भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का वर्णन कीजिए। किस प्रकार अनुच्छेद 21 की न्यायिक व्याख्याओं ने जीवन के अधिकार के विषय क्षेत्र का विस्तार किया है ?

भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का वर्णन कीजिए। किस प्रकार अनुच्छेद 21 की न्यायिक व्याख्याओं ने जीवन के अधिकार के विषय क्षेत्र का विस्तार किया है ?

अथवा

संविधान में निहित सभी मौलिक अधिकारों की चर्चा कीजिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न वादों में दिए गए निर्णयों को आलोक में रखते हुए अनुच्छेद 21 का विस्तार करें।
उत्तर- संविधान द्वारा नागरिकों को कुछ अधिकार दिए गए हैं। इस अधिकार को कभी कम नहीं किया जा सकता। यदि कोई विधि इसे कम करती है तो उस मात्रा तक उसे शून्य समझा जाएगा । संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12-35 तक इन अधिकारों का वर्णन किया गया है।
भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को 7 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे, किन्तु 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) द्वारा संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से हटा दिया गया है। अब संपत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है। इस प्रकार अब भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 6 मूल अधिकार प्राप्त हैं :
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18 ): भारत में रहने वाले सभी नागरिक समान हैं और अमीर-गरीब, उच्च-नीच में कोई भेदभाव और अंतर नहीं है। किसी भी धर्म, जाति, जनजाति, स्थान का व्यक्ति देश के किसी भी कार्यालय में कोई भी पद को प्राप्त कर सकता है और समान कार्य के लिए समान बेतन प्राप्त कर सकता है, वशर्ते कि वह केवल आवश्यक अर्हताओं और योग्यताओं को रखता हो ।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-19-22) : सभी नागरिक अधिकारों में स्वतंत्रता का अधिकार अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है, जो लोगों को अपने विचारों को भाषणों के द्वारा, लेखन के द्वारा या अन्य माध्यमों / साधनों के द्वारा प्रकट करने में सक्षम बनाता है। इस अधिकार के अनुसार, व्यक्ति समालोचना, आलोचना या सरकारी नीतियों के खिलाफ बोलने के लिए स्वतंत्र है । वह देश के किसी भी कोने में कोई भी व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र है । 44वें संविधान संशोधन द्वारा व्यवस्था की गई है कि प्रेस/ मीडिया संसद व राज्य विधानमण्डलों की कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में पूर्ण स्वतंत्र है और राज्य द्वारा इस संबंध में प्रेस पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। प्रेस को भी विचारों के प्रसार का एक साधन होने के कारण अनुच्छेद-16 में रखा गया है।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद-23-24 ): कोई भी व्यक्ति किसी को उसके / उसकी इच्छा के विरुद्ध या बिना किसी मजदूरी या वेतन के कार्य करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता अथवा 14 साल से कम उम्र के बच्चे से किसी भी तरह का कार्य कराना कानूनन अबैध या बाल शोषण माना जाएगा।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-25-28 ): देश में ऐसे कई राज्य हैं, जहां विभिन्न धर्मों के लोग साथ रहते हैं। हममें से सभी अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने, अभ्यास करने, प्रचार करने के लिए स्वतंत्र हैं। कोई भी किसी के धार्मिक विश्वास में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं रखता है।
5. संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद-29-30) : यह अनुच्छेद देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद की संस्कृति अथवा परंपरा को मानने या पसंद करने की छूट देता है। इसमें प्रत्येक बच्चे को भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है और वह बच्चा या कोई व्यक्ति किसी भी संस्था में किसी भी स्तर तक शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद-32 ): इस अधिकार को ‘संविधान की आत्मा’ कहा जाता है, क्योंकि यह संविधान के सभी अधिकारों की रक्षा करता है। यदि किसी भी स्थिति में किसी नागरिक को ऐसा महसूस होता है कि उसके अधिकारों को हानि पहुंच रही है तो वह न्याय के लिए न्यायालय में जा सकता है। संवैधानिक उपचारों के अधिकारों की व्यवस्था के महत्व को दृष्टि में रखते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, “यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन-सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य को प्राप्त हो जाएगा, तो इस
अनुच्छेद (अनुच्छेद-32) को छोड़कर मैं किसी अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह तो संविधान का हृदय तथा आत्मा है।” पूर्व मुख्य न्यायाधीश गजेन्द्र गडकर ने इसे “भारतीय संविधान का सबसे प्रमुख लक्षण” और संविधान द्वारा स्थापित ‘‘प्रजातांत्रिक भवन की आधारशिला” कहा है।
अनुच्छेद- 32: मूल अधिकारों के उल्लंघन में कोई भी नागरिक निम्न 5 प्रकार के रिट/याचिका दाखिल कर न्यायालय से उपचार मांग सकता है। ये हैं:
1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण
2. परमादेश
3. उत्प्रेषण
4.प्रतिषेध
5. अधिकार पृच्छा
ये मौलिक अधिकार असीमित नहीं हैं, इस पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध भी लगाए गए हैं। इन अधिकारों का उद्देश्य है। नागरिकों के व्यक्तित्व का विकास करना तथा नागरिकों के स्वतंत्रता के विरुद्ध सरकार की शक्तियों को सीमित करना।
उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 21 को संविधान का रीढ़ (Back Bone) भी कहा जाता है। प्राण – दैहिक स्वतंत्रता स्वयं में विषद् विषय है। न्यायालय ने इस पर व्याख्या करने हेतु इस स्वतंत्रता का विस्तार भी किया है।
न्यायालय ने प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता को मात्र मूर्त रूप से प्राण तक सीमित न करते हुए, बल्कि इसे जीवन एवं जीवन जीने की कला तक विस्तार दिया है। विभिन्न वादों में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे विस्तारित कर प्राण एवं दैहिक को अमूर्त स्तर तक विस्तार दिया है।
‘मेनका गांधी वाद’ में सर्वोच्च न्यायालय में ‘विदेश यात्रा’ को भी अनुच्छेद-21 के तहत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में शामिल किया। वहीं ‘चमेली देवी वाद’ में आश्रय पाने की स्वतंत्रता भी अनुच्छेद-21 में शामिल किए गए हैं। शिक्षा के अधिकार को भी 86वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद-21 में जोड़ा गया है।
अनुच्छेद-21 स्वयं में विषद् विषयों को लेकर है, इसकी समय-समय पर व्याख्या के द्वारा विस्तारित कर जीवन जीने के हर क्षेत्र से संदर्भित किया गया है।
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