शिक्षा के संवैधानिक प्रावधानों की अवधारणा व उद्देश्य क्या हैं ?

शिक्षा के संवैधानिक प्रावधानों की अवधारणा व उद्देश्य क्या हैं ? 

उत्तर— शिक्षा के उद्देश्य से सम्बन्धित संवैधानिक दृष्टिकोण– शिक्षा के कुछ ऐसे सामान्य उद्देश्य हैं जिन्हें सामान्य रूप से देश के संवैधानिक दृष्टिकोण और समाज स्वीकृति देते हैं। शिक्षा के ये सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं–
(1) ज्ञान का उद्देश्य– ‘विद्या के लिए विद्या’ ज्ञान का यह उद्देश्य अति प्राचीन काल से है। इसका समर्थन सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, दांते, कामेनियस, बेकन आदि दार्शनिकों ने किया है।
कामेनियस के अनुसार, “वह शिक्षा व्यर्थ है जिसके द्वारा बालक ज्ञान का संचय नहीं करता।’
एक अन्य विद्वान ने लिखा है, “विद्या वह ज्ञान है जिसे केवल विद्वान ही जानते हैं । “
ज्ञान के उद्देश्य के पक्ष में तर्क—
हरबर्ट के अनुसार, “चरित्र एवं व्यक्तित्व विचारों द्वारा ही विकसित होते हैं।”
सुकरात के मतानुसार, “वह व्यक्ति जिसे सच्चा ज्ञान है सद्गुणी के अतिरिक्त दूसरा नहीं बन सकता।”
ज्ञान के उद्देश्य के विपक्ष में तर्क—
एडम्स के अनुसार, “ज्ञान पर अधिक जोर देने से विद्यालय ज्ञान की दुकान तथा शिक्षक सूचना विक्रेता बन जाता है । “
रूसो के कथनानुसार, “सब प्रकार के ज्ञान में से कुछ झूठा, कुछ व्यर्थ है और कुछ अभिमान उत्पन्न करता है। इनमें से केवल वही थोड़ासा ज्ञान बुद्धिमान मनुष्य के अध्ययन के योग्य है, जो हमारे कल्याण के लिए उपयोगी है। “
जॉन डीवी के अनुसार, “केवल वह ज्ञान जो हमारे संस्कारों में संगठित हो गया जिससे कि हम वातावरण को अपनी इच्छाओं के अनुकूल बनने में समर्थ हो सकें एवं अपने आदर्शों एवं इच्छाओं को उस स्थिति के अनुकूल बना लें जिसमें कि हम रहते हैं, वही वास्तविक ज्ञान है । “
(2) शारीरिक विकास का उद्देश्य– विद्वानों ने “शारीरिक विकास के उद्देश्य” को शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना है । बालक का शरीर स्वस्थ, सुन्दर एवं बलवान बने” शिक्षा का यह उद्देश्य सभी देशों एवं युगों में माना गया है ।
कालिदास– (1) धर्म की साधना के लिए शरीर ही सब कुछ है। “
(2) “शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम् ।”
अरस्तू के कथनानुसार, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है । “
प्राचीन यूनान एवं स्पार्टा राज्य में “शारीरिक विकास” शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। आज भी प्रत्येक देश में वीरों की कहानियाँ बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। रूसो ने भी शारीरिक शिक्षा पर बहुत जोर दिया। रेबेले के अनुसार, “स्वास्थ्य के बिना जीवन, जीवन नहीं है । “
जिस राष्ट्र के नागरिक स्वस्थ होते हैं, वह समाज एवं राष्ट्र भी बलशाली होता है। शरीर से हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति ही दूसरों की सेवा कर सकता है। अस्वस्थ व्यक्ति को तो स्वयं सेवक की आवश्यकता पड़ती है।
(3) चारित्रिक विकास का उद्देश्य– चरित्र का नुकसान होने से सब कुछ का नुकसान हो जाता है। मानव जीवन में चरित्र का महत्त्व सर्वोपरि है। अतः कुछ शिक्षा शास्त्री शिक्षा का उद्देश्य ” चरित्र का विकास एवं निर्माण” ही चाहते हैं। इनके विचारों के अनुसार- मनुष्यों के सभी कष्टों और कठिनाइयों का कारण ” चरित्रहीनता” है ।
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, “भारत सहित सारे संसार के कष्टों के कारण यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रह कर, केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है। “
गाँधी के मतानुसार, ” चरित्र निर्माण ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। मैं उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साहस, शक्ति, सद्गुण तथा अपने आपको भूल जाने की योग्यता का विकास करूँगा।”
हरबर्ट के अनुसार, “नैतिकता को मानव जाति और शिक्षा का सामान्य रूप से सबसे श्रेष्ठ उद्देश्य माना गया है।”
अतः शिक्षा का उद्देश्य– बालक का सुन्दर तथा दृढ़ चरित्र निर्माण होना चाहिए ताकि वह देश तथा समाज का भली-भाँति कल्याण कर सकें । चरित्रहीनता के कारण ही आज मानव को कष्ट तथा अभाव झेल पड़ रहे हैं।
(4) सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य– ई. बी. टायलर के अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, प्रथा तथा अन्य योग्यताएँ और आदतें सम्मिलित होती हैं जिनको मनुष्य समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त करता है ।”
सदरलैण्ड और वुडवर्थ के मतानुसार, “संस्कृति में वह प्रत्येक वस्तु सम्मिलित है जो एक पीढ़ी में संक्रमित हो सकती हैं। किसी जन समुदाय की संस्कृति उनका ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिक, कानून तथा विचारने की पद्धति है । “
गाँधीजी के अनुसार, “संस्कृति ही मानव जीवन की आधारशिला और मुख्य वस्तु है । वह आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी से छोटी बातों में व्यक्त होनी चाहिए।”
अतः स्पष्ट है कि संस्कृति की परिभाषा अति व्यापक है। संस्कृति मानव के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों से संबंधित है । संक्षिप्त में एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को ‘सामाजिक विरासत’ का हस्तान्तरण ही संस्कृति
(5) आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य– आदर्शवादी विचारक “आध्यात्मिक विकास” के पक्षधर हैं। उनके मतानुसार शिक्षा का उद्देश्यआध्यात्मिक विकास होना चाहिए ताकि वे भौतिकता के झंझटों में न फँसकर असीम आनन्द को प्राप्त करने का प्रयत्न करें ।
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य न तो राष्ट्रीय कुशलता है और न अन्तर्राष्ट्रीय एकता है, वरन् व्यक्ति को यह अनुभव कराना है कि उसके भीतर बुद्धि से भी अधिक गहराई में कोई तत्त्व है जिसे यदि आप चाहें तो आत्मा कह सकते हैं। “
महात्मा ईसा के मतानुसार, “सर्वप्रथम स्वर्ग के साम्राज्य की खोज करो फिर सबकुछ स्वतः प्राप्त हो जाएगा।”
शिक्षा का व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित उद्देश्य– शिक्षा के उद्देश्य व्यक्ति के जीवनदर्शन पर ही निर्धारित होते हैं अत: इसका व्यक्ति के जीवन से सम्बन्ध निम्नांकित रूप में प्रकट करते हैं-
(1) जीवन मूल्यों पर नियन्त्रण– समाज में उसी व्यक्ति का सम्मान होता है जो अपने जीवन में सामाजिक मूल्यों को महत्त्व देता है। शिक्षा के श्रेष्ठ उद्देश्य व्यक्ति को जीवन मूल्यों पर नियन्त्रण प्राप्त करने में सहायता प्रदान करते हैं।
(2) मानव आत्मा का पोषण– व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए उसकी आत्मा का विकास होना आवश्यक है। हरबर्ट और फ्राबेल ने इस बात को स्वीकार किया है कि जब व्यक्ति की आत्मा का पूर्ण विकास नहीं होता है तब आत्मां कुंठित हो जाती है। इसलिए शिक्षा ही इस मानव आत्मा को कुंठित होने से बचाती है ।
(3) सन्तुलित व्यक्तित्व का विकास– शिक्षा के उद्देश्यों का व्यक्तित्व से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा के उद्देश्य वांछित तथा उचित होंगे तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास भी सन्तुलित होगा अन्यथा उसके व्यक्तित्व के विकृत होने भय बना रहेगा।
(4) मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास– शिक्षा के उद्देश्य । व्यक्ति की आवश्यकताओं, क्षमताओं तथा योग्यता के अनुसार होने पर व्यक्ति का उचित विकास होने पर उसका मानसिक व आध्यात्मिक विकास सम्भव होता है।
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