विद्यालयों में अनुशासनात्मक ज्ञान की प्रकृति व भूमिका क्या है ?

विद्यालयों में अनुशासनात्मक ज्ञान की प्रकृति व भूमिका क्या है ?

उत्तर— विद्यालयों में अनुशासनात्मक ज्ञान की प्रकृति–जब कोई विषय स्वतंत्र रूप से तथ्यों के आधार पर प्रश्नों के उत्तर देने में समर्थ हो सके तो उस विषय-वस्तु को उसकी प्रकृति के अनुसार अलंग अनुशासन के अन्तर्गत रखा जाता है । यह तीन प्रकार का होता है—
(1) सकारात्मक अनुशासन–यह सिद्धान्त मध्य 19वीं शताब्दी में फ्रेंच समाजशास्त्री एवं दर्शन – शास्त्री अगस्त कोम्टे (1798-1857) के द्वारा विकसित किया गया है। सकारात्मकता इस विचारधारा पर आधारित है कि केवल प्रामाणिक ज्ञान ही वैज्ञानिक ज्ञान है और इस तरह का ज्ञान वैज्ञानिक विधि के माध्यम से सकारात्मक दृष्टिकोण से स्वीकार्य है अर्थात् जो अभि सुपुष्टि से प्राप्त होता है। वैज्ञानिक विधि अर्थात् अन्वेषण की वह तकनीक जो घटना का अवलोकन करे, प्रयोग कर परिणाम को प्राप्त करे व तार्किक मापन करे तथा जो विषय के विशिष्ट सिद्धान्त को तर्क पर या कारणों के आधार पर स्पष्ट करे ।
ज्ञान-मीमांसा में सकारात्मक शब्द का अर्थ मूल्य रहित या उद्देश्यात्मक उपागम द्वारा मानवता का अध्ययन है, जो ज्यादातर प्रकृति विज्ञान के समान विधियों के माध्यम से अध्ययन करता है। वहीं निर्देशात्मक अनुशासन इस ओर अंकित करती है कि वस्तु (तथ्य) कैसे होने चाहिए। अगस्त कोम्टे ने ये देखा व अनुभव किया कि वैज्ञानिक विधि ने विचारों के इतिहास में तत्त्वमीमांसा का स्थान तथा विज्ञान के दर्शन का स्थान ले लिया है। सत्य की चाह में समाज तीव्र गति से उत्तरोत्तर उत्तर स्तर से गुजरता है जिन्हें कोम्टे ने ‘तीन स्तर का नियम’ या ‘सार्वभौमिक नियम’ का नाम दिया गया जो निम्न है—
(1) धर्म का अध्ययन–जहाँ प्रत्येक बात या वस्तु भगवान के संदर्भ में है, और ईश्वर के द्वारा ही मानव अधिकारों की भविष्यवाणी की जाती है ।
(2) आध्यात्मिक या तात्विक–मानवतावाद का पश्च समय, जहाँ मानवता के सार्वभौमिक अधिकार अधिक आवश्यक या जरूरी है।
(3) सकारात्मक–अंतिम है वैज्ञानिक स्तर जहाँ एक व्यक्ति के शासन की अपेक्षा, व्यक्तिगत अधिकार अधिक विशेष है।
कोम्टे का मानना है कि धर्म का अध्ययन व आध्यात्मिक या तात्विक को विज्ञान के अनुसार प्रतिस्थापित किया जाये ।
सकारात्मकता के सिद्धान्त–सकारात्मकता के निम्नलिखित पाँच सिद्धान्त हैं—
(1) तर्क अन्वेषण–यह सिद्धान्त प्रत्येक विज्ञान में एक समान जैसे सामाजिक विज्ञान व प्रकृति विज्ञान (Natural science)
(2) अन्वेषण का उद्देश्य–अन्वेषण हेतु निम्न उद्देश्य हो सकते हैं—किसी घटना को समझने, घटना की व्याख्या करने या उसका अनुमान लगाना कि किस कारण या परिस्थिति में घटना घटित हुई ।
(3) वैज्ञानिक विधि से अवलोकन–अनुसंधान की समस्या का अवलोकन वैज्ञानिक विधि के आधार पर तथा उसके वाक्य तार्किक हो जिन्हें सरलता से जाँचा जा सके।
(4) सामान्य चेतना या बोध–विज्ञान कोई सामान्य बोध नहीं है । अतः सामान्य चेतना अनुसंधान पर हावी होकर उसकी विश्वसनीयता को खत्म न करे ।
(5) विज्ञान तर्कों के आधार पर जाँचा जाता है–अर्थात् विज्ञान का विश्लेषण करने के लिए तर्क व तथ्यों का होना आवश्यक है। यह मूल्य रहित होता है, विज्ञान का अंतिम उद्देश्य ज्ञान का सृजन करना है, न कि मूल्यों, नैतिकता या राजनीति आदि का ।
सकारात्मकता प्रकृतिवाद, अपचयवाद जाँच से अधिक नजदीक है और इसका स्वरूप विज्ञान के समान है। सकारात्मकता, निर्मितवाद के विपरीत है।
सकारात्मकता के आधार–सकारात्मकता के निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) तार्किक–यह दर्शन का वह स्कूल है जो सकारात्मकता से उत्पन्न हुआ और अनुभव व परीक्षण के साथ होकर इसका वर्णन बुद्धिमतापूर्ण हुआ हो अर्थात् ज्ञात जो घटक पर आधारित होता है न कि अवलोकन पर ।
(2) सामाजिक सकारात्मकता–यह विचार अगस्त कोम्टे के द्वारा विकसित किया गया जैसे—सामाजिक विज्ञान (अन्य विज्ञान के समान) को वैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा आँका जाता है। आज के समय में समाजवादी इस बात को मानते हैं कि वैज्ञानिक विधि समाजशास्त्र का भाग है तथा सकारात्मकता रूढ़िवादी दुर्लभ है।
(3) न्यायिक सकारात्मकता—यह विद्यालय न्याय के दर्शन ‘ के विचार को मानते हैं कि न्याय के नियम मनुष्य के द्वारा बनाये गये हैं तथा इनका न्याय से पैतृक रूप से जुड़ाव होना आवश्यक नहीं है। यह प्रकृति के नियम के विपरीत की अवधारणा को लेकर चलता है।
(4) राजनैतिक–यह उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों के राजनैतिक आन्दोलन है। इसका नाम व विचार कोम्टे के दर्शन से है। यह दर्शन इस बात पर जोर देता है कि किसी भी भावना से पूर्व उसका कारण होता है तथा राजनैतिक स्वतंत्रता को पुनः निचले स्तर से धीरे-धीरे प्राप्त किया जा सकता है।
निर्देशात्मक अनुशासन–निर्देशात्मक अनुशासन के अंग्रेजी रूपान्तरण normative की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लैटिन भाषा के शब्द ‘norma’ से हुई है जिसका अर्थ नियम, निर्देश या आज्ञा से है । अर्थात् वह अनुशासन जो नियम के अनुसार इस विषय को स्पष्ट करता है कि व्यक्ति में कौनसे गुण होने चाहिए, उसका व्यवहार और व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए, उसे निर्देशात्मक अध्ययन क्षेत्र कहते हैं । यह अध्ययन क्षेत्र किसी वस्तु के अच्छे या बुरे होने को बताता है। निर्देश वास्तव में सकारात्मक वाक्यों, तथ्यों पर आधारित होता है जो वास्तविकता को स्पष्ट करता है। जैसे—बच्चों को सब्जियाँ खानी चाहिए और जो अपनी स्वतंत्रता व स्थिरता के लिए बलिदान देता है वो दोनों खो देता है । वही दूसरे हाथ पर इन वाक्यों का विस्तार अर्थ है, सब्जियों में अपेक्षाकृत अधिक विटामिन होता है’, ‘धूम्रपान कैंसर का कारण है तथा बलिदान का सामान्य परिणाम स्वतंत्रता व स्थिरता दोनों को खो देना है।’ उपर्युक्त वाक्य निर्देशात्मक है तथा तार्किक भी है, क्योंकि यह दोनों बातों को स्वतंत्र रूप से प्रमाणित करते हैं तथा सह सार्वभौतिक सत्य भी है।
यह अध्ययन क्षेत्र मूल्यों का अध्ययन करता है तथा मूल्य, समाज व सौन्दर्य से जुड़े मुद्दों के प्रश्नों के उत्तर या समाधान ढूँढने में सहायक बनता है। मूल्य शास्त्र का अंग्रेजी शब्द ‘Axiology’ है जो Greek शब्द ‘Axios’ से बना है जिसका तात्पर्य ‘मूल्य’ है । मूल्य वह है जिसका महत्त्व है, जिसे पाने के लिए व्यक्ति और समाज प्रयास करता है और जिसके लिए वे बड़े से बड़ा त्याग कर सकते हैं। मूल्य मीमांसा की मुख्य तीन शाखाएँ निम्न हैं—
(1) तर्कशास्त्र–इसमें उन्हीं चिन्तन मनन को प्राथमिकता दी जाती है जो तर्क के कसौटी पर खरा उतरता हो। इसमें चिन्तन प्रक्रिया का वर्णन नहीं होता अपितु भिज्ञता होती है कि चिन्तन कैसे होता है ? जाने पहचाने तथ्यों से चिन्तन शुरू होता है, जिसे प्रमाण कहा जाता है जिसके आधार पर व्यक्ति के परिणामों का अनुमान लगाया जाता है कि क्या अनुमान सही है ? अथवा किस सीमा तक अनुमान सही है ? यह जाँच की एक सीमा है और यही प्रयास तर्कशास्त्र कहलाता है। इसमें आगमननिगमन की लम्बी प्रक्रिया निहित है।
(2) नीतिशास्त्र–इसके अन्तर्गत व्यक्ति के आचरण से सम्बन्धित मूल्य विषयक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। मनुष्य को क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं, शुभ-अशुभ, अच्छे-बुरे आदि जैसे प्रश्न निहित होते हैं ।
(3) सौन्दर्यशास्त्र–इसमें सौन्दर्य सम्बन्धी चिन्तन-मनन किया जाता है और सुन्दर एवं असुन्दर को परिभाषित करने की कोशिश की जाती है।
उपर्युक्त विस्तृत अध्ययन क्षेत्र के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि मूल्य मीमांसा व्यक्ति के आचरण और व्यवहार को दिशा देता है।
चिन्तनशील अध्ययन क्षेत्र–चिन्तनशील अध्ययन क्षेत्र व्यवस्थित रूप से वस्तु के बारे में जानने व उससे सम्बन्धित खोज करने का प्रयास करता है। इस अध्ययन क्षेत्र का सम्बन्ध वस्तु की वास्तविकता तथा उसकी अमूर्त चिन्तनशीलता से होता है, अर्थात् यह अध्ययन क्रम, पूर्णता व अनुभवों के मध्य श्रृंखला को खोजने में रुचि रखता हैं, जैसेमिल्लिसियन दार्शनिकों ने अन्वेषण शुरू किया, वो यह खोजने व जानने का प्रयास करने में जुट गये कि कौनसे नियम ब्रह्माण्ड को कैसे संचालित करते हैं ? उन्होंने जीवन व उसकी रचना के संदर्भ में व्याख्या करने हेतु खोज शुरू कर दी तथा प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने हेतु कौनसी विधि काम में ली जाये इस पर विचार किया ? अंततः इन दर्शनशास्त्रियों के द्वारा पूर्णत: चिन्तनशीलता का उपयोग किया गया। यह चिन्तनशील अध्ययन क्षेत्र का विशिष्ट उदाहरण है, क्योंकि वह चिन्तनशीलता के माध्यम से ब्रह्माण्ड रचना के रहस्य को जानना चाहते थे । चिन्तनशील अध्ययन क्षेत्र को निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—
(1) तत्त्व मीमांसा–तत्त्व मीमांसा ‘Metaphysics’ में दो उपशब्द हैं—‘Meta’ जिसका अर्थ है ‘के परे’ तथा ‘Physics’ का अर्थ है भौतिकी । अर्थात् संयुक्त रूप से Metaphysics का अर्थ है भौतिकता से परे अथवा भौतिक जगत् से पार । साधारण रूप से तत्त्व मीमांसा को भौतिक जगत् से भी आगे के रूप में समझा जा सकता है। विज्ञान के रूप में भौतिक जहाँ भौतिक संसार की बात करता है वही तत्त्व मीमांसा भौतिक संसार से परे जाकर अपने अध्ययन क्षेत्र की सीमा निश्चित करता है।
अध्यात्मशास्त्र का दूसरा नाम तत्व मीमांसा है। यह दर्शन का प्रमुख विषय क्षेत्र है । तत्व ज्ञान सत्ता के यथार्थ स्वरूप के विषय में चिन्तन करता है तथा उसकी कुछ विशिष्ट समस्याएँ होती हैं। तत्व मीमांसा द्वारा आत्मा, जगत् और ईश्वर के विषय में खोज की जाती है। यह समस्या विश्व के नए दृष्टिकोण की ओर संकेत करती है। तत्व मीमांसा की विभिन्न शाखायें निम्न हैं जिनके अन्तर्गत इसका विस्तृत अध्ययन किया जा सकता है—
(i) आत्मतत्व सम्बन्धी ज्ञान–यह शाखा आत्मा के विषय में खोज करती है। इसके मुख्य प्रश्न है मैं कौन हूँ ? सुकरात ने दर्शन की प्रमुख समस्या ‘अपनी आत्मा को जानना’ को माना है।
(ii) सृष्टि- शास्त्र–इसमें सृष्टि की रचना एवं समस्याओं पर विचार किया जाता है, जैसे क्या सृष्टि अथवा ब्रह्मांड की रचना भौतिक तत्त्वों से हुई है ? क्या ब्रह्माण्ड का निर्माण आध्यात्मिक तत्त्वों से हुआ है ?
(iii) सत्ता – शास्त्र–यह तत्त्व मीमांसा की मुख्य शाखा है कि जिसमें अखिल विश्व ब्रह्मांड के स्वतः असीम और अनंत तत्त्वों व उनके परस्पर सम्बन्धों पर विचार किया जाता है। इसकी मुख्य समस्या सवस्तु, सत अथवा अस्तित्व की प्रकृति की व्याख्या करना है।
(iv) सृष्टि उत्पत्ति का शास्त्र–इसके अन्तर्गत यह विचार किया जाता है कि सृष्टि अथवा विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई ? क्या इसकी रचना की गई ? यदि हाँ तो इसकी रचना किसने की है ? इत्यादि ।
(v) ईश्वर सम्बन्धी तत्त्व दर्शन—इसमें ईश्वर सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर खोजे जाते हैं। जैसे ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो इस बात का क्या प्रमाण है ? ईश्वर का स्वरूप कैसा है ? आदि ।
(2) ज्ञान मीमांसा–ज्ञान की असीम पिपासा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु है, इसलिए दर्शन के अंतर्गत एक शाखा के रूप में ज्ञानशास्त्र स्वीकृत है। वास्तव में ज्ञान की दिशा मुक्तिदायक होती है, अतः ज्ञान को सद्गुण कहा गया है (Knowledge is Virtue)। ज्ञान को सच्चा मित्र बताया गया है जो व्यक्ति के नेत्र पर अज्ञानता के पर्दे को हटाता है। ज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है तथा इसकी व्यापकता की गहराई के आधार पर व्यक्ति अपनी दृष्टि बनाता है। ज्ञान मीमांसा ज्ञान के ज्ञेय से सम्बन्ध, ज्ञान की अन्त:वस्तु का स्वरूप, ज्ञान वस्तु का यथार्थ, ज्ञान की सीमाएँ, ज्ञान के स्रोत, ज्ञान का विज्ञान से सम्बन्ध आदि समस्याओं की विवेचना करता है। ज्ञान मीमांसा में आगमन व निगमन, संश्लेषण व विश्लेषण विधियों का प्रयोग किया जाता है। ज्ञान मीमांसा के प्रमुख सिद्धान्त हैं—
(i) संशयवाद–संशयवाद पूर्ण स्वीकार और पूर्ण नकार के मध्य में स्थित है। हम अपने तत्काल ज्ञान के बाहर किसी वस्तु के अस्तित्व के विषय में निश्चयपूर्ण नहीं कह सकते, क्योंकि उसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है।
(ii) प्रत्ययवाद–इनके अनुसार संसार की प्रत्येक भौतिक वस्तु क्षणिक तथा परिवर्तनशील है। ब्रह्माण्ड की प्रत्येक घटना एवं तत्त्व अपने अस्तित्व के लिए मनस् पर आश्रित तथा आधारित है।
(iii) यथार्थवाद–इस शाखा के अन्तर्गत भौतिक सत्ता के संदर्भ में चिन्तन-मनन किया जाता है और पदार्थ जगत् को प्राथमिकता दी जाती है। बटलर के अनुसार यथार्थवाद संसार को सामान्यतः उसी रूप में स्वीकार करता है जिस रूप में वह हमें दिखाई देता है।
(iv) अनुभववाद–अनुभव को समस्त ज्ञान का स्रोत माना जाता है। इसके अनुसार मनुष्य को ज्ञान उसकी विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त संवेदनाओं के द्वारा होता है। अनुभववाद के जनक ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक के मतानुसार जन्म के समय बालक का मन एक कोरी पट्टी के समान होती है। जैसे-जैसे वह बाह्य जगत् के सम्पर्क में आता है संवेदनाओं के रूप में वस्तुओं के चिह्न मस्तिष्क की इस खाली पट्टी पर अंकित होते जाते हैं।
(v) बुद्धिवाद–बुद्धिवाद से तात्पर्य ज्ञान के क्षेत्र में उस सिद्धान्त से है जो समस्त ज्ञान को बुद्धि पर आधारित मानता है। इसका प्रारम्भ देकार्त से माना जाता है। इसमें सत्य का अन्वेषण आवश्यक है और हम बिना प्रमाण के किसी तथ्य को स्वीकार नहीं कर सकते।
(vi) व्यवहारवाद–इस विचारधारा का मूल है—कोई भी पूर्ण सिद्ध सत्य स्वीकार करने योग्य नहीं है। समस्त सत्ता परिवर्तनशील है, जो आज और अभी सत्य है वही सत्य है । व्यवहारवाद ने आधुनिक दर्शन को सबसे अधिक प्रभावित किया है।
अतः उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तत्त्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा में विषय की गहराई है । दर्शन ऐसी कला है जिसके अन्तर्गत प्रकृति, व्यक्ति तथा जीवन और उसके उद्देश्यों एवं अन्य वस्तुओं पर तर्कपूर्ण विधिवत् विचार किया जाता है।
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