‘संसदीय संप्रभुता का क्या अर्थ है ? क्या आप भारतीय संसद को ‘प्रभुत्व संपन्न’ या ‘गैर- प्रभुत्व संपन्न’ या दोनों समझते हैं ? आप अपने विचार दीजिए।

‘संसदीय संप्रभुता का क्या अर्थ है ? क्या आप भारतीय संसद को ‘प्रभुत्व संपन्न’ या ‘गैर- प्रभुत्व संपन्न’ या दोनों समझते हैं ? आप अपने विचार दीजिए।

उत्तर – संसदीय संप्रभुता का अर्थ है कि ‘संसद’ कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सरकार के अन्य निकायों में सर्वोच्च है तथा उसके द्वारा बनाए गए कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। ‘संसदीय संप्रभुता’ का सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि संसद के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते हैं एवं संसदीय लोकतंत्र में शक्ति का स्त्रोत जनता है। अतः संसद सर्वोच्च है तथा उसके द्वारा बनाए गए कानूनों का न्यायिक पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता। ब्रिटेन में संसद की स्थिति सर्वोच्च है। अत: वहां संसदीय संप्रभुता है। ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को न्यायपालिका में चुनौती नहीं दी जा सकती।
भारतीय संविधान में सरकार के प्रमुख तीन अंगों- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका में किसी की भी सर्वोच्चता की बात नहीं कही गई है। सभी को एक संतुलित शक्ति प्रदान की गई है तथा तीनों अंग अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोच्च होने के साथ ही एक-दूसरे पर नियंत्रण भी रखते हैं। परंतु कई देशों में स्थिति अलग है। जैसे- ब्रिटेन में ‘संसदीय संप्रभुता’ है, वहीं अमेरिका में न्यायपालिका को सर्वोच्चता प्रदान की गई है।
भारतीय संविधान यद्यपि ब्रिटिश शासन प्रणाली से प्रभावित है, परंतु संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश ढंग की ‘संसदीय संप्रभुता’ के स्थान पर ज्यादा व्यावहारिक तरीका अपनाते हुए संसद को एक सीमा के अंदर शक्ति प्रदान की है लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि संसद ‘गैरर प्रभुत्व – संपन्न’ है।
संसद के अनेक ऐसे कार्य तथा अधिकार हैं जो भारतीय शासन-पद्धति में उसकी उच्च स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। यह देश की सर्वोच्च विधायिका है। इसका कार्य संविधान के दायरे में रहकर कानूनों का निर्माण करना तथा आवश्यकता पड़ने पर संविधान के कुछ प्रावधानों का संशोधन करना है। राज्य विधानसभा से कानून निर्माण में विवाद की स्थिति में संसद के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। राज्यों में राष्ट्रपति शासन के दौरान भी राज्य विधान सभा के कार्यों को संसद ही संपन्न करती है। संसद सर्वोच्च न्यायालय में जजों की संख्या उनके वेतन आदि का निर्धारण करती है तथा संसद ही न्यायाधीशों के विरुद्ध महाभियोग चला सकती है। इस प्रकार न्यायपालिका का कुछ नियंत्रण जहां संसद के हाथों होती है, वहीं कार्यपालिका भी लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है तथा सरकार के प्रत्येक कार्य पर संसद में बहस होती है। चूंकि संसद में विपक्ष का भी अच्छा प्रभाव होता है, इसलिए सरकार किसी भी मुद्दे पर बिना विपक्ष को विश्वास में लिए आगे नहीं बढ़ सकती। सरकार के खिलाफ लोकसभा में ‘अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने की स्थिति में सरकार गिर सकती है। फिर भी ‘संसद’ को ब्रिटिश संसद की तरह प्रभुता संपन्न नहीं माना जा सकता। हमारे संसद का अधिकार क्षेत्र सरकार के अन्य अंगों द्वारा प्रभावित होता है। वहीं संसद एवं राज्य विधानसभाओं में शक्तियों के विभाजन द्वारा, मौलिक अधिकारों द्वारा, स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा ‘सदन’ के अधिकार सीमित हो जाते हैं।
अतः हमारे संसद को प्राप्त शक्तियां तथा बंधनों के आधार पर उसका स्थान ‘प्रभुत्व संपन्न’ एवं ‘गैर- प्रभुत्व – संपन्न’ के मध्य का है।
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