जागो फिर एक बार : भाव पक्ष एवं कला पक्ष

जागो फिर एक बार : भाव पक्ष एवं कला पक्ष

पूर्व में छायावादी कविता पर एक आरोप यह लगाया जाता था कि जब समूचा देश आजादी की जंग में प्राण-पण से लगा हुआ था छायावादी कवि प्रकृति के रम्य वर्णन में मशगूल थे। सर्वप्रथम आलोचक प्रवर नन्द दुलारे वाजपेयी तथा बाद में प्रो0 नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक ‘छायावाद’ में इस भ्रांतिपूर्ण धारणा का खंडन कर प्रमाणित किया कि छायावादी कवि भी स्वतंत्रता के संग्राम में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित थे। सन् 1926 में लिखी गई और परिमाप में प्रकाशित ‘जागो फिर एक बार’ कविता राष्ट्रीय अभिमान को सर्वोत्तम कविता है।
डॉ० नामवर सिंह ‘छायावाद’ में लिखते हैं कि हर पराधीन देश में राष्ट्रीयता की भावना का उदय पुनरुत्थान भावना से होता है। इसकी वजह यह है कि विजेता जाति प्रायः विजित जाति को दबाने के लिए उसमें से सभी प्रकार की शक्तियों का अपहरण करने का प्रयास करती है। अंग्रेजों ने भारतीयों के आत्मगौरव को कुचलने के लिए हर तरह की कोशिशें की। भारतीयों को बर्बर और असभ्य कहा, उनकी सांस्कृतिक परंपराओं को तुच्छ ठहराया। भारतवासियों ने वर्तमान पराधीनता के अपमान को भूलने के लिए अतीत के स्वर्ण-युग का सहारा लिया। वर्तमान की हार का उत्तर अतीत की जीत से दिया।
‘जागो फिर एक बार’ कविता की दूसरी किश्त (1921) में भी निराला ने सांस्कृतिक परंपरा की दुहाई देकर आत्म-गौरव और उद्बोधन का भाव जगाया है। अकाली सिक्खों के शौर्य तथा गीता की वाणी को स्मरण कराते हुए निराला कहते हैं-
                             शेरों की मांद में
                            आया है आज स्यार
                            जागो फिर एक बार
और फिर
                             मुक्त हो सदा ही तुम
                           बाधा-विहीन-बंध-छंद-ज्यों
                           तुम हो महान,
                           तुम सदा हो महान
परिमल में ही प्रकाशित ‘जागो फिर एक बार’ कविता में भारत के अतीत को आदर के साथ स्मरण किया गया है। कविता के अनुसार भारत का अतीत समृद्ध ही नहीं रहा है यहाँ के आर्य अद्भुत पराक्रमी रहे हैं। सावा लाख शत्रुओं पर एक-एक सिक्ख के प्राण न्योछावर करने की प्रतिज्ञा करनेवाले गुरु गोविंद सिंह द्वारा गाया गया अमर गान भला क्यों भुला दिया गया? इतिहास साक्षी है कि गुरु गोविंद सिंह बारहो महीने रक्त की होली खेलते रहनेवाले महान वर कप वाले इस देश में गीदड़ों का आधिपत्य हो जाना इस देश का दुर्भाग्य  है।
सत् श्री अकाल’ उच्चरित करते हुए युद्ध भूमि में उतरने वाले गुरु गोविंद सिंह के सामने मृत्यु भी भय खाती थी। मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले भगवान शंकर की जैसे वे सच्ची संतान थे जिन पर मृत्यु भी विजय प्राप्त नहीं कर सकती थी। भारत ही वह भूमि है जहाँ योग और साधना का अद्भुत संयोग हुआ है। यहाँ के योगी सर यामाहरूपी सातो आवरण को पार कर मुक्ति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करते हैं।
यहाँ ऐसे-ऐसे वीर पुरुष हुए हैं जहाँ शेरनी की गोद से उसके बच्चों को छीन सकते हैं। मेषमाता अपनी संतान के छिन जाने पर अपलक देखती रह जाती है और अपनी असहायता पर आंसू बहाती अभिशप्त जीवन जीती रहती है। भारत की धरती वीरों की धरती रही है, सिंहों को धरती रही है, स्यारों-गीदड़ों की नहीं।
इस धरती पर लोग गीता के कर्मयोग पर विश्वास करते हैं लेकिन आज लोग उसे भूलते जा रहे हैं। कवि गीतों के संदेशों को याद करने की प्रेरणा देते हुए जागने का आह्वान करते हैं। इस प्रयाण गीत में कवि कहते हैं कि तुम पशु नहीं वीर हो युद्ध भूमि में काल के समान हो। आज अंग्रेजों के सामने तुम परास्त क्यों हो रहे हो। तुम महामंत्र की सिद्धि प्राप्त ऋषियों की संतान हो। तुम सदा आनंदित रहने वाले, अणुओं-परमाणुओं पर विजय प्राप्त करनेवाले महान देश की महान जनता हो। आज तुम अपना दैन्य भाव छोड़ कर, कायरता और कामुकता पर विजय प्राप्त कर ब्रह्म तेज को प्राप्त करो। समूचा विश्व तुम्हारे पाँव के धूल के बराबर भी नहीं है –
                                 “पर-रज-भर भी है नहीं
                                   पूरा यह विश्व भार
                                   जागो फिर एक बार।”
मुक्त छंद में रचित प्रस्तुत कविता में कवि की तीव्र भावानुभूति लय, ताल और संगीत में पिरोकर अभिव्यक्ति की गई है। ओज गुण प्रधान इस कविता में वीर रस की ध्वनि सर्वत्र विद्यमान है। आलोच्य कविता में अलंकारों का सुंदर समायोजन कवि ने किया है। भाषा की दृष्टि से प्रस्तुत कविता में सरलता और दुरूहता का अद्भुत मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। उनकी सभी कविताओं में भाषा, भावों की अनुगामिनी है। यह प्रवृत्ति यहाँ भी दृष्टिगत होती है।

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