‘भारत के राष्ट्रपति की भूमिका परिवार के उस बुजुर्ग के समान है जो सभी प्राधिकार रखता है किन्तु यदि घर के शैतान – युवा सदस्य उसकी न सुनें तो वह कुछ भी प्रभावी नहीं कर सकता है । ” मूल्यांकन कीजिए ।
‘भारत के राष्ट्रपति की भूमिका परिवार के उस बुजुर्ग के समान है जो सभी प्राधिकार रखता है किन्तु यदि घर के शैतान – युवा सदस्य उसकी न सुनें तो वह कुछ भी प्रभावी नहीं कर सकता है । ” मूल्यांकन कीजिए ।
अथवा
राष्ट्रपति की नियुक्ति और उसके संवैधानिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों का हवाला देते हुए उसकी शक्तियों अथवा सर्वोच्चता पर प्रकाश डालिए।
अथवा
पूर्व राष्ट्रपतियों द्वरा लिए गए कुछ सराहनीय/विवादास्पद निर्णयों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
अथवा
राष्ट्रपति के ‘विटो पावर’ और उसके विवेकाधीन आने वाले अधिकारों का उल्लेख करें।
अथवा
जनप्रतिनिधित्व क्षमता में राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री की संवैधानिक स्थिति की तुलनात्मक चर्चा करें।
उत्तर – क्या भारत के राष्ट्रपति की भूमिका परिवार के उस बुजुर्ग के समान है जो सभी प्राधिकार रखते हुए भी स्वेछा से कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पाता है? इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर जानने के लिए इससे संबंधित भारतीय संविधान में संबद्ध अनुच्छेदों और पूर्व राष्ट्रपतियों के कार्यों पर गौर करना होगा। संविधान का अनुच्छेद 52 कहता है कि भारत संघ का एक राष्ट्रपति होगा, तो अनुच्छेद 53 कहता है कि भारत संघ की कार्यपालिका की शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होंगी। इसका प्रयोग वह यानी राष्ट्रपति स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा और पूर्वगामी उपबंध के द्वारा व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च समादेश राष्ट्रपति में विहित होगा तथा उसका प्रयोग विधि के द्वारा विनियमित होगा। जाहिर है कि संविधान ने राष्ट्रपति को बहुत बड़ी शक्तियां दी है जो पूरे देश में किसी अन्य के पास नहीं हैं। यही शक्तियां देश में राष्ट्रपति को सर्वोच्च बनाती हैं।
राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद का गठन करता है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। आमतौर पर लोकसभा में बहुमत वाले दल या गठबंधन के नेता को प्रधानमंत्री बनाया जाता है। हालांकि जब लोकसभा में किसी भी दल या गठबंधन के पास स्पष्ट बहुमत नहीं हो तब राष्ट्रपति की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। यद्यपि संविधान इस बारे में स्पष्टतः कुछ नहीं कहता, लेकिन ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति अपने विवेक से किसी ऐसे नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है, जिस पर उसे भरोसा हो कि वह बहुमत साबित कर देगा। ऐसे में राष्ट्रपति के निर्णय पर कुछेक मरतबा विवाद भी खड़ा हुआ है। जैसा कि वर्ष 1979 में चौधरी चरण सिंह से लेकर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक छह बार तत्कालीन राष्ट्रपतियों ने अल्पमत वाले दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। इस दौरान देवगौड़ा मात्र 27 एवं चंद्रशेखर सिंह महज 61 सांसदों के नेता होने के बावजूद प्रधानमंत्री बने।
जब लोकसभा या राज्यसभा से कोई बिल पास होकर राष्ट्रपति के पास आता है तो यह राष्ट्रपति की स्वीकृति या अस्वीकृति देने पर ही निर्भर करता है कि वह बिल कानून में परिवर्तित होगा या नहीं। केन्द्र अथवा किसी राज्य की सरकार को बर्खास्त कर देना, किसी मुजरिम की सजा माफ कर देना। इस संदर्भ में राष्ट्रपति की ‘शक्ति सर्वोच्चता’ और उसकी सीमितता को समझना जरूरी है जिस कारण भारत के सर्वोच्च पद पर आसीन होते हुए भी राष्ट्रपति ‘सत्ता और राजनीति’ के सामने बेबस नजर आते हैं। संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति के हाथ में सरकार का ‘रिमोट कंट्रोल’ होता है। लेकिन हमारी सरकारें और नेता ऐसा राष्ट्रपति खोजते रहे हैं, जिसके हाथ में रिमोट तो हो, लेकिन उसका ‘बटन’ उनकी मर्जी से दबाने वाला हो। सरकारों के लिए राष्ट्रपति पद की अहमियत शादी के उस ‘गौर – गणेश’ की तरह है, जिसको गोबर से बना कर सिर्फ रख दिया जाता है। फिर उसके लिए न तो कोई परेशान होता है और न कभी फिक्रमंद दिखाई देता है।
दरअसल, भारत में आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय राष्ट्रपति पद की परिकल्पना अंग्रेजों की सैकड़ों वर्षों के शासनानुभव से आई। अन्य लोकतांत्रिक देशों में ‘हेड ऑफ द स्टेट’ की बात करें तो अमेरिका में राष्ट्रपति
सर्वशक्तिशाली होता है, जबकि ब्रिटिश ‘हेड ऑफ स्टेट’ का पद महारानी को वंशानुगत मिला हुआ है। भारत के राष्ट्रपति रहे थे। मतलब संविधान की बारीकियों से वे अच्छी तरह वाकिफ थे। की स्थिति अमेरिका तथा ब्रिटेन के सर्वोच्च पद के बीच की मानी जा सकती है। इस तथ्य को सही तरीके से समझने के लिए पूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के उस कथन पर गौर करें तो देश के राष्ट्रपति की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। उन्होंने कहा था कि “मैं न तो रबर स्टाम्प (महारानी की तरह) और न ही एक्जीक्यूटिव (USA President) की तरह कार्य करूंगा, अलबत्ता ‘वर्किंग प्रेसिडेंट’ रहूंगा।” उन्होंने कई मरतबा अपनी बात को सही साबित भी किया। स्मरण रहे कि वर्ष 1997 में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार की उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार को बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को न सिर्फ पुनर्विचार के लिए लौटा दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनके विवेकानुसार उत्तर प्रदेश में अभी ऐसे हालात कतई नहीं हैं। इसी तरह, उन्होंने गुजराल सरकार अल्पमत में आई तो 11वीं लोकसभा को भंग भी कर दिया। इतना ही नहीं, 1999 में कारगिल युद्ध पर चर्चा के लिए राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाने को कहा तो उन्होंने कार्यकाल समाप्त होने का हवाला दे दिया। इस पर राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी जी को याद दिलाया कि 1962 की भारत-चीन की लड़ाई के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। उस वक्त भी लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका था। तब बतौर सांसद आपने (वाजपेयी) तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन से राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाने की मांग की थी। और तो और, उन्होंने वाजपेयी सरकार को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को दो बार पुनर्विचार के लिए लौटा राष्ट्रपति की शक्तियों के प्रयोग का बेहतर नजीर भी पेश किया। यहां उल्लेखनीय यह भी है कि के. आर. नारायणन ने बिहार के तकालीन राज्यपाल सुंदरसिंह भंडारी के उस पत्र का भी काफी लंबा और तर्कपूर्ण जवाब भेजा, जिसमें भंडारी ने बाजपेयी सरकार को बिहार में बढ़ते अपराध के आंकड़ों का हवाला देते हुए राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की थी। नारायणन ने पत्र में तकालीन भाजपा शासित एवं अन्य राज्यों में ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ के आंकड़ों का ब्योरा देते हुए बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने जैसे हालात न होने की बात भी स्पष्ट कर दी थी। उनसे पहले राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने भी अपने कुछ कार्यों से राष्ट्रपति की शक्तियों का आभास कराया था। उन्होंने तो कैबिनेट के प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए लौटाने के अधिकार से भी आगे बढ़कर ‘पॉकेट वीटो’ का भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली मरतबा प्रयोग किया और जब राजीव सरकार का ‘पोस्टल बिल’ अपने ही दराज में रख लिया, जो आज तक नहीं निकल पाया। इससे पूर्व इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात उन्होंने परंपरा को तोड़ते हुए वरिष्ठतम मंत्री इंद्रकुमार गुजराल के बजाय राजीव गांधी पर ज्यादा भरोसा किया और उन्हें प्रधानमंत्री बनाया। इतना ही नहीं, उन्होंने कई मरतबा अपने क्रियाकलापों से राष्ट्रपति पद की शक्तियों का अहसास भी कराया। नारायणन के उत्तरवर्ती राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी यूपीए सरकार के ‘ऑफिस ऑफ प्रॉफिट’ बिल (2006) को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था, जिसे सरकार के दोबारा भेजने पर उन्होंने हस्ताक्षर तो कर दिए, लेकिन यह कहने में भी गुरेज नहीं किया कि मुझे मजबूरन दस्तखत करने पड़े । इन सबके पहले देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने भी 1952 में ‘हिन्दू कोड बिल’ को रोक दिया था जिसे 1955 में नेहरू सरकार द्वरा दोबारा भेजने के बाद स्वीकृत कर लिया था। हालांकि एक समारोह में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि “मैं कोई ‘रबर स्टाम्प’ राष्ट्रपति नहीं हूं।” उनके इस वक्तव्य से राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों का दायरा स्पष्ट हो जाता है क्योंकि वे न सिर्फ एक न्यायविद थे, बल्कि ‘संविधान निर्मात्री सभा’ के अध्यक्ष भी
इन सब के उलट कुछ महामहिमों के संसदीय / मंत्रीमण्डलीय अनुमोदनों को देखें तो चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग के कारण रायबरेली सीट पर इंदिरा गांधी की जीत को इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा रद्द करने पर 25 जून, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा कर दी जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद फैसला माना जाता है। इसे लेकर आज भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति फखरुद्दीनअली अहमद की आलोचना होती रहती है। इधर हालिया वर्षों में देखें तो 2016 में ‘गणतंत्र दिवस’ के दिन अरुणाचल प्रदेश में NDA सरकार के राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश को मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तत्परता से मंजूर कर ली । वह भी तब जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा हो। हालांकि विशेषज्ञों में उनका यह फैसला सही नहीं माना जाता । मौजूदा समय में सबसे ज्यादा विवादित रहे ‘तीन कृषि कानूनों’ के साथ कोरोना काल (लॉकडाउन) में ही संसद से पारित किए गए कई विवादास्पद विधेयकों को राष्ट्रपति रामनाथ कोविद ने जितनी तत्परता से पास कर दिया उसे लेकर भी आलोचना होती रही है।
जहां तक प्रतिनिधित्व की भूमिका को देखें तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के चयन में यहां राष्ट्रपति का पलड़ा भारी लगता है। दरअसल, प्रधानमंत्री का चुनाव लोकसभा सदस्य बहुमत से करते हैं, जबकि राष्ट्रपति का निर्वाचन लोकसभा, राज्यसभा और सभी राज्यों के विधानसभा के सदय करते हैं। जाहिर है कि राष्ट्रपति की प्रतिनिधित्व शक्ति प्रधानमंत्री से अधिक होती है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री को तो बर्खास्त किया जा सकता है, लेकिन राष्ट्रपति को सदन में दो तिहाई बहुमत से सिर्फ महाभियोग द्वारा ही अपदस्त किया जा सकता है।
निष्कर्षतः तमाम पहलुओं पर मंथन के बाद साफ होता है कि राष्ट्रपति की भूमिका एक बुजुर्ग अभिभावक वाली नहीं है, बल्कि वह चाहे तो अपने दायित्वों के निर्वहन में राष्ट्रहित अथवा जनहित को सर्वोपरि रख कर सक्रिय रूप से देश का सर्वप्रमुख हो सकता है। बहरहाल, जब राष्ट्रपति सर्वाधिक ताकतवर कार्यपालिका के फैसले को रोक (पॉकेट वीटो) सकता है, किसी सरकार को बर्खास्त कर सकता है, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय (फांसी) को बदल सकता है, तो कुछेक राष्ट्रपतियों की प्रतीकात्मक अथवा गौर-गणेश वाली भूमिका के आधार पर उसे एक बुजुर्ग अभिभावक अथवा ‘रबर स्टाम्प’ कहना कतई उचित प्रतीत नहीं होता। हां, यह निर्भर है इस सर्वोच्च पद पर बैठे देश के उस प्रथम नागरिक की मंशा पर जिसकी वैयक्तिक निष्ठा राष्ट्रोन्मुखी है या सत्ता उन्मुखी।
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