यू.पी.पी.एस.सी. 2019 मुख्य निबंध

यू.पी.पी.एस.सी. 2019 मुख्य निबंध

विशेष अनुदेश:
(i) प्रश्न-पत्र तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड से केवल एक-एक विषय का चयन कर कुल तीन निबंध हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा उर्दू भाषा में लिखिए।
(ii) प्रत्येक निबंध में कुल प्रयुक्त शब्दों की अधिकतम सीमा 700 शब्दों की है।
(iii) प्रत्येक निबंध के लिए 50 अंक निर्धारित है।
खण्ड – क

1. साहित्य और नैतिक मूल्य

> नीति शास्त्र
एक साहित्यकार समाज की वास्तविक तस्वीर को सदैव अपने साहित्य में उतारता रहा है। मानव जीवन समाज का ही एक अंग है। मनुष्य परस्पर मिलकर समाज की रचना करते हैं। इस प्रकार समाज और मानव जीवन का संबंध भी अभिन्न है। समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषदों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित किया है।
दूसरे शब्दों में, किसी भी काल के साहित्य के अध्ययन से हम तत्कालीन मानव जीवन के रहन-सहन व अन्य गतिविधियों का सहज ही अध्ययन कर सकते हैं या उसके विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। एक अच्छा साहित्य मानव जीवन के उत्थान व चारित्रिक विकास में सदैव सहायक होता है।
साहित्य से उसका मस्तिष्क तो मजबूत होता ही है साथ ही साथ वह उन नैतिक गुणों को भी जीवन में उतार सकता है जो उसे महानता की ओर ले जाते हैं। यह साहित्य की ही अद्भुत व महान शक्ति है जिससे समय-समय पर मनुष्य के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
साहित्य ने मनुष्य की विचारधारा को एक नई दिशा प्रदान की है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की विचारधारा परिवर्तित करने के लिए साहित्य का आश्रय लेना पड़ता है। आधुनिक युग के मानव जीवन व उनसे संबंधित दिनचर्या को तो हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं, परंतु यदि हमें प्राचीन काल के जीवन के बारे में अपनी जिज्ञासा को पूर्ण करना है तो हमें तत्कालीन साहित्य का ही सहारा लेना पड़ता है।
वैदिक काल में भारतीय सभ्यता अत्यंत उन्नत थी। हम अपनी गौरवशाली परंपराओं पर गर्व करते हैं। तत्कालीन साहित्य के माध्यम से हम मानव जीवन संबंधी समस्त जानकारी प्राप्त कर सकते हैं तथा उन जीवन मूल्यों का अध्ययन कर सकते हैं, जिन्हें आत्मसात् करके तत्कालीन समाज उन्नत बना।
इस प्रकार जीवन और साहित्य का अटूट संबंध है। साहित्यकार अपने जीवन में जो दुःख, अवसाद, कटुता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, दया आदि का अनुभव करता है उन्हीं अनुभवों को वह साहित्य में उतारता है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी देश में घटित होता है, जिस प्रकार का वातावरण उसे देखने को मिलता है, उस वातावरण का प्रभाव अवश्य ही उसके साहित्य पर पड़ता है।
यदि हम इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखें तो हम पाते हैं कि साहित्यकार के क्रांतिकारी विचारों ने राजाओं-महाराजाओं को बड़ी-बड़ी विजय दिलवाई है। अनेक ऐसे राजाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने स्वयं तथा अपनी सेना के मनोबल को उन्नत बनाए रखने के लिए कवियों व साहित्यकारों को विशेष रूप से अपने दरबार में नियुक्त किया था। मध्यकाल में भूषण जैसे वीर रस के कवियों को दरबारी संरक्षण एवं सम्मान प्राप्त था। बिहारीलाल ने अपनी कवित्व-शक्ति से विलासी महाराज को उनके कर्तव्य का भान कराया था। संस्कृत के महान साहित्यकारों कालीदास और बाणभट्ट को अपने राजाओं का संरक्षण प्राप्त था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवन और साहित्य को पृथक् नहीं किया जा सकता। उन्नत साहित्य जीवन को वे नैतिक मूल्य प्रदान करते हैं जो उसे उत्थान की ओर ले जाते हैं। साहित्य के विकास की कहानी वास्तविक रूप में मानव सभ्यता के विकास की ही गाथा है।
जब हमारा देश अंग्रेजी सत्ता का गुलाम था तब साहित्यकारों की लेखनी की ओजस्विता राष्ट्र के पूर्व गौरव और वर्तमान दुर्दशा पर केंद्रित थी। इस दृष्टि से साहित्य का महत्व वर्तमान में भी बना हुआ है। आज के साहित्यकार वर्तमान भारत की समस्याओं को अपनी रचनाओं में पर्याप्त स्थान दे रहे हैं।
वास्तव में जीवन के शाश्वत मूल्य सत्यं शिवं सुंदरं तीनों की सामंजस्यपूर्ण प्रतिष्ठा ही सफलता की पराकाष्ठा है। ‘हितेन सह सहितं’ कहकर साहित्य शब्द के व्याख्याकारों ने उसमें स्वयं कल्याण भावना की प्रतिष्ठा की है। साहित्य में जीतना संदेश होता है, जैसे ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ उसी प्रकार धर्म और साहित्य का घनिष्ठ संबंध होता है। यदि समाज न होता तो साहित्य भी नहीं होता यदि साहित्य होगा तो समाज भी होगा। समष्टि ही साहित्य में अभिव्यंजित है। अतः मानव साहित्य और समाज के बाहर जी नहीं सकता। साहित्य जिन मानव मूल्यों को ग्रहण कर उनके स्वरूप को अभिव्यक करता है, वे साहित्यिक मूल्य कहलाते हैं। मानव मूल्य एवं साहित्यिक मूल्य वस्तुतः एक ही हैं।
उपनिषदों के ‘सत्यम वद धर्म चर से लेकर कबीर तथा तुलसीदास से लेकर रहीम के नीति काव्य तक व्याप्त नीति साहित्य मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रत्यक्ष प्रयास है।’

2. यौन अपराध: कारण एवं निवारण

> समाज
एक ओर भारतीय नेतृत्व में इच्छाशक्ति तो बढ़ी है, लेकिन विडम्बना यह है कि आम नागरिक महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर स्वभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं।
हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार जारी है, लेकिन यह बिडम्बना ही कही जायेगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इस कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पायी है। देश के हर कोने से महिलाओं के साथ दुष्कर्म, यौन प्रताड़ना, दहेज के लिये जलाया जाना, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना और स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। साथ ही छोटे से बड़े हर स्तर पर असमानता और भेदभाव के कारण इसमें गिरावट के चिन्ह कभी नहीं देखे गए। देश में लोगों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है और इसका पालन पूरी गंभीरता और इच्छाशक्ति से नहीं होता है। महिला सशक्तिकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं।
> यौन अपराध के कारण 
न्याय में देरी: भारत में बीते एक दशक में बलात्कार के जितने भी मामले दर्ज हुए हैं, उनमें केवल 12 से 20 फीसदी मामलों में सुनवाई पूरी हो पायी । बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या तो बढ़ रही हैं, लेकिन सजा की दर नहीं बढ़ रही है।
खत्म होता सजा का भयः दुष्कर्म और फिर हत्या के मामलों में न्याय में देरी होने के कारण ही गुनहगारों में सजा का भय खत्म होता जा रहा है। कानून में मौत की सजा के प्रावधान होने के बाद भी बलात्कार की घटनाओ में कोई कमी नहीं दिख रही है।
अश्लील सामग्री: दुनिया भर के समाजशास्त्री, राजनेता, कानूनविद और प्रशासनिक अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि बढ़ते यौन अपराधों का यह एक बड़ा कारण है। टेलीकॉम कंपनियों द्वारा सस्ती दरों पर उपलब्ध कराए जा रहे डाटा का 80 प्रतिशत उपयोग मनोरंजन व अश्लील सामग्री देखने में हो रहा है, जबकि इसे सूचनात्मक ज्ञान बढ़ाने का आधार बताया गया था। कुछ वर्षों पहले ‘निर्भया’ और अब हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ हुए दुष्कर्म के कारणों में एक कारण स्मार्टफोन पर उपलब्ध अश्लील फिल्में भी मानी जा रही हैं। अश्लील फिल्में देखने के बाद दुष्कर्मियों ने दुष्कर्म करना स्वीकारा है, लिहाजा यह तथ्य सत्य के निकट है।
पुरुषवादी मानसिकताः देश भर के कम उम्र के लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) इस बारे में टिप्पणी करता है कि किस तरह ऐसी विषाक्त मर्दानगी की भावनाएं युवाओं
के जहन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है तथा उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दानगी है।
प्रशासनिक उदासीनता: निर्भया कोष के आवंटन के संबंध में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार आवंटित धनराशि में से 11 राज्यों ने एक रुपया भी खर्च नहीं किया। इन राज्यों में महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव शामिल हैं।
> महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए प्रभावी कदम
महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार को प्रयास करना चाहिए कि मोबाइल कंपनियां सभी मोबाइल फोन्स में अब पैनिक बटन अनिवार्य करें ताकि महिलाएं इस बटन को दबाकर तुरन्त मदद मांग सकें, साथ ही ये ध्यान रखा जाए कि सही समय पर उन तक मदद पहुंचे। किसी भी तरह की आपातकालीन स्थिति में स्थानीय पुलिस तुरन्त महिला की मदद के लिए पहुंचे। हिमाचल प्रदेश और नागालैंड राज्यों में ये पहले ही शुरू हो चुका है, आज इसे सभी राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में शुरू किया जाना चाहिए। सरकार प्रत्येक चिह्नित शहर में ऐसे स्थानों की पहचान करे, जहां अपराध ज्यादा होते हैं। इन स्थानों पर सीसीटीवी की निगरानी बढ़ाई जानी चाहिए। प्रत्येक शहरों में स्वचालित नम्बर प्लेट रीडिंग (एएनपीआर) और ड्रोन आधारित निगरानी भी करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
प्रत्येक ऑफिस में एक यौन उत्पीड़न शिकायत समिति बनाना नियोक्ता का कर्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी एक दिशा-निर्देश के अनुसार, यह भी जरूरी है कि समिति का नेतृत्व एक महिला करे और सदस्यों के तौर पर उसमें पचास फीसदी महिलाएं ही शामिल हों। साथ ही, समिति के सदस्यों में से एक महिला कल्याण समूह से भी हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप एक स्थायी कर्मचारी हैं या नहीं। वास्तव में, महिला सुरक्षा के लिए खुद महिला को सक्षम होना होगा। हिम्मत, वीरता और साहस को उसे अपने महत्वपूर्ण गुण बनाना होगा। बलात्कार की घटनाओं में कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है यदि हम महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा- मां और बहन का सम्मान करें।

3. एक देश, एक संविधान 

> राजनीति
वस्तुत: ‘एक देश, एक संविधान’ उस समय चर्चा का विषय बना जब जम्मू-कश्मीर से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A के प्रभाव को न्यूनतम किया गया ।
एक राष्ट्र के इतिहास में विरले ही ऐसे क्षण होते हैं जब एक अद्भुत निर्णय से उसका प्रारब्ध तय होता है। ऐसे निर्णयों से इतिहास की धारा और राष्ट्र की यात्रा एक नई ऊर्जा एवं आत्मविश्वास से अनुप्राणित हो उठती है। इससे ऐसे भविष्य के प्रति एक आशा और विश्वास का संचार होता है जिसमें अनेक सफलताओं एवं उपलब्धियों की गाथा लिखी जाती है। जब ऐसे अद्भुत निर्णय लिये जाते हैं तब इसका प्रभाव समस्त राष्ट्र जीवन पर पड़ता है। पूरा राष्ट्र जीवन इस प्रभाव से मानो बसन्त के नए पुष्पों एवं पल्लवों से सुवासित हो उठता है। धारा 370 एवं 35A की समाप्ति तथा जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन भारत के इतिहास में वैसा ही एक अद्भुत निर्णय है। यह वैसा निर्णय है जिसका समस्त राष्ट्र को दशकों से इंतजार था, परन्तु जिस तरह के राजनीतिक वातावरण से पूरा देश ग्रसित था, उसमें यह दुष्कर ही नहीं असंभव सा प्रतीत होता था। ऐसे ऐतिहासिक निर्णय के लिए अत्यधिक दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता थी जो आत्मविश्वास से परिपूर्ण और दृढ़ निश्चयी हो। जैसे ही यह निर्णय लिया गया और जिस क्षण संसद ने इस पर विचार कर इसे भारी बहुमत से दोनों सदनों में पारित किया, पूरे राष्ट्र ने एकजुट होकर इसका उत्सव मनाया। इतिहास के पन्नों में ये क्षण स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुके हैं।
अनुच्छेद 370 का समर्थन करने वालों का मुख्य तर्क है कि जम्मू-कश्मीर राज्य अपने विशेष इतिहास के कारण विशेष राज्य का दर्जा पाने का हकदार है। लेकिन ऐसा कहने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि भारत जितना विशाल देश है उतनी ही विविधता अपने में समाविष्ट किए हुए हैं। ऐसे में इस देश के हर क्षेत्र का अपना एक इतिहास और विशिष्टता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर का अपना एक इतिहास है, लेकिन ऐसे ही अन्य क्षेत्रों का भी अपना इतिहास है जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि ये विशिष्टता अकेले नहीं आती, बल्कि साझा इतिहास और सांस्कृतिक एकजुटता इसे विशिष्ट बनाती है और इस मामले में जम्मू-कश्मीर कोई अपवाद नहीं है। कश्मीरियत का एक ऐसी सांस्कृतिक इकाई के रूप में चित्रण किया जा रहा है, जिस पर कोई खतरा मंडरा रहा है और इसके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कानूनी संरक्षण की आवश्यकता है। कश्मीरियत का मामला न केवल एक विशेष घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया है, बल्कि ऐसा करके जम्मू-कश्मीर और लद्दाख क्षेत्रों की सांस्कृतिक विविधता को भी कम किया जा रहा है। यदि कश्मीरियत वैचारिक तौर पर इस पूरे क्षेत्र में समावेशी अपील के साथ एक बाध्यकारी शक्ति है, तो यह पूरे भारत के साथ समाविष्ट क्यों नहीं हो सकती है? वास्तव में विशेष दर्जे की मांग करने वालों को स्वयं यह विश्वास नहीं है कि ‘कश्मीरियत’ एक समावेशी संस्कृति है, लेकिन अवचेतन रूप से वे इसे एक विशेष और घाटी-केंद्रित संस्कृति के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, क्योंकि संरक्षणवाद की नीति को संजोए रखने के अलावा उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है। अनुच्छेद 370 और 35A के मामले में निरंतर यथास्थिति बनाए रखने के प्रयासों ने कश्मीरी जनता का काफी नुकसान किया है। यह प्रावधान न केवल उनका नुकसान कर रहा है, बल्कि उनकी भारतीयता और उनके भारत का हिस्सा होने की भावना के साथ भी खिलवाड़ पर आधारित है। अनुच्छेद 370 और 35A के समर्थक ऐसे लोग जो बहिष्कारवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं, वह जम्मू-कश्मीर की जनता को भारतीय मानने को तैयार नहीं है और उनको केवल सब्सिडी और रियायत के माध्यम से भारत में बनाए रखने के नजरिए का समर्थन करते हैं। उनके लिए यह कल्पना करना असंभव है कि कश्मीर को पूरी तरह से भारत में एकीकृत किया जा सकता है और अगर इस तरह के एकीकरण का प्रयास किया जाता है, तो वे भारत के लिए ही खतरा देखते हैं।
हमारे संसदीय लोकतंत्र में, बहस और चर्चा को इसकी जीवन रेखा माना गया है जब तक यह लोकतांत्रिक लोकाचार और सिद्धांतों के दायरे में रहती है। लेकिन भारतीय संविधान, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, संवैधानिक राजनीतिक नैतिकता और लैंगिक न्याय की शपथ लेने वाले लोग, अनुच्छेद 370 और 35A के अत्यधिक भेदभावपूर्ण और अस्थायी प्रावधानों का समर्थन करते हैं। लद्दाख और जम्मूक्षेत्रों की दुर्दशा, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और पीओके एवं पश्चिम पंजाब के शरणार्थियों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करना, समाज के विभिन्न वर्गों को बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित करना, राज्य में एक बड़े वर्ग पर हुए अन्याय की बात करता है। –

4. जन जागरूकता में सोशल मीडिया की भूमिका 

> संचार
सूचना का उपयोग एक ओर भ्रम फैलाने में किया जा सकता है, तो दूसरी ओर रचनात्मक कार्यों में भी किया जा सकता है। सूचना क्रांति के इस आधुनिक दौर में सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रगति में सूचना क्रांति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, किंतु सूचना क्रांति की ही उपज, सोशल मीडिया को लेकर उठने वाले सवाल भी महत्त्वपूर्ण हैं। ये सवाल हैं- क्या सोशल मीडिया हमारे समाज में ध्रुवीकरण की स्थिति उत्पन्न कर रहा है तथा समाज की प्रगति में सोशल मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिये? हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ हम सूचना के न केवल उपभोक्ता है, बल्कि उत्पादक भी हैं। यही अंतर्द्वद्व हमें इसके नियंत्रण से दूर कर देता है। प्रतिदिन कई बिलियन लोग फेसबुक पर लॉग-इन करते हैं। हर सेकेंड ट्वीटर पर ट्वीट किये जाते हैं और इंस्टाग्राम पर कई तस्वीरें पोस्ट की जाती हैं।
अगर सोशल मीडिया के मूल अर्थ की बात की जाए तो कंप्यूटर, टैबलेट या मोबाइल के माध्यम से किसी भी मानव संचार या इंटरनेट पर जानकारी साझा करना सोशल मीडिया कहलाता है। । इस प्रक्रिया में कई वेबसाइट एवं एप का योगदान होता है। सोशल मीडिया वर्तमान समय में संचार के सबसे बड़े साधन के रूप में उभर कर आया है और दिनोदिन इसकी लोकप्रियता में वृद्धि हो रही है।
सोशल मीडिया द्वारा विचारों, सामग्री, सूचना और समाचार को तीव्र गति से लोगों के बीच साझा किया जा सकता है। सोशल मीडिया को एक तरफ जहाँ लोग वरदान मानते हैं तो दूसरी तरफ लोग इसे एक अभिशाप के रूप में भी देखते हैं।
सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभावों की बात की जाए तो यह समाज के सामाजिक विकास में मदद करता है । इसके द्वारा प्रदत्त सोशल मीडिया मार्केटिंग जैसे उपकरण द्वारा लाखों संभावित ग्राहकों तक पहुँच स्थापित की जा सकती है और समाचार का प्रेषण किया जा सकता है। सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता उत्पन्न करने के संदर्भ में सोशल मीडिया को एक बेहतरीन उपकरण माना जाता है। इसके द्वारा समान विचारधारा वाले लोगों के साथ संपर्क भी स्थापित किया जा सकता है। विश्व के सुंदरतम कोने तक अपनी बातों को कम समय में तीव्र गति से अधिकतम लोगों तक पहुँचाने के लिये यह एक सर्वश्रेष्ठ साधन बन चुका है।
सोशल मीडिया को शिक्षा प्रदान करने के संदर्भ में एक बेहतरीन साधन माना जा रहा है। इसके द्वारा ऑनलाइन जानकारी का तेजी से हस्तांतरण होता है। इसके द्वारा ऑनलाइन रोजगार के बेहतरीन अवसर प्राप्त होते हैं। साथ ही व्यवसाय, चिकित्सा, नीति निर्माण को प्रभावित करने में भी इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्तमान समय में शिक्षक एवं छात्रों द्वारा फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन आदि जैसे प्लेटफॉर्म का प्रयोग किया जा रहा है। इसके द्वारा शिक्षक एवं छात्रों के मध्य दूरी सिमट कर कम हो गई है। प्रोफेसर स्काइप, ट्विटर और अन्य जगहों पर इसके मदद से लाइव चैट करते हैं। सोशल मीडिया के कारण शिक्षा आसान हो गई है।
सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नया आयाम दिया है। आज प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी डर के सोशल मीडिया के माध्यम से अपने विचार रख सकता है और उसे हजारों लोगों तक पहुँचा सकता है, परंतु सोशल मीडिया के दुरुपयोग ने इसे एक खतरनाक उपकरण के रूप में भी स्थापित कर दिया है जिसके कारण इसके विनियमन की आवश्यकता लगातार महसूस की जा रही है। अतः आवश्यक है कि निजता के अधिकार का उल्लंघन किये बिना सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये सभी पक्षों के साथ विचार-विमर्श कर नए विकल्पों की खोज की जाए, ताकि भविष्य में इसके संभावित दुष्प्रभावों से बचा जा सके।
सोशल मीडिया वास्तव में कई फायदे पहुंचाता है, हम सोशल मीडिया का उपयोग समाज के विकास के लिए भी कर सकते हैं। हमने पिछले कुछ वर्षों में सूचना और सामग्री का विस्फोट देखा है और हम सोशल मीडिया के ताकत से इंकार नहीं कर सकते हैं। समाज में महत्वपूर्ण कारणों तथा जागरूकता पैदा करने के लिए सोशल मीडिया का व्यापक रूप से उपयोग किया जा सकता है। सोशल मीडिया एनजीओ और अन्य सामाजिक कल्याण समितियों द्वारा चलाए जा रहे कई महान कार्यों में भी मदद कर सकता है। सोशल मीडिया जागरूकता फैलाने और अपराध से लड़ने में अन्य एजेंसियों तथा सरकार की मदद कर
सकता है। कई व्यवसायों में सोशल मीडिया का उपयोग प्रचार और बिक्री के लिए एक मजबूत उपकरण के रूप में किया जा सकता है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से कई समुदाय बनाये जाते हैं जो हमारे समाज के विकास के लिए आवश्यक होते हैं।
खण्ड – ख 

5. डिजिटल अर्थव्यवस्था: संभावनाएं और चुनौतियाँ 

> अर्थव्यवस्था
भारत डिजिटल अर्थव्यवस्था के युग में प्रवेश तो कर चुका है, लेकिन अभी भी भाअर्थव्यवस्था का यह नया रूप उम्मीदों के मुताबिक रफ्तार नहीं पकड़ पाया है। इसका बड़ा कारण डिजिटल अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए इसके रास्ते में आने वाली बाधाएं हैं। जब तक इन्हें दूर नहीं किया जाएगा, डिजिटल अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से आत्मसात कर पाना संभव नहीं होगा। इसके लिए पहला और महत्त्वपूर्ण उपाय देश, खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों को डिजिटल रूप में साक्षर बनाना होगा और साथ ही डिजिटलीकरण के लिए आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का जाल बिछाना होगा।
इसके लिए सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की पर्याप्त पहुंच बनानी होगी। जब तक देश के गांव-गांव में बिजली नहीं होगी, कैसे इंटरनेट का उपयोग संभव होगा। कोरोना महामारी के बीच डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए अप्रैल से जुलाई के दौरान 16.26 अरब डॉलर का विदेशी निवेश भारत आया है। खासतौर से अमेरिकी कंपनियां भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और खुदरा क्षेत्र के ई-कारोबार बाजार की प्रबल संभावनाओं को देख कर ही निवेश के लिए बढ़ी हैं।
डिजिटल क्षेत्र में विदेशी निवेश बढ़ने के पीछे कई कारण हैं। पूर्णबंदी में आनलाइन शिक्षा, घर से दफ्तरी काम की बढ़ती संस्कृति, इससे इंटरनेट उपयोक्ताओं की बढ़ती तादाद, डिजिटल इंडिया के तहत सरकारी सेवाओं के डिजिटल होने, जनधन खातों में लाभार्थियों को सीधे भुगतान, प्रति व्यक्ति डेटा खपत और मोबाइल ब्रॉडबैंड ग्राहकों की संख्या के मामले में भारत तेजी से आगे बढ़ा है। डिजिटल अर्थव्यवस्था के तहत डिजिटल भुगतान उद्योग, ई-कॉमर्स और डिजिटल मार्केटिंग जैसे क्षेत्र तेजी से आगे बढ़े हैं।
यदि हम डिजिटल भुगतान उद्योग की ओर देखें तो पाते हैं कि नोटबंदी में भी डिजिटल भुगतान इतनी तेजी से नहीं बढ़ा था, जितना कि कोरोना संकटकाल में इस साल अप्रैल से सितंबर के दौरान बढ़ा है। देश में डिजिटल भुगतान की स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। अर्थव्यवस्था में नकदी की जगह दूसरे माध्यमों से लेन-देन को बढ़ावा देने के भारतीय रिजर्व बैंक के प्रयासों का असर दिखने लगा है। देश में जो डिजिटल भुगतान कोरोना के पहले जनवरी 2020 में करीब 2.2 लाख करोड़ रुपए के थे, वे जून 2020 में 2.60 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गए।
पूर्णबंदी के कारण लोगों ने घरों में रहते हुए ई-कॉमर्स और डिजिटल मार्केटिंग को एक तरह से जीवन का अंग बना लिया। अब जब पूर्णबंदी लगभग खत्म हो चुकी है, तब भी लोग भीड़भाड़ से बचने के लिए आनलाइन खरीद को ही तरजीह दे रहे हैं। बर्नस्टीन रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कोरोनाकाल में लोगों ने जिस तेजी से डिजिटल का रुख किया है, वह भारत के लिए आर्थिक रूप से उपयोगी हो गया है। अनुमान है कि वर्ष 2027-28 तक भारत में ई-कॉमर्स का कारोबार दो सौ अरब डॉलर को पार कर जाएगा।
ई-कॉमर्स और डिजिटल अर्थव्यवस्था के तेजी से बढ़ने का सबसे बड़ा फायदा डिजिटल सेवा कर (डीएसटी) सरकारी आमदनी का नया स्रोत बनता जा रहा है। जैसे-जैसे डिजिटल अर्थव्यवस्था गति पकड़ेगी, डीएसटी में भी वृद्धि होगी।
अब जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था डिजिटल होती जा रही है, वैसे-वैसे देश और दुनिया में रोजगार बाजार का परिदृश्य भी बदलता जा रहा है। भविष्य में कई रोजगार ऐसे होंगे, जिनके नाम हमने अब तक सुने भी नहीं हैं। कई शोध संगठनों का कहना है कि डिजिटलीकरण से भारत में रोजगार के नए मौके तेजी से बढ़ रहे हैं।
विश्व बैंक ने भी अपनी वैश्विक रोजगार से संबंधित रिपोर्ट में कहा है कि पांच से दस वर्षों में जहां दुनिया में कुशल श्रम बल का संकट होगा, वहीं भारत के पास कुशल श्रम बल अतिरिक्त संख्या में होगा। ऐसे में भारत दुनिया के कई विकसित और कई विकासशील देशों में बड़ी संख्या में कुशल श्रम बल भेज कर फायदा उठा सकेगा।
देश की आबादी का एक बड़ा भाग अब भी डिजिटल बैंकिंग व्यवस्था की दृष्टि से पीछे है। इसलिए उसे डिजिटल बैंकिंग की ओर बढ़ाने की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी. संख्या में लोगों के पास डिजिटल भुगतान के लिए बैंक खाता, इंटरनेट की सुविधा वाला मोबाइल फोन या क्रेडिट-डेबिट कार्ड की सुविधा नहीं है। इसलिए ऐसी सुविधाएं बढ़ाने का अभियान तेज करना होगा। साथ ही वित्तीय लेन-देन के लिए बड़ी ग्रामीण आबादी को डिजिटल भुगतान तकनीकों के प्रति प्रेरित करना होगा।
चूंकि डिजिटल भुगतान के समय होने वाली ऑनलाइन धोखाधड़ी की बढ़ती हुई घटनाओं के कारण बड़ी संख्या में ग्रामीणों का आनलाइन लेन-देन में अविश्वास बना हुआ है, इसलिए ऑनलाइन धोखाधड़ी रोकने के लिए सरकार को साइबर सुरक्षा मजबूत करने के लिए कदम उठाने होंगे। डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने के लिए मोबाइल ब्रॉडबैंड स्पीड के मामले में अभी काफी कुछ किया बाकी है।

6. भारत का किसान: हमारा अभिमान

> कृषि
कृषि कर्म ही जिनके जीवन का आधार हो, वह है- कृषक । कृषि प्रधान देश होने के कारण हमारे देश की अर्थव्यवस्था का लगभग समूचा भार भारतीय किसान के कन्धों पर ही है।
चूंकि हमारे देश की अधिकांश जनता गांवों में निवास करती है, अतः भारतीय किसान ग्रामीण वातावरण में ही रहकर विषमताओं से जूझते हुए अपने कर्म में निःस्वार्थ भाव से लगा रहता है। इस अर्थ में भारतीय किसान का समूचा जीवन उसके अपूर्व त्याग, तपस्या, परिश्रम, ईमानदारी, लगन व कर्तव्यनिष्ठा की अद्भुत मिसाल है।
जीवन की तमाम विसंगतियों, विपन्नताओं एवं अभावों से जूझते हुए, सृष्टि के जीवों की क्षुधा को शान्त करता है। अपने मेहनतकश हाथों से अन्न के दानों और रोटी को तैयार करने वाला भारतीय किसान अपने कर्म में निरन्तर गतिशील रहता है। भारतीय किसान धरती माता का सच्चा सपूत है । वह ऋषि-मुनियों, सन्त-महात्माओं के जीवन के उच्चादर्शों के काफी निकट है; क्योंकि वह भीषण गरमी में गम्भीर आघातों को सहकर, कड़ाके की ठण्ड में और बरसते हुए पानी में रहकर अपने कर्म में बड़ी ही ईमानदारी एवं तत्परता से लगा रहता है।
धरती के समूचे प्राणियों के जीवन के लिए अन्न उपजाने वाला भारतीय किसान इतना परोपकारी एवं मेहनती है कि वह अपने स्वार्थ व सुख की तनिक भी चिन्ता नहीं करता। उसका जीवन अत्यन्त सीधा-सादा है। शरीर पर धोती, अंगरखा, गमछा और नंगे पैर रहकर भी दूसरों के लिए अन्न उपजाना ही उसका ध्येय है। प्रातः काल सूरज के उगने के साथ सायंकाल सूरज के डूबने तक खेतों में काम करना ही उसके जीवन की साधना है। घर पर अपने पशुओं की सेवा करने में भी वह जरा-सी भी सुस्ती नहीं करता। जहां तक भारतीय किसान की स्थिति है, वह अत्यन्त दयनीय है। 50 प्रतिशत से अधिक भारतीय किसान जमींदारों, पूंजीपतियों, साहूकारों के आर्थिक शोषण का शिकार हैं।
ऋणग्रस्तता ने उन्हें गरीबी के मुंह में धकेल दिया है। जमींदारों के कर्ज के बोझ तले दबा हुआ उसका जीवन कभी अकाल, तो कभी महामारी, तो कभी बाढ़ या सूखे की चपेट में आ जाता है। ऐसी स्थिति में उसे असमय ही मृत्यु वरण करने को विवश होना पड़ता है। कई बार तो उन्हें सपरिवार सामूहिक रूप में भीषण गरीबी से जूझते हुए आत्महत्या भी करनी पड़ जाती है।
कर्ज के बोझ तले दबा उसका जीवन किसी बंधुआ मजदूर के जीवन से कुछ कम नहीं होता। सच कहा जाये, तो वह कर्ज में ही पैदा होता है और कर्ज में ही मर जाता है। अथक परिश्रम से तैयार की गयी फसल खलिहान तक पहुंचने से पहले साहूकार, जमींदार
के हाथों में पहुंच जाती है। उसकी इस आर्थिक अभावग्रस्त पीड़ा की व्यथा – कथा को वही समझ सकता है। सिंचाई के साधनों के अभाव में उसे पूरी तरह से मानसून पर निर्भर रहना पड़ता है। अशिक्षा एवं गरीबी के कारण वह कृषि के परम्परागत साधनों को अपनाने के लिए मजबूर हो जाता है।
आज के वैज्ञानिक युग के अनुरूप वह कृषि को वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार व्यावहारिक रूप से अपनाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सरकारी नीतियां और योजनाएं उसके लिए लाभकारी होते हुए भी प्रभावी सिद्ध नहीं होती हैं। वर्तमान व्यवस्था भी कम दोषपूर्ण नहीं है, जिसमें भ्रष्टाचार का बोलबाला है।
कृषकों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अपनी बहुत सी नीतियों एवं योजनाओं में भारतीय किसानों को प्राथमिकताएं प्रदान की हैं। वर्षा पर उसकी निर्भरता को कम करने के लिए सरकार द्वारा विशालकाय तालाब, कुएं, नलकूप एवं नहरों का निर्माण किया गया, जिसके सुचारु संचालन के लिए जो बिजली खपत की जाती है, सरकार उसे अत्यन्त कम दर पर प्रदान करती है।
यह बात निःसन्देह रूप से सच है कि भारतीय किसान एक मेहनतकश किसान है। प्रकृति तथा परिस्थितियों की विषमताओं से जूझने की अच्छी क्षमता उसमें विद्यमान है। आधुनिकतम वैज्ञानिक साधनों को अपनाकर वह खेती करने के अनेक तरीके सीख रहा है। पहले की तुलना में वह अब अधिक अन्न उत्पादन करने लगा है। शिक्षा के माध्यम से उसमें काफी जागरूकता आ गयी है। वह अपने अधिकारों के प्रति काफी सजग होने लगा है। कुछ परिस्थितियों को छोड़कर अधिकांश स्थितियों में वह कृषि पर आधारित अपनी जीवनशैली में भी बदलाव ला रहा है। उसका परिवार भी अब शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं को प्राप्त कर रहा है ।
देश की प्रगति एवं विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला भारतीय किसान अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार स्तम्भ है। उसकी मेहनतकश जिन्दगी को सारा देश नमन करता है। सच कहा जाये, तो भारतीय किसान एक महान् किसान है, महान् इंसान है और हमारा अभिमान है।
खण्ड – ग

7. भारतीय विदेश नीति के बदलते प्रतिमान

> अंतर्राष्ट्रीय संबंध
विगत कुछ वर्षों में भारत की विदेश नीति परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। इसी वर्ष दिल्ली में आयोजित रायसीना डायलॉग में भारत के विदेश सचिव ने कहा था कि “भारत गुटनिरपेक्षता के अतीत से बाहर निकल चुका है और आज अपने हितों को
देखते हुए दुनिया के अन्य देशों के साथ रिश्ते बना रहा है। ” ध्यातव्य है कि वर्तमान में भारत, विश्व के लगभग सभी मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है और अधिकांश बहुपक्षीय संस्थानों में उसकी स्थिति मजबूत हो रही है। विशेषज्ञों का मनाना है कि भविष्य में भारत की विदेश नीति इस बात पर निर्भर करेगी कि G-20 और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में वह किस प्रकार की भूमिका निभाता है।
वर्तमान सरकार द्वारा राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के लिये सभी देशों से परस्पर संवाद के माध्यम से विदेश नीति को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है। भारत की वर्तमान विदेश नीति दूसरे देशों से केवल रक्षा उत्पादों की खरीद तक सीमित नहीं है, बल्कि तकनीकी ज्ञान के क्षेत्र में भारत विकसित देशों के साथ प्रयत्नशील है। वैश्विक महामारी COVID-19 के दौर में भारत के विदेश मंत्री, ब्रिक्स (BRICS) देशों के विदेश मंत्रियों के वर्चुअल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस बैठक में विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि भारत, कोरोना वायरस की महामारी से लड़ने के लिये करीब 85 देशों को दवाओं और अन्य उपकरणों के माध्यम से मदद पहुँचा रहा है, ताकि ये देश भी महामारी का मुकाबला करके उस पर विजय प्राप्त कर सकें।
प्रधानमंत्री मोदी ने सार्क (SAARC) देशों के प्रमुखों के साथ वर्चुअल शिखर सम्मेलन में भाग लिया तत्पश्चात उन्होंने G-20 देशों के प्रमुखों के साथ भी वर्चुअल शिखर सम्मेलन करने का प्रस्ताव रखा। इन दोनों ही शिखर सम्मेलनों के माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी ने COVID-19 की महामारी से निपटने के लिये विभिन्न क्षेत्रीय एवं बहुपक्षीय मंचों का उपयोग किया जबकि एक समय पर ये सभी मंच नेतृत्वविहीन लग रहे थे। इन कूटनीतिक अनुबंधों के अतिरिक्त, भारत ने ‘विश्व का दवाखाना’ की अपनी छवि के अनुरूप भूमिका निभाने का भी सतत प्रयत्न जारी रखा है। इसके लिये भारत ने मलेरिया निरोधक दवा हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन (HCQ) का निर्यात पूरी दुनिया को किया है।
विकसित देशों के साथ-साथ भारत ने अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों को इस अतिशय मांग वाली दवा का निर्यात किया है। खाड़ी देशों के साथ भारत ने व्यापक स्तर पर अपनी मेडिकल कूटनीति का इस्तेमाल किया है। जब कई खाड़ी देशों ने भारत से हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन और पैरासीटामॉल दवाओं के निर्यात की अपील की, तो भारत ने इन देशों को दोनों दवाओं की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति करने का प्रयास किया है।
वर्तमान सरकार ने पूर्व में शपथ ग्रहण समारोह में बंगाल की खाड़ी से सटे बहु क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग परिषद पहल यानी बिम्सटेक के सदस्य देशों को आमंत्रित किया। बंगाल की खाड़ी दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया को जोड़ने वाली कड़ी है। इसमें भारत की ‘प्रथम पड़ोस’ और ‘एक्ट ईस्ट’ नीति भी एकाकार होती है। इसके उलट सार्क का दायरा भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित है, जबकि बिम्सटेक भारत को उसकी ऐतिहासिक धुरियों से जोड़ता है। वर्तमान परिदृश्य में देखें तो ज्ञात होता है कि पाकिस्तान और चीन मिलकर भारत के सामने बड़ी सामरिक चुनौती पेश कर रहे हैं। पूर्व
में चीन के साथ संबंध सुधार की दिशा में अनौपचारिक शिखर वार्ताएं आयोजित की गई. परंतु चीन द्वारा लगातार भारत की सीमा का अतिक्रमण करने का प्रयास किया जा रहा है।
वर्ष 2016 में उरी आतंकी हमले व वर्ष 2019 में पुलवामा में सैन्य काफिलों पर हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक भारतीय नीति के प्रमुख उदाहरण हैं। श्रीलंका के साथ वर्तमान सरकार के संबंध निश्चित रूप से परंपरा से हट कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से स्थिर भारत सरकार ने भारत – श्रीलंका संबंधों को सफलतापूर्वक तमिल राजनीति से अलग निकाल कर उन्हें सांस्कृतिक एकता के दायरे में लाया है। मॉरीशस और सेशेल्स के द्वीप देशों की यात्रा और हिंद महासागर रिम एसोसिएशन के साथ संबंध बनाने के अलावा, भारत सरकार ने हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में एक मजबूत नींव बनाई है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने वैदेशिक संबंधों को फिर से नवे रूप में प्रस्तुत करे। आज अमेरिका पाकिस्तान के बजाय भारत के साथ अधिक मित्रता की नीति अपना रहा है। भारत को सोच-समझकर अमेरिका के साथ आर्थिक विकास की नीति अपनानी होगी। इसी प्रकार पाकिस्तान से आतंकवाद का मुद्दा, तथा कश्मीर का मुद्द द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हल करने के प्रयास ढूंढने होंगे।
साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावे को विश्व के विकासशील देशों के सामने सुदृढ़ तरीके में प्रस्तुत करना होगा ताकि वो भारत को इस सम्मान को दिलाने में सहायता करे। इसके अलावा पड़ोसियों के साथ भी भारत को आर्थिक तथा सुरक्षात्मक तनाव पर अधिक ध्यान देने की नीति अपनानी होगी।

8. भारत में संसाधन प्रबंधन 

> अर्थव्यवस्था
संसाधन साधन प्रबंधन के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन दोनों आते है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रत्येक पदार्थ आधारभूत रूप से प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निर्मित हैं। । आज का युग प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय प्रबंध का युग है। वहनीयता का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों के इस प्रकार प्रयोग से है, जिससे कि वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति का भावी पीढ़ी के अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंध कोई नई सोच नहीं है।
प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण से प्राकृतिक रूप से प्राप्त पदार्थ एवं घटक हैं। इनमें से कुछ हमारे जीवन के लिये आवश्यक हैं तो कुछ हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रत्येक पदार्थ आधारभूत रूप से प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निर्मित है। आज का युग प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय प्रबंध का युग है। वहनीयता का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों के इस प्रकार प्रयोग से है जिससे कि वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति का भावी पीढ़ी के अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव
न पड़े। आज से कई वर्ष पूर्व भी वन, मृदा, भूमि, जल आदि का संरक्षण किया जाता था। संरक्षण अभियान पर प्रकाशित सबसे पहली पुस्तक ‘जान ईवीलीन’ की ‘ए डीसकोर्स ऑफ फॉरेस्ट ट्रीज एण्ड द प्रोपेगेशन ऑफ टिम्बर इन हिज मेजेस्टी डोमिनियन्स’ है जो कि सन 1664 में प्रकाशित हुई थी। इसे वन्य संरक्षण की सबसे प्रभावशाली पुस्तक के तौर पर देखा जाता है। धीरे-धीरे करके यह अभियान सम्पूर्ण विश्व में चलाया गया। भारत में ब्रिटिश सरकार ने भी १९वीं शताब्दी में इस अभियान को अंगीकृत किया। समय के साथ-साथ इस अभियान में नई-नई वैज्ञानिक तकनीकियों का प्रयोग बढ़ता गया। अब इस अभियान के तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं। मनुष्य ने पर्यावरण को बर्बाद कर दिया है, पर्यावरण संरक्षण हमारा मौलिक उत्तरदायित्व है एवं वैज्ञानिक तकनीकियों का प्रयोग करके संरक्षण किया जा सकता है। प्राकृतिक संसाधन एवं मानव संसाधन एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के मध्य संतुलन ही जीवन का आधार है। यदि यह संतुलन बिगड़ गया तो मानव जाति अपने सर्वनाश की ओर अग्रसर होगी।
भारत की कृषि परक जलवायु क्षेत्रों की विशाल शृंखला, भूमि एवं वन का भण्डार, एवं जैव विविधता की संपन्नशीलता, इसे विश्व के सर्वाधिक सम्पदा सम्पन्न राष्ट्रों में से एक बनाती है। भारतीय भूमि विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र अनेक प्रकार के जैविक एवं अजैविक संसाधनों का भण्डार है। जैविक संसाधनों में वन, पशुधन, मछलियाँ, कोयला, तेल, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस एवं अजैविक संसाधनों में भूमि, स्वच्छ जल, वायु एवं अनेक धात्विक खनिज (स्वर्ण, रजत, लोहा, तांबा इत्यादि) व अधात्विक खनिज ( संगमरमर, ग्रेनाइट ग्रुप, वोल्सटोनाइट, सिलीमेनाइट ग्रुप इत्यादि) सम्मिलित हैं। भारत प्राकृतिक एवं मनुष्य धन दोनों ही संसाधनों में धनी है। यहाँ आवश्यकता मात्र प्राकृतिक संसाधनों के प्रभावपूर्ण एवं क्षमतापूर्ण दोहन की है, जिससे कि देश के मानव संसाधन का अधिकतम कल्याण किया जा सके।
मानव संसाधन प्रबंधन कार्मिक प्रबंधन से अधिक विकसित अवधारणा व अभ्यास है। इसमें लोगों को ‘संसाधन’ माना जाता है, जिसके प्रभावी उपयोग से संगठन की उत्पादकता में सुधार होता है। विशिष्टतः मानव संसाधन प्रबंधन मानव संसाधन विकास की तुलना में अत्यधिक प्रशासनिक कार्य है जबकि विकास अधिक योजनाबद्ध देशव्यापी सामाजिक आर्थिक योजना के अंतर्गत क्रिया है।
मानव संसाधन प्रबंधन वस्तुतः प्रबंधन का ही एक अंग है जिसके अंतर्गत कोई देश या संस्था अपने मानव संसाधन का महत्तम उपयोग करना चाहता है, देश या संस्था के समुचित विकास सुनिश्चित करने के उद्देश्य से। इसके अंतर्गत मानवीय संबंधों को बेहतर बनाए रखने का प्रयास किया जाता है, साथ ही साथ मानव संसाधन से संबंधित नीतियों, कार्यक्रमों, तरीकों की समीक्षा कर ऐसी व्यवस्था लाने का प्रयास किया जाता है जिससे कि मानव संसाधन के विकास में अधिक से अधिक बेहतर योगदान प्राप्त हो सके।
मानव संसाधन का मुख्य उद्देश्य है बेहतर परिणाम प्राप्त करना और उसके लिये मानव संसाधन के बेहतर प्रयोग की व्यवस्था करना। यह प्रबंधन का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें
कार्यशील जनसंख्या के मध्य बेहतर तालमेल बनाकर पुनः उनका देश या संस्था के साथ बेहतर तालमेल सुनिश्चित किया जा सके।
महिलाओं के लिये कौशल विकास एवं उद्यमिता कार्यक्रमों पर नीति में विशेष ध्यान दिया गया है। उद्यमिता के क्षेत्र में, नीति में महिलाओं को औपचारिक शिक्षा प्रणाली के दायरे के भीतर और बाहर संभावित उद्यमियों को शिक्षित और समर्थ बनाने की बात कही गई है। इसमें उद्यमियों को परामर्शदाताओं, सहायकों और ऋण बाजारों से जोड़ने, नवाचार एवं उद्यमिता संस्कृति को प्रोत्साहन देने, कारोबार करने को और ज्यादा सुगम बनाने तथा सामाजिक उद्यमिता पर ध्यान केंद्रित करने को बढ़ावा दिया जाना भी शामिल है।

9. नमामि गंगे मिशन 

> समाज
हाल ही में विश्व बैंक द्वारा 300 करोड़ रुपए ( 400 बिलियन डॉलर) की ‘नमामि गंगे परियोजना’ को 45 अरब रुपए के फंड / ऋण को मंजूरी दी गई है।
गंगा नदी का न सिर्फ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है, बल्कि देश की 40% आबादी गंगा नदी पर निर्भर है। गंगा नदी के प्रदूषण को 2020 तक समाप्त करने के उद्देश्य से “नमामि गंगे” नामक एकीकृत मिशन का शुभारम्भ किया गया। यह पहला कदम नहीं है, इसके पहले राजीव गाँधी ने 1986 में ‘गंगा कार्य योजना’ मिशन शुरू किया था जो सफल न हो पाया। इस बार पिछली कमियों से सीख लेकर ज्यादा मजबूती और चार गुना ज्यादा बजट के साथ इस मिशन की शुरुआत की गयी है ।
यह मिशन 100% केंद्रीय हिस्सेदारी के साथ केंद्रीय योजना है। 20000 करोड़ रुपये खर्च करने के साथ 4 राज्यों और 47 शहरों का चुनाव किया गया है। कार्यक्रम को शुरुआती स्तर और मध्यम स्तर (5 साल) तथा लंबी अवधि (10 साल) की गतिविधियों में बांटा गया है। ये मिशन जल संसाधन नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय, भारत सरकार के नियंत्रण में काम कर रहा है। इस मिशन के लिए एक राष्ट्रीय निगरानी केंद्र तथा 4 स्तरीय टास्क फोर्स का भी गठन किया गया है।
गंगा संरक्षण की चुनौतियां बहुक्षेत्रीय और बहुआयामी हैं, जिसमें अपशिष्ट जल प्रबंधन, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन एवं औद्योगिक प्रदूषण मुख्य हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए इस कार्यक्रम में सारे उपाय जैसे- नगरपालिका एवं ग्रामीण क्षेत्र सीवेज प्रबंधन औद्योगिक निर्वहन प्रबंधन, पारिस्थिक संरक्षण सुनिश्चित करना, गंगा पर ज्ञान प्रबंधन, गंगा के किनारे एस. टी०पी० की व्यवस्था, खुले नालियों में सीटू जलमल का उपचार पर्यटन एवं शिपिंग की पदोन्नति आदि किये गए हैं। सरकार ने 98 कारखानों जो गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे थे उन्हें बंद करा दिया है।
यह केंद्र सरकार की योजना है, जिसे वर्ष 2014 में शुरू किया गया था। सरकार द्वारा इस परियोजना की शुरुआत गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने तथा गंगा नदी को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से की गई थी। इस योजना का क्रियान्वयन केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है।
इस मिशन से लोगों को रोजगार और स्वास्थ्य लाभ होगा, किसानों को लाभ होगा। गंगा नदी की सफाई अत्यंत जटिल है। इस मिशन की सफलता के लिए देश के सभी राज्यों को तथा देश के हर एक नागरिक को योगदान देना होगा। इसके लिए धनराशि का योगदान कर, रिड्स, रीउज तथा रिकवरी जैसे तरीकों को अपना कर इसे सफल बनाया जा सकता है।
नमामि गंगे प्रोजेक्ट की 231 योजनाओं में गंगोत्री से शुरू होकर हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, गाजीपुर, बलिया, बिहार में 4 और बंगाल में 6 जगहों पर पुराने घाटों का जीर्णोद्धार, नए घाट, चेंजिंग रूम, शौचालय, बैठने की जगह, सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट, ऑक्सीडेशन प्लान्ट बायोरेमेडेशन प्रक्रिया से पानी के शोधन का काम किया जाएगा। इसमें गांव के नालों को भी शामिल किया गया है। साथ ही तालाबों का गंगा से जुड़ाव पर क्या असर होता है उसे भी देखा जाएगा।
गंगा की कुल लम्बाई 2525 किलोमीटर की है। गंगा का बेसिन 1.6 मिलियन वर्ग किलोमीटर का है, 468.7 बिलियन मीट्रिक पानी साल भर में प्रवाहित होता है जो देश के कुल जल स्रोत का 25.2 प्रतिशत भाग है। इसके बेसिन में 45 करोड़ की आबादी बसती है। साथ ही गंगा पांच राज्यों से होकर गुजरती है। इसे राष्ट्रीय नदी भले ही घोषित किया गया हो पर यह राज्यों की मर्जी से ही बहती है।
32 परियोजनाओं में से 871.74 करोड़ रुपए की कुल लागत वाली 20 परियोजनाएँ सीवर शोधन तथा उत्तराखंड के विभिन्न भागों में आधारभूत संरचना के निर्माण से संबंधित हैं। छह परियोजनाएँ हरिद्वार में लागू की जाएंगी। इसके अंतर्गत जगजीतपुर और सराय में दो एसटीपी का निर्माण किया जाएगा। हरिद्वार की परियोजनाओं की कुल लागत 414.20 करोड़ रुपए है। सभी परियोजनाओं के पूरे होने के बाद हरिद्वार और ऋषिकेश समेत उत्तराखंड के सभी प्रमुख शहरों का पानी बिना शोधित हुए गंगा में नहीं जाएगा। इसके अतिरिक्त उत्तरकाशी, मुनि की रेती, कीर्ति नगर, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, बद्रीनाथ, जोशीमठ, चमोली, नंद प्रयाग और कर्ण प्रयाग में सीवेज शोधन परियोजनाओं की आधारशिलाएँ रखी गईं। टिहरी गढ़वाल, रुद्र प्रयाग और चमोली में घाट विकास कार्यों के लिये आधारशिलाएं रखी गईं।
गंगा नदी के प्रदूषण निवारण और नदी को पुनर्जीवित करने का लक्ष्य इसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व के लिये इसका दोहन करने के कारण अत्यंत जटिल कार्य है। इस तरह के जटिल कार्यक्रम को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने के लिये समुदाय की भागीदारी आवश्यक है।
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