लोक संगीत एवं लोक गीत से आप क्या समझते हैं?
लोक संगीत एवं लोक गीत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर— लोक संगीत एवं लोक गीत-संस्कृति का एक बड़ा अंग लोक संगीत है। जैसलमेर की रमणीय रातों की मूमल, मारवाड़ की मनभावनी मांड, अरावली पर्वत मालाओं में गूँजती हुई ढोला मारू की रंग भीनी रागें, उ की मदमस्त पणिहारी, घूमघुमाती घूमर, लूंब लूवाला सभी को राजस्थान के लोकगीतों में संजो कर रखा गया है। राजस्थान में लोक संगीत में विशेषत: राग-सौरठ, देश, मांड आदि का प्रयोग ही अधिक हुआ है।
लोक संगीत जन मानस के स्वाभाविक उद्गारों का प्रस्फुटन है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने लोकगीतों को संस्कृति का सुखद संदेश ले जाने वाली कला कहा है। महात्मा गाँधी के शब्दों में “लोकगीत ही जनता की भाषा है—लोकगीत हमारी संस्कृति के पहरेदार हैं।”
राजस्थान के निवासियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा, खानपान, देवी-देवता, पर्व-उत्सव आदि गीतों में अभिव्यंजित होकर यहीं की संस्कृति को साकार करते हैं। स्वर, ताल और लय में बद्ध लोक संगीत की धुनें मिलने और विरह, हास्य और क्रंदन, रोष और भय, घृणा और विवशता, भक्ति और वैराग्य, वीरता और भीरुता आदि सूक्ष्म मनोभावों के विशिष्ट सौन्दर्य के कारण किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विमोहित किये बिना नहीं रहती।
किसी भी प्रदेश का लोक संगीत वहाँ की संस्कृति का अविभाज्य अंग होता है। सामाजिक जीवन का कोई भी अनुष्ठान या लोकोत्सव लोक संगीत के बिना अधूरा रहता है। लोक संगीत के माध्यम से सांस्कृतिक परम्पराएँ लम्बे समय तक जीवित रहती हैं।
लोकगीतों में व्यापक अर्थ लिए सरल शब्दावली, लयात्मकता एवं छोटी मधुर धुनें मनुष्य को झूमने पर मजबूर कर देती हैं तथा स्वतः ही अन्तर्मन से जुड़ जाती हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत सहज रूप में लोक जीवन में देखने को मिलते हैं। व्यक्ति और समाज के सुख तथा दुःख का प्रतिबिम्ब लोक संगीत में परिलक्षित होता है। भाव पक्ष की प्रधानता के कारण लोकसंगीत कभी पुराना नहीं पड़ता, वह सदाबहार बना रहता है।
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