‘पर्यावरण संरक्षण’ तथा ‘धारणीय विकास’ में क्या संबंध है ? भारत में आर्थिक संवृद्धि तथा पर्यावरण अध:पतन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

‘पर्यावरण संरक्षण’ तथा ‘धारणीय विकास’ में क्या संबंध है ? भारत में आर्थिक संवृद्धि तथा पर्यावरण अध:पतन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

अथवा

‘पर्यावरण संरक्षण’ एवं ‘धारणीय विकास’ के मध्य संबंधों की चर्चा करें। भारत की आर्थिक संवृद्धि पर पर्यावरण को लिखें।
उत्तर – वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में भौतिकता की खोज में मानव इतना अंधा हो चुका है कि प्राकृतिक संसाधनों पर खतरा मंडराने लगा है। ये प्राकृतिक संसाधन अक्षुण्ण नहीं हैं। अतः इनके दोहन से गंभीर प्राकृतिक आपदाओं का आगमन एवं भावी पीढ़ी हेतु संसाधनों का संकट उत्पन्न हो गया है। ऐसे में वैश्विक समुदाय का ध्यान पर्यावरण संरक्षण एवं धारणीय विकास की ओर गया।
दूसरे शब्दों में, यदि कहा जाए तो पर्यावरण संरक्षण साधन है, तो ‘धारणीय विकास’ साध्य । इस प्राकृतिक संपदा को संरक्षित करके ही टिकाऊ विकास को प्राप्त किया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण का आशय पृथ्वी के चारों तरफ उन परिवेशों से है जिसमें वनस्पतियों, अन्य प्राणी और मानव जाति सहित सभी सजीवों और उनके साथ संबंधित भौतिक परिसर से है। इस आवरण पर अन्तः व वाह्य गतिविधियों के कारण संकट मंडराने लगा है। संकट की गंभीरता को समझते हुए वैश्विक समुदाय ने अपने सम्मेलनों में संरक्षित करने का आशय रखा है। चूंकि पर्यावरण का संरक्षण इस लिहाज से कि उसका दोहन होते हुए भी भावी पीढ़ी पर कोई संकट न आए, इसी लिहाज से धारणीय विकास की अवधारणा यहां प्रस्फुटित हुई है।
1987 ई. में WCED (World Commission on Environment and Development) नामक रिपोर्ट में सतत् विकास की अवधारणा की व्याख्या की गई, जिसे UNO ने भी स्वीकार कर लिया। उस व्याख्यानुसार पर्यावरण की सुरक्षा के बिना विकास को निर्वहनीय नहीं बनाया जा सकता है। आर्थिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा के मध्य एक वांछित संतुलन बनाए रखना ही निर्वहनीय व टिकाऊ विकास है। वर्तमान में यह विकास का एक भूमण्डलीय दृष्टिकोण बन गया है। 1992 ई. के ‘रियो घोषणा’ में इसके प्रति पूर्ण समर्थन व्यक्त किया गया। 2002 ई. के ‘जोहान्सबर्ग सम्मेलन’ का मूल मुद्दा ही पर्यावरण संरक्षण आधारित सतत् विकास था।
भारत में, आर्थिक संवृद्धि का आधार भी पर्यावरण संरक्षण आधारित शाश्वत विकास ही है जिन्हें भारत ने वैश्विक सम्मेलनों में घोषित भी किया। भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार आज भी कृषि है। कृषि का महत्व मात्र सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के हिस्से से ही नहीं, अपितु रोजगार एवं श्रम शक्ति के हिस्से से भी है। कृषिगत् उपजों को बढ़ावा देने के लिए HYV बीजों एवं नवीन तकनीक आधारित रासायनिक उर्वरकों का ज्यादातर इस्तेमाल से पश्चिमी भारत का अधिकांश हिस्सा बंजर होता जा रहा है। नये जल परियोजनाओं व नदियों पर बड़े-बड़े बांध निर्माण से कहीं सूखा, तो कहीं बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती रही है। उद्योगों एवं विनिर्माण के क्षेत्रों को विकसित करने में पर्यावरण की अवहेलना की जा रही है। नये आवासीय क्षेत्र एवं व्यापारिक प्रतिष्ठान हेतु जंगल काटे जा रहे हैं। ये सभी मानवीय क्रिया-कलाप भारत में भी बदस्तुर जारी हैं।
चूंकि आर्थिक संवृद्धि एवं विकास को नकारा नहीं जा सकता। हर युग और काल-परिवेश में मानवीय संस्कृति विकासशील रही है, परन्तु पर्यावरण की कीमत पर नहीं। आज की मानवीय संस्कृति भौतिकता के दौर में आंख मूंदे प्रकृति को तहस-नहस करती जा रही है। प्रकृति स्वयं में मानवीय हस्तक्षेप को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकती। आए दिन संपूर्ण भारत में प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है जिनसे आर्थिक क्षति के साथ-साथ जान-माल से भी हाथ धोना पड़ा है।
अत: आज जरूरत हो गई है कि पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए विकास की ओर बढ़ा जाए, ऐसा विकास जो भावी पीढ़ी तक बिना संकट के चलता रहे। इस हेतु वैश्विक समुदाय की भांति भारत भी गंभीर है। ऊर्जा के दोहन को देखते हुए परंपरागत ऊर्जा से हट कर वैकल्पिक ऊर्जा पर जोर दिया जा रहा है। उद्योग – कारखानों के निर्माण एवं अवशिष्ट पदार्थों के निस्तारण हेतु सुनियोजित तंत्र विकसित की गई है। नदी परियोजना के लिए भी बाढ़ एवं उसके आसन्न संकट को ध्यान में रखा जा रहा है। इसी क्रम में पानी बचाओं के साथ-साथ गंगा सफाई की योजना भी पर्यावरण संरक्षण में एक उपयोगी कार्यक्रम है ताकि सतत् विकास की अवधारणा को प्राप्त किया जा सके।
इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण एवं सतत् विकास में अटूट संबंध है जिससे संसाधन का ऐसा उपयोग किया जाना चाहिए जिससे भावी पीढ़ी भी लाभान्वित हो। इससे आर्थिक संवृद्धि की दर को भी बढ़ाया जा सकता है। वैश्विक समुदाय के तुल्य भारत सरकार भी इस मुद्दे पर अब अति गंभीर है।
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