भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रकृति एवं महत्व का मूल्यांकन करें।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना की प्रकृति एवं महत्व का मूल्यांकन करें।

अथवा

प्रस्तावना के विशिष्ट लक्षणों एवं इसके महत्व का मूल्यांकन उदाहरण देते हुए करें ।
उत्तर- भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक वृहद संविधान का आइना है। इसका व्यापक अर्थ है तथा इसे संविधान की कुंजी भी कहते हैं। कई बार संविधान के अस्पष्ट पहलुओं की व्याख्या करने में न्यायपालिका ने प्रस्तावना का सहारा लिया है।
प्रस्तावना में कई विशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है जो प्रस्तावना की प्रकृति को स्पष्ट करते हैं –
> संप्रभुता – प्रस्तावना भारत को एक संप्रभुता – संपन्न राष्ट्र घोषित करता है अर्थात् भारत किसी भी तरह का निर्णय किसी बाहरी शक्ति के दबाव में नहीं लेगा।
> समाजवाद – 42वें संविधान संशोधन (1976) के अंतर्गत ‘समाजवाद’ शब्द को जोड़ा गया । अर्थात् संविधान की नजरों में लोगों के मध्य ज्यादा आर्थिक विषमता न हो, इसका ध्यान रखा जाएगा।
> पंथनिरपेक्ष- प्रस्तावना में शामिल ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द यह बताता है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है तथा किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द को 42वें संविधान संशोधन (1976) के तहत प्रस्तावना में शामिल किया गया।
> लोकतंत्र – भारत का संविधान भारत को एक लोकतंत्रात्मक राज्य घोषित करता है।
>  न्याय – संविधान की प्रस्तावना भारत के समस्त नागरिकों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की बात करता है।
> स्वतंत्रता- नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति और धर्म की उपासना की स्वतंत्रता की बात प्रस्तावना में की गई है।
> समता- संविधान की प्रस्तावना नागरिकों के मध्य अवसर की समता की बात करता है ।
> बंधुता – नागरिकों के मध्य एकता एवं बन्धुता बढ़ाने की बात प्रस्तावना में की गई है। –
इस प्रकार भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक व्यापक अर्थ रखती है जिससे इसकी प्रकृति भारत को एक लोककल्याणकारी राज्य प्रदर्शित करने वाली लगती है।
•  प्रस्तावना का महत्व
प्रस्तावना को विस्तृत संविधान का संक्षिप्त रूप समझा जा सकता है। केवल प्रस्तावना का अध्ययन करके हम संविधान की प्रकृति एवं उद्देश्य को समझ सकते हैं। प्रस्तावना में समाविष्ट शब्द एवं संकल्पनाएं इतने महत्वपूर्ण एवं गरिमामयी हैं कि ये संपूर्ण संविधान के सारांश, दर्शन, आदर्श एवं आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने पाया कि उद्देशिका में संविधान की कुछ ऐसी बुनियादी विशेषताएं अंतर्निहित हैं जिन्हें अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान के किसी संशोधन द्वारा भी बदला नहीं जा सकता।
प्रस्तावना का इतना महत्व होने के बावजूद प्रारंभ में इसे संविधान का भाग नहीं माना गया। 1960 में बेरूबारी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रस्तावना को सामान्य कानून के प्रावधानों पर प्राथमिकता नहीं दी जा सकती। परंतु 1973 में केशवानंद भारती वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मत व्यक्त किया कि प्रस्तावना संविधान का भाग है।
> प्रस्तावना में प्रयुक्त विशिष्ट शब्द जो इसकी प्रकृति को स्पष्ट करते हैंलोकतंत्र • न्याय • स्वतंत्रता • समता • बंधुता संप्रभुता • समाजवाद • पंथनिरपेक्ष
> प्रारंभ में इसे संविधान का भाग नहीं माना गया (बेरूबारी मामला – 1960) परंतु 1973 में केशवानंद भारती वाद में सर्वोच्च न्यायालन ने प्रस्तावना को संविधान का भाग स्वीकार किया।
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