निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

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(i) समूह गतिशीलता
(ii) सामाजिक पूर्वाग्रह
उत्तर— (i) समूह गतिशीलता (Group Dynamics) गतिकी शब्द का प्रयोग पिछले 50 वर्षों से ही हुआ है। सबसे पहले इस प्रत्यय को कर्ट लेविन ने सन् 1945 में प्रयोग किया। लेविन के अनुसार, इससे तात्पर्य एक छोटे समूह से होता है तथा इन समूह के सदस्यों के प्रभाव से होता है तथा इन सदस्यों का व्यवहार एक निश्चित दिशा में परिवर्तित होता है जिससे उनके व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।
दूसरे शब्दों में, इससे तात्पर्य उस शक्ति का ज्ञान होता है जो किसी समूह में कार्य करती है। यह उन परिवर्तनों के क्षेत्र में होती है जिसमें समूह के सदस्य एक-दूसरे पर बल या प्रभाव डालते हैं। ये बल दो प्रकार के होते हैं— संशक्तिशील बल तथा विघटनकारी बल । जब सदस्यों के बीच का सम्बन्ध सहयोगी होता है – तो समूह में संशक्तिशील बल कार्य करता है । इस बल के अन्तर्गत सदस्यों की अधिकतम संतुष्टि हो जाती है। जब समूह के सदस्यों के वैयक्तिक तथा सामूहिक लक्ष्य में संघर्ष होता है तो समूह के सदस्यों के बीच में संचार की कमी होती है। उस समय विघटनकारी बल कार्य करता है, तथा इस समय समूह सदस्यों की कम से कम आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है। के
समूह गतिकी की विशेषताएँ (Characteristics of Group of Dynamics)—
(1) समूह गतिकी में समूह के अन्दर रहने वाले सदस्यों के
प्रभावों का अध्ययन किया जाता है जो उसके व्यवहार में परिवर्तन ला देते हैं या उनका व्यवहार प्रभावित होता है ।
(2) समूह गतिकी के अन्तर्गत उनके सदस्यों के बीच एकता, समर्पण तथा सहानुभूति पाई जाती है तथा इनके मानदंड परम्पराएँ तथा नियम होते हैं।
(3) समूह के सदस्यों के बीच पाया जाने वाला संशक्तिशील बल तथा विघटनकारी बल व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन ला देता है।
(4) छोटे समूहों में परिवर्तन की संभावना अधिक रहती है क्योंकि उनके भीतर बलों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
(5) समूह के सदस्यों में एक ही उद्देश्य के साथ आंतरिक शक्ति होती है जो समूह के लिए रोमांच का कार्य करती है।
समूह गत्यात्मकता/गतिकी के कारक (Factors of Group Dynamism)–समूह गत्यात्मकता/गतिकी के अन्तर्गत निम्न कारक कार्य करते हैं—
(i) व्यक्तिगत लक्ष्य ।
(ii) सामूहिक लक्ष्य ।
(iii) अन्तः क्रिया ।
(iv) प्रजातांत्रिक वातावरण ।
(v) आवश्यकताओं की पूर्ति ।
(vi) समूह का आकार ।
(vii) समूह में अपनापन तथा ।
(viii) प्रतियोगिता की भावना ।
विद्यालय में समूह गत्यात्मकता का विकास (Development of Group Dynamics in School)– विद्यालय में समूह गतिशीलता का विकास निम्न तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है—
(1) विद्यालय की संस्कृति, नियमों, मूल्यों का ज्ञान शिक्षक तथा छात्र दोनों को होना चाहिए ।
(2) विद्यालय में जगह-जगह पर नीतिपरक वाक्य लिखे होने चाहिए जिससे बालक को प्रेरणा मिल सके।
(3) छात्रों के अन्दर शीलगुणों तथा नेतृत्व के गुणों का विकास करना चाहिए ।
(4) कक्षा व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि छात्र आपस में अधिक से अधिक अन्तः क्रिया कर सकें जिससे उनके अन्दर सहयोग, सक्रियता तथा सामुदायिकता की भावना का विकास हो ।
(5) बच्चों को योजना विधि से कार्य करने को प्रोत्साहित करें ।
(6) महान विद्वानों की जयंती को हर्षोल्लासपूर्वक मनाना चाहिए ।
(7) विद्यालय में विभिन्न उत्सव, शांति मार्च, रैली आदि का आयोजन करना चाहिए। साथ ही साथ साक्षरता रैली, मेहंदी प्रतियोगिता जैसी पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिए।
समूह गत्यात्मकता का शैक्षिक महत्त्व (Educational Importance of Group Dynamics)– आधुनिक समय में समूह गतिकी का महत्त्व केवल सामाजिक मनोविज्ञान में ही नहीं बल्कि शिक्षा मनोविज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्र में भी अधिक है। इसका ज्ञान होने पर शिक्षकों को विशेष लाभ प्राप्त हुआ है। अतः समूह गतिकी को शिक्षा मनोविज्ञान में विशेष महत्त्व दिया जाता है जो निम्न हैं—
(1) समूह गतिकी का ज्ञान होने से छात्रों के मानसिक स्तर को सही कर सकते हैं। छात्रों को उस बल का ज्ञान हो जाता है जिसके कारण उनमें आपस में संघर्ष, मानसिक तनाव उत्पन्न होते हैं तथा जिसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।
(2) समूह गतिकी के आधार पर जिन बच्चों को शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता है। वे उसमें व्याप्त असुरक्षा की भावना, हीनता की भावना को दूर कर सकते हैं।
(3) इसके द्वारा शिक्षक को छात्रों में सहयोगिता आत्मसम्मान आदि शीलगुणों को विकसित करने में सहायता मिलती है।
(4) समूह गतिकी का ज्ञान होने पर शिक्षक पाठ्यक्रम के अनुरूप उचित अध्यापन विधियाँ अपना लेते हैं।
(5) यदि अध्यापक को समूह गतिकी का ज्ञान है तो वह छात्रों की मूल समस्याओं का कारण पता लगा लेते हैं तथा उसके निराकरण की कोशिश करते हैं ।
(ii) सामाजिक पूर्वाग्रह (Social Prejudice)— पूर्वाग्रहों का निर्माण एकमात्र सामाजिक वातावरण के द्वारा होता है और वह समाज को अच्छे तथा बुरे दोनों ही रूपों में प्रभावित कर सकता है। पूर्वाग्रह द्वारा ही समाज में अशान्ति, अत्याचार, हिंसा, विरोध आदि को बल मिलता है क्योंकि समाज में रूढ़ियुक्त परम्पराएँ होती हैं तथा ये रूढ़ियुक्तियाँ ही पूर्वाग्रह को जन्म देती हैं तथा कुछ सीमाओं तक स्वयं ही पूर्वाग्रह का कार्य करती हैं। समाज में अभिवृत्ति का ज्ञान भी पूर्वाग्रह द्वारा ही होता है क्योंकि ये पूर्वाग्रह की ओर संकेत करती हैं। पूर्वाग्रह समाज को हानि पहुँचाकर उसके विकास में रुकावट डालती है तथा लाभ की युक्ति से समाज में उत्तरदायित्व की भावना, मर्यादा व संतुलन को बनाए रखती हैं।
सामाजिक पूर्वाग्रह का आधार रूढ़ियुक्तियाँ (Basis of Social Prejudice – Stereotypes )— पूर्वाग्रह का आधार रूढ़ियुक्तियाँ ही होती हैं। इन दोनों में प्रकार’ का अन्तर न होकर केवल ‘अंश’ का अन्तर होता है। कभी-कभी रूढ़ियुक्तियाँ ही पूर्वाग्रह बन जाती हैं, व्यक्ति, वर्ग, जाति, धर्म आदि के प्रति अभिवृत्ति रूढ़ियुक्ति तथा पूर्वाग्रह दोनों के द्वारा की जा सकती है ।
रूढ़ियुक्तियाँ अति सरलीकृत संज्ञान होती हैं जिनकी सहायता से जटिल सामाजिक परिवेश के साथ समायोजन स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। ये रूढ़ियुक्तियाँ निम्न प्रकार की होती हैं
(1) जातीय तथा त्रिजातीय रूढ़ियुक्तियाँ (Racial and Ethnic Stereotypes )— काट्ज एवं ब्रेली में 84 जातियों का विश्लेषण कर 10 जातीय समूहों का वर्णन प्रिंसटन विश्वविद्यालय के स्नातकों पर किया । विभिन्न समूहों के लिए विशेषणों के चयन में उच्च सहमति पाई गयी, यहाँ तक कि प्रयोज्यों ने किसी समूह विशेष के लिए नकारात्मक विशेषताओं का भी प्रयोग बिना किसी संकोच के किया । गिलबर्ट कॉफमैन ने समय के साथ रूढ़ियुक्तियों में परिवर्तन पाया। पहला परिवर्तन था कि प्रयोज्यों ने अनेक समूहों के लिए बाद में धनात्मक विश्लेषणों का चयन किया दूसरा परिवर्तन प्रायोगिक सामग्री के प्रति प्रयोज्यों की अनुक्रिया के रूप में था।
भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने भी इस क्षेत्र में कार्य किया तथा उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि बाह्य समूह की तुलना में अन्तःसमूह के प्रति अधिक अनुकूल रूढ़ियुक्तियाँ पाई गई। पंचमाई में 150 छात्र कॉलेज के विद्यार्थियों में से लिए जो सामान्यतः सन्थाल, और्गव तथा मुण्डा नामक जाति के थे, जिनमें आधे क्रिश्चियन थे आधे नहीं थे। इन छात्रों को 25 अनुकूल तथा 25 प्रतिकूल विशेषणों में से केवल तीन जनजातीय समूहों को ही नहीं अपितु यूरोपीय तथा भारतीय क्रिश्चियनों का वर्णन करने वाले विशेषणों को चुनना था । क्रिश्चियन जनजातियों ने अपनी जनजातीय पहचान की तुलना में धार्मिक पहचान को विशेष महत्त्व दिया। उदाहरण के लिए एक क्रिश्चियन संथाल व मुण्डा तथा और्गव जैसी जनजातियों की तुलना में अपने आपको भारतीय क्रिश्चियन के साथ अधिक निकट से सम्बन्धित बताया।
(2) लिंगयुक्त रूढ़ियुक्तियाँ (Sexual Stereotypes )– परम्परागत दृष्टिकोण के अनुसार पुरुष स्वभाव में आक्रामकता, स्वतंत्रता, आकांक्षा तथा स्त्रियों में शर्म, सौम्यता, शान्ति तथा गृहस्थी प्रेम को स्वीकार किया गया है। नाम या पद के आधार पर ही उनके लिंग की पहचान की जाती है, जैसे—यदि किसी नर्स का जिक्र होता है तो सम्भवत: उसे महिला ही समझा जाता है तथा मिस्त्री को सामान्यतः पुरुष ही समझा जाता है ।
ब्रोवरमैन, वोगल ब्रोवरमैन, क्लार्कसन के अपने अध्ययन में बताया कि उत्साह, स्नेह, अभिव्यक्तिपरक विशेषताएँ महिलाओं के लिए तथा सक्षमता की विशेषताएँ पुरुषों के लिए प्रयुक्त होती हैं ।
(3) आयु से सम्बन्धित रूढ़ियुक्तियाँ (Stereotypes Related to Age)– लैंगर ने बुढ़ापे की रूढ़ियुक्तियों में, निष्क्रियता, अलगाव तथा बुढ़ापा माना है। बटलर ने कहा कि बूढ़े लोगों के प्रति एक नकारात्मक प्रत्यय है। जिसके आधार पर उनके प्रति विभेदन का व्यवहार किया जाता है। वास्तव में कुछ चिकित्सक तो बूढ़े लोगों का इलाज करते समय भी उन्हें बुड्ढा या बुढ़िया उपनाम से पुकाराते हैं ।
पूर्वाग्रह के भेद (Kinds of Prejudice)– पूर्वाग्रहों का निर्माण एक समाज में ही सम्भव है तथा उसके भेद समाज में व्याप्त जाति, वर्ग, धर्म, भाषा, संस्कृति, वेशभूषा पर आधारित मानकर किए गए हैं। इन भेदों को निम्न रूप से व्यक्त किया जाता है—
(1) जातीयता पर आधारित पूर्वाग्रह— वे पूर्वाग्रह जो जातिगत भेद तथा जातियों के विरोध के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, जातिगत पूर्वाग्रह कहलाते हैं।
(2) धर्म पर आधारित पूर्वाग्रह– जो पूर्वाग्रह धार्मिक विश्वासों के अन्तर, भेद, विरोध के कारण उत्पन्न होते हैं धार्मिक पूर्वाग्रह कहलाते हैं । ये जातिगत पूर्वाग्रह से अधिक व्यापक होते हैं। इनके सामने जातीय पूर्वाग्रह नगण्य हैं ।
(3) आर्थिक संस्थाओं पर आधारित पूर्वाग्रह– मिल मालिक और मजदूर दल, सेठ और निर्धन, पूँजीवादी तथा साम्यवादी एक दूसरे के विरोधी आर्थिक विचारधारा रखते हैं तथा एक दूसरे के प्रति लोग पूर्वाग्रह रखते हैं।
(4) रुचियों पर आश्रित पूर्वाग्रह– प्रत्येक व्यक्ति की रुचि में भिन्नता पाई जाती है। सबकी पहनने की रुचि, कार्य करने की रुचि, खाना खाने की रुचि में भिन्नता पाई जाती है। कोई संगीत व नृत्य में रुचि लेता है तो कोई इसे विलासिता समझ कर इसे बहिष्कृत करता है। इस प्रकार रुचियों के दल भिन्न-भिन्न होते हैं तथा इसके प्रति पूर्वाग्रह बन जाते हैं ।
(5) संस्कृति पर आश्रित पूर्वाग्रह– प्रत्येक समाज की एक संस्कृति होती है लेकिन संस्कृति अपनाने वाले व्यक्ति अपनी ही संस्कृति को उच्च मानते हैं तथा अन्य संस्कृतियों को नीचा समझते हैं। इस प्रकार व्यक्ति विरोधी संस्कृतियों के प्रति पूर्वाग्रह बना लेते हैं। उदाहरण के लिए, पाश्चात्य संस्कृति वाले भारतीय संस्कृति तथा भारतीय संस्कृति वाले पाश्चात्य संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह बना लेते हैं ।
समाज में व्याप्त पूर्वाग्रह के निराकरण के उपाय (Means to Eliminate Prejudice in Society)—व्यक्ति तथा समाज दोनों ही स्तर पर पूर्वाग्रह के भयंकर परिणाम को देखते हुए मनोवैज्ञानिकों ने इसके निराकरण हेतु अनेक तकनीकों का विकास किया है। इसे निम्न के द्वारा दूर किया जा सकता है—
(1) समाजीकरण द्वारा– बच्चों में विभिन्न तरह की अभिवृत्तियों के विकास में माता-पिता की भूमिका निर्णायक होती है। कोई भी बच्चा जन्म से ही पूर्वाग्रह युक्त नहीं होता है। अनुसंधानों से ये सिद्ध हो चुका कि यदि प्रभुत्वशाली पालन पोषण के तरीके को कम कर दिया जाए तो पूर्वाग्रह में कमी लायी जा सकती है। इस प्रकार माता-पिता को निष्ठुर तथा दण्डात्मक अनुशासन के खतरों को बताकर कुछ सीमा तक उन परिस्थितियों को रोका जा सकता है जिससे भविष्य में पूर्वाग्रह का विकास हो सकता है ।
(2) प्रबोधन द्वारा (By Exhortation)— इसके अन्तर्गत व्यक्ति को यह दिखाने का प्रयास किया जाता है कि जातीय तथा धार्मिकता के आधार पर व्यक्तियों में विभेद नहीं करना चाहिए। नैतिक तथा तार्किक अनुरोध के द्वारा यह दिखाया जाता है कि पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिए मानदण्डों का समान अधिकार से प्रयोग किया जा सकता है।
(3) प्रशिक्षण द्वारा (By Training)– प्रशिक्षण विधि के माध्यम से विभिन्न समूहों के प्रति विंध्यात्मक अभिवृत्ति बनाने के बारे में शिक्षा दी जाती है । क्लाइजो ने बताया कि अनेक विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में इन प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत अल्पसंख्यक समूह के बारे में जानकारी बढ़ाने तथा उस समूह के प्रति भावना में परिवर्तन लाने का प्रयास आदि कार्यक्रम चलाए गए हैं। परन्तु आज तक इन कार्यक्रमों की सफलता का मूल्यांकन करने का कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ ।
(4) आत्मसातीकरण सांस्कृतिक (Culturas  Assimilation)— इस विधि में प्रयोज्यों को दूसरे समूह के मानकों तथा जीवन शैलियों के बारे में इस उद्देश्य से बताया जाता है कि वे दूसरे समूह के सदस्यों के व्यवहार के प्रति अत्यधिक सही आरोपण कर सकें तथा पहले से निर्मित भ्रामक धारणाओं का त्याग कर सकें।
(5) वर्णभेद दूर करना– समाज में विभिन्न वर्ण के लोग रहते हैं तथा उनमें आपस में एक दूसरे के प्रति बहुत से पूर्वाग्रह हैं इन पूर्वाग्रहों को शिक्षा के माध्यम से दूर किया जाता है।
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