वेदना और कल्पना : भाव-सौंदर्य एवं शिल्प-सौंदर्य

वेदना और कल्पना : भाव-सौंदर्य एवं शिल्प-सौंदर्य

प्रगतिवाद और नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध की आरंभिक कविताओं में छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। वैसे बाद में मुक्तिबोध छायावादी भावुकता के विरूद्ध ठोस यथार्थ की कविताएं लिखने लगे। लेकिन ‘वेदना और कल्पना’ में छायावादी रूझान से इंकार नहीं किया जा सकता है। सन् 1936 में लिखी गई इस कविता में मनुष्य के सुख-दुख के परस्पर वैषम्य से उत्पन्न कवि के अन्तर्मन का द्वंद्व अभिव्यक्त हुआ है।
कवि वेदना का कवि बनने के साथ ही सुखद कल्पना का गायक भी बनना चाहता है। कवि कहता है कि मेरे प्राण आंसू में रूपांतरित होकर सवेरा को देखने के लिए उत्सुक तो हैं किंतु यह सवेरा दुख से भरा हुआ है, इसका स्वागत किस ललित पद से किया जाय? उसकी स्वचेतना को भला क्या मालूम कि उसके आसुओं में वेदना का प्रतिबिंब है। कवि के कहने का अर्थ यह है कि उसके आंसुओं में उसकी वेदना का प्रतिबिंब है जिसे उसने अपने ही स्वास में नि:श्वास बनकर, आनेवाली वेदना में देखने की चेष्टा की है। कवि यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि उषा की देहरी पर मेरे प्राण किस साधना की माला उसे भेंट करे? इसलिए वह सवेरा को संबोधित करते हुए कहता है कि आज तू अपने मन को सुला लो जिससे तुम्हारा भेद खुल न पाये। कवि अपने अतीत की पीड़ादायक स्मृतियों को ‘स्मृति का कंटक’ कहता है क्योंकि वह पीड़ादायक यादें बार-बार चेतना में आकर जब चुभती हैं तब संवेदनशील कवि का हृदय अपने अतीत की वेदना से बार-बार आहत होता है। किंतु उन्हीं कंटकों पर आज कल्पना का नया पुष्प खिल रहा है तो वह अतीत की वेदना ही
कहीं-न-कहीं सृजनधर्मा ही है।
कवि प्रात: ओस-कणों को देखकर उसे प्रकृति के अक्षुण्ण कहता है और यह बताना चाहता है कि किस प्रकार प्रकृति ओस के माध्यम से भले ही अपना रूदन प्रकट करती है किंतु उसी प्रकृति का दास फूलों के खिलने में व्यक्त होता है। कवि अपनी ही चेतना से संवाद करते हुए कहना चाहता है कि तू भी ओसकणों के माध्यम से रो लें कितु फूलों में हँस और जहाँ वे दोनों ही स्थितियाँ एक साथ दिखायी पड़े वहाँ एक फेरा तू अवश्य दे तभी तो वेदना को भी आत्मा के आनंद का ही एक उपक्रम समझ पायेगा और वेदना में झूमना सीख लेगा तभी तू कल्पना का एक सफल चितेरा बन पायेगा। प्रस्तुत कविता में प्रश्नों की बौछार के माध्यम से कवि अपनी अंतरात्मा की पुकार सुन पाने का प्रयास कर रहा है। कविता में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग छायावादी कवियों की शैली में कवि ने किया है। यह कविता महादेवी वर्मा की काव्य शैली की याद दिला जाती है। कविता में कवि ने अत्यंत कलात्मकता के साथ ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ दिखलाया है। जैसे – ‘वेदना में झूम’ तथा। ‘ओस में रो फूल में हँस’ आदि।
पूँजीवादी समाज के प्रति
पूँजीवादी समाज में अमानवीकरण की जो प्रक्रिया चलती रहती है उसका खुला दस्तावेजीकरण है, मुक्तिबोध की कविता। पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता में कवि ने पूँजीवाद के नख-दंत को स्पष्ट करने की कोशिश की है। कवि पूँजीवाद के ध्वंस पर ही नये समाज की कल्पना करता है। प्रस्तुत कविता में पूँजीवाद के शोषक और दमनकारी रूप का चित्रण कवि ने दो टूक किया है।
: सारांश
प्रस्तुत कविता में पूँजीवादी समाज के बरक्स कवि पुरानी समाज-व्यवस्था को रखता है। कवि के अनुसार उस पुराने समाज और व्यवस्था में प्राणों का समूह था, सभी प्राण एक-दूसरे पर निर्भर थे, सब का दुख-सुख एक-दूसरे के सुख-दुख से जुड़े थे। सभी हाथ एक दूसरे के काम में बँटते थे, बुद्धि भी कम न थी लेकिन वह जटिल नहीं सरल बुद्धि थी, सहज बुद्धि थी। ज्ञान का भंडार भी था लेकिन वह देसी ज्ञान था, अपना ज्ञान था। लोगों का मन शुद्ध होता था, संस्कृति और परंपरा में आस्था थी। पुराने समाज का सौंदर्य प्राकृतिक था। उसमें कृत्रिमता न के बराबर थी, उसमें दिव्यथा थी, भव्यथ थी, शक्ति थी, ईश्वर भक्ति भी थी। उसमें भक्ति, शक्ति और सौंदर्य का विचित्र सामंजस्य था। उसमें थोड़ा-बहुत ढोंग भी था। लेकिन उस समय के लोगों का भोग भी निर्बध था। लेकिन जैसे-जैसे सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बदली सत्य को टालने के लिए जाल का घेरा भी बढ़ता चला गया। इस आधुनिक पूँजीवादी शब्द संस्कृति में घृणा और दुर्गध के स्वर बढ़ते चले गए। इस पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्था के रक्त में भी सत्य का अवरोध स्पष्ट होने लगा। इस रक्त में घृणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस पूँजीवादी व्यवस्था में हास्य में भी कटु व्यंग्य और रोग समाहित हैं। इस व्यवस्था का जितनी जल्दी संभव हो नाश होना आवश्यक है। अंत में कवि कहता है कि यह व्यवस्था व्यर्थ है, रिक्त है, इसे समाप्त हो जाना चाहिए, इसे मरना ही चाहिए। प्रस्तुत कविता में पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति कवि का आक्रोश स्पष्ट है।
बबूल : अर्थ एवं भावार्थ
‘बबूल’ गजानन माधव मुक्तिबोध की एक प्रतीकात्मक कविता है। इसमें बबूल प्रतीक है श्रमिक-वर्ग का। जिस प्रकार श्रमिक समाज में सर्वाधिक उपेक्षित रह जाता है, बबूल भी पौधों-वृक्षों में सर्वाधिक उपेक्षित रहता है। इस कवित में कवि ने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ के पात्रों और उनकी जिजीविषा का भी स्मरण किया है। कवि कहता है कि धूल से सराबोर बबूल का पेड़ सहज ही उपेक्षित रहता है। श्याम वर्ण का वह वृक्ष वक्र अस्तित्व लिये युगों से अपने मौन में अपमानों को झेलता चिर अपमानित, तिरस्कृत और धनहीन है, जो रास्ते के किनारे चुपचाप शांत खड़ा रहता है। बबूल का पेड़ बड़े-बड़े फलदास वृक्षों के बीच नितांत अकेला-वर्जित-व्यक्त-सा अपने आपको खड़ा रखता है। जिस बबूल को सदा तुच्छ समझा जाता है, वह उस विवश नग्न सुदामा के समान है जिसे वसंत के अनियंत्रित समीर के झोंके स्पर्श कर ही लेते हैं, जिसके प्रभावस्वरूप वह बासंती रंग उसके गहन हृदय और गूढ़ आंसुओं में चमक-दमक जाते हैं। उसके हृदय के दबी-सहमी कोमल भावनाएं आसमान में टिमटिमाते तारे, लज्जावनत चांद एवं लाल सूर्य की आकृतियों में घिरकर सबों पर छा जाना चाहते हैं। वह अपनी उपेक्षाओं से त्रस्त है। अथाह रस रूपी सागरपता नहीं क्यों दूर सूर्य का एक स्पर्श पाकर अपने को अंचल में ढंक लेना चाहता है।
क्षण-दो-क्षण के लिए ही सही वह अपने इस बहिष्कृत जीवन या उपेक्षा से मुक्ति चाहता है और भरे-पूरे मन से पूरी पृथ्वी को प्यार करना चाहता है, अपने सजल-नयन से धरती का चुंबन लेना चाहता है। कवि के अनुसार उसके सम्मुख देखकाल व्यापी सिद्धार्थ बुध की छाया थी जो आज सचमुच फीकी लगती है। कवि आगे एक दूसरे चित्र का विश्लेषण करता है जिसमें एक गाँव, वहाँ की नदी, हरे-भरे वहाँ के खेत जिनमें वे छिपी-छिपी फिरती हैं। मेहनत के पुतले शोषण
बर्दाश्त करनेवाले और गम पीने वाले दुखों के स्वामी अविश्रंत काले-काले हाथ आज व्यस्त दीखते हैं जिनकी विवश कर्मशीलता ने ही युग-युग के गौर कपोलों में लाली की मदिरा भरी है। पूँजीवादी संस्कृति में श्रम का यही मूल्य है। कवि की दृष्टि में यह चिर निर्वासित बबूल एक प्रतिक है, जन-जन के निस्सीम त्याग का जो आज कवि की आत्म-चेतना में उतर कर उसे विह्वल बना रहा है।
इसी क्रम में आगे कवि कहते हैं कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का होरी महतो और भोली किंतु अथक परिश्रमी धनिया आज भी गाँव के खेतों में जी-तोड़ परिश्रम कर रहे हैं। आज भी उनकी एक गाय की चाहत और मरने के बाद ‘गोदान’ की साधना पूरी नहीं हो पाती है। लेकिन उस होरी की हड्डियों से अगस्त मुनि की हड्डियों के समान भयानक हथियार बनेगा और इस स्थिति से मुकाबला करने के लिए तत्पर होगा। जिस दिन श्रमिकों की उपेक्षा समाप्त होगी, बबूल भी उपेक्षित नहीं रहेगा।
चाँद का मुँह : कविता में आख्यान
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ मुक्तिबोध को पहचान दिलाने वाला संग्रह है। वैसे संग्रह की लगभग सभी कविताएं विशिष्ट हैं, किंतु
ब्रह्मराक्षस, अंधेरे में और ‘चाँद का मुँह’ कई कारणों से विलक्षण कविता है। तीनों कविता काफी लंबी कविता है। इतिवृत्त या आख्यान को काव्यात्मक रूप देने में मुक्तिबोध सिद्धस्थ थे। उनकी ये लंबी कविताएं न खंडकाव्य हैं न महाकाव्य। ये कविता की एक ऐसी विशेषता प्रकट करती है जिसका अन्य किसी नये या पुराने कवि से बिल्कुल अलग या मौलिक हैं। मुक्तिबोध ‘चाँद का मुँह’ में सामाजिक प्रश्नों या स्थितियों का सामना निरंतर करते हैं और इन्होंने इसमें कार्य-कारण श्रृंखला का निरंतर उपयोग किया है।
‘चांद का मुँह’ कविता मुक्तिबोध की क्रांतिकारी कविता है। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ से बिल्कुल मिलती-जुलती कविता है यहाँ लगता है जैसे ‘अंधेरे में’ की पूर्व-पीठिका हो ‘चाँद का मुँह’। निश्चित रूप से उन्होंने ‘चाँद का मुँह’ कविता को संग्रह का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कविता माना है, इसीलिए संग्रह का नाम भी यही रखा है। दोनों कविताओं का नायक आम जनता है। सुप्रसिद्ध आलोचक डा0 रामविलास शर्मा के अनुसार, “हर जगह क्रांति करनेवाला, क्रांति की प्रेरणा देनेवाला, क्रांति का संगठन करनेवाला, एक ही व्यक्ति है, और वह है कविता का नायक। उसे आप मुक्तिबोध मानें चाहे उससे भिन्न कोई और व्यक्ति। यह क्रांति किसी पार्टी संगठन के बिना स्वत: स्फूर्त ढंग से होती है और कविता का नायक उसका स्रष्टा या द्रष्टा होता है।”
‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ कविता का आरंभ भी अंधेरे से होता है। नगर के मध्य काली अंधेरी रात फैली हुई है और शहर के भव्य  अट्टालिकाओं को सुरक्षा प्रदान करने वाली दिवारों पर लगे शीशे के टुकड़े चांदनी की तरह चमक रहे हैं। शहर । कल कारखान भी। और उसके उपर काला आ छोड़ने वाली चिमनियाँ मुंह बाये खड़ी हैं। चिमनियों के पीले, दूर कहीं अपना टेहा लटकार्य चाँद भी खड़ा है। अचानक उरा 00 रात में कोई दर्दनाक चीख सन्नाटे को चीरता हुआ फैल जाता है। रात की शांति कार्य के सन्नाटे का श्राप देता है। उस भयावह रात में दान और आतंक के सभी तत्व मौजूद है – गोली, बारूद, कारतूस सभी कुछ।
कवि को सनसान नगर में गंजे सिर वाले चांद की किरणों धीरे धीरे जासूस के समान नगर के कोणों तिकोनों में छिपे प्रतीत होते हैं। विशालकाय एक तरल ताल अंधेरे में डूबता दिखाई देता है जिसपर कालिमायुक्त प्लान चांदनी पड़ रही है। वहाँ बड़े-बड़े पुलों के नीचे डरे, सह मनुष्यों की एक बस्ती है जिसके सुनसान किनारों पर पथरीले नालों की धारा बह रही है जिसमें गिरती हुई चांदनी की काली दिखाई दे रही है। आगे कषि हरिजन बस्ती का चित्र खींचता हुआ कहता है कि हरिजन बस्ती के पास एक पुराना मंदिर है, वहाँ के छोटे-छोटे घर हैं, जिनके मटमैले छप्परों पर कई चीथड़े इधर-उधर लटके हुए हैं, उसी के बीच से टेढ़ा चाँद अपना गंजा सिर लिए कुहासे और कालिमा द्वारा मलिन बना दिया गया प्रतीत हाता है। रात्रि के बारह बजे हैं, इसी रात में सारे षड्यंत्र, काले कारनामे रचे जाते हैं।
शहर के मोड़ पर बनी मेहराबें बरगद की घनी शाखाएं हैं जो विशालकाय अजगर के समान मुँह बाये दिखती हैं। यह मेहराब प्रतीक हैं अतीत की सामंतवादी व्यवस्थाओं, सड़ी-गली रूढ़ियों का। वहाँ आने-जाने वाले लोगों पर चुपचाप अजगरी से फड़फड़ात पक्षियों की बीट बूंद-बूंद गिर रही हैं। आसमान में विचरण करनेवाले पक्षी भी स्तब्ध हैं, डरे हुए हैं, उधर धरती पर भी कुंठा और वास की सड़ांध भरी हुई है।
‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ कवि अलग-अलग दृश्यों, घटनाओं का कोलाज है। मुक्तिबोध की यह कविता एक टील की तरह चलती है। कहीं से चप्पलों की छप-छप की विचित्र सी आवाज आ रही है, कहीं हवाओं की सरसर की तरह फुसफुसाहट की आवाज आ रही है। यहाँ की गलियाँ भी इशारों को जानते-समझते हैं। किसी ब्रह्मराक्षस की तरह निराकार और डरावना दृश्य आँखों के सामने से घूम जाता है। बहस की तरह चारों तरफ शब्द चक्कर काट रहे हैं। ऐसा लगता है मानों बहस अपनी चरम अवस्था में हो, अब बहस निर्णय की स्थिति में हो। अंधेरे के पेट से ज्वालाओं की आंत जैसे निकल आये, वैसे ही शब्दों की बिजली की टार्च की रोशनी निकल रही है। दो बड़े-बड़े हाथ बड़े-बड़े पोस्टर चिपका रहे हैं। पोस्टर पर छपे शब्द आड़े-तिरछे से दिख रहे हैं। लगता है मानो मजदूरों ने हड़ताल कर दी हो। ऐसे ही माहौल में रात के घुप्प अंधेरे में एक साथ कई कौए काँव-काँव करते उड़ने लगे।
इसी तरह पूरी कविता में कई संगत-असंगत बिंबों के द्वारा कवि ने अराजक राजनीतिक व्यवस्था को उद्घाटित किया है। ‘चांद का मुँह’ कविता एक स्वान की लड़ी सी है। स्वान चित्रों का रूपबंध किसी फिल्म की पटकथा के समान है। जगह-जगह ‘कट’ और ‘क्लोज-अप’ इस्तेमाल किए गए हैं। ध्वनि और रूप दोनों का अन्तर्वेशी नियोजन है। मुक्तिबोध की इस कविता में ‘अंधेरे की तरह’ फैंटेसी का कलात्मक उपयोग किया गया है। पौराणिक गाथाओं, लोक-कथाओं और साहित्य में फैंटेसी का इस्तेमाल शुरू से होता आ रहा है, लेकिन यथार्थवादी आंदोलन के दौर में उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। किंतु मुक्तिबोध की इस कविता के फैंटेसी के अलावा किसी दूसरे तर्क से नहीं समझा जा सकता है। इनके फैंटास्टिक घटनाक्रम पर ध्यान केंद्रित करने से पता चलता है कि वह न केवल दिलचस्प हैं बल्कि कवि की सृजनात्मक प्रक्रिया और उसकी अनियंत्रित कल्पनाशीलता से भी परिचित कराता है। उसे देखकर फैंटेसी को ‘स्वप्न बिंब’ कहना सार्थक प्रतीत होने लगता है। इस तरह पैंटेसी का इस्तेमाल मुक्तिबोध ने वाकई कई रूपों में किया है। कहीं उसका स्पर्श हल्का है तो कहीं बहुत गहरा, कहीं उसकी बुनावट झीनी है तो कहीं बहुत प्रगाढ़।
ऐयारी रोशनी : अर्थ एवं भाव
गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं में जीवन और जगत् की जटिलताएँ, लोगों के बीच फैली असमानताएँ और सत्ता- तंत्र की विद्रुपताएं बेहिचक उद्घाटित हुई हैं। ‘ऐयारी की रोशनी’ कविता में उन्होंने राजनीतिक सामाजिक कुव्यवस्थाओं का अनावृत्त किया है। यह कविता मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण किंतु लंबी कविता ‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ का अंश है। फैंटेसी शैली में रचित इस कविता में कवि ने यथार्थ को पकड़ने की चेष्टा की है।
कविता में कुछ दृश्यों का समायोजन नई काव्य-दृष्टि के साथ किया गया है। मकानों का पृष्ठ भाग, आहतों की लंबी दीवालें, बरगद की अजगरी डालों के फंदे और अंधेरे के कंधों पर चिपकाए गए हड़ताली पोस्टर में लिखे बाँके-तिरछे, लंबे-चौड़े, लाल-नीले, भयंकर बड़े-बड़े अक्षरों पर पड़ती टेढ़े मुंह के चाँद की ऐयारी रोशनी के माध्यम से जिस भयानक वातावरण का बिंब प्रस्तुत किया गया है, वह ‘अंधेरे में’ कविता को याद दिला जाता है।
टेढ़े मुँह चाँद को ऐयारी रोशनी कवि को कभी जेल के कपड़े की बदरंग, कभी मोटे कपड़ों के समान फैली-लेटी तो कभी भीमाकार पुलों के ठीक नीचे बैठे चोरों और उचक्कों के समान नाले और झरनों के तटों पर किनारे-किनारे स्थिर पाती पर बुझे हुए पेड़ों के नीचे बैठे रात-बे-रात आवारा मधुओं की-सी शोहदों-सी चांदनी मछलियाँ फँसाती, प्रतीत होती है, और वहाँ ऐयारी रोशनी कभी सड़कों के पिछवाड़े टूटे-फूटे दृश्यों में गंदगी के काले-से नाले के भाग पर बदमस्त कल्पना-सी रात भर फैली बिखरी ज़िंदगी जैसी प्रतीत होती है, जैसे वह सक्र- के इष्टों के कवियों के काम-सी हो।
कविता में मध्यवर्गीय कुंठाओं, त्रासदियों एवं बेचैनियों को कवि ने काव्यात्मक वाणी प्रदान की है। समाज में हाशिये पर डाल दिए गए चोरों, उचक्कों आदि के मनोविज्ञान को भी उकेरने की चेष्टा कवि ने की है। कविता प्रथम द्रष्टया समझने में जटिल-सी लगती है किंतु दृश्य बिंबों को समझने के बाद कविता का अर्थ आप-से आप खुलता चला जाता है।
तुम लोगों से दूर : भाव सौंदर्य
गजानन माधव मुक्तिबोध जनता की परेशानी, बेबसी, गरीबी और फटेहाली से क्षुब्ध थे। व्यवस्था परिवर्तन उनकी कविता की मांग थी। यह कविता मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली है। इसमें उन्होंने अपने को कइयों से भिन्न महसूस किया है। उनका कहना है कि तुम्हारी प्रेरणा से मेरी प्रेरणा इतनी अलग और भिन्न है कि तुम्हारे लिए जो जहर के समान है, वह मेरे लिए भोज्य सामग्री है। दूसरों के लिए जो त्याज्य है, कवि के लिए वह ग्राह्य है। अकेलापन कवि का जीवन साथी है। यह तुम्हारा और कोई नहीं सम्पन्न वर्ग है, जिसके साथ कवि का सामंजस्य बैठ पाना संभव नहीं।
कवि कहता है कि सबके सामने और निपट अकेले में भी, रक्त से रची गई मेरी रचनाओं के पन्ने फड़फड़ाते हैं। हमारा और तुम्हारा यह छत्तीस का आँकड़ा नया नहीं, बहुत पुराना है। यह दीगर बात है कि आज मैं असफ हूँ, धूल-कचड़ा से लदा हूँ। तुम धन-धान्य से सम्पनन हो, सफल हो। और मैं सीधी-साधी जीवन की पटरी पर दौड़ा जा रहा हूँ। पता नहीं इस दुनिया में मेरी क्या सार्थकता है। मैं अपनी सार्थकता से स्वयं खिन्न हूँ। खिन्नता का मूल कारण यह है कि जैसा समाज
अभी है, मैं उससे बेहतर की उम्मीद लगाए बैठा हूँ। कठिनाई यह है कि पूरी दुनिया को साफ करने के लिए एक मेहतर का होना आवश्यक है। मैं अपने को कितना ही वर्ग-वर्ण च्युत करूँ किंतु मेहतर नहीं बन पाता। मेरा आन्तरिक हृदय चीख-चीख कर कहता है कि कोई काम बुरा नहीं है, फिर भी मैं वह काम कर नहीं पाता। वास्तव में अगर आदमी खरा-खोटा हो तो दुनिया का कोई भी करणीय काम छोटा या घृणित नहीं होता।
नित नये-नये आधुनिक कीमती समानों के बीच ओज भी बच्चे भूखे सो जाते हैं, दूध के लिए तड़पते-बिलबिलाते हैं। जिस
देश-समाज में बच्चे भूखे सोते हों, उस समाज में नैतिकता का प्रश्न ही गलत है। सत्य-असत्य सब गलत है। सत्य सिर्फ यही है कि बच्चे भूखे हैं, उनकी पीड़ा और उनकी भूख के अलावा और कौन सा सच बच जाता है। और सारे सच इस सच के आगे मिथ्या साबित होते हैं। इस प्रकार उक्त कविता में कवि का हृदय सर्वहारा गरीब के प्रति संवेदनशील होता है। कविता गीत शैली में लिखी गई है। स्वभावत: दुख और पीड़ा की अभिव्यक्ति में कवि को सफलता मिली है।

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