भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को स्पष्ट कीजिए तथा इसकी परस्पर अन्तर्निर्भरता की विवेचना कीजिए।

भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को स्पष्ट कीजिए तथा इसकी परस्पर अन्तर्निर्भरता की विवेचना कीजिए। 

उत्तर— अधिकार मानव के अस्तित्व के लिए तथा सामाजिक जीवन के लिए परमावश्यक है। अधिकारों के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। अधिकार सम्बन्धी किसी भी विचारधारा में तीन बातें पायी जाती हैं— (1) अधिकार और कर्त्तव्य आपस में नजदीक से जुड़े हुए हैं । (2) हर अधिकार को समाज द्वारा मान्यता दिये जाने की आवश्यकता होती है अर्थात् अधिकार शून्य में नहीं होते। (3) अधिकार स्वार्थपूर्ण दावा न होकर निःस्वार्थ अभिलाषा है। इसे सार्वजनिक रूप से लागू किया जा सकता है। अधिकार वस्तुतः युक्तिपूर्वक बात है, कल्पना और कामना की नहीं ।

संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार—
(1) समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है। इस अधिकार के अन्तर्गत ये पाँच अधिकार दिये गए हैं—
(i) कानून के समक्ष समानता– भारत के समस्त नागरिक नून की दृष्टि से समान हैं और किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
(ii) भेदभाव की समाप्ति– धर्म, लिंग, जाति, सम्प्रदाय, भाषा व जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जायेगा। समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सार्वजनिक स्थानों पर जाने व सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग करने का अधिकार हैं।
(iii) अवसरों की समानता– समस्त नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सरकारी नौकरी, पदोन्नति व सार्वजनिक पद प्राप्त करने का समान अवसर प्रदान किया जायेगा।
(iv) छुआछूत की समाप्ति– छुआछूत का अन्त कर दिया गया है। अस्पृश्यता व्यवहत करने वालों को दण्डित करने का प्रावधान है।
(v) उपाधियों का अन्त–सैनिक व शैक्षणिक उपाधियों के अलावा सरकार किसी प्रकार की ऐसी उपाधियाँ प्रदान नहीं करेगी जिससे नागरिकों में भेद-भाव उत्पन्न होता हो। बिना राष्ट्रपति की स्वीकृति के कोई भारतीय नागरिक विदेशी उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।
(2) स्वतन्त्रता का अधिकार– भारतीय संविधान का उद्देश्य विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वाधीनता सुनिश्चित करना है। अतः संविधान के द्वारा नागरिकों को विविध स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गयी हैं—
(i) विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता– भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतन्त्रता प्राप्त है । किन्तु राज्य को यह अधिकार है कि वह राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध और सार्वजनिक सुरक्षा के हित में इस अधिकार पर नियन्त्रण लगा सकता है ।
(ii) शान्तिमय एवं अस्त्र-शस्त्र रहित एकत्रित होने की स्वतन्त्रता– भारत के नागरिकों को यह अधिकार है कि वे शान्तिपूर्वक एवं बिना अस्त्र-शस्त्र लिये इकट्ठे हो सकते हैं, सभा कर सकते हैं या जुलूस निकाल सकते हैं। किन्तु सार्वजनिक सुरक्षा के हित में राज्य इस अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा सकता है ।
(iii) समुदाय और संघ के निर्माण की स्वतन्त्रता– संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को समुदायों और संघ के निर्माण की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है, परन्तु वह स्वतन्त्रता भी उन प्रतिबन्धों के अधीन है जिन्हें राज्य साधारण जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए लगा सकता है। इस स्वतन्त्रता की आड़ में व्यक्ति ऐसे समुदायों का निर्माण नहीं कर सकता जो षडयन्त्र करें अथवा शान्ति और व्यवस्था को भंग करें ।
(iv) भारतीय राज्य क्षेत्र में अबाध भ्रमण की स्वतन्त्रता–भारत के सभी नागरिक बिना किसी प्रतिबन्ध या विशेष अधिकार-पत्र के सम्पूर्ण भारत के क्षेत्र में घूम सकते हैं। इस अधिकार पर राज्य सामान्य जनता के हित और अनुसूचित जातियों के हित में उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है ।
(v) भारत राज्य क्षेत्र में अबाध निवास की स्वतन्त्रता– भारत के सभी नागरिक अपनी इच्छानुसार स्थायी या अस्थायी रूप से भारत में किसी भी स्थान पर बस सकते हैं। भ्रमण और निवास के सम्बन्ध में संविधान द्वारा की गयी यह व्यवस्था इकहरी नागरिकता के नितान्त अनुरूप है, किन्तु राज्य के द्वारा सामान्य जनता के हित और अनुसूचित जातियों के हित में इस पर उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
(vi) वृत्ति, उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता–संविधान ने सभी नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा व्यवसाय की स्वतन्त्रता प्रदान की है, किन्तु राज्य जनता के हित में इन स्वतन्त्रताओं पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है। राज्य किन्हीं व्यवसायों को करने के लिए आवश्यक योग्यताएँ निर्धारित कर सकता है अथवा किसी कारोबार या उद्योग को पूर्ण अथवा आंशिक रूप से स्वयं अपने हाथ में ले सकता है।
(vii) जीवन-रक्षा तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता– संविधान की धारा 20, 21 एवं 22 में जीवन की रक्षा एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार भी दिया गया है। इस सम्बन्ध में राज्य की ओर से तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा जब तक ऐसा करना विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न हो । संविधान में कहा गया है कि किसी भी नागरिक को बिना अपराध दण्ड नहीं दिया जायेगा। प्रत्येक अपराधी को उतना ही दण्ड दिया जायेगा जितना कि अपराध करने के समय निर्धारित था । कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दण्डित नहीं किया जावेगा। किसी व्यक्ति को अपने ही विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जावेगा।
संविधान में यह भी कहा गया है कि किसी भी नागरिक को कानून द्वारा सीमित प्रि तिरिक्त अन्य किसी प्रकार से जीवन तथा व्यक्तिगत स्वाधीनता से वंचित नहीं किया जा सकेगा। व्यक्तिगत स्वाधीनता का तात्पर्य नजरबन्दी एवं कैद से सुरक्षा आदि से है । संविधान से के अनुसार किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के 24 घण्टे के भीतर उसे दण्डाधिकारी के सम्मुख प्रस्तुत किया जायेगा और उसकी अनुमति से ही बाद में उसे कैद में रखा जायेगा। किन्तु यह अधिकार भारत में निवास करने वाले विदेशी, शत्रु तथा समय-समय पर पारित निवारण निरोध अधिनियमों के अन्तर्गत पकड़े गये व्यक्तियों के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा। के
(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार– संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण नहीं करे। (i) अनुच्छेद 23 के द्वारा बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया हुआ श्रम निषिद्ध ठहराया गया है जिसका उल्लंघन विधि के अनुसार दण्डनीय अपराध है। भारत में सदियों से किसी न किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी जिसके अनुसार हरिजनों, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के अनाचार किये जाते थे। नवीन संविधान के अन्तर्गत मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय उद्देश्य से अनिवार्य नियम की योजना लागू कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय राज्य नागरिकों के बीच धर्म, मूल, वंश, जाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
(ii) बाल श्रम का निषेध– अनुच्छेद 24 में कहा गया है कि 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन बच्चों को अन्य प्रकार के कार्यों में लगाया जा सकता है।
(4) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार– संविधान के अनुच्छेद्र 25 से 28 तक इस अधिकार का उल्लेख है। व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता, व्यक्ति व अन्तःकरण की स्वतन्त्रता, किसी धर्म को स्वीकार करने, उसका पालन करने व प्रचार करने की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। । धार्मिक संस्थाओं को निजी मामलों का प्रबन्ध करने, चल व अचल सम्पत्ति रखने व उसके संचालन का अधिकार दिया है। धर्म के लिए गए दान, चन्दे आदि पर कोई कर नहीं लगाया जाता है। धर्म व सम्प्रदायों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ चलाने का अधिकार दिया गया है किन्तु वे किसी भी नागरिक को धार्मिक शिक्षा लेने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। इस प्रकार संविधान धर्म-निरपेक्षता की स्थापना करता है। किन्तु इस अधिकार पर सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और व्यवस्था के आधार पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं ।
(5) सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार– भारतीय संविधान में सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकारों को रखने का उद्देश्य अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करना है। भारत एक बहु- धर्म और बहु-भाषी राष्ट्र है, अतएव भारतीय गणतंत्र में अल्पसंख्यकों की विशेष स्थिति के सन्दर्भ में, उनके हितों की रक्षा के लिए संविधान द्वारा सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार दिये हैं। इन अधिकारों की एक यह विशेषता हैं कि इनके अन्तर्गत अल्पसंख्यक शब्द का विस्तृत अर्थ माना गया है। इस सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द से तात्पर्य केवल धर्म सम्बन्धी अल्पसंख्यकों से ही नहीं हैं, किन्तु भाषा, लिपि और संस्कृति सम्बन्धी अल्पसंख्यकों से भी है। भारत में एक दर्जन से अधिक विकसित भाषाऐं हैं अत: इस अधिकार का विशेष महत्त्व है ।
अनुच्छेद 29 (1) के अनुसार भारत या भारत के किसी भी भूभाग में रहने वाले नागरिकों के किसी भी ऐसे जन-समूह को जिसकी अपनी पृथक भाषा, लिपि या संस्कृति है, यह अधिकार है कि वह अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाये रखें। अनुच्छेद 29 (2) के अनुसार यदि कोई शैक्षणिक संस्था राज्य द्वारा या राज्य की सहायता से संचालित की जा रही है तो उसमें प्रवेश हेतु वंश, जाति, धर्म और भाषा या इनमें से किसी एक के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा सकता है।
अल्पसंख्यकों के हित में अनुच्छेद 30 (1) द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि समस्त अल्पसंख्यकों को चाहे वे धर्म या भाषासम्बन्धी क्यों न हों अपने इच्छा की शैक्षणिक संस्थाओं का संचालन करने का अधिकार है। अनुच्छेद 30 (2) को अनुदान देते समय राज्य इस के अनुसार शैक्षणिक संस्थाओं भेदभाव नहीं करेगा कि किसी शैक्षणिक संस्था का संचालन किसी धर्म या भाषा सम्बन्धी अल्पसंख्यकों की इकाई के हाथों में है।
नागरिकों के शैक्षणिक और सांस्कृतिक मूल अधिकारों की एक अन्य विशेषता यह है कि राज्य तथा नागरिक के सम्बन्धों के सन्दर्भ में यह अधिकार असीमित है, अर्थात् इन अधिकारों को राज्य को बिना किसी सीमा के बाध्यकारी रूप से मानना होगा।
(6) सार्वजनिक उपचारों का अधिकार– संविधान ने नागरिकों को मौलिक अधिकार तो प्रदान कर दिए किन्तु यदि अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था न की जाये तो ये व्यर्थ हैं। अतः संविधान के अनुच्छेद 32 में उन संवैधानिक उपचारों का वर्णन किया गया है जिनकी सहायता से नागरिक अपने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शरण ले सकते हैं। न्यायालय उन सभी कानूनों और कार्यपालिका के कार्यों को अवैध घोषित कर सकते हैं जिनसे नागरिकों के अधिकारों का हनन होता हैं । प्रमुख उपचार निम्न प्रकार हैं—
(i) बन्दी प्रत्यक्षीकरण– इसका तात्पर्य है बन्दी को ( न्यायालय के समक्ष) प्रस्तुत करो । यदि कोई व्यक्ति इस तात्पर्य की प्रार्थना करे कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है तो न्यायालय उस अधिकारी को जिसने उस व्यक्ति को बन्दी बनाया है, यह आदेश दे सकता है कि बन्दी को न्यायालय में तुरन्त उपस्थित किया जाय ताकि यह निर्णय किया जा सके कि उसका बन्दीकरण उचित है या नहीं ।
(ii) परमादेश– इसका अर्थ है न्यायालय आज्ञा देता है । जब कोई सार्वजनिक अधिकारी अपने कर्त्तव्यों का पालन न करें तो न्यायालय उसे यह आदेश दे सकते हैं कि वह अपने कानूनी कर्त्तव्यों का भली-भाँति पालन करें ।
(iii) प्रतिषेध– सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय अपने से निम्न न्यायालयों या न्यायिक अभिकरणों को प्रतिषेध की आज्ञा दे सकते हैं कि वे किसी मामले में अपनी कार्यवाही स्थगित कर दें क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर का है ।
(iv) उत्प्रेषण– इस आज्ञा पत्र द्वारा कोई भी उच्च न्यायालय अपने से निम्न न्यायालयों को यह आदेश दे सकती है कि किसी मामले से सम्बन्धित कागजात उसे भेज दें ताकि वह मुकदमा उच्च न्यायालय में चलाया जा सके ।
(v) अधिकार पृच्छा– यदि कोई व्यक्ति अवैध रूप से या शक्ति के बल पर किसी सार्वजनिक पद पर कब्जा कर लेता है तो न्यायालय उस पदाधिकारी से पूछता है कि वह किसकी आज्ञा से उस पद पर कार्य कर रहा है। यदि उसकी नियुक्ति उचित नहीं होती तो उसे कार्य करने से रोका जा सकता है । इस लेख का उद्देश्य है किसी सार्वजनिक पद को अवैध नियुक्तियों के नियन्त्रण से मुक्त रखना ।
भारतीय संविधान में वर्णित मूल कर्त्तव्य– 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा नागरिकों के 10 मूल कर्त्तव्यों को संविधान के भाग-4 ‘क’ में जोड़ा गया तथा 86वें संविधान संशोधन (2002 ) द्वारा 11वाँ मूल कर्त्तव्य जोड़ा गया है।
इसमें यह कहा गया है कि भारत के प्रत् नागरिक का कर्त्तव्य होगा कि वह—
(1) संविधान का पालन करे तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान का आदर करे।
(2) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखे व उनका पालन करे।
(3) भारत की प्रभुता, एकता व अखण्डता को अक्षुण्ण रखे।
(4) देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे।
(5) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो ।
(6) हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और उसका परिरक्षण करे।
(7) प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी व वन्य जीव हैं, की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे।
(8) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे ।
(9) सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।
(10) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रगति व उत्कर्ष की नई ऊँचाइयों को छू ले।
(11) माता-पिता या संरक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वे 6 से 14 वर्ष के अपने बच्चों को शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करें।
अधिकारों तथा कर्त्तव्यों पर पारस्परिक सम्बन्ध– स्पष्ट है कि मूलत: अधिकार समाज की देन है। प्रकृति, ईश्वर अथवा अन्य किसी सत्ता ने अधिकारों की स्थापना नहीं की है। समाज सब व्यक्तियों के मेल से बनता है । वह व्यक्तियों से भिन्न कोई चीज नहीं है । इसलिए जब व्यक्ति अधिकारों की माँग करता है तो आशा की जाती है कि वह उन अधिकारों के बदले में समाज को कुछ देगा। दूसरे शब्दों में कर्त्तव्यों के बिना अधिकार टिक ही नहीं सकते ? यदि प्रत्येक व्यक्ति समाज से अपने लिये अनेक प्रकार की सुविधाएँ चाहे और उसके बदले में कुछ देने के लिए तैयार न हो तो समाज व्यक्तियों को वे सुविधाएँ कैसे दे सकेगा ? समाज के पास सुविधाओं और साधनों का कोई अक्षय भण्डार तो है नहीं कि हर व्यक्ति उसमें से जितना चाहे ले ले । जब क्त समाज के लिए कार्य करते हैं तभी समाज इस योग्य हो सकता है कि वह उन्हें कुछ दे सके । इसलिए कुछ विचारकों ने तो कर्त्तव्यों को ही अधिक प्रधानता दी है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए, अधिकार तो स्वतः ही मिल जायेंगे। गाँधीजी के अनुसार कर्तव्य पहले तथा अधिकार बाद में आते हैं, अर्थात् अधिकार कर्त्तव्यों से ही उत्पन्न होते हैं। वर्तमान काल में माना जाता है कि व्यक्ति को समाज और राज्य की ओर से शिक्षा पाने का अधिकार मिलना चाहिए। किन्तु सभी नागरिकों को शिक्षा देने के लिए अपार धन की आवश्यकता होगी। यदि नागरिक परिश्रम करके धन अर्जित नहीं करते और कर आदि चुकाकर समाज का भण्डार नहीं भरते तो समाज सबको शिक्षा कैसे दे सकता है ? अथवा सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा की व्यवस्था कैसे कर सकता है ? अतः स्पष्ट है कि किसी समाज के नागरिक अपनी सेवाओं और परिश्रम के द्वारा उसको जितना ही अधिक समृद्ध बनायेंगे उतनी ही अधिक सुविधाओं की आशा वे उससे कर सकेंगे।
जब हम अधिकारों की बात कहते हैं तो उसमें समानता का भाव छिपा रहता है, जिसका अर्थ यह है कि समाज और राज्य की ओर से सब नागरिकों को समान सुविधाएँ दी जायें। वर्तमान लोकतांत्रिक युग में कोई व्यक्ति अथवा वर्ग अपने लिये विशेष अधिकारों की माँग नहीं कर सकता। इससे भी यह आशय निकलता है कि हमें कर्त्तव्य के रूप में अपने अधिकारों का मूल्य चुकाना पड़ेगा। जब हम समाज से किसी विशेष अधिकार की माँग करते हैं तो उस माँग में यह शर्त निहित रहती है कि हम वह अधिकार अपने लिए नहीं माँगते बल्कि सबके लिए माँगते हैं तथा हम दूसरों के मार्ग में कोई बाधा नहीं डालेंगे, बल्कि उनके अधिकारों का सम्मान करेंगे और उन्हें अबाध रूप से उनका उपभोग करने देंगे। प्रसिद्ध विद्वान सिजविक ने लिखा है कि थोड़ा-सा मनन करने पर स्पष्ट हो जायेगा कि जब हम किसी व्यक्ति के अधिकारों की कल्पना करते हैं तो उसमें यह निहित रहता है कि दूसरों को कुछ कर्त्तव्यों का अवश्य पालन करना पड़ेगा जिससे कि वह व्यक्ति अपने उन अधिकारों को प्रयोग कर सके।
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