विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधनों को समझाइये ।

विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधनों को समझाइये । 

उत्तर— विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधन–प्राय: सभी दर्शन एवं दार्शनिकों द्वारा ज्ञान प्राप्ति के साधन का विवेचन किया गया है। चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण (साधन) मानता है। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण माने गए हैं, जबकि सांख्य प्रत्यय अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है।
न्याय दर्शन प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द चार प्रमाण मानता है। मीमांसक छ:प्रमाण मानते हैं अर्थात् अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि (अभाव) अन्य दो प्रमाण और हैं, जबकि पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रमाण आठ हैं— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापति, अनुपलब्धि (अभाव), संभव और ऐतिहा।
यहाँ पर हम विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधन (प्रमाण) पर विचार करेंगे ।
(1) आदर्शवाद एवं ज्ञान–आदर्शवादी विचारक प्लेटो के अनुसार विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है । ज्ञान को उन्होंने तीन रूपों में बाँटा हैं— इन्द्रियजन्य, सम्मतिजन्य और चिन्तनजन्य । इन्द्रियजन्य ज्ञान को वे असत्य मानते थे क्योंकि इन्द्रियों द्वारा हम जिन वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सब परिवर्तनशील और एतदर्थ असत्य हैं। सम्मतिजन्य ज्ञान को वे आंशिक रूप में सत्य मानते थे क्योंकि वह भी अनुमानजन्य होता है और अनुमान सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। उनके अनुसार चिन्तनजन्य ज्ञान ही सत्य होता है क्योंकि वह हमें विचारों के रूप में प्राप्त होता है और विचार अपने में अपरिवर्तनशील और एतदर्थ सत्य होते हैं। इस सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्लेटो ने नैतिक जीवन पर बल दिया है और नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिए विवेक पर । इस प्रकार उनकी दृष्टि से ज्ञान का आधार विवेक होता है। बर्कले सत्य ज्ञान की प्राप्ति का आधार आत्मा (मन, Mind) को मानते थे । कान्ट ने आत्मा के स्थान पर तर्कनाबुद्धि को ज्ञान का आधार माना है। उनका तर्क है कि प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यवस्थित होता है, तर्कनाबुद्धि से ही वह व्यवस्थित होता है ।
(2) प्रकृतिवाद एवं ज्ञान–प्रकृतिवादी प्रकृति के ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानते हैं। प्रायः प्रकृति का अर्थ उस रचना से लिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और जिसके निर्माण में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता, जैसे— पृथ्वी, समुद्र, पहाड़, नदियाँ, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बादल, वर्षा, वनस्पति और जीव-जन्तु, परन्तु दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति संसार का वह मूल तत्व है जो पहले से था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। इसमें वे क्रियाएँ भी निहित हैं जो निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं, जैसे पहले होती थीं वैसे ही आज भी होती हैं और वैसे ही भविष्य में होती रहेंगी। उदाहरण के लिए जल, बर्फ और वाष्प, ये प्राकृतिक पदार्थ हैं, इनकी रचना समान तत्त्वों ( हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) से हुई है । हम जानते हैं कि बर्फ से जल, जल से वाष्प, वाष्प से जल और जल से बर्फ, ये सब निश्चित नियमों के अनुसार बनते-बिगड़ते हैं। पदार्थों के मूल तत्त्व और उनके बनने-बिगड़ने के नियमों को ही प्रकृतिवाद प्रकृति मानता है और इनके ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानता है। इन सबका ज्ञान भौतिक विज्ञानों के द्वारा होता है और भौतिक विज्ञानों का ज्ञान कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। प्रकृतिवादी इन्द्रियानुभूत ज्ञान को ही सच्चा मानते हैं। उनकी दृष्टि से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्य को स्वयं निरीक्षण-परीक्षण करना चाहिए। प्रकृतिवादियों का विश्वास है कि ज्ञान प्राप्ति की क्रिया में मन और मस्तिष्क संयोजक का कार्य करते हैं ।
(3) अस्तित्ववाद एवं ज्ञान–जो व्यक्ति जिस प्रकार के सत्य को स्वीकार करता है उसके लिए उसी पकार के ज्ञान के स्रोत होंगे, क्योंकि अस्तित्ववाद व्यक्तिवाद को महत्त्व देता है। तो इसमें ज्ञान का स्वरूप भी व्यक्तिनिष्ठ होना स्वभाविक है। व्यक्तिनिष्ठ ज्ञान का अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने जीवन काल में जो अनुभव करता है वह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत ज्ञान होता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जो ज्ञान उस व्यक्ति को हुआ है वह दूसरे व्यक्तियों के लिए भी हो उपयोगी व सार्थक हो । ज्ञान का कोई ठोस आधार न होने के कारण अस्तित्ववाद अनुभवजन्य ज्ञान को ही महत्त्व देता है जिसे तर्क की कसौटी पर परखा गया हो।
(4) मानववाद एवं ज्ञान–जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि मानववाद का केन्द्र बिन्दु मानव है । मानववादी पदार्थजन्य संसार (भौतिक जगत) की सत्ता में विश्वास करते हैं तथा इस सृष्टि का सर्वोच्च फल मानव को माना है । जगत की समस्त वस्तुओं के स्वरूप को जानने के लिए वास्तविक ज्ञान की आवश्यकता होती है। वास्तविक ज्ञान मनुष्य को इन्द्रियों के द्वारा ही होता है अर्थात् मानववादी इन्द्रियदत्त ज्ञान को महत्त्व देते हैं । इस इन्द्रियदत्त ज्ञान के लिए ये ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों दोनों को महत्त्व देते हैं। इनके द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष ज्ञान को ये तर्क की कसौटी पर कसकर स्वीकार करने के पक्ष में हैं अर्थात् ये ज्ञान के स्रोत के रूप में तर्क को विशेष महत्त्व देते हैं ।
(5) सांख्य दर्शन एवं ज्ञान–सांख्य दर्शन ने ज्ञान को दो भागों में बाँटा है—एक पदार्थ ज्ञानं, इसे वह यथार्थ ज्ञान कहता है और दूसरा प्रकृति-पुरुष के भेद का ज्ञान, इसे वह विवेक ज्ञान कहता है। सांख्य के अनुसार हमें पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है । इन्द्रियों से यह ज्ञान मन, मन से अहंकार, अहंकार से बुद्धि और बुद्धि से पुरुष को प्राप्त होता से है। दूसरी ओर सांख्य यह मानता है कि पुरुष, बुद्धि को प्रकाशित करता है, बुद्धि अहंकार को जागृत करती है, अहंकार मन को क्रियाशील करता है और मन इन्द्रियों को क्रियाशील करता है, उनके और वस्तु के बीच संसर्ग स्थापित करता है। सांख्य का स्पष्टीकरण है कि इन्द्रियाँ, मन, अहंकार और बुद्धि ये सब प्रकृति से निर्मित हैं । अतः ये जड़ हैं और जड़ में ज्ञान का उदय नहीं हो सकता। दूसरी ओर पुरुष केवल चेतन तत्त्व है, बिना जड़ प्रकृति के माध्यम से वह भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रकृति (जड़) और पुरुष (चेतन) दोनों का संयोग आवश्यक होता है। सांख्य की पदार्थ ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया को हम निम्नलिखित रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं—
पदार्थ इन्द्रियाँ →मन→अहंकार→बुद्धि→पुरुष (आत्मा)
सांख्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए तीन प्रमाण (साधन) मानता है—प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द । वस्तु जगत के ज्ञान के लिए ये तीनों प्रमाण (साधन) आवश्यक होते हैं। परन्तु पुरुष तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने के के ज्ञान की अनुभूति के लिए सांख्य योग साधन मार्ग का समर्थन करता है।
(6) प्रयोजनवाद एवं ज्ञान–प्रयोजनवादियों के अनुसार अनुभवों की पुनर्रचना ही ज्ञान है। ये ज्ञान को साध्य नहीं अपितु मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने का साधन मानते हैं। इनके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने से स्वयं होती है। कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को ये ज्ञान का आधार, मस्तिष्क तथा बुद्धि को ज्ञान का नियन्त्रक और सामाजिक क्रियाओं को ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम मानते हैं ।
(7) यथार्थवाद एवं ज्ञान–यथार्थवादी मनुष्य को एक बौद्धिक प्राणी मानते हैं पर ये उसकी बुद्धि को भी शरीर का एक अंग मानते हैं, उसे स्नायुजनित मानते हैं। इनके अनुसार वैज्ञानिक जिसे वैज्ञानिक भाषा में मस्तिष्क कहते हैं उसे ही सामान्य भाषा में बुद्धि कहा जाता है। ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा) को ये ज्ञान प्राप्ति का साधन मानते हैं। इनका तर्क है कि वस्तु का ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है इसलिए वही सच्चा ज्ञान है। यथार्थवादी शब्दों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को भी इन्द्रिय प्रत्यक्ष करने के बाद स्वीकार करने पर बल देते हैं ।
(8) योग दर्शन एवं ज्ञान–योग दर्शन की ज्ञान मीमांसा भी सांख्य आधारित है। योग भी वस्तु जगत के ज्ञान के लिए बाह्य उपकरणों (मन, अहंकार और बुद्धि) को आवश्यक मानता है। अन्तर केवल इतना है कि वह आन्तरिक उपकरणों— मन, बुद्धि और अहंकार के समुच्चय को चित्त की संज्ञा देता है। योग दर्शन के अनुसार मनुष्य को पदार्थ का ज्ञान इन्द्रियों और चित्त के माध्यम से अन्त में आत्मा को प्राप्त होता है। परन्तु उसकी दृष्टि से योगी को यह ज्ञान सीधे प्राप्त हो जाता है। उसका स्पष्टीकरण है कि योग क्रिया के अन्तिम चरण समाधि की स्थिति में आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है, और चूँकि परमात्मा सर्वज्ञ है इसलिए उस स्थिति में मनुष्य को कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, वह सर्वज्ञ हो जाता है।
(9) न्याय-दर्शन की ज्ञानमीमांसा–न्याय दर्शन में आत्मा के ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया है। इस सन्दर्भ में न्याय-दर्शन के दो विचार हैं— प्रथम नव्य न्याय दर्शन के अनुसार मन के साथ आत्मा का संयोग होने पर ही ‘मैं हूँ’ का एक प्रत्यक्ष बोध होता है। यह मानस का प्रत्यक्ष से आत्मा का साक्षात् ज्ञान होता है । आत्मा को ज्ञाता और भोगता अथवा कर्त्ता के रूप में माना गया है। आत्मा का ज्ञान किसी-न-किसी गुण के द्वारा होता है। अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष स्वयं ज्ञान किया जा सकता है। अन्य व्यक्तियों की आत्मा का ज्ञान उसके कार्यों से अनुमान लगाकर कर सकते हैं ।
महर्षि गौतम के अनुसार मिथ्या ज्ञान के नाश होने से राग-द्वेष आदि दोषों का भी नाश हो जाता है। मिथ्या ज्ञान के नाश के लिए तत्त्व ज्ञान की आवश्यकता है। जिसके लिए न्याय-दर्शन में बारह प्रमेयों को दिया गया है। इन बारह प्रमेयों के लिए चौदह षोड़श पदार्थों को प्रमाण के रूप में प्रयुक्त कर सकते हैं— संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल जाति और निग्रह स्थान ।
न्याय-दर्शन का तत्वविचार उसके प्रमाण विचार पर निर्भर है। इसके अनुसार यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के चार उपाय हैं – (i) प्रत्यक्ष, (ii) अनुमान, (iii) उपमान तथा (iv) शब्द । न्याय दर्शन वस्तुओं की अभिव्यक्ति को ज्ञान या बुद्धि कहते हैं। जिस प्रकार किसी दीपक का प्रकाश वस्तुओं को आलोकित करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी अपने विषय को प्रकाशित करता है ।
(i) प्रत्यक्ष उपाय–प्रत्यक्ष उस अनुभव को कहते हैं, जो इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होता है और जो यथार्थ भी होता है । वस्तु के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क होने से जो अनुभव उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष उपाय भी कहते हैं। प्रत्यक्ष उपाय के अनेक भेद, अनेक लक्षण होते हैं ।
(ii) अनुमान उपाय–अनुमान के शाब्दिक अर्थ से स्पष्ट होता है `कि यह दो शब्दों से बना है अनु तथा मान । अनु का अर्थ होता है पश्चात् तथा मान का अर्थ होता है, ज्ञान । इस प्रकार अनुमान के द्वारा जो ज्ञान होता है वह किसी पूर्व ज्ञान के पश्चात् आता है या वह पूर्व ज्ञान पर आधारित होता है। इसमें चिन्तन प्रक्रिया निहित होती है। अनुमान को दो विधियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है— आगमन तथा निगमन ।
(iii) उपमान उपाय—न्याय-दर्शन के अनुसार तीसरा उपाय उपमान है इसके द्वारा संज्ञा – संज्ञि- सम्बन्ध का ज्ञान होता है। इसका अर्थ होता है कि किसी की उपमा देकर उसका बोध कराया जाए। इसमें ज्ञान से अज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं। जो नया ज्ञान होता है उसे उपमान द्वारा प्राप्त माना जाता है ।
(iv) शब्द–न्याय – दर्शन के अनुसार चौथा उपाय शब्द है । शब्द तथा वाक्यों से जो वस्तुओं का बोध कराया जाता है, उसे शब्द ज्ञान कहते हैं। सभी शब्द-ज्ञान यथार्थ नहीं होते। अतः शब्द को प्रमाण तभी समझा जा सकता है जब उसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो । वेदों के ज्ञान को शब्द ज्ञान मानते हैं।
(10) अद्वैत वेदान्त दर्शन एवं ज्ञान–शंकर ने ज्ञान को दो भागों में बांटा है—अपरा (लौकिक अथवा व्यावहारिक) तथा परा (आध्यात्मिक) । इस वस्तु जगत एवं मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों के ज्ञान को उन्होंने अपरा ज्ञान कहा है। उनकी दृष्टि से इस ज्ञान की केवल व्यावहारिक उपयोगिता है, इससे मनुष्य अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य ‘मुक्ति’ की प्राप्ति नहीं कर सकता । वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् एवं गीता की तत्त्व मीमांसा को वे परा ज्ञान कहते थे। उनकी दृष्टि से यही सच्चा ज्ञान है, इस ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शंकर ने श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन की विधि का समर्थन किया है परन्तु परा ज्ञान के लिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन के साथ साधन चतुष्टय को आवश्यक मानते थे। उनकी दृष्टि से बिना साधन चतुष्टय (नित्य-अनित्य वस्तु विवेक, भोग विरक्ति, शमदमादि संयम और ममुक्षकत्व) के परा ज्ञान नहीं हो सकता।
(11) चार्वाक दर्शन एवं ज्ञान–ज्ञान प्राप्ति के लिए चार्वाक दर्शन ‘प्रत्यक्ष’ को ही एक मात्र प्रमाण (साधन) मानता है। अनुमान, शब्दादि प्रमाणों को यह विश्वसनीय नहीं मानता। प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार, केवल इन्द्रियों के द्वारा ही विश्वास योग्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है । इन्द्रिय एवं वस्तु के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। समस्त प्रमेय अर्थात् दृश्यमान जगत् का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है। अतः चार्वाक की दृष्टि में इन्द्रिय-ज्ञान ही एक मात्र यथार्थ ज्ञान है। वह अन्य प्रमाणों, विशेषकर अनुमान एवं शब्द का खण्डन करता है।
(12) बौद्ध दर्शन एवं ज्ञान–बौद्ध दर्शन में ज्ञान प्राप्ति के केवल दो साधनों—प्रत्यक्ष और अनुमान को मान्यता दी गई है। बौद्ध दर्शन में शब्द को ज्ञान प्राप्ति का साधन नहीं माना गया है अर्थात् शब्द को प्रमाण नहीं माना गया है। प्रायः आप्तपुरुष के वचन को शब्द प्रमाण कहा जाता है। यथार्थ वक्ता को ‘आप्त’ कहते हैं अर्थात् जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में कहने वाला ‘आप्त’ है। विश्वसनीय आदमी के वचनों को प्रमाण माना जाता है। बुद्ध ने ऐसे मत को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि किसी बात को इसलिए प्रमाण मत मानें कि उसे किसी महान् पुरुष ने कहा है अथवा जो कुछ स्वयं बुद्ध ने कहा है, वह भी प्रमाण नहीं है। ऐसा कहने का उनका तात्पर्य यह था कि लोग स्वतः यह जानें कि बुद्ध ने जो कुछ कहा वह बुद्धिसंगत तथा व्यावहारिक रूप में सत्य है अथवा नहीं । शब्द प्रमाण को मानने से आदमी की अन्वेषण प्रवृत्ति का नाश होता है और वह दूसरों के शब्दों को प्रमाण मानकर अन्वेषी बुद्धि का प्रयोग नहीं करता । बुद्ध ने कहा कि स्वयं जानो. और यदि किसी के शब्द सत्य प्रमाणित हों तो उन्हें मान्यता दो अन्यथा नहीं। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अन्धविश्वास और रूढ़िवाद का अन्त करने के लिए शब्द प्रमाण को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। केवल दो ही प्रमाण–प्रत्यक्ष और अनुमान माने गए ।
(13) महात्मा गाँधी एवं ज्ञान–गाँधीजी ने ज्ञान को दो वर्गों में विभाजित किया— भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान । भौतिक ज्ञान के अन्तर्गत इन्होंने भौतिक जगत एवं मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों (सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक) के ज्ञान को रखा है और आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत सृष्टि-सृष्टा और आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी तत्त्व ज्ञान को रखा है। गांधी जी की दृष्टि से मनुष्य को दोनों प्रकार का ज्ञान आवश्यक है, भौतिक जीवन के लिए भौतिक ज्ञान आवश्यक है और आत्म ज्ञान अथवा ईश्वर प्राप्ति अथवा मोक्ष के लिए आध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है।
गाँधी जी के अनुसार भौतिक ज्ञान की प्राप्ति इन्द्रियों द्वारा की जा सकती है और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति गीता पाठ, भजन-कीर्तन और सत्संग द्वारा की जा सकती है।
(14) अरविन्द घोष एवं ज्ञान–श्री अरविन्द घोष के अनुसार भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों तत्त्वों में मूल तत्व ब्रह्म ही है। इसलिए भौतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों के अभेद को जानना ही सच्चा ज्ञान है। प्रयोग की दृष्टि से इन्होंने ज्ञान को दो भागों में बाँटा है— द्रव्यज्ञान और आत्मज्ञान । द्रव्यज्ञान (जगत ज्ञान) को ये साधारण ज्ञान मानते थे और आत्मज्ञान को उच्च ज्ञान 1 इनकी दृष्टि से वस्तु जगत का ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों द्वारा और आत्मतत्त्व का ज्ञान अन्तःकरण द्वारा होता है । आत्मतत्त्व के ज्ञान के लिए ये योग की क्रिया (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि) को आवश्यक मानते थे ।
(15) विवेकानन्द एवं ज्ञान–स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान को दो भागों में बाँटा है— भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान । भौतिक ज्ञान के अन्तर्गत वस्तुजगत (उसकी समस्त वस्तुओं और क्रियाओं) के ज्ञान को रखा है और आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत सूक्ष्म मार्गों (ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग और राज योग) के ज्ञान को रखा है। विवेकानन्द वस्तु जगत और सूक्ष्म जगत दोनों के ज्ञान को सत्य ज्ञान मानते थे। इनका तर्क है कि यह वस्तु जगत ब्रह्म द्वारा ब्रह्म से निर्मित है और ब्रह्म सत्य है, तब यह जगत भी सत्य होना चाहिए। सत्य से असत्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। अतः इसका ज्ञान भी सत्य ज्ञान की कोटि में आता है। जहाँ तक ज्ञान प्राप्ति के साधनों की बात है, इस सन्दर्भ में भी स्वामी विवेकानन्द के विचार स्पष्ट हैं। इनके अनुसार वस्तु जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष विधि और प्रयोग विधि से होता है और सूक्ष्म जगत का ज्ञान सत्संग, स्वाध्याय और योग द्वारा होता है। योग को तो ये किसी भी प्रकार के ज्ञान (वस्तु जगत अथवा सूक्ष्म जगत के ज्ञान) प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि मानते थे ।
(16) टैगोर एवं ज्ञान–टैगोर भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के ज्ञान को समान महत्त्व देते थे। ये भौतिक जगत के ज्ञान को उपयोगी ज्ञान और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को विशुद्ध ज्ञान कहते थे। इनकी दृष्टि से संसार की समस्त जड़ वस्तुओं और जीवों में एकात्म भाव ही अन्तिम सत्य है और इसकी अनुभूति ही मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
ज्ञान प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में गुरुदेव ने स्पष्ट किया है कि भौतिक वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान भौतिक माध्यमों (इन्द्रियों ) द्वारा प्राप्त होता है और आध्यात्मिक तत्त्वों (आत्मा-परमात्मा) का ज्ञान सूक्ष्म माध्यमों (योग) द्वारा प्राप्त होता है। सूक्ष्म माध्यमों में इन्होंने प्रेम योग के महत्त्व को स्वीकार किया है। इन्होंने स्पष्ट किया कि आध्यात्मिक तत्त्व के ज्ञान के लिए सबसे सरल मार्ग प्रेम मार्ग है, प्रेम ही हमें मानव मात्र के प्रति संवेदनशील बनाता है, यही हमें एकात्म भाव की अनुभूति कराता है और यही हमें आत्मानुभूति अथवा ईश्वर की प्राप्ति कराता है।
(17) सुकरात एवं ज्ञान–सुकरात की दृष्टि से ज्ञान जाति विषयक सामान्य एवं सम्प्रत्ययात्मक होता है और सर्वव्यापी एवं सर्वमान्य होता है। सम्प्रत्यय से तात्पर्य किसी एक ही जाति के अन्तर्गत अनेक वस्तु अथवा जीव विशेषों में निहित बुद्धि द्वारा अपकर्षित सामान्य सार गुण से होता है। सार गुण वह है जिसके बिना कोई वस्तु अथवा जीव विशेष अपनी जाति के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता । उदाहरण के लिए मनुष्य का काला-गोरा होना उसका विशिष्ट गुण है परन्तु उसका बुद्धि प्रधान होना सामान्य गुण है, सार गुण है। सुकरात की दृष्टि से वास्तविक ज्ञान वह है जो मनुष्य को अच्छे-बुरे में भेद करने में सहायता करता है। ये कहा करते थे कि ज्ञान सद्गुण है (Knowledge is virtue), ज्ञान सार्वभौमिक सत्य की दृष्टि है (Knowledge is vision of universal truth)। इस ज्ञान के होने पर मनुष्य में कोई दुर्गुण नहीं रह जाता, वह था सदैव अच्छे कार्य ही करता है। अच्छे-बुरे के विषय में इनका निर्णय -अच्छा वह है जो मनुष्यमात्र के लिए आनन्ददायक है और बुरा वह है जो मनुष्य मात्र के लिए आनन्ददायक नहीं है। सुकरात के अनुसार सामान्य ज्ञान की प्राप्ति प्रत्ययों के माध्यम से की जा सकती है परन्तु परम सत् का ज्ञान केवल बुद्धि एवं आत्मनिरीक्षण द्वारा हो सकता है।
(18) रूसो एवं ज्ञान–रूसो के अनुसार प्रकृति का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। प्रकृति शब्द का प्रयोग रूसो ने कई रूपों में किया हैएक उसके लिए जो मनुष्य के प्रयत्न बिना निर्मित है और दूसरी वह जो मनुष्य ने अपने जन्म से पाई है और जिसके साथ मनुष्य ने कोई छेड़छाड़ नहीं की है। रूसो ने संसार के सभी दुःखों का कारण तत्कालीन सभ्यता और विज्ञान को बताया इसलिए ये इसके ज्ञान को आवश्यक नहीं मानते थे। आगे चलकर इन्होंने आदर्श राज्य का पूरा खाका तैयार किया और मनुष्य की पूरी शिक्षा योजना तैयार की और शिक्षा द्वारा मनुष्य को वह सब सिखाने पर बल दिया जो मनुष्य के लिए समग्र रूप से हितकर है । ज्ञान प्राप्ति के साधन एवं विधियों के विषय में रूसो का स्पष्ट मत है कि बच्चों को कर्मेन्द्रियों द्वारा करके और ज्ञानेन्द्रियों द्वारा स्वयं के अनुभव से सीखने दो, ज्ञान बाहर से जबरन लादने की वस्तु नहीं, स्वयं करके स्वयं के अनुभव से प्राप्त करने की वस्तु है ।
(19) जे. कृष्णमूर्ति एवं ज्ञान–जे. कृष्णमूर्ति ने ज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया है—वैज्ञानिक, सामूहिक और वैयष्टिक । इन्होंने वैज्ञानिक ज्ञान की श्रेणी में उस ज्ञान को रखा है जो तथ्यों के विश्लेषण पर आधारित होता है, सामूहिक ज्ञान की श्रेणी में उस ज्ञान को रखा है जो मनुष्य के और मनुष्य के प्रकृति के प्रति सम्बन्धों से सम्बन्धित होता है और वैयष्टिक ज्ञान की श्रेणी में उस ज्ञान को रखा है जो मनुष्य के अन्तःकरण से सम्बन्धित होता है। इनकी दृष्टि से किसी प्रकार का ज्ञान बुद्धि से प्राप्त होता है और वास्तविक ज्ञान बुद्धि के निष्पक्ष होने से प्राप्त होता है। इन्होंने आगे स्पष्ट किया कि वास्तविक ज्ञान आन्तरिक सत्ता का प्रतीक है, जीवन का मार्गदर्शक है और इसको चेतना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
(20) प्लेटो एवं ज्ञान–प्लेटो के अनुसार ज्ञान के तीन प्रकार हैं— इन्द्रियजन्य ज्ञान, सम्मतिजन्य ज्ञान और चिन्तनजन्य ज्ञान । इनके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान कभी भी यथार्थ नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियों द्वारा हम जिन वस्तुओं की अनुभूति करते हैं वे परिवर्तनशील होती हैं; सम्मतिजन्य ज्ञान कुछ परिस्थितियों में सत्य हो सकता है लेकिन अनुमानजन्य होने के कारण यह भी अपूर्ण होता है, केवल चिन्तनजन्य ज्ञान ही सत्य होता है क्योंकि यह तर्क के आधार पर विचारों के रूप में प्राप्त होता है । प्लेटो के अनुसार ये विचार आत्मा के गुण हैं। मनुष्य शरीर में प्रवाश् करने से पहले आत्मा इन विचारों से पूर्ण होती है, शरीर में आने के बाद वह इन्हें भूल सा जाती है और भौतिक स्तर पर विचार-विमर्श करने और विश्लेषण एवं तर्क करने से उसके लिए इन विचारों को पुनः स्मरण करना सम्भव हो जाता है। तंब हम कहते हैं कि मनुष्य को ज्ञान हो गया। ज्ञान से वह सत्य विचारों की अनुभूति करने में सफल होता है। इन विचारों का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है।
(21) अरस्तू एवं ज्ञान–अरस्तू के अनुसार ज्ञान के तीन स्तर हैं । प्रथम इन्द्रियानुभव जिसके द्वारा हमें केवल विशेषों का पृथक-पृथक ज्ञान होता है। द्वितीय है पदार्थ ज्ञान जिसके द्वारा हम विशेषों में सामान्य को खोजते हैं, उनके कारण कार्य के सम्बन्ध को जानते हैं और इस ज्ञान का जीवन में उपयोग करते हैं। तृतीय है तत्त्व ज्ञान, यह परम द्रव्य, परम तत्त्व, शुद्ध सत्ता, सत्य अथवा ईश्वर का ज्ञान है। यह सर्वोत्तम ज्ञान है। अरस्तू भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के ज्ञान को आवश्यक मानते थे। इनकी दृष्टि से किसी भी प्रकार का ज्ञान मनुष्य को अपनी इन्द्रियों (कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा प्राप्त होता है । इन्द्रियों को ये ज्ञान प्राप्त करने का आधार मानते थे। इनका तर्क है कि सूक्ष्म (अमूर्त) की कल्पना भी स्थूल (मूर्त) के आधार पर होती है ।
(22) जॉन डीवी एवं ज्ञान–डीवी उन्हीं वस्तुओं और क्रियाओं के ज्ञान को सत्य ज्ञान मानते थे जिनकी मानव जीवन में उपयोगिता है। डीवी के अनुसार सत्य की खोज क्रियाओं के परिणाम के आधार पर होती है। इनका स्पष्टीकरण है कि क्रिया द्वारा ज्ञान अर्जित होता है और ज्ञान से सत्य का निर्णय होता है । इस प्रकार डीवी क्रिया को ज्ञान प्राप्ति और सत्य की खोज का आधार मानते थे। डीवी के अनुसार मनुष्य सत्य की खोज के लिए तब अग्रसर होता है जब उसके सामने कोई समस्या उपस्थित होती है। इनका स्पष्टीकरण है कि समस्या के उपस्थित होते ही मनुष्य उसका हल ढूँढ़ने लगता है। वह सबसे पहले उसके अनेक हलों की कल्पना करता है, फिर इन उपायों को प्रयोग की कसौटी पर कस कर उनकी सत्यता की परख करता है और जो क्रियाएँ सहायक होती हैं उन्हें स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार डीवी द्वारा प्रतिपादित सोचने अथवा सत्य की खोज करने के पाँच पद होते हैं— 1. समस्या अथवा कठिनाई की अनुभूति, 2. समस्या का स्पष्टीकरण, 3. समस्या के सम्भावित समाधानों की कल्पना और उनका लेखन, 4. सम्भावित समाधानों को प्रयोग की कसौटी पर कसना और 5. प्रयोग के परिणामों का अवलोकन और निर्णय निकालना। डीवी ने स्पष्ट किया कि समस्या के समाधन की बात तभी उठती है जब मनुष्य को समस्या का स्पष्ट ज्ञान हो । समस्या के स्पष्ट ज्ञान के लिए और समस्या की अनुभूति करने के लिए उसे संवेदनशील होना चाहिए। यह संवेदनशीलता उसी व्यक्ति में होती है जिसमें सामाजिकता का विकास हो चुका है। डीवी का मत है कि ऐसे संवेदनशील सामाजिक प्राणी ही अपना और समाज का हित करते हैं।
(23) फ्रोबेल एवं ज्ञान–फ्रोबेल के अनुसार सृष्टि की प्रत्येक वस्तु विकासशील है और इस विकास की मूल शक्ति उसके अन्दर स्थित है जो कुछ मूल सिद्धान्तों के आधार पर विकास करती है। फ्रोबेल के अनुसार सृष्टि के जड़ पदार्थों एवं जीव जन्तुओं के इस क्रमिक विकास को जानना ज्ञान है और इसके विकास के मूल कारण ईश्वर को जानना ही सच्चा ज्ञान है। फ्रोबेल के अनुसार मनुष्य किसी भी प्रकार का ज्ञान अपनी अन्तः शक्तियों के द्वारा ही प्राप्त कर सकता है।
(24) मॉन्टेसरी एवं ज्ञान–डॉ. मॉन्टेसरी लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति पर बल देती थीं। ये मस्तिष्क, कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान प्राप्त करने का आधार मानती थीं। इनके अनुसार किसी भी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति के लिए इन तीनों का संयोग आवश्यक होता है।
(25) वैशेषिक दर्शन की ज्ञानमीमांसा–वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थों को महत्त्व दिया गया है, जिनमें से छ: भाव तथा एक अभाव पदार्थ है। वैशेषिक के सात पदार्थ इस प्रकार हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव । –
(i) द्रव्य–द्रव्य, गुण और कर्म का आधार समवायी कारण है । द्रव्य वह पदार्थ है जो स्वतः गुण या कर्म से भिन्न होते हुए भी उनका आश्रय स्वरूप है । द्रव्य के बिना कोई गुण या कर्म नहीं रह सकता । गुण और कर्म जिस आधार में रहते हैं वह द्रव्य कहलाता है। द्रव्य के नौ प्रकार हैं- – 1. पृथ्वी 2. जल 3. तेज 4. वायु 5. आकाश 6. काल 7. दिक् 8. आत्मा तथा 9. मन । इनमें प्रथम पाँच पंच्चभूत कहलाते हैं । जिनका बाह्य ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव किया जा सकता है ।
पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणु नित्य हैं और उससे बने कार्य-द्रव्य अनित्य हैं । आकाश नित्य, सर्वव्यापी और अप्रत्यक्ष है । दिक् और काल अप्रत्यक्ष हैं। आत्मा नित्य व्यापक और चेतन्य का आधार है। आत्मा का स्वरूप वैशेषिक में ज्ञान के समान माना जाता है। मन एक अगोचर अणुद्रव्य है । मन के अस्तित्व के लिए प्रमाण हैं।
(ii) गुण – गुण वह पदार्थ है जो द्रव्य में रहता है, पर जिसमें कोई गुण या कर्म नहीं रहता । गुण 24 प्रकार के बताए गए हैं— रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिमाण, पृथ्क्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दु:ख, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म तथा अधर्म ।
(iii) कर्म–वैशेषिक–दर्शन में द्रव्य के मूल गतिशील धर्मों को कर्म कहते हैं। गुण द्रव्य का निष्क्रिय स्वरूप है तथा कर्म सक्रिय स्वरूप है। कर्म वह गतिशील धर्म है, जो पदार्थ को स्थानान्तरण करता है । इस प्रकार कर्म द्रव्यों के संयोग तथा विभाजन का कारण होता है। कर्म पाँच प्रकार के होते हैं– 1. उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), 2. अवक्षेपण (नीचे फेंकना), 3. आकुंचन (सिकोड़ना), 4. प्रसारण (फैलाना) तथा 5. गमन (चलना) ।
(iv) सामान्य–सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण भिन्न-भिन्न वस्तुएँ एक जाति में सम्मिलित होकर एक नाम से पुकारी जाती हैं। जैसे सभी मनुष्यों को मानव कहते हैं। सामान्य का अर्थ जातिवाचक शब्दों से है। इसके सम्बन्ध में प्रमुख तीन विचार हैं—1. नामवाद 2. प्रत्ययवाद तथा 3. वस्तुवाद । सामान्य के भेद भी तीन ही माने जाते हैं— पर, अपर तथा परापर ।
(v) विशेष–सामान्य का ठीक उल्टा विशेष कहलाता है। विशिष्ट व्यक्तित्व को ही विशेष कहते हैं। विशेष द्रव्य हैं—दिक्, काल, आकाश, आत्मा आदि । यह द्रव्य नित्य रहने के कारण विशेष कहे जाते हैं। विशेष स्वत: पहचाने जाते हैं। उनका विश्लेषण नहीं किया जा सकता है।
(vi) समवाय–न्याय तथा वैशेषिक में दो प्रकार के सम्बन्ध माने गये—संयोग तथा समवाय। संयोग के विपरीत समवाय का नित्य सम्बन्ध है। यह दो पदार्थों का वह सम्बन्ध है जिसके कारण एक दूसरे में समवेत रहता है। जैसे गुलाब के फूल में लाल रंग। इसी प्रकार किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा उसके गुण।
समवाय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए, संयोग व समवाय में निम्न प्रकार भेद किया जा सकता हैं—
(1) संयोग क्षणिक और अनित्य सम्बन्ध है, जबकि समवाय नित्य सम्बन्ध है।
(2) संयोग बाह्य सम्बन्ध है जबकि समवाय आन्तरिक सम्बन्ध है।
(3) संयोग में पदार्थ अलग-अलग होते हैं जबकि समवाय में पदार्थ के अन्दर ही वह निहित होता है।
(vii) अभाव–अभाव वह पदार्थ है जो उपर्युक्त छ: पदार्थों में से किसी के भी अन्दर नहीं आ सकता, जिसे सातवाँ पदार्थ माना गया। कणाद ने छ: पदार्थ ही माने हैं जबकि वैशेषिक-सूत्र प्रमेय रूप में अभाव का उल्लेख मिलता है। सूत्रों के सम्बन्ध में कणाद ने भी अभाव का उल्लेख किया है, परन्तु इसको पदार्थ के रूप में स्वीकार नहीं किया। अभाव दो प्रकार का माना जाता है— संसर्गाभाव तथा अन्योन्याभाव । भाव का अर्थ है कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु में अभाव। जैसे अग्नि में शीतलता का अभाव ।
(26) जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा–जैन दर्शन का प्रमाण विचार (ज्ञानमीमांसा) उसके तत्त्व विचार से सम्बन्धित है, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वास्तव में ज्ञान आत्मा के स्वरूप का ही एक पक्ष है। जैन मतानुसार चैतन्य जीव का स्वरूप है। जीव स्वभावतः अनन्त ज्ञानमय है । जीव (आत्मा) की उपमा सूर्य के साथ दी गई है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश न केवल स्वत: को, अपितु अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा का चैतन्य स्वयं तथा अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है। वस्तुत: आत्मा के लिए यह कहा गया है कि “ज्ञानं स्वपरभासी । ” किन्तु कर्म के बन्धन (आवरण) से आवृत्त होने के कारण उसका वह ज्ञानमय स्वरूप ढक जाता है। जिस प्रकार जब सूर्य बादलों से घिर जाने पर प्रकाश नहीं दे पाता तब अन्धकार छा जाता है। उसी भाँति आत्मा कर्म बन्धनों से घिर जाने पर अपने अनन्त ज्ञान का प्रसार नहीं कर पाती । बन्धन के कारण जीव का ज्ञान न्यून तथा सीमित हो जाता है। जीवों की सर्वज्ञता नष्ट हो जाती है। लेकिन बन्धनरूपी आवरण दूर हो जाने पर, सूर्य के समान ‘स्वपराभासी’ हो जाता है। इस प्रकार जब बन्धन का नाश हो जाता है तब आत्मा अनन्त ज्ञानमय हो जाती है।
अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा कुछ जटिल है। सर्वप्रथम, ज्ञान दो प्रकार का होता है—अपरोक्ष (Direct) तथा परोक्ष (Indirect) । इन्द्रियादि की अपेक्षा किए बिना जो ज्ञान स्वत: (साक्षात्) हो जाता है, उस ज्ञान को अपरोक्ष ज्ञान कहा गया है। इसमें किसी इन्द्रिय की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि यहाँ आत्मा का पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध होता है। इसके विपरीत, जो ज्ञान, इन्द्रिय तथा मन के द्वारा उत्पन्न होता है, उसे जैन दर्शन में परोक्ष ज्ञान कहा गया है, क्योंकि इसमें आत्मा एवं वस्तुओं के बीच कोई माध्यम (मन, इन्द्रियादि) होता है ।
अपरोक्ष ज्ञान के दो भेद माने गए हैं—व्यावहारिक तथा पारमार्थिक इन्द्रिय या मन के द्वारा जो बाह्य एवं आभ्यन्तर विषयों का ज्ञान होता है, उसे जैन मत में ‘व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान’ माना गया है, क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि से वह प्रत्यक्ष होता है। इस व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान के अतिरिक्त, पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान भी होता है जो कर्म – बन्धन के नष्ट हो जाने पर प्राप्त होता है। इसमें आत्मा और ज्ञेय वस्तुओं का सीधा (साक्षात्) सम्बन्ध हो जाता है। जब तक मनुष्य राग-द्वेषादि में फँसा रहता है तब तक उसे ऐसा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के पुनः तीन भेद किए हैं, जो इस प्रकार है—
(i) अवधि ज्ञान–हर मनुष्य कर्म- बन्धन से छुटकारा पाने का प्रयास करता है और जब वह अपने कर्म को अंशत: नष्ट कर लेता है तब वह एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेता है जिसके द्वारा वह अत्यन्त दूरस्थ, सूक्ष्म तथा अस्पष्ट द्रव्यों को भी जान लेता है। देश-काल की सीमा से मुक्त होने के कारण यह ससीम ज्ञान है अर्थात् इसके द्वारा सीमित वस्तुओं का ही ज्ञान हो सकता है। अतः इसे अवधि-ज्ञान की संज्ञा दी गई है।
(ii) मनः पर्याय–मनुष्य साधना करते-करते, राग-द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय पा लेता है । अतः उसमें एक दृष्टि संचारित हो उठती है कि वह अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूतकालीन विचारों को जान सकता है। ऐसी ज्ञान को मनःपर्याय कहा गया है, क्योंकि इससे दूसरों के मन में प्रवेश हो सकता है अर्थात् दूसरों की भावनाओं का ज्ञान ही ‘मन:पर्याय’ है ।
(iii) केवल ज्ञान–जब आत्मा को घेरे हुए समस्त बाधक तत्व नष्ट हो जाते हैं, तब अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति ‘केवल ज्ञान’ है । यही अनन्त ज्ञान की प्राप्ति है जो मुक्त जीवों के लिए ही सम्भव है। पारमार्थिक दृष्टि से केवली को ही अपरोक्ष ज्ञान होता है, क्योकि उसे किसी प्रकार के ज्ञान के लिए, मन एवं इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती। यह ज्ञान देश-काल की सीमाओं से रहित होने के कारण असीम तथा अनन्त कहलाता है।
उक्त तीनों प्रकार के ज्ञान पूर्णतः अपरोक्ष हैं। इन्हें जैन दर्शन में अलौकिक ज्ञान भी कहा गया है। इस अलौकिक ज्ञान के अतिरिक्त, दो प्रकार के लौकिक ज्ञान हैं— गतिज्ञान तथा श्रुतिज्ञान, जो सर्वसाधारण में पाए जाते हैं। इनका स्वरूप निम्न प्रकार है—
(i) मतिज्ञान–वह ज्ञान जो इन्द्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त होता है ‘मतिज्ञान’ कहा जाता है। मतिज्ञान में चार अवस्थाएँ होती हैं—
(अ) अवग्रह–इन्द्रिय और वस्तु के सम्पर्क से जब इन्द्रियों में संवेदना उत्पन्न होती है, तब उसी ‘इन्द्रिय-संवेदन’ को अवग्रह कहते हैं । इसमें केवल विषय का ग्रहण होता है, जैसे हमें कोई ध्वनि सुनाई दे ।
(ब) ईहा–तत्पश्चात् जब ज्ञेय विषय (ध्वनि) को जानने की इच्छा होती है तब उसे ‘ईहा’ कहते हैं अर्थात् यह तर्क, परीक्षा या जिज्ञासा की अवस्था है ।
(स) अवाय–जब ज्ञेय विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है अर्थात् यह ध्वनि अमुक वस्तु की है तब उसे ‘अवाय’ कहा जाता है। अवाय का अर्थ निश्चय है।
(द ) धारण–जब ज्ञेय विषय का पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब उसे ‘धारण’ कहते हैं ।
(ii) श्रुतज्ञान–दूसरा लौकिक ज्ञान ‘श्रुत’ है। किसी के बताने पर आगमों या आप्तवचनों से जो ज्ञान होता है वह ‘श्रुतज्ञान’ कहलाता है। श्रुत शब्द – ज्ञान को कहते हैं। यह आप्तवचनों (अर्थात् विश्वसनीय पुरुषों के वचन) तथा प्रामाणिक ग्रन्थों से सम्भव होता है। सभी जैन तीर्थकरों के वचन ‘श्रुतज्ञान’ हैं । जैन दर्शन की दृष्टि में मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान श्रेष्ठ होता है, क्योंकि मतिज्ञान केवल वर्तमान का विषय होता है जबकि श्रुतज्ञान त्रैकालिकज्ञान का विषय होता है। दूसरा श्रुतज्ञान परिमाण रहित भी होता है । वस्तुतः मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान दोनों प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि इनके लिए इन्द्रियज्ञान की भी आवश्यकता पड़ती है ।
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