कामुकता की बड़ी जबर्दस्त छाया पड़ती है।
फ्रायड ने व्यक्ति के मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाओं का उल्लेख किया है, जो निम्नलिखित हैं—
(1) मुखीय अवस्था (Oral stage)– बाल्यकालीन कामुकता की यह प्रथम अवस्था होती है जो एक वर्ष तक चलती रहती है। इस अवस्था में कामुकता लिबिडो मुख के क्षेत्र में केन्द्रित होती है । इस अवस्था का बालक काम-सम्बन्धी आनन्द अपने मुख से माता का स्तनपान कर और कभी-कभी उसके स्तन को दाँत से काट कर प्राप्त करता है । यदि किसी बालक को मुख द्वारा आनन्द प्राप्त करने का बहुत अधिक अवसर मिलता है, तो उसके भीतर भविष्य में इस प्रकार स्थिरीकरण के कारण व्यक्ति भविष्य में मुख की उन अनेक क्रियाओं को सम्पन्न करना चाहता है जिससे उसे सुखद अनुभूति होती है किन्तु यदि बच्चे को इस अवस्था में मुख द्वारा आनन्द प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ती है, तो भविष्य में उसके सम्मुख गम्भीर समस्यायें उत्पन्न होने लगती हैं इस प्रकार फ्रायड ने इसे बाल्यकालीन काम-सम्बन्ध बतलाया है।
(2) गुदीय अवस्था(Anal stage)– जीवन के अगले दो वर्षों को फ्रायड ने गुदीय अवस्था कहा है, जब बालक की काम-शक्ति मुख से हटकर गुदा के क्षेत्र में केन्द्रित हो जाती है। अब बालक गुदा के उद्दीपन होने और मल-विर्सजन द्वारा आनन्द का अनुभव करता है। इस अवस्था में बच्चा या तो नि:संकोच मल त्याग करता है, या वह मल त्यागने की क्रिया को नियंत्रण में रखता है ।
(3) लैंगिक अवस्था(Phallic stage )– यह तीसरे वर्ष के अन्त से पाँचवें वर्ष के अन्त तक चलने वाली अवस्था होती है। इस अवस्था में काम शक्ति बालक की जननेन्द्रियों में केन्द्रित हो जाती है और वह जननेन्द्रिय के उद्दीपन से लैंगिक आनन्द की अनुभूति करता है। बालक के माता-पिता ही उसके काम-वासना के पात्र बन जाते हैं । बाल-व्यक्तित्व के विकास क्रम में यह एक ऐसी अवस्था होती है जब बालक अपने माँ-बाप के साथ तादात्म्म्य स्थापित करने में तल्लीन हो जाता है। इस अवस्था में बालक अपने बाप और बालिका अपनी माँ की भाँति बनने की इच्छुक होती है। फ्रायड का मत है कि इस अवस्था में बालक में इडिपस ग्रन्थि विकसित होती है और बालक अपनी माँ का प्रेमी बन जाता है और बालिका अपने बाप के प्रति प्रेम प्रदर्शित करती है । बालक माँ-बाप के साथ इसलिए भी तादात्म्य स्थापित करता है जिससे वह अपने से बड़ों से भयभीत न हो। परन्तु इस अवस्था का बालक जब अवाँछनीय व्यवहारों की ओर प्रवृत्त होने लगता है, तो वह दण्ड पाता है। दण्डित होने पर उसे अपनी सीमाओं का ज्ञान होने लगता है और वह वास्तविकता को धीरे-धीरे समझने लगता है।
(4) अदृश्यावस्था(Latency stage)– बालक के मनोलैंगिक विकास में 6 से 12 वर्षों के बीच एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें उसकी काम-शक्ति अदृश्य-सी हो जाती है । यह शरीर के किसी भाग में केन्द्रित नहीं होती। इस अवस्था का बालक थोड़ा-बहुत अन्तर्मुखी हो जाता है । अब बालक का अधिकांश व्यवहार यथार्थवादी सिद्धान्त द्वारा निर्देशित होता है । इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप इस अवस्था का बालक घर के भीतर रुचि न लेकर घर से बाहर की ओर आकृष्ट होने लगता है। लगभग छः से ग्यारह बारह वर्षों की आयु में बालकों की कामुकता दबी हुई होती है और वे अपने ही यौन के बालकों के में समूह अधिकांश समय व्यतीत करते हैं। बालक बालकों के साथ और बालिकाएँ बालिकाओं की टोली में रहना पसन्द करती हैं। इसी अवस्था में बालक विविध प्रकार के खेलों में रुचि प्रदर्शित करते हैं।
(5) जननेन्द्रियावस्था(Genital stage)– मनोलैंगिक विकास की अन्तिम अवस्था में काम-शक्ति बालक की जननेन्द्रिय में केन्द्रित हो जाती है जिसका उपयोग यह विपरीत यौन समागम एवं सन्तानोत्पत्ति हेतु करता है, पर यौन-आचरण बीस- इक्कीस वर्ष की आयु में पहुँच जाने पर सम्भव होता है। लगभग 12 से 18 वर्षों के बीच की अवस्था में किशोर बालक-बालिकाओं के भीतर एक बार फिर काम-चेतना का जागरण होता है जिसे दबाया नहीं जा सकता। इस अवस्था में माता-पिता के प्रति काम सम्बन्ध का प्रदर्शन चूँकि सम्भव नहीं होता, इसलिए वह विपरीत यौन के किसी न किसी सदस्य को अपनी पंसद का केन्द्र बना लेता है। साथ ही किशोरावस्था का बालक एक-दो मित्रों के साथ भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हो जाता है, जो उसके पिता के स्थान पर उसके निर्देशन का दायित्व संभालते हैं। किन्तु इसके बावजूद भी किशोर बालक आत्मनिर्भर बनकर अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेने लगता है और वस्तुत: माता-पिता के नियंत्रण से मुक्त हो जाता है।
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