जीन पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के सोपानों की विवेचना कीजिए ।

जीन पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के सोपानों की विवेचना कीजिए ।

प्रश्न 15 जीन पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के सोपानों की विवेचना कीजिए ।

उत्तर– पियाजे का संज्ञान विकास सिद्धान्त –
संज्ञान विकास – सिद्धान्तं स्विटजरलैण्ड के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे (Jean Piaget) ने संज्ञानात्मक विकास की अति विस्तृत व्याख्या की है। उन्होंने सर्वप्रथम 1920 से ही बाल विकास के क्षेत्र में कार्य करना प्रारम्भ किया था। सर्वप्रथम उन्होंने अपने एक पुत्र और दो पुत्रियों के संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। बाद में कई हजारों बच्चों का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार संज्ञान शैशवावस्था से ही आगे की ओर विकसित होता है व बच्चे बड़ों की भाँति चिन्तन नहीं करते हैं। बच्चे भिन्न प्रकार से ही चिन्ता करते हैं और इन विभिन्न्ताओं को तर्क के विकास में देखा जा सकता है।
पियाजे के सिद्धान्त की मान्यताएँ- पियाजे का उपागम आनुवांशिक (Genetic Epistemology) पर आधारित है। उन्होंने संज्ञान या वृद्धि को पाचन क्रिया, श्वास क्रिया, रक्त संचार की भाँति एक जैविक क्रिया माना है। संज्ञान मानव प्राणी को अपने सामाजिक भौतिक वातावरण साथ समायोजित होने के सहायक होता है। अतः संज्ञान उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि जैविक क्रियाएँ ।
संज्ञानात्मक विकास चार प्रमुख अवस्थाओं से होकर गुजरता है। प्रत्येक अवस्था में ज्ञान का नया भण्डार निर्मित होता है, जो पिछली अवस्था में पाये जाने वाले ज्ञान भण्डार से गुणात्मक दृष्टि से भिन्न होता है। पियाजे की इस अवधारणा के कारण ही इस सिद्धान्त को अवस्था सिद्धान्त माना जाता है।
पियाजे ने अपने सिद्धान्त में गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative changes ) में अधिक रुचि दिखाई है। पियाजे ने इस सिद्धान्त के संदर्भ में कुछ सम्प्रत्ययों ( concepts) की कल्पना की है, जो सभी अवस्थाओं में समान रूप से पाये जाते हैं। ये सम्प्रत्यय संगठन (Organization), संरचना (Structure), अनुकूलन (Adaptation), आत्मसातन (Assimilation), समंजन Accomodation) व साम्यधारणा (Equilibration) है ।
पियाजे के सिद्धान्त के मुख्य संप्रत्यय- पियाजे के सिद्धान्त में संज्ञान संक्रिया व संज्ञान संरचना (Cognitive Function and Congnitive Structure) मुख्य संप्रत्यय हैं ।
 संज्ञान संक्रियाएँ से तात्पर्य पियाजे के अनुसार जन्म से ही बालक में पत्यक्षीकरण, स्मृति, तर्क आदि की क्रियाएं पाई जाती हैं और जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। ये क्रियाएं विकास की किसी अवस्था में पहुंचकर न तो बदलती हैं और न ही समाप्त होती हैं।
संज्ञान संरचना से तात्पर्य बालक की सभी क्षमताएँ, योग्यताएँ, विचार, ज्ञान, आदतें, नये पुराने अनुभव परिपक्वता में वृद्धि के कारण अगली अवस्था में परिमार्जित हो जाते हैं। अर्थात् संज्ञान संरचना प्रत्येक अवस्था में आकर गुण और आकार दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तित हो जाती है।
पियाजे के दो अन्य संप्रत्यय संगठन व अनुकूलन है।
संगठन – संगठन से पियाजे का तात्पर्य बुद्धि में सम्मिलित क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण, स्मृति चिन्तन एवं तर्क आदि परस्पर संगठित होकर कार्य करती हैं। पियाजे के अनुसार ये क्रियाएँ पृथक-पृथक कार्य नहीं करतीं। मानसिक स्तर पर यह कार्य अथवा प्रक्रिया सदैव चलती रहती है।
अनुकूलन- वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने की आवश्यक प्रक्रिया है। संगठन व अनुकूलन एक दूसरे की पूरक प्रक्रियाएँ हैं। पियाजे के अनुसार ज्ञान का विकास एक प्रकार का अनुकूल है जिसमें दो प्रकार की उपक्रियाएँ आत्मसातीकरण और समंजन सन्निहित है।
आत्मसातीकरण- आत्मसातीकरण से तात्पर्य अपने वातावरण को इस प्रकार समायोजित करने से है कि वह बच्चे के पूर्व विकसित चिन्तन एवं व्यवहार के अनुकूलन हो जाये । पियाजे ने आत्मसातन की व्याख्या एक जीव-वैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में की है। पियाजे के अनुसार जीव- वैज्ञानिक दृष्टि से आत्मसातन प्राणी को विकसित अथवा विकासशील संरचनाओं में बाह्य तत्त्वों के समायोजित होने की प्रक्रिया है। जैसे ही नवजात शिशु सर्वप्रथम अपनी माँ के सम्पर्क में आता है, वह माँ को आत्मसात कर लेता है, फिर अन्य महिलाओं पिता फिर अन्य पुरुषों को चाचा, ताऊ आदि के सम्पर्क में आता है और उनकी वेशभूषाओं, उनकी विशेषताओं आदि को देखता है। उनमें भिन्नताओं के होते हुए भी उन लोगों, परिचितों, अपरिचितों के रूप में स्वीकार कर लेता है।
समंजन – समंजन का तात्पर्य अपने को परिमार्जित करने की विशेषताओं को अनुकूल बनाने से है। वातावरण के सम्पर्क में आकर वह अपने संज्ञानात्मक संरचना को परिमार्जिक करता है। यह आत्मसातीकरण का पूरक है। इसमें वातावरणीय उद्दीपक अपरिवर्तित रहते हैं। व्यक्ति को अपने अनुभव में परिवर्तन करना पड़ा है।
समंजन की प्रक्रिया में बालक किसी नई वस्तु को अपने ज्ञान भण्डार में लाने के लिये उस वस्तु के स्वरूप को परिवर्तित नहीं करता, बल्कि पुराने अनुभव के साथ नये अनुभव को इस प्रकार व्यवस्थित करता है जिससे दोनों नये-पुराने अनुभव मस्तिष्क में साथ-साथ रह सकें।
संज्ञान विकास की अवस्थाएँ – पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास में चार प्रमुख अवस्थाओं का उल्लेख किया है। प्रत्येक अवस्था की अपनी अलग-अलग विशेषताएं है। प्रत्येक अवस्था में बालक के भीतर पाये जाने वाले समस्त ज्ञान, विचारों और व्यवहारों के संगठन से एक पैटर्न बनता है जिसे पियाजे ने Schema कहा है। इन Schema का विकास बालक द्वारा सीखे गये अनुभव व परिपक्वता पर आधारित होता है। संज्ञान की चारों अवस्थाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है –
(1) संवेदी पेशीय अवस्था – यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक की मानी गई। इस अवस्था में बच्चे भौतिक वातावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपनी संवदेनाओं और शारीरिक क्रियाओं की प्रत्यक्ष सहायता लेते हैं। इस अवस्था में बालक संवेदना और शारीरिक क्रियाओं के संबंध के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसीलिये इस अवस्था को पियाजे ने संवेदी – पेशीय अवस्था कहा है।
जब बालक पैदा होता है, उसके भीतर केवल सहज क्रियाएँ ही पायी जाती हैं। पियाजे ने इसे सहज स्कीमा (innate schema) कहा है। इन सहज क्रियाओं की सहायता से बच्चे वस्तुओं, ध्वनियाँ, स्पर्श गन्ध का अनुभव प्राप्त करते हैं। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है, बालक उन्हीं उद्दीपकों के सम्पर्क में बार-बार आता है। दो वर्षों की अवधि समाप्त होते-होते बच्चे के भीतर विचार और कल्पना का प्रारम्भ होता जाता है। इस तरह बालक का सहज स्कीमा अब अर्जित स्कीमा बन जाता है।
(2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था – इस अवस्था का विस्तार 2-7 वर्ष माना है। इस अवस्था में स्वार्थी न रहकर दूसरों के सम्पर्क में ज्ञान अर्जित करता है। भौतिक रूप में उपस्थित
वस्तुओं के बारे में सोच-समझ सकते हैं। इस अवस्था में बच्चों में मानसिक रूपान्तरण (Mental Transformation) की अयोग्यता पाई जाती है। इसलिए इस अवस्था को पूर्व संक्रियात्मक कहा है।
इस अवस्था की पियाजे के अनुसार निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –
(i) इस अवस्था का विस्तार 2-7 वर्ष माना गया है।
(ii) बच्चे सामान्यतः बोलना, खेलना मानसिक प्रतिभाओं आदि के विषय में सीख लेते हैं ।
(iii) बच्चे खेल, अनुकरण, चित्र निर्माण भाषा के माध्यम से वस्तुओं की जानकारी करता है।
(iv) बालक धीरे-धीरे प्रतीकों को ग्रहण करना सीखता
(3) मूर्त – संक्रिया की अवस्था – इस अवस्था का विस्तार लगभग 9 से 11 वर्ष है। इस अवस्था में बच्चे जिस बौद्धिक उपकरण को विकसित करते हैं, उसे मूर्त संक्रियाओं (Concrete Operation) की संज्ञा दी जाती है।
इस अवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) यह अवस्था विकसित संज्ञान की अवस्था कही जाती है।
(ii) दूसरी अवस्था की तुलना में यह अवस्था अधिक विकसित संज्ञान की अवस्था है।
(iii) इस अवस्था में बालक तार्किक चिंतन करने योग्य हो जाता है।
(iv) बच्चों में संक्रियाताओं को निष्पादित करने, मानसिक कार्य करने तथा संसार को पुनर्संगठित करने की योग्यता आ जाती है।
(4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था – यह संज्ञान विकास की अंतिम अवस्था है। 12 वर्ष की अवस्था के बाद पियाजे द्वारा वर्णित औपचारिक संक्रिया की अवस्था में पदार्पण करते हैं इस अवस्था में चिन्तन प्रौढ़ों के योग्य हो जाता है। मुख्य विशेषता अमूर्त संप्रत्ययों के रूप में चिंतन करने की योग्यता विकसित होती है।
इस अवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) इस अवस्था में चिन्तन प्रौढ़ों के योग्य हो जाते हैं । से काल्पनिक जगत की ओर गतिशील होते हैं ।
(ii) इस अवस्था की मुख्य विशेषता अमूर्त सम्प्रत्ययों के रूप में चिन्तन (abstract thinking) करने की योग्यता है, जो मूर्त वस्तुओं या क्रियाओं को एक साथ जोड़ती है।
(iii) इस अवस्था में लड़के और लड़कियाँ वास्तविक जगत
(iv) यह उपकल्पनात्मक चिन्तन (Hypothetical Thinking) की प्रक्रिया है। इससे तात्पर्य है बालक वस्तुओं के बारे में यह सीखते हैं कि वे क्या हैं व इस बात पर चिन्तन करते हैं कि थोड़ा परिवर्तन होने पर वे कैसी होंगी- लगेंगी।
अथवा

प्रश्न – निम्नलिखित में से किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ

लिखिए :
(अ) मन्दगति से सीखने के कारण
(ब) व्यवहारवादी सिद्धान्त
(स) बाल्यावस्था की विशेषताएँ
(द) तनाव के प्रकार
उत्तर – (अ) मन्दगति से सीखने के अथवा पिछड़ेपन के अनेक कारण हो सकते हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –
( 1 ) वंशानुक्रम – विभिन्न शोधकार्यों से निष्कर्ष निकलते हैं कि जैसे माता-पिता होंगे वैसे ही उनके सन्तान पैदा होगी। अतः बुद्धिहीनता को भी वंशानुक्रम का ही कारण बताया गया है। माता-पिता की बुद्धिलब्धि कम होने पर सन्तान की बुद्धिलब्धि भी कम होगी, इस प्रकार की बात इसके अन्तर्गत मानी गयी है।
( 2 ) जन्म के समय आघात- कुछ लोगों का मानना है कि जन्म के समय आघात लगने से भी कुछ बच्चों में मानसिक दृष्टि से पिछड़ापन आ जाता है। प्रसव के समय दाई अथवा नर्स आदि को वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान न होने से इस प्रकार की परेशानी हो जाती है। अतः प्रशिक्षित हाथों के द्वारा यह कार्य सम्पन्न होना चाहिए ।
(3) शारीरिक बीमारी – कई बालकों के ऐसी बीमारियाँ हो जाती है जो सीधा मस्तिष्क पर प्रभाव डालती हैं और ऐसे बालकों का मानसिक विकास रुक जाता हैं। इस प्रकार बीमारी भी पिछड़ेपन का महत्त्वपूर्ण कारण है।
(4) ग्रन्थियों का विकार- व्यक्ति के शरीर तथा मस्तिष्क का परिपक्व होना उसकी ग्रन्थियों के विकास पर भी निर्भर रहता है। कई बार बालक की ग्रन्थियाँ पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाती हैं जिस कारण से उसका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है अथवा उचित रूप से नहीं हो पाता है जिसका प्रभाव उसके मस्तिष्क पर भी पड़ता है और बालक में मानसिक हीनता आ जाती है ।
(5) घर का वातावरण- घर का वातावरण अच्छा न होने पर भी बालक के मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। घर में माता-पिता में आपसी तनाव, झगड़े, उनके द्वारा बच्चों पर ध्यान न देना आदि के कारण बालक में मानसिक तनाव उत्पन्न होता है जिससे उसमें मानसिक हीनता आ जाती है ।
(6) मानसिक आघात- कई बार बालकों में गिरने से सिर में चोट लग जाती है तो दिखने में साधारण होती है लेकिन उसमें मानसिक विकास में रुकावट आ जाती है। इस प्रकार मानसिक आघात लगने से भी व्यक्ति मानसिक रूप से हीन हो जाता है।
(7) अपरिपक्व जन्म- कई बार कई बच्चे समय से पूर्व ही पैदा हो जाते हैं अर्थात् उनका जन्म गर्भावस्था के दौरान नौ माह से पूर्व ही हो जाता है ऐसे बालकों में बुद्धिहीन होने की संभावना अधिक रहती है।
(8) शारीरिक दोष- कई बालक जन्म के समय से ही शारीरिक रूप से विकलांग होते हैं तथा कई बालकों के बाद में किसी कारणवश कोई शारीरिक दोष उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण बालकों में मानसिक रूप से हीनता आ जाती है
(9) निर्धनता – वर्तमान समय में निर्धनता अभिशाप है। निर्धनता के कारण माता-पिता अपने बच्चों के लिए उचित भोजन, कपड़े, शिक्षा, चिकित्सा आदि की व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। उचित भोजन तथा चिकित्सा आदि की सुविधाओं के अभाव में बालक का शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है साथ ही निर्धनता के कारण बच्चों की मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है जिससे बालकों में मानसिक हीनता आती है।
(10) विद्यालय का वातावरण- विद्यालय का उचित वातावरण न मिलने पर भी बालकों में मानसिक हीनता आ जाती है विद्यालय का वातावरण, शिक्षकों का व्यवहार, शिक्षण विधियों का प्रयोग तथा छात्रों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं को हम इसके अन्तर्गत शामिल करते हैं।
(ब) व्यवहारवादी सिद्धान्त- व्यवहारवाद आज एक बहुत प्रभावशाली मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय माना जाता है। इसके प्रमुख प्रवर्तक जॉन ब्राडस वाटसन थे, जिनका जन्म सन् 1878 ई. में अमेरिका में हुआ था। व्यवहार की स्थापना प्रकार्यवाद तथा संरचनावाद की प्रतिक्रिया स्वरूप हुई। व्यवहारवाद ने मानव तथा पशु मनोविज्ञान के अन्तर को समाप्त किया। इस वाद का क्षेत्र व्यवहार है। इसमें सम्बोध, प्रयोग तथा दर्शन पर बल दिया गया है। इसमें उद्दीपक तथा सम्बोध पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उद्दीपक की अनुक्रिया से अर्जित-अनार्जित, अन्तर्भूत-बहिर्भूत, श्रवण तथा घ्राण सम्बन्धी व्यवहार उत्पन्न होते हैं। इनसे संवेदना, प्रतिबोध, स्मृति प्रतिभाएँ, अनुभूति एवं संवेगों का जन्म होता है, जो व्यवहार को स्थायित्व प्रदान करते हैं।
प्रमुख व्यवहारवादियों में मैक्स मेयर, एलबर्ट, पी. वीस, एडवर्ड सी. टालमैन, क्लार्क एल. हल तथा बी. एफ. स्किनर आदि प्रमुख हैं।
व्यवहार में मनोविज्ञान को वस्तुनिष्ठ धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसने चेतना तथा आत्मा से हटाकर शुद्ध व्यावहारिक धरातल प्रस्तुत किया है। व्यवहार का विकास पशु मनोविज्ञान से हुआ है। यह पशु व्यवहार के आधार पर ही मानव-व्यवहार का अध्ययन करने की चेष्टा करता है।
व्यवहारवाद के अनुसार मानव-व्यवहार ही मनुष्य का व्यक्तित्व है। व्यवहार उद्दीपन-अनुक्रिया के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मानव व्यक्तित्व को उसके व्यवहार के निरीक्षण के द्वारा जान सकते है। निरीक्षण विधि से यह ज्ञात हो सकता है कि मनुष्य क्या करता है? क्या देखता है? कैसे व्यवहार करता है? क्या कहता है? यही कहना, करना ही मानव-व्यवहार है और इसी में उसका व्यक्तित्व भी झलकता है। इन मानव-व्यवहारों में उद्दीपन और अनुक्रिया का प्रमुख योगदान रहता है। व्यवहारवादियों के अनुसार, व्यक्तित्व गत्यात्मक होता है न कि स्थिर तथा इसका विवेचन वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक-विधि से ही किया जा सकता है।
व्यवहारवाद का अर्थ व्यवहारवाद की निम्न परिभाषायें दी जा सकती हैं –
वाटसन के अनुसार, मनोविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की शुद्ध वस्तुनिष्ठ एवं प्रयोगात्मक शाखा है। इसका सैद्धान्तिक उद्देश्य व्यवहार का अनुमान लगाना है। अन्तर्दर्शन पद्धति जो कि एक मनोवैज्ञानिक पद्धति नहीं है, बिल्कुल त्याज्य हैं, और इस प्रकार मनोविज्ञान चेतना का विज्ञान ना होकर, व्यवहार का विज्ञान है।”
स्किनर के अनुसार, ‘अधिगम प्रगतिशील व्यवहार अनुकूलन की एक प्रक्रिया है। लक्ष्य की प्राप्ति या व्यवहार में अन्तिम प्रयोजन ही अधिगम का एक महत्त्वपूर्ण गत्यात्मक कारक है।” डॉ. (श्रीमति) इन्दु दवे के अनुसार, मानव व्यवहार का वस्तुपरक अध्ययन कर सकने का ध्येय व्यवहारवाद की एक मुख्य प्रेरणा श्री मनोविज्ञान के विषय स्वरूप को व्यवहारवादियों ने स्पष्ट रूप से व्यवहार का विज्ञान घोषित किया।
व्यवहार के पक्ष या आयाम मनोविज्ञान को स्पष्ट करने के लिए व्यवहारवाद में निम्नलिखित पक्षों पर बल दिया जाता है –
1. परिभाषा व्यवहारवाद मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान नहीं मानता। यह मनोविज्ञान का केवल व्यवहार के विज्ञान के रूप में ही अध्ययन करता है।
2. विषय विस्तार व्यवहारवाद के अनुसार मनोविज्ञान का उद्देश्य पशुओं और मनुष्यों के व्यवहार का अध्ययन करना है पशु-व्यवहार का अध्ययन करना इसलिये आवश्यक है क्योंकि मानव-व्यवहार, पशु-व्यवहार से जटिल होता है।
3. विधि- व्यवहारवाद के अनुसार मनोविज्ञान का अध्ययन केवल वस्तुनिष्ठ विधियों से ही करना चाहिये । अन्तर्दर्शन को पूरी तरह त्याग देना चाहिए ।
4. प्रत्यय – मनोविज्ञान में उद्दीपक, अनुक्रिया, शिक्षण एवं आदत आदि प्रत्यय का प्रयोग करना चाहिए। संवेदना, संवेग आदि प्रत्ययों को जड़-मूल से समाप्त करना होगा क्योंकि इनका सम्बन्ध व्यवहार से बिल्कुल नहीं है ।
5. दर्शन- व्यवहारवाद में मस्तिष्क के लिये कोई स्थान नहीं है। मनोवैज्ञानिकों ने आत्मा, चेतना, मन और शरीर के मनोविज्ञान में मस्तिष्क का प्रयोग करके उसे और भी रहस्यपूर्ण बना दिया है, जो व्यर्थ का विचार है। मनोविज्ञान में केवल उन्हीं तथ्यों का प्रयोग किया जाना चाहिये, जो वस्तुनिष्ठ हैं।
व्यवहारवाद के गुण- व्यवहारवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा गुण हैं’ –
(1) व्यवहारवाद ने मनोविज्ञान को विज्ञान बनाने में बड़ा योगदान दिया है। मनोविज्ञान को परम्पराओं की दासता से मुक्त कराने का बहुत कुछ श्रेय व्यवहारवाद को ही है।
(2) मनोविज्ञान को चेतना के अमूर्त प्रत्यय को आकाश से व्यवहार के धरातल पर उतारने में व्यवहारवाद ने पहल की है।
 ( 3 ) परम्परागत मनोविज्ञान में मानसिक प्रत्ययों का बड़े अस्पष्ट अर्थों में व्यवहार होता था। व्यवहारवाद ने मनोभावों के स्थान पर मानसिक क्रियाओं का प्रयोग करना प्रारम्भ किया । इस प्रकार व्यवहारवाद ने बहुत से जटिल मानसिक प्रत्ययों को सरल बना दिया ।
(4) व्यवहारवाद ने मनोविज्ञान को प्राकृतिक विज्ञान की भाँति वस्तुनिष्ठ बनाने पर बल दिया है।
(5) व्यवहारवादियों का विश्वास है कि वस्तुनिष्ठ निरीक्षण के द्वारा व्यवहार का अध्ययन करके बालकों के सही विकास में मनोविज्ञान बड़ी सहायता कर सकता है ।
व्यवहारवाद के दोष- व्यवहारवाद के दोष निम्नलिखित प्रकार हैं –
(1) व्यवहारवाद ने मन और शरीर के द्वैत को समाप्त करने की चेष्टा की। इस प्रयत्न में व्यवहारवाद ने चेतना और मन के अस्तित्व को अस्वीकार कर मात्र शरीर के अस्तित्व को स्वीकार किया ।
(2) व्यवहारवादियों का कहना है कि केवल व्यवहारवाद ही वैज्ञानिक मनोविज्ञान है और शेष काल्पनिक मनोविज्ञान किंतु वह यह भूल जाते हैं कि विज्ञान में जिन पदों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें तब तक वैध नहीं माना जाता, जब तक कि प्रदत्तों के आधार पर उनकी परीक्षा नहीं कर ली जाती।
(3) व्यवहारवाद विचार प्रक्रिया को वाणी बतलाता है और कहता है कि चिन्तन में व्यक्ति अन्दर ही अन्दर वाणी का प्रयोग करता है और वस्तुओं के स्थान पर संकेतों का प्रयोग करता है परन्तु विचार और वाणी एक नहीं होते।
( 4 ) व्यवहारवाद मूल प्रवृत्तियों को अस्वीकार करता है और वातावरण पर अत्यधिक बल देता है किन्तु वातावरण और व्यवहारवाद में कोई तार्किक सम्बन्ध नहीं दिखायी पड़ता।
(5) व्यवहारवाद कहता है कि मनोविज्ञान को भौतिकी के समान वस्तुनिष्ठ बनाना चाहिये किन्तु ऐसा करने में वह भौतिकी के मूल नियम का ही उल्लंघन करता है।
(6) व्यवहारवाद प्रकट रूप में अन्तर्दर्शन की पद्धति को नहीं मानता। यह अन्तर्दर्शन का कड़ा विरोध करता है परन्तु वाटसन ने संवेग और चिन्तन को शारीरिक प्रतिक्रिया माना है और यह निश्चित है कि इनसे सम्बन्धिम पदों के निर्माण में उसने बहुत कुछ अन्तदर्शन का प्रयोग किया होगा।
(स) बाल्यावस्था की विशेषताएँ – बाल्यावस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित होती हैं –
(1) शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता – इस काल में शैशावस्था की अपेक्षा मानसिक एवं शारीरिक विकास की गति में स्थिरता आ जाती है। इस अवस्था में ऐसा प्रतीत होता है कि मस्तिष्क पूर्ण परिपक्व हो गया है। इसलिए रॉस ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है ।
(2) यथार्थवादी दृष्टिकोण- बाल्यावस्था में बालक का यथार्थवादी दृष्टिकोण होता है। अब बालक कल्पना जगत से वास्तविक संसार में प्रवेश करने लगता है।
(3) जिज्ञासा की प्रबलता – बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रबलता के कारण बालक नवीन वातावरण को जानने का प्रयास स्वयं करता है। उसमें स्मरण करने की शक्ति का भी विकास हो जाता है।
(4) रचनात्मक कार्यों में रुचि – बाल्यावस्था में रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इस उम्र में लड़के खिलौने जोड़ने लग जाते हैं और लड़कियाँ गुड़िया बनाना प्रारम्भ कर देती हैं ।
(5) संवेगों का नियंत्रण- इस अवस्था में बालक उचित-अनुचित में अंतर करने लगता है। बाल्यावस्था में बालक सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवहार के लिए अपनी भावनाओं का दमन और संवेगों पर नियंत्रण स्थापित करना सीख जाता है।
(6) मानसिक योग्यताओं में वृद्धि – इस काल में मानसिक विकास की तीव्रता के कारण बालक तर्क करना प्रारम्भ कर देता है। बाल्यावस्था में प्रत्यक्षीकरण और ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति का विकास होता है।
(7) सामूहिक भावना का विकास – बाल्यावस्था में सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का विकास हो जाने पर बालकों में सामाजिक भावना पनपने लगती है। इस अवस्था में बालक सामूहिक खेलों में रुचि लेना प्रारम्भ कर देते हैं ।
(8) अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास – बाल्यावस्था में अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है। इस उम्र में चोरी करने और झूठ बोलने की आदत भी पड़ जाती है।
( 9 ) सम-लिंग भावना का विकास – इस अवस्था में समलिंगीय भावना का विकास होता हैं और लड़कों मे नेता बनने की चाह घर करने लगती है। बाल्यावस्था में काम प्रवृत्ति की न्यूनता पाई जाती है।
(10) बहिर्मुखी प्रवृत्ति का विकास – बाल्यावस्था में बालक के बहिर्मुखी, व्यक्तित्व का विकास होता है। ब्लेयर और सिम्पसन के अनुसार, “इस अवस्था में जीवन के बुनियादी दृष्टिकोण और स्थायी आदर्श व मूल्यों का निर्धारण हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन देखा जा सकता है।”
( 11 ) संग्रह प्रवृत्ति का विकास – बाल्यावस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। बालक विशेष रूप से अपने पुराने खिलौने, मशीन के कलपुर्जे, पत्थर के टुकड़े तथा बालिकाएँ विशेष रूप से अपनी गुड़िया, कपड़े के टुकड़े आदि संग्रह करती दिखाई देती हैं।
(12) प्रतिस्पर्धा की भावना – बाल्यावस्था में प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। बालक अपने भाई-बहन से भी झगड़ा करने लग जाता है।
(13) औपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ- इस अवस्था में बालक की भाषा विकास के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है, और वह स्कूल जाना शुरू कर देता है । इसके साथ बालक में निरुद्देश्य भ्रमण करने की आदत पड़ जाती है।
(द) तनाव के प्रकार – तनाव को प्रतिबल भी कहते हैं । प्रतिबल या तो जैविक होता है या मनोवैज्ञानिक, जिसमें कुण्ठा तथा अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है। अतः प्रतिबल (तनाव) तीन प्रकार का होता है
(1) जैविक प्रतिबल- जब व्यक्ति शारीरिक रूप से ऐसे रोगों से पीड़ित रहने लगे जैसे- कैंसर, दमा, कुष्ठ, अनिद्रा तो वह जैविक तनाव से पीड़ित रहता है क्योंकि उसमें शारीरिक अक्षमता आ जाती है। वह प्रायः उन कार्यों को भी नहीं कर पाता जिसे पहले किया करता था ।
(2) मनोवैज्ञानिक प्रतिबल – तनाव इस प्रकार के तनाव के कारण व्याकुलता, चिन्ता व अप्रसन्ता के भाव आ जाते हैं। जब व्यक्ति को अपने मित्रों से किसी कार्य में सहयोग नहीं मिलता, परिवार के लोग तथा सहकर्मी किसी कार्य में सहयोग नहीं करते, असुरक्षा की भावना होती है। ऐसे में हर समय कुण्ठित रहता है। अपने परिवार के लोगों, मित्रों, भाई-बहनों की तुलना में आत्महीनता की भावना आ जाती है तो व्यक्ति तनाव से पीड़ित हो जाता है। मनावैज्ञानिक तनाव दो प्रकार का होता है –
(i) अहम निहित – अहम निहित तनाव में व्यक्ति आत्मसम्मान तथा आत्मसुरक्षा समाप्त हो जाने के भय से भयाक्रान्त रहता है तथा सम्बन्धित व्यक्ति का व्यक्तित्व अव्यवस्थित हो जाता है जैसे किसी प्रिय की दवा न कराने से मृत्यु होने से अहम् निहित तनाव उत्पन्न होता है अर्थात् लापरवाही से मृत्यु होना ।
(ii) अहम रहित – अहम् रहित तनाव में व्यक्ति निहित तनाव की स्थिति वाला व्यवहार नहीं करता वह इसे सामान्य रूप में लेता है तथा इसे जीवन का अस्थायी पक्ष समझता है। जैसे कोई व्यक्ति अपने प्रिय पात्र की लम्बी प्रतीक्षा करते-करते यह सोचकर धैर्य धारण कर लेता है कि सम्भवतः वह बीमार पड़ गया हो इसी कारण नहीं आया और न पत्र दिया। ऐसे तनाव में व्यक्ति का अहम् बाधक नहीं होता। परन्तु यदि उसे यह पता लग जाए कि उसका मित्र किस कारण नहीं आया था, पत्र नहीं दिया कि वह इसे अपना मित्र नहीं मानता तो इससे अहम् को आघात पहुँचता है तथा वह अहम् निहित तनाव से पीड़ित रहने लगता है।
(3) सामाजिक प्रतिबल / तनाव- जब तनाव सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, सामाजिक दबावों के कारण उत्पन्न हो तथा व्यक्ति उसका प्रतिरोध न कर सके जैसे कोई व्यक्ति सामाजिक मानदण्डों के विपरीत शादी करना चाहता है तथा पारिवारिक मूल्य बाधक हैं तो वह तनाव की स्थिति में रहता है। यदि व्यक्ति समझे कि धन कमाने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी वहीं धन कमाने के मानक निर्धारित हो और वह धन कमा पाये तो भी वह तनाव की स्थिति में रहेगा क्योंकि ये मानक- मूल्य, नैतिकता एवं धन कमाने में बाधक हैं ।
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