“बहुत अधिक राजनैतिक दल भारतीय राजनीति के लिए अभिशाप हैं।” इस तथ्य बिहार के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट कीजिए।
“बहुत अधिक राजनैतिक दल भारतीय राजनीति के लिए अभिशाप हैं।” इस तथ्य बिहार के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट कीजिए।
अथवा
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में एकदलीय राजनैतिक व्यवस्था का उल्लेख करते हुए भारत की बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था के उद्भव के स्वरूप को स्पष्ट करें।
अथवा
बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था की कमियों की बिहार के सन्दर्भ में व्याख्या करें।
अथवा
निष्कर्ष में संतुलित दृष्टिकोण रखें।
उत्तर- आधुनिक प्रजातांत्रिक राज्यों के कार्यकलापों के लिए दलीय प्रणाली का अहम स्थान है। भारत में दलीय व्यवस्था के स्तर पर विकास का एक लम्बा इतिहास रहा है, जो कि स्वतंत्रता प्राप्त के बाद से ही अनवरत अनेक सन्दर्भों में अभिव्यक्त होता रहा है। शुरुआती दौर में कांग्रेस नेतृत्व वाली एकल दलीय वर्चस्व की स्थिति उत्पन्न हुई, जहाँ विपक्ष का अस्तित्व नगण्य सा रहा । साठ के दशक के मध्य से कांग्रेस के इस वर्चस्व की स्थिति में ह्रास का संकेत मिलना आरम्भ हो गया। परिणामस्वरूप केन्द्र में 1977 में गैर कांग्रेस सरकार पहली बार सत्तासीन होने के बाद बहुदलीय व्यवस्था का विकास हुआ।
> बहुदलीय प्रणाली का स्वरूप
विश्व के अनेक देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की दलीय व्यवस्था पाई जाती है। एकदलीय, द्विदलीय एवं बहुदलीय स्वरूप आदि। हमारे देश की दलीय व्यवस्था देश की विविधता की द्योतक / परिचायक है। जिस प्रकार अनेक धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति के लोग एक साथ रहते हैं, अपने विचारों को राजनीतिक रूप में प्रस्तुत करने हेतु एक दल का गठन करते हैं, इसी रूप में हमारे देश में बहुदलीय पद्धति का सशक्त विकास हुआ है। हालांकि 1967 तक अनेक दलों के होने के साथ ही कांग्रेस का वर्चस्व विद्यमान था। भारत के अन्दर बहुदलीय स्वरूप का विकास इस देश के सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में निहित है।
> बहुदलीय व्यवस्था का भारतीय राजनीति पर प्रभाव
भारतीय राजनीति पर बहुदलीय व्यवस्था के प्रभाव को सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है, किन्तु यहां प्रश्नानुसार नकारात्मक पक्ष पर ही ज्यादा तर्क प्रस्तुत करने हैं जिन्हें निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
1. गठबंधन सरकार का निर्माण : चूंकि गठबन्धन की सरकार विभिन्न दलों से मिलकर बनती है और इनके विचार एवं हित अलग-अलग होते हैं। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती देश के महत्वपूर्ण मुद्दो को छोड़ दलीय समन्वय बनाने की होती है।
2. अस्थिर सरकार : 1979 में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में मिली-जुली सरकार को दलीय स्वार्थ, सैद्धांतिक मतभेद एवं राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण केवल 23 दिन बाद ही त्याग-पत्र देना पड़ा। ऐसे ही अन्य उदाहरण 1989 में वीपी सिंह सरकार, 1990 में चन्द्रशेखर सरकार के पतन के रूप में देखे जा सकते हैं।
3. बारम्बार चुनाव का बोझः जब अल्प समय में ही सरकार गिर जाती है तो समय से पहले ही देश पर चुनाव का बोझ आ पड़ता है, जिसमें हजारों करोड़ रुपये का अपव्य हो जाता है। यह भारत जैसे विकासशील देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।
4. जातीय एवं क्षेत्रीय संकीर्णता: भारत में अनेक दल ऐसे हैं, जो लोगों में जातीय एवं क्षेत्रीय संकीर्णता का भाव उत्पन्न करते हैं। उदाहरण स्वरूप बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र के अनेक छोटे दल ।
5. राष्ट्रीय मुद्दों से भटकाव : अनेक छोटे-छोटे दल उपत्पन्न होने से आम लोगों का ध्यान राष्ट्रीय मुद्दों से हटकर क्षेत्रीय मुद्दों पर ही लगा रहता है, जिससे आम लोगों में राष्ट्रीयता की भावना में ह्रास होता है।
> बिहार के सन्दर्भ में बहुदलीय राजनीति
बिहार में अनेक क्षेत्रीय दल जैसे- जनता दल यूनाइटेड (जदयू) राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) आदि हैं। इसी के साथ यहां राष्ट्रीय स्तर के दलों जैसे, भाजपा, कांग्रेस, माकपा, बसपा आदि का भी प्रभाव है।
बिहार में इतने अधिक राजनीतिक दलों की विद्यमानता के कारण राजनीतिक रूप से उठापटक चलती रहती है। बिहार में 2017 में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उस समय उपस्थित हो गयी थी जब नीतिश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल यूनाइटेड ने लालू प्रसाद यादव की पार्टी (राष्ट्रीय जनता दल) के साथ बने गठबंधन को तोड़ दिया। परन्तु बाद में जेडीयू ने भाजपा के साथ गठबंधन करके जुगाड़ की सरकार बनायी।
उपर्युक्त की भांति अनेक उदाहरण हैं, जिसमें बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली में क्षेत्रीय दल भारतीय एकता एवं अखण्डता के लिए खतरा पैदा कर देते हैं। क्योंकि वे अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने की दौड़ में साम्प्रदायिक कार्ड, हिन्दू- मुस्लिम का मुद्दा, मॉब लीचिंग जैसे घृणित रास्तों का सहारा लेने लगते हैं। और तो और क्षेत्रीयता की मांग का जोर भी पकड़ने लगता है जिसके परिणाम स्वरूप बिहार जैसे- राज्य को दो हिस्सों में बांटना पड़ा। इस तरह भारत में कहीं भाषाई आधार, तो कहीं धार्मिक आधार, आर्थिक पिछड़ापन एवं क्षेत्रीय असमानता के आधार पर अलग-अलग राज्यों की मांग होने लगती है, जैसे- बिहार में मिथिलांचल ।
हालांकि विविधता भरे समाज में क्षेत्रीय भावना स्वभाविक है, किन्तु सतत् ऐसी मांगों से व्यवस्था में अस्थिरता आ सकती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में कम से कम 50 राज्य होने चाहिए, जबकि कुछ विद्वानों का मानना है कि छोटे राज्यों की बजाय बड़े राज्य ज्यादा सक्षम हैं।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बहुदलीय शासन प्रणाली ने भारत में नई राजनैतिक संस्कृति का निर्माण किया है, त्रिशंकु पार्लियामेण्ट का गठन, दल-बदल की समस्या, छोटे-छोटे राजनैतिक नेताओं में भी शक्ति आकांक्षा पैदा होना बार-बार जांच एजेंसियों, जैसे— सीबीआई, ईडी, कैग आदि का दुरुपयोग का आरोप लगाया जाने लगा है। आपराधिक मामलों को दलों के दबाव से खोला और बन्द किया जाने लगा है। इसके साथ ही साथ सत्ता के नये केन्द्रों का उभरना, संसदीय सिद्धान्तों की अवहेलना, बढ़ता न्यायिक हस्तक्षेप एवं गतिरोध छोटे दल एवं व्यक्तियों द्वारा अपनी अनावश्यक उपयोगिता साबित करने के लिए अबसरवादी राजनीति का दुरुपयोग आदि भी बहुदलीय राजनीति की बड़ी चुनौती और समस्था है, जिससे निपटना भारतीय नेतृत्व एवं नागरिक समाज का दायित्व है।
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