‘भारतीय शासन में न्यायिक सक्रियता एक नवीन धारणा है । ” विवेचना कीजिए तथा न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष में दिए गए मुख्य तर्कों को स्पष्ट कीजिए |
‘भारतीय शासन में न्यायिक सक्रियता एक नवीन धारणा है । ” विवेचना कीजिए तथा न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष में दिए गए मुख्य तर्कों को स्पष्ट कीजिए |
अथवा
न्यायिक सक्रियता के उद्भव को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
न्यायिक सक्रियता की अवधारणा को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए |
अथवा
न्यायिक सक्रियता के सकारात्मक पक्ष तथा इनके समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
अथवा
न्यायिक सक्रियता के नकारात्मक पा तथा इसके समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
अथवा
अन्त में संतुलित दृष्टिकोण के अनुरूप निष्कर्ष लिखें।
उत्तर- संवैधानिक दृष्टिकोण से भारत एक लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी देश है, जिसमें न्यायपालिका की भूमिका एक सजग प्रहरी की है। विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका द्वारा देश की राजनीति, प्रशासन एवं सामाजिक-आर्थिक जीवन में व्याप्त, सुस्ती, भ्रष्टाचार एवं अन्याय के निवारण हेतु अनेक निर्णय प्रेषित किये गये। न्यायालय द्वारा जनहित में किए गए इन्हीं प्रयासों को न्यायिक सक्रियतावाद कहा जाता है। यह एक नवीन धारणा है तथा इस सन्दर्भ में न्यायपालिका ने सक्रियता दिखाते हुए जनहित से सम्बंधित अनेक निर्णय दिए हैं।
न्यायिक सक्रियता की अवधारणा सर्वप्रथम अमेरिका में 20वीं शताब्दी में विकसित हुई जबकि भारत में इसका प्रारम्भ 1986 ई. में माना जाता है तथा इसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश पी.एन, भगवती को जाता है। न्यायिक सक्रियता का आशय नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए तथा समाज में न्याय को बढ़ावा देने के लिए न्यायपालिका द्वारा आगे बढ़कर भूमिका लेने से है। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है न्यायपालिका द्वारा निभाई जाने वाली वह सक्रिय भूमिका है, जिसमें राज्य के अन्य अंगों (विधायिका एवं कार्यपालिका) को उनके संवैधानिक कृत्य करने को बाध्य करें।
ताज संरक्षण हेतु आगरा, एवं मथुरा की औद्योगिक ईकाइयों को नोटिस, दिल्ली महानगरपालिका को सार्वजनिक वाहनों को सी. एन. जी. से चलाने हेतु निर्देश, गंगा के किनारे एवं दिल्ली में यमुना के किनारे पर अवस्थित आवासीय क्षेत्रों में चल रही फैक्ट्रियाँ एवं औद्योगिक इकाईयों को स्थानान्तरण करने संबंधी निर्देश, चुनाव सुधारों पर सरकार को कारण बताओ नोटिस, राजनीति में अपराधीकरण को रोकने की दिशा में निर्वाचन आयोग (Election Commission) को आवश्यक दिशा-निर्देश आदि न्यायिक सक्रियता के नवीन एवं ज्वलन्त उदाहरण हैं।
> न्यायिक सक्रियता के सकारात्मक पक्ष
न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम था कि श्रीमति हिंगोरानी के प्रसास से बिहार के भागलपुर जिला में सैकड़ों कैदियों को न्याय मिला। भागलपुर के आँख फोड़वा काण्ड, एशियाड़ श्रमिक केस-1982, बधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम् संघ, रूदलशाह बनाम् बिहार राज्य, चर्मकारों के शोषण से सम्बंधित मामले, अल्पसंख्यकों के हितों से सम्बंधित मामले (शाहबानों केस), आगरा में चर्मकार उद्योग पर प्रतिबंध, सुनील बत्रा बनाम् दिल्ली प्रशासन औद्योगिक प्रदूषण से सम्बंधित मामले आदि को न्यायिक संक्रियता के सकारात्मक पहलू के अन्तर्गत रखा जा सकता है जिसमें न्यायालय द्वारा न्याय प्रदान किया गया। इसके साथ ही प्रियदर्शनी मट्टू एवं जेसिका लाल केस में न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम था कि इन्हें न्याय मिल पाया। इसी प्रकार एक एन. जी. ओ. PUCL की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग के लिए दिशा-निर्देश जारी किया कि नामांकन के समय प्रत्येक उम्मीदवार को अपनी अपराधिक पृष्ठभूमि एवं सम्पत्ति का ब्यौरा देना होगा।
न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम था कि हवाला काण्ड सामने आया जिसमें सीबीआई जैसे महत्वपूर्ण संस्थान को न्यायालय की काफी फटकार सुननी पड़ी। इसके अतिरिक्त न्यायालय की पर्यावरणीय सक्रियता के तहत ताजमहल को बचाने का आदेश दिया गया।
> न्यायिक सक्रियता के नकारात्मक पक्ष
दिल्ली में सीएनजी मामले में दिल्ली सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया गया, क्योंकि इससे यातायात सम्बंधी समस्याएँ आनी थी, यातायात व्यवस्था ठप्प हो जाती और जनता क्रोधित होकर आन्दोलन कर सकती थी। कावेरी जल विवाद के मामले में भी कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री डी. एस. एम कृष्ण ने न्यायालय के आदेशों को विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया गया।
‘यमुना मैली से निर्मल यमुना कायाकल्प योजना’ मामले में बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था सुझाये झुग्गी-झोपड़ी गिराने का आदेश दिया जाना एवं अन्य मामले में न्यायालय द्वारा एक वकील के कार्यालय को ही प्रदूषित घोषित कर दिया जाना, न्यायालय की अति सक्रियता को दिखाता है। दिल्ली में अतिक्रमण मामले में भी तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री सब्बरवाल की भूमिका की काफी आलोचना हुई थी।
अतः स्पष्ट है कि न्यायाल द्वारा पूर्व में भी कई ऐसे निर्णय दिये गये, जिसमें न्यायपालिका तथा विधायिका एवं कार्यपालिका आमने-सामने आ जाती हैं, जो अति न्यायिक सक्रियता के परिचायक हैं।
अतः उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि न्यायिक सक्रियता एक नवीन धारणा (भारत के सन्दर्भ में) है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि न्यायपालिका द्वारा शासन संचालन से सम्बंधित दिए गए निर्देश लोकतन्त्र के विरुद्ध है अथवा लोकतंत्र पर आघात है। भारतीय संविधान द्वारा कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका तीनों के कार्यों एवं क्षेत्राधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है, परन्तु जब कार्यपालिका एवं विधायिका द्वारा अपने उत्तरदायित्वों का वहन ठीक प्रकार से नहीं किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में अन्याय एवं अशांति को प्रोत्साहन मिलने लगता है, न्यायिक सक्रियता से सुधार सम्भव हो सकता है। ऐसे में न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र के प्रति जन साधारण के विश्वास को बल प्रदान करती है।
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