क्या आप इस वक्तव्य से सहमत हैं कि हमारे संविधान ने एक हाथ से मौलिक अधिकार दिये हैं, किन्तु दूसरे हाथ से उन्हें वापस ले लिया है?
क्या आप इस वक्तव्य से सहमत हैं कि हमारे संविधान ने एक हाथ से मौलिक अधिकार दिये हैं, किन्तु दूसरे हाथ से उन्हें वापस ले लिया है?
अथवा
मौलिक अधिकारों का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए इस पर देश की विभिन्न अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों का उल्लेख करो
उत्तर – संविधान ने एक हाथ से मौलिक अधिकार दिये हैं तो दूसरे हाथ से उसे वापस ले लिया है. इस कथन की विवेचना हेतु आवश्यक है कि पहले यह देखें कि भारतीय संविधान ने हमें कौन-कौन मौलिक अधिकार प्रदान किये हैं
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22 )
3. शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24 )
4 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28 )
5. सांस्कृतिक व शैक्षणिक का अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30 )
6. संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31 द्वारा मूल संविधान में दिया गया था जिसे 44वां संशोधन द्वारा संसद द्वारा निरस्त कर दिया गया ) |
7. संवैधानिक उपचार के अधिकार (अनुच्छेद 32 )
उपरोक्त छह मौलिक अधिकारों को अब बारी-बारी से देखते हैं कि वास्तव में संविधान ने हमें क्या अधिकार दिया है? समानता का अधिकार का महत्वपूर्ण अनुच्छेद-14 है जो घोषित करता है कि राज्य भारतीय भू-भाग में, किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष ‘समानता अथवा कानून के समान संरक्षण’ की मनाही नहीं करेगा। साथ ही अनुच्छेद 361, राष्ट्रपति और राज्यपाल को देश के सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से उन्मुक्त करता है।
अनुच्छेद 15 शैक्षणिक संस्थानों तथा सार्वजनिक स्थानों पर विभेद करने से राज्य को रोकता है। किन्तु अनुच्छेद 15 के ही उपबंध-(3) व (4) में महिलाओं, बच्चों और अनु. जाति-जनजाति के पक्ष में आरक्षण व अन्य विशेष सुविधा देने के लिए सक्षम बनाता है। यही हाल मोटे तौर पर, अनुच्छेद 16 का भी है जो सरकारी नौकरी में विभेद से बचने का अधिकार देता है।
अनुच्छेद 17 बिना किसी अपवाद के हुए छूत को खत्म करने की घोषणा करता है। जबकि अनुच्छेद 18 नागरिकों के बीच समानता करने हेतु उपाधियों का अंत करता है। परंतु, शैक्षणिक और सैन्य उपाधि धारण करने से भी नहीं रोकता है। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि समानता का जो मौलिक अधिकार दिया गया है वह पूर्ण नहीं है, वह सशर्त दिया गया है जो भारत जैसे विशाल देश की विविधता और विषमता को देखते हुए उचित भी है।
इसी तरह अनुच्छेद 19(1) में छह स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित है लेकिन अनुच्छेद 19 (2)- (6) में उपरोक्त स्वतंत्रता पर ‘उचित प्रतिबंध’ की व्यवस्था की गई है जो लोक-व्यवस्था, संप्रभुता व अखंडता आदि की रक्षा हेतु विधायिका द्वारा आरोपित किया जा सकता है। इस संबंध में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि एक सभ्य समाज में पूर्ण व निरपेक्ष स्वतंत्रता में संभव नहीं है। अतः ‘प्रतिबंध’ उचित ही प्राकल्पित है।
अनुच्छेद 20 आपराधिक मामलों में राज्य के निरंकुश सत्ता से अभियुक्त को सुरक्षा प्रदान करता है और यह सुरक्षा पूर्ण है। किन्तु, न्यायिक विवेचन द्वारा व्यवहार में इसके अनेक अपवाद उभर गये हैं।
अनुच्छेद 21 भी निरपेक्ष शब्दों में जीवन और व्यक्तिगत सुरक्षा की गारंटी देता है।
हां, अनुच्छेद 22 में दिये निवारक निरोध नियम उपरोक्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश अवश्य लगाता है। लेकिन, साथ में, इसके दुरूपयोग से बचाव की व्यवस्था भी करता है। राष्ट्रीय हित में इस उपबंध को भी जायज ही माना जाएगा।
अनुच्छेद 23 व 24 भी शोषण के विरूद्ध अधिकार देता है लेकिन यह भी निरपेक्ष नहीं है बल्कि सशर्त दिया गया है। राज्य जन उद्देश्य हेतू अनिवार्य सेवा ले सकता है। इन अपवादों को भी राष्ट्रीय हित में आवश्यक माना जाना चाहिए। इसी तरह, धार्मिक व सांस्कृतिक स्वतंत्रता का अधिकार भी सशर्त दिया गया है।
अनुच्छेद 32 में बिना किसी शर्त के संवैधानिक उपचार का अधिकार दिया गया है जिसे अंबेडकर जी ने ‘संविधान की आत्मा’ बताया था। लेकिन, व्यवहार में इसका भी अनुक्षरण हो गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट वादी को पहले अनुच्छेद 226 के तहत् हाई कोर्ट जाने के लिए कहता है और फिर अनुच्छेद 136 के तहत् अपने पास अपील में आने के लिए कहता है। इस तरह, यह कहना उचित नहीं होगा कि संविधान ने एक हाथ से हमें मौलिक अधिकार दिये हैं तो दूसरे हाथ से वापस ले लिया है। हां, यह अवश्य है कि दूसरे हाथ से उसने अधिकारों के उपयोग पर कुछ सीमाएं व अंकुश लगाया है जो राष्ट्रहित, लोक व्यवस्था आदि के मद्देनजर सभ्य समाज के लिए आवश्यक ही है ।
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