निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए—
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए—
(i) कम्प्यूटर की उपयोगिता
(ii) टेलीकान्फ्रेंसिंग
(iii) योग शिक्षा
उत्तर— (i) कम्प्यूटर की उपयोगिता—
कम्प्यूटर की भूमिका– कम्प्यूटर को एक शैक्षिक साधन के रूप में उपयोग करने का विचार सर्वप्रथम माध्यम अमेरिका में एक शैक्षिक व्यूह रचना के रूप में सामने आया व इसका शैक्षिक उपयोग ब्रिटेन में बहुरूपीय परिकल्पित कार्यक्रम और अमेरिका में बड़ी संख्या में विचारधारा के रूप में प्रयोग हुआ इसके अतिरिक्त अन्य कई देशों, विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में इस दिशा में काफी कार्य हुए व आज कई विकासशील देश तथा पिछड़े देश भी इसका शैक्षिक उपयोग करने लगे है।
कम्प्यूटर का अर्थ– कम्प्यूटर का नामकरण अंग्रेजी भाषा के कम्प्यूट (Compute) शब्द से हुआ है जिसका अर्थ है ‘गणना करना’ । कम्प्यूटर एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन है जिसमें निर्देश (Instruction) और आँकड़े (Data) एकत्र किए जाते हैं। कम्प्यूटर इन कच्चे (raw) आँकड़ों को प्रदर्शित कर आउटपुट के रूप में सार्थक सूचना व परिभाषा प्राप्त करता है। कम्प्यूटर एक डायरी के समान है जिसमें स्टोर की गई सूचनाओं या आँकड़ों को यथासमय पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
कम्प्यूटर के विभिन्न प्रकार– कम्प्यूटर के विभिन्न प्रकार निम्नलिखित हैं—
(1) डिजिटल कम्प्यूटर– इन कम्प्यूटर में जानकारी या आँकड़ों को कार्यवाही करने से पूर्व उसे डिजिटल रूप में परिवर्तित किया जाता है। इस डिटिजल प्रणाली में केवल दो संकेतों 0 तथा 1 का प्रयोग करने वाली द्विगुण अंक प्रणाली का प्रयोग होता है।
(2) एनालॉग कम्प्यूटर – इस प्रकार के कम्प्यूटर जिसमें कि आँकड़ों या दी गई जानकारी को कार्यवाही से पूर्व डिजिटल रूप में परिवर्तित नहीं की जाती है उसे एनालॉग कम्प्यूटर के नाम से जाना जाता है।
डिजिटल कम्प्यूटर को आगे फिर कई प्रकारों में विभक्त किया जाता है जो निम्न हैं—
(i) मुख्य फ्रेम कम्प्यूटर – यह एक बहुत बड़े आकार की अधिक कीमत की मशीन है इसके लिए एक विशेष प्रकार के कमरे की आवश्यकता होती है तथा इसके प्रयोग के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित विशेषज्ञों का होना आवश्यक हैं।
(ii) मिनी कम्प्यूटर – यह मुख्य फ्रेम कम्प्यूटर का सस्ता रूप है इस प्रकार के कम्प्यूटर का प्रयोग मुख्य रूप से छोटीछोटी फैक्ट्रियों या कॉलेजों या बड़ी औद्योगिक इकाई के किसी एक विभाग में होता है ।
(iii) माइक्रो कम्प्यूटर – माइक्रो कम्प्यूटर एक लघु, डेस्कटॉप मशीन मात्र है। कीमत के हिसाब से यह एक सस्ती मशीन तथा इसका उपयोग अनेक प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है।
(iv) सुपर कम्प्यूटर – सुपर कम्प्यूटर अधिक महँगे होते हैं । इनकी कार्य क्षमता एवं शक्ति रफ्तार विलक्षण होती है । इन्हें बड़ी कम्पनियाँ, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संस्था मुख्य रूप से प्रयोग कर पाती हैं ।
कम्प्यूटर की संरचना—
(1) इनपुट प्रणाली–इस भाग में की-बोर्ड (Keyboard) होता है जिसके माध्यम से जानकारी या आँकड़ों को कम्प्यूटर के अन्दर भेजा जाता है यह जानकारी दो प्रकार की होती हैं—
(i) निर्देश
(ii) आँकड़ें
निर्देश कम्प्यूटर प्रोग्राम के माध्यम से दिए जाते हैं। ये प्रोग्राम एक विशेष सांकेतिक भाषा में लिखे जाते हैं जिन्हें प्रोग्रामिंग भाषा कहते हैं तथा आँकड़े कम्प्यूटर को दी जाने वाली वह जानकारी है जिस पर कम्प्यूटर को काम करना है। कम्प्यूटर के निर्देश एवं आँकड़ों को डिस्क या संकेत जिन्हें कि अनेक आप्टिकल स्केनिंग माध्यम की सहायता से पढ़ा जा सकता है।
(2) प्रक्रिया– इस भाग में अनुदेशन की आवश्यकतानुसार आँकड़े की गणना तथा विवरण अंकित किया जाता है। यह कम्प्यूटर का मध्य भाग या केन्द्रीय भाग कहलाता है जो क्रियाशील रहता है यही वह प्रणाली है जहाँ कम्प्यूटर की इनपुट प्रणाली में रखी गई जानकारी या आँकड़ों की कार्यवृद्धि होती है। इसके तीन भाग होते हैं—
(i) स्मृति प्रणाली
(ii) अंकगणितीय एवं तार्किक प्रणाली
(iii) नियन्त्रण प्रणाली ।
(3) आउटपुट प्रणाली– इस भाग में कम्प्यूटर द्वारा प्राप्त आउटपुट को तीन विभिन्न प्रकार से प्रदर्शित किया जाता है। इस भाग में आँकड़ों तथा विवरणों के मध्य हुई प्रक्रिया को सम्पादित कर परिणाम प्रस्तुत किया जाता है।
‘कम्प्यूटर की विशेषताएँ–निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) शुद्धता – कम्प्यूटर से प्राप्त परिणाम सदैव शुद्ध होते हैं एक बार सही निर्देश देने के बाद वह सारे परिणाम सही निकालता है।
(2) गति – यह अत्यन्त / तीव्र गति से कार्य करता है। यह बहुत सारे आँकड़ों को एक साथ प्रदर्शित कर सकता है। कुछ कम्प्यूटर तो सेकण्ड के दस लाखवें भाग अर्थात् माइक्रोसेकण्ड में कार्य करते हैं।
(3) निरन्तरता – यह एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन होती है जो निरन्तर कई घंटे कार्य करने के बाद भी कार्य करती रहती है।
(4) स्वचालन – इसको एक बार जो निर्देश दिए जाते हैं उसी के अनुसार वह घंटों बिना रुके कार्य कर सकता है।
(5) व्यापकता – इसका उपयोग विभिन्न क्षेत्रों के कार्य करने में किया जाता है। जैसे— शिक्षा, घर, विज्ञान, उद्योग, फैक्ट्री, मौसम विभाग आदि ।
(6) संग्रह क्षमता – कम्प्यूटर में भी मानव मस्तिष्क की तरह मेमोरी होती है जिसके लाखों करोड़ों आँकड़े संग्रह करके रखे जा सकते हैं जिन्हें आवश्यकतानुसार पुनः देखा जा सकता है।
कम्प्यूटर का शैक्षिक प्रयोग– कम्प्यूटर के बिना आज शिक्षण की कल्पना करना भी मुश्किल है। आजकल शिक्षण प्रणाली व संस्थानों में प्रशासनिक समस्याओं के समाधान के लिए इनका प्रयोग किया जाता है। शैक्षिक संरचनाओं में प्रवेश परीक्षा तथा परीक्षाफल में इसका प्रयोग किया जाता है। आरम्भ में कम्प्यूटर का प्रयोग अधिकतर एक महासंगणक के रूप में था जिसकी सहायता से बड़े-बड़े आँकड़ों को आसानी से अल्प समय में सरलतम रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है लेकिन आज इसका प्रयोग अनेक शैक्षिक गतिविधियों में होने लगा आज कम्प्यूटर का उपयोग केवल वैज्ञानिकों एवं अनुसंधानकर्त्ताओं तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि आज यह छात्र एवं अध्यापक के दैनिक जीवन का आवश्यक अंग बन गया है।
शिक्षा में कम्प्यूटर का प्रयोग– एन.सी.एफ. 2005 में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में कम्प्यूटर के अधिकाधिक प्रयोग की अनुशंसा की गई है। नई पीढ़ी के लिए ज्ञान प्रदान करने की प्रक्रिया में कम्प्यूटर की भूमिका स्वतः सिद्ध है। विषय-वस्तु को समझ कर विद्यार्थियों को उसका सम्प्रेषण करना सरल कार्य है किन्तु उस ज्ञान को तकनीकी से जोड़ कर व्यावहारिक स्वरूप देने का कार्य कम्प्यूटर के सहयोग से ही संभव है। वास्तविक जीवन में शिक्षा में कम्प्यूटर का उपयोग निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है—
(1) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में—
(i) शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए पावरप्वांट प्रस्तुतीकरण, स्लाइड्स निर्माण, वेबपेज इंटरनेट का प्रयोग किया जाता है इनकी सहायता से संप्रत्ययों को भलीभाँति स्पष्ट करने में सहायता मिलती है ।
(ii) उच्चारण शुद्धि व संशोधन हेतु हैडफोन, माइक्रोफोन एवं विशेष रूप से तैयार सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया जाता है। कुछ विशेष वेबसाइट्स भी इस उद्देश्य से बनाई गई हैं।
(iii) सम्प्रेषण का स्तर श्रेष्ठ करने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, चैट, ई-मेल का प्रयोग किया जाता है । ई-ट्यूटर से भी सम्पर्क किया जा सकता है।
(iv) सृजनशील विद्यार्थियों को अपनी क्षमताओं को विकसित करने तथा स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम प्राप्त हो जाता है। पूर्व-निर्मित सॉफ्टवेयर भी विद्यार्थियों में सृजनात्मकता विकसित करने में सहायक होते हैं।
(v) अनुदेशन की प्रक्रिया प्रभावपूर्ण बनाने के लिए शिक्षक विभिन्न स्रोतों का उपयोग कर सकते हैं तथा शिक्षकअधिगम प्रक्रिया को रोचक बना सकते हैं।
(vi) भविष्य के लिए सूचनाओं को संगृहीत करने के लिए कम्प्यूटर शिक्षक एवं विद्यार्थी के लिए नोट बुक का मार्ग करता है।
(vii) ई-पुस्तक, ऑन-लाइन पुस्तकालय तथा विश्व – कोश विद्यार्थी एवं शिक्षक को सूचनाएँ उपलब्ध करा कर श्रम एवं समय की बचत करते हैं ।
(viii) विद्यार्थी स्व रचनाओं का प्रकाशन, संशोधन सीख जाते हैं।
(2) निर्देशन के उद्देश्य से– विद्यार्थियों को निर्देशन प्रदान करने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। विद्यार्थियों के विषय में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर विषय एवं व्यक्तिगत निर्देशन के साथ-साथ व्यावसायिक निर्देशन भी प्रदान किया जाता है। अभिवृत्ति, रुचि, व्यक्तित्व व अन्य कारकों की जाँच की जा सकती है।
(3) ई – लर्निंग– शिक्षा में ई-लर्निंग में कम्प्यूटर का प्रयोग किया जाता है।
(4) प्रश्न बैंक विकसित करना– कम्प्यूटर की सहायता से विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम के आधार पर प्रश्न बैंक का निर्माण किया जा सकता है जिससे शिक्षक एवं विद्यार्थियों को स्वमूल्यांकन के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।
(5) जाँच एवं मूल्यांकन प्रक्रिया में–विद्यार्थियों के अकादमिक अभिलेखों को संगृहीत करने, मूल्यांकन प्रक्रिया सम्पन्न करने ऑनलाइन जाँच एवं मूल्यांकन करने, प्रदत्तों का विश्लेषण एवं मूल्यांकन करने, पूर्व की जाँच से वर्तमान अंकन की तुलना करने एवं अभिलेख संधारण के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग किया जाता है।
(6) पुस्तकालय में–विद्यार्थियों एवं संकाय सदस्यों के दस्तावेज सॉफ्टकॉपी में रखे जाते हैं। पुस्तकों का ऑन-लाइन विवरण रखने के साथ-साथ अन्य पुस्तकालयों से जुड़ाव, ऑन-लाइन पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें भी उपलब्ध की जा सकती है। पुस्तकों के अवदान एवं लौटाने की प्रक्रिया भी की जाती है ।
(7) समाज से जोड़ना–कम्प्यूटर के विषय में व्याप्त भ्रांति है कि इसके प्रयोग से विद्यार्थी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का बन जाता है। किन्तु शिक्षा में इसका प्रयोग विभिन्न प्रकार के सामाजिक उत्सवों, पर्वों, रीतिरिवाजों, परम्पराओं का ज्ञान प्रदान करने के लिए भी किया जाता है। विद्यार्थी वास्तविक पारिस्थितियों को घर बैठे ही जान सकता है ।
(8) विद्यालय प्रशासन में–विद्यालय प्रशासन हेतु विद्यार्थियों के व्यक्तिगत, शैक्षिक वित्तीय अभिलेखों का संधारण महत्त्वपूर्ण कार्य है कम्प्यूटर यह कार्य करता है । निर्णय प्रक्रिया के दस्तावेज, शुल्क एवं अन्य दस्तावेज, सूचनाएँ प्रदान करने का कार्य, आय-व्यय का विवरण बजट इत्यादि को कम्प्यूटर में संगृहीत रखा जा सकता है।
(ii) टेलीकांफ्रेसिंग — टेलीकान्फ्रेंसिंग या दूर संवाद प्रणाली एक ऐसी संवाद प्रणाली है जिसमें पारम्परिक अन्तः क्रिया या सम्प्रेषण को वास्तविक स्थितियों में न रह कर भी प्राप्त किया जा सकता है। टेली कान्फ्रेंसिंग शब्द जिसे हिन्दी में दूरसंचार प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है एक ऐसी प्रणाली है जिसके प्रतिभागी जन एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर होते हुए भी प्रतिक्रिया, संवाद या संभाषण बनाये रखने में योग्य होते हैं।
टेली शब्द का अभिप्राय है— दूरस्थ एवं कान्फ्रेंस का अर्थ हैपरामर्श एवं परिचर्चा । इस माध्यम से दो दूरस्थ स्थलों को जोड़ दिया जाता है जिससे वे अन्तः क्रिया कर सकें। इसमें दूरभाष, फैक्स तथा ईमेल का प्रयोग किया जाता है। यह अन्तः क्रिया वास्तविक समय में होती है—शिक्षार्थी सहभागी एवं विषय विशेषज्ञ एक समान समय पर भिन्न स्थानों पर होते हुए भी संप्रेषण करने में समर्थ होते हैं।
टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के प्रकार – निम्नलिखित हैं—
श्रव्य कान्फ्रेंसिंग — यह दो तरफा संप्रेषण है जिसमें विभिन्न स्थानों पर बैठे व्यक्तियों में प्राय: दूरभाषा पर संप्रेषण होता है। माइक्रोफोन तथा स्पीकर दोनों ओर उपलब्ध होते हैं। इसमें संभागी संख्या तंत्र के आधार पर 30 तक हो सकती है इसमें दो प्रकार होते हैं— डायल अप मोड, मीट मी मोड ।
दृश्य कान्फ्रेंसिंग–इस में दृश्य एवं वाणी दोनों का सम्मिलित रूप होता है। इसमें दृश्य को बाँधने के लिए कैमरा होता है तथा वाणी के प्रवाह के लिए वीडियो की व्यवस्था रहती है। माइक्रोफोन तथा स्पीकर होते हैं सम्प्रेषण को कूट में बाँधने के लिए कोडक (Codec) होता है इसमें द्वितरफा (Twoway) तथा बहुपक्षित (Multipal) दो रूप होते हैं ।
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लाभ—
(1) वीडियो कान्फ्रेंसिंग के द्वारा कार्य की गुणवत्ता बढ़ती है।
(2) यात्रा व्यय नहीं होता है ।
(3) अधिकाधिक संकाय सदस्यों में अन्तः क्रिया होती है।
(4) यह पद्धति परम्परागत कक्षा शिक्षण के निकट प्रतीत होती है जिसमें शिक्षार्थी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के सक्रिय भागीदार होते हैं ।
(5) समय एवं विद्यार्थियों की आवश्यकता की पूर्ति एक स्थान पर कम समय में संभव होती है ।
(6) विषय में विशेषज्ञ अतिथि प्रवक्ताओं का लाभ भी लिया जा सकता है।
टेलीकॉन्फ्रेंसिंग की सीमाएँ–निम्नलिखित हैं—
(1) यह पद्धति पूर्णत: तकनीकी पर आश्रित होती है। तकनीकी उच्चता / श्रेष्ठता पर सफलता निर्भर होती है ।
(2) दूरस्थ क्षेत्रों पर इन्टरनेट पर सफलता निर्भर होती है इस पर निर्भर होने पर सफलता प्राप्ति में व्यवधान उपस्थित होता है।
(3) प्राप्त ज्ञान एवं सूचनाओं के स्थायित्व को लेकर संदेह की स्थिति बनी रहती है ।
टेलीकॉन्फ्रेसिंग के उपयोग—
(1) शिक्षा ।
(2) प्रशिक्षण |
(3) व्यवसाय |
(4) चिकित्सा |
(5) भौगोलिक रूप से दूरस्थ क्षेत्र ।
(6) राष्ट्रीय, क्षेत्रीय, स्थानीय स्तर पर सम्प्रेषण |
(7) गुणवत्तायुक्त शिक्षण, बहुआयामी शिक्षण।
(8) विभिन्न व्यूहरचनाओं के द्वारा अधिगम
(9) प्रभावोत्पादकता ।
(iii) योग शिक्षा– मानव का अस्तित्व अपनी सीमाओं के कारण विभिन्न प्रकार के अवसाद, तनाव, हताश, दुःख आदि से निरन्तर जूझता रहता है। शिक्षा व्यक्ति को इन सीमाओं से बाहर निकाल कर, प्रसन्नता, आस्था, विश्वास एवं सुख से जीवन जीना सिखाती है। सांसारिक एवं आत्मिक रूप से प्रसन्न रहने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी जीवन में ही हम स्वयं को स्थिर रखना सीख लें। स्थिर, मन, मस्तिष्क एवं संवेगों के सन्तुलन के अर्थ में है। भारतीय संस्कृति की आत्मा, भौतिक एवं अभौतिक के समविकास पर आधारित है। मन, इन्द्रिय एवं भौतिक शरीर के अनुशासन के लिए ‘योग’ का अभ्यास वैदिक काल से किया जाता रहा है। शरीर, मन एवं आत्मा के सन्तुलित विकास के लिए भौतिक पदार्थों को आन्तरिक मार्ग की ओर ले जाना होगा। नई पीढ़ी की ऊर्जा को सक्रिय रखने एवं सकारात्मक मार्ग प्रदान करने के लिए जीवन में पूर्णता लाने के लिए, शांति की भावना को स्थायी संवेग बनाने के लिए योग शिक्षा को शिक्षक शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है।
योग शब्द का अर्थ, योग शिक्षा का संप्रत्यय, योग शिक्षा की आवश्यकता, यौगिक क्रियाएँ, योग शिक्षा का महत्त्व, योग शिक्षक के दायित्व इत्यादि कुछ पक्षों पर चर्चा प्रस्तुत है :
योग शब्द संस्कृत की ‘युज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है बाँधना, जोड़ना, मिलाना, ध्यान को नियंत्रित अथवा केन्द्रित करना । श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय छ: में वर्णन है कि ‘मन, बुद्धि और अहंकार’ वश में रहे तथा चंचल इच्छाओं से व्यक्ति रहित हो । योग – शिक्षा की आवश्यकता शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम में इसी दृष्टि से अनुभव की गई कि शिक्षक ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर सके जो चित्त की वृत्तियों पर नियन्त्रण रखने में समर्थ हो ।
योग की परिभाषाएँ—
“योग: चित्त निरोध” (चित्तवृत्तियों का निरोध योग है।)–महर्षि पंतजलि
“सम्पूर्ण समाधि की अवस्था योग है” —वेद व्यास
“योग स्वयं को दिव्य में मिला देने की प्रक्रिया है।” – श्री माँ
“सम्पूर्ण जीवन ही योग है । ” –महर्षि अरविन्द
योग की प्रकृति—योग की प्रकृति से जुड़े प्रमुख तथ्य निम्नांकित है—
(1) योग विज्ञान है।
(2) योग व्यक्ति एवं सृष्टि के मध्य संबंध है।
(3) योग मस्तिष्क, इन्द्रिय एवं शरीर का अनुशासन है।
(4) योग पूर्णता, शांति एवं प्रसन्नता की स्थापना है।
(5) योग संवेगों को नियन्त्रण में रखना है।
(6) योग पवित्र मन एवं जीवन-शैली का निर्माण है।
(7) योग बुद्धि एवं मस्तिष्क को प्रखर करता है।
(8) योग क्रियाओं में एकाग्रता की प्रकृति है।
(9) योग उचित समय पर, उचित कार्य, उचित शैली में सम्पन्न करना है।
(10) योग ऊर्जा की चैतन्यता है।
(11) योग क्रियाओं में कुशलता है।
(12) योग मानवीय प्रयासों को आध्यात्मिक दिशा प्रदान करना है।
योग में निम्न तत्त्वों का समावेश रहता है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ।
चित्रात्मक रूप में समझें तो योग की प्रक्रिया एवं परिणाम निम्नवत्समझे जा सकते हैं—
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनोवैज्ञानिक, शारीरिक, सांवेगिक रूप से पुष्ट पीढ़ी का निर्माण करने के लिए योग शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। शिक्षकों के लिए इसका ज्ञान अत्यावश्यक है।
योग शिक्षा के उद्देश्य–शिक्षार्थी एवं सामान्य जीवन में योगशिक्षा के द्वारा निम्नलिखित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है—
(1) सहिष्णुता के लिए मस्तिष्क तैयार करना ।
(2) मस्तिष्क को सकारात्मक चिन्तन हेतु विकसित करना ।
(3) शरीर, आत्मा एवं सम्पूर्ण सृष्टि के मध्य संबंध को जानना।
(4) यह जानना कि सशक्त व्यक्तित्व के लिए केवल शारीरिक रूप से सही होना ही मार्ग नहीं हैं।
(5) यौगिक अभ्यासों की आधारभूत प्रक्रियाओं को जानना।
योग शिक्षा के उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न स्तरों पर पाठ्यक्रम की संरचना की गई। यहाँ हमारा विवेच्य विषय शिक्षक शिक्षा है अतः शिक्षक शिक्षा में किन सीखने के अनुभवों को जोड़ा जाये यह जानना आवश्यक होगा। अलग विषय न बना कर शिक्षक शिक्षा में शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में योग शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाते समय जिस विषय वस्तु को सम्मिलित किया जा सकता है उसमें से कुछ प्रमुख बिन्दु निम्नांकित हैं—
(1) शिथिलीकरण व्यायाम।
(2) इन्द्रिय व्यायाम ।
(3) आसन।
(4) श्वसन अभ्यास क्रियाएँ ।
(5) सूर्य नमस्कार।
(6) प्राणायाम।
(7) ध्यान एवं मौन ।
(8) बंध एवं मुद्रा ।
(9) प्रार्थना ।
योग शिक्षा का महत्त्व—योग शिक्षा के महत्त्व को निम्नलिखित दो भागों में समझा जा सकता हैं—
(1) शारीरिक विकास हेतु —
(i) सुदृढ़ अस्थि तन्त्र एवं माँसपेशियों के लिए ।
(ii) पाचन तंत्र के सुचारू रूप से कार्य करने के लिए ।
(iii) रक्त संचरण व्यवस्था के लिए ।
(iv) श्वसन तंत्र के लिए ।
(v) उत्सर्जन तंत्र के लिए ।
(vi) प्रजनन तंत्र के लिए ।
(vii) स्नायु तंत्र के लिए ।
(viii) अन्त: स्रावी ग्रंथियों के लिए ।
(2) आध्यात्मिक विकास—
(i) हृदय एवं बुद्धि की शांति ।
(ii) सन्तोष ।
(iii) सत्य ।
(iv) अहिंसा ।
(v) चरित्रनिर्माण ।
(vi) कर्त्तव्यपरायणता ।
(vii) तनाव मुक्ति ।
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