न्यायिक पुनरीक्षण से आपका क्या अभिप्राय है? भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘मूल ढांचे’ के सिद्धांत का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।

न्यायिक पुनरीक्षण से आपका क्या अभिप्राय है? भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित ‘मूल ढांचे’ के सिद्धांत का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।

अथवा

न्यायिक पुनरीक्षण के आशय को समझाएं एवं संविधान के मूल ढांचे को सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न वादों को ध्यान में रखते हुए आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर- न्यायिक पुनरीक्षण का आशय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान तथा उसकी सर्वोच्चता की रक्षा करने की व्यवस्था से है। यदि संघीय संसद या राज्य विधानमण्डलों द्वारा संविधान का अतिक्रमण किया जाता है, अपनी निश्चित सीमाओं के बाहर कानून का निर्माण करता है या मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई कानून का निर्माण किया जाता है तो संघीय संसद या राज्य विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि अथवा संघीय या राज्य प्रशासन द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य को सर्वोच्च न्यायालय अवैधानिक घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की इस शक्ति को ही न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति कहा गया है। राज्यों के संबंध में इस शक्ति का प्रयोग संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा किया जा सकता है।
न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति का तात्पर्य कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति से है। अनुच्छेद 131 और 132 सर्वोच्च न्यायालय की संघीय तथा राज्य सरकार द्वारा निर्मित विधियों के पुनर्विलोकन का अधिकार देता है। इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 13 और 32 मौलिक अधिकारों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को इसी प्रकार की शक्ति प्रदान करता है। इस संबंध में अनुच्छेद 246 के तहत राज्य द्वारा निर्मित कानून पर पुनरीक्षण का अधिकार उच्च न्यायालय को दिया गया है। इस प्रकार भारतीय संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन हेतु दो शक्तिशाली आधार-संघात्मक व्यवस्था एवं मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं।
भारत में न्यायिक पुनरीक्षण अमेरिका के संविधान से लिया गया है, किन्तु भारत में इसके अधिकार अमेरिका की तुलना में सीमित हैं, फिर भी हमारे संविधान की संरक्षा हेतु यह महत्वपूर्ण है।
संविधान के मूल-ढांचे से स्पष्ट होता है कि भारत का संविधान किस प्रकार की सरकार की स्थापना करता है तथा नागरिकों को किस प्रकार की स्वतंत्रता और अधिकार प्रदान करता है। यही मूल ढांचा संविधान के आरंभ में ही
उद्देशिका से अपना स्थान प्राप्त करता है। जब संविधान के निर्वचन में गतिरोध होता है, तब संविधान की उद्देशिका के आधार पर निर्वचन किया जाता है। संविधान के मूल ढांचे को लेकर कई वाद हैं, जिस पर समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्या दी है।
‘केशवानन्द भारती’ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि कोई भी संशोधन अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान का मूल ढांचा अपरिवर्तित है, इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। मूल ढांचा को लेकर यद्यपि कोई एक राय नहीं है, फिर भी कई वादों में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्पष्ट करने की कोशिश की है।
‘इंदिरा नेहरू बनाम राजनारायण’ मामले में दिए गए निर्णय के अनुसार- (1) विधि का शासन, (2) न्यायालयों के न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति, (3) स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था को, जबकि ‘मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ’ के मामले में (1) संविधान संशोधन की सीमित शक्ति (2) मूल अधिकारों एवं नीति निदेशक तत्वों में सामंजस्य (3) कुछ मामलों में मूल अधिकार (4) न्यायालय द्वारा न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति को मूल ढांचे के अंतर्गत माना गया है ।
मूल ढांचे को संविधान की आत्मा की तरह माना जाता है । संविधान निर्माताओं की संवेदना को समझने का यह एक बड़ा साधन है। संविधान निर्माण के समय संविधान निर्माताओं के मन में संशय था कि भविष्य में संशोधन द्वारा उनकी भावनाओं का दुरुपयोग किया जा सकता है। अतः संविधान की व्याख्याता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि वह मूल ढांचे को सुरक्षित रखे।
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