ज्ञान सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्त कौन से हैं ? विस्तार से लिखिए।
ज्ञान सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्त कौन से हैं ? विस्तार से लिखिए।
उत्तर— ज्ञान सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्त ज्ञान के प्रमुख दो स्रोत हैं- (1) ज्ञान इन्द्रियों के अनुभव तथा (2) तर्क चिन्तन माने जाते हैं। वास्तव में यही दो ज्ञान के स्रोत हैं। दोनों स्रोत समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इनके विवेचन के लिए तीन सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है—
(1) बुद्धिवाद, (2) अनुभववाद तथा (3) समीक्षावाद ।
इनका विस्तृत विवेचन यहाँ दिया गया है—
(1) बुद्धिवाद–इस सिद्धान्त के अनुसार वास्तविक ज्ञान का स्रोत तर्क चिन्तन है। जैसा ऊपर कहा गया है कि ज्ञान के दो स्रोतअनुभव तथा चिन्तन माने गये हैं, जिनका दिन-प्रतिदिन अनुभव करके ज्ञान अर्जित करते हैं। परन्तु बुद्धिवाद अनुभव को महत्त्व नहीं देता अपितु तर्क – चिन्तन को महत्त्व देता है, जिससे वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है । इसके दो पक्ष हैं—(i) सार्वभौमिकता तथा (ii) आवश्यकता ।
(i) सार्वभौमिकता – सार्वभौमिकता ज्ञान सभी कालों, सभी स्थानों तथा सभी व्यक्तियों के लिए सत्य होता है। जैसे 2 + 2 = 4 इसे स्वयं सिद्धी (Postulate) कहते हैं ।
(ii) आवश्यकता – ज्ञान की आवश्यकता दूसरी विशेषता है, जिसका अर्थ होता है, ज्ञान की सत्यता में निश्चितता होना ।
सुकरात एवं प्लेटो ने सार्वभौमिक ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया है। बुद्धिवादी इसे विचार तथा प्रत्यय कहते हैं और तर्क को ज्ञान का स्रोत मानते हैं। इसकी दो विधियाँ हैं—(आगमन तथा निगमन) । इस सम्बन्ध में दो अवधारणाएँ प्रमुख हैं- पहली, विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान व्यक्ति के अन्दर निहित होता है। प्रश्नों की सहायता से उसे उजागर करना होता है। इस अवधारणा को सुकरात ने दिया था। दूसरी, अवधारणा इसके विपरीत है कि समस्त ज्ञान बाहर से दिया जाता है इसको हर्बर्ट ने दिया है। ज्ञान का आधार प्रतिज्ञप्तियों तथा स्वयं-सिद्धियों पर आधारित होता है। निगमन तर्क में स्वयं सिद्धियों की सहायता ली जाती है।
बुद्धिवाद की विशेषताएँ–बुद्धिवाद के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं—
(1) यथार्थ ज्ञान साधारण दैनिक ज्ञान से भिन्न है। वही ज्ञान यथार्थ है जो सार्वभौम तथा अनिवार्य होता है।
(2) ज्ञान का विषय संसार के अस्थाई और परिवर्तनशील तथ्य नहीं है, परन्तु कुछ वैसे सत्य हैं जो मूलभूत तथा शाश्वत
(3) यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि के अलावा अन्य कोई साधन इसका नहीं है ।
(4) अनुभव से भी ज्ञान होता है, परन्तु उस ज्ञान को यथार्थ ज्ञान की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। वह ज्ञान संदेहात्मक तथा भ्रमात्मक होता है ।
(5) समस्त ज्ञान संभावना एवं बीज रूप में बुद्धि में जन्म से ही मौजूद रहता है। वस्तुतः हमारी बुद्धि की बनावट में ही ज्ञान के मूलभूत आधार मौजूद हैं।
(6) ज्ञान में बुद्धि प्रारम्भ से ही पूर्णतः क्रियाशील रहती है।
(7) ज्ञान की पद्धति निगमनात्मक होती है । इस निगमनात्मक पद्धति के द्वारा ही बुद्धि के अन्दर बीज रूप निहित ज्ञान प्रस्फुटित एवं विकसित होता है।
(8) आदर्श ज्ञान गणित का ज्ञान है चूँकि यह यथार्थ रूप में सार्वभौम तथा अनिवार्य होता है।
इस सिद्धान्त की प्रमुख सीमाएँ यह है कि इसमें केवल ज्ञान के लिए तर्कचिन्तन को ही महत्त्व दिया गया है। जबकि इन्द्रिय अनुभव ज्ञान प्राप्त करने के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है और इसी को प्राथमिक स्रोत भी मानते हैं।
(2) अनुभववाद–अनुभववाद को ज्ञानमीमांसा का सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव को ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत माना जाता है। अनुभववादी बुद्धि एवं तर्क-चिन्तन को ज्ञान का स्रोत नहीं मानते। ज्ञानइन्द्रियों के अनुभवों की व्यवस्था से ज्ञान का विकास होता है।
जॉन लॉक के अनुसार, “हमारी बुद्धि एवं हमारे ज्ञानइन्द्रियों में कुछ भी निहित नहीं होता है। जन्म के प्रत्यय के विचार को लॉक निरस्त करता है। ज्ञान का प्रमुख स्रोत प्रत्यक्षीकरण है और इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान सार्वभौमिक होता है।”
अनुभववाद के अन्तर्गत आगमन तर्क को ज्ञान के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अनुभववाद से भौतिक-विज्ञान तथा अन्य वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है। अनुभववाद के ज्ञान में सार्वभौमिकता और उसकी आवश्यकता होती है।
अनुभववाद की प्रमुख विशेषताएँ या लक्षण–अनुभववाद की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
(1) दैनिक जीवनमें जो विशिष्ट वस्तुओं का ज्ञान हमें होता है वह अयथार्थ नहीं है, बल्कि वह ज्ञान का वास्तविक उदाहरण है।
(2) ज्ञान का मूल और एकमात्र स्रोत अनुभव है और अनुभव का अर्थ इन्द्रियानुभव है।
(3) मन में कोई प्रत्यय जन्मजात नहीं है और जो भी प्रत्यय मन में होते हैं वे अनुभव के द्वारा प्राप्त होते हैं।
(4) ज्ञान में मन प्रारम्भ से ही सक्रिय नहीं रहता, बल्कि प्रारम्भ में तो वह एक बिलकुल निष्क्रिय रूप में संवेदनाओं को ग्रहण करता है।
(5) ज्ञान के मौलिक तत्त्व प्रत्यय हैं जो अनुभव से प्राप्त किये जाते हैं।
(6) ज्ञान की पद्धति आगमनात्मक है।
(7) आदर्श ज्ञान भौतिक विज्ञानों में निहित ज्ञान है। इन विज्ञानों में सामान्य या सार्वभौम ज्ञान मिलता है, परन्तु उसमें अनिवार्यता नहीं होती।
बुद्धिवाद तथा अनुभववाद की तुलना—अनुभववाद, बुद्धिवाद का विरोधी सिद्धान्त लगता है। इसलिए यहाँ पर तुलनात्मक बिन्दुओं का उल्लेख किया गया है—
(1) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान का एकमात्र स्रोत बुद्धि है, जबकि अनुभववाद के अनुसार एकमात्र स्रोत है अनुभव।
(2) बुद्धिवाद के अनुसार यथार्थ ज्ञान का दैनिक जीवन के साधारण ज्ञान से भेद करना आवश्यक है। साधारण जीवन का अनुभव-जन्य ज्ञान भ्रमात्मक होता है और इसलिए अयथार्थ है। अनुभववाद ऐसा नहीं मानता। उसके अनुसार साधारण वस्तुओं का दैनिक अनुभव-जन्य ज्ञान यथार्थ ज्ञान है।
(3) बुद्धिवाद के अनुसार आदर्श ज्ञान गणित-विज्ञान में निहित है, जबकि अनुभववाद के अनुसार भौतिक विज्ञानों में निहित ज्ञान आदर्श ज्ञान का उदाहरण है।
(4) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान को ज्ञान कहलाने के लिए आवश्यक रूप से सार्वभौम तथा अनिवार्य होना चाहिए, परन्तु अनुभववाद के अनुसार यद्यपि ऐसा ज्ञान गणित में मिलता है, तथापि इसका मतलब यह नहीं है भौतिक विज्ञानों में पाया जाने वाला सम्भाव्य ज्ञान ‘ज्ञान’ की संज्ञा का अधिकारी नहीं है।
(5) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान के मूल स्रोत बुद्धि में निहित जन्मजात प्रत्यय है, परन्तु अनुभववाद के अनुसार मन में कोई प्रत्यय जन्मजात नहीं है। सभी प्रत्यय अनुभव के द्वारा अर्जित है।
(6) ज्ञान की पद्धति बुद्धिवाद के अनुसार निगमनात्मक है, परन्तु अनुभववाद के अनुसार आगमनात्मक ।
(7) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान में मन प्रारम्भ से ही पूर्णत: क्रियाशील रहता है, चूँकि ज्ञान पूर्णत: उस्की की उपज है, परन्तु अनुभववाद के अनुसार ज्ञान प्राप्ति में अधिकांश स्तर तक मन निष्क्रिय रहता है।
इस तुलना में यह विदित होता है कि दोनों ही परस्पर विरोधी तर्क देते हैं। जबकि ज्ञान की दृष्टि से दोनों का ही समान महत्त्व है।
(3) समीक्षावाद–समीक्षावाद ज्ञानमीमांसा का अधिनियम है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत तर्क और अनुभव दोनों को अपने में पर्याप्त नहीं मानते । अपितु दोनों का परस्पर सहयोग ज्ञान की दृष्टि से आवश्यक है। अनुभव और तर्क दोनों ही ज्ञान के स्रोत हैं। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत दोनों को ही समान महत्त्व दिया गया है। दो ज्ञान का समाहारक सिद्धान्त हैं।
इस सिद्धान्त को कान्ट ने दिया है। कान्ट ने यह तर्क दिया कि दोनों ही (अनुभव एवं तर्क) ज्ञान के साधन हैं। उन्होंने किसी की भी आलोचना नहीं की है अपितु दोनों में समन्वित रूप में प्रयोग किया है। कान्ट ने ज्ञान की तीन विशेषताएँ दी हैं— सार्वभौमिकता, आवश्यकता एवं नवीनता ।
कान्ट ने गणित और भौतिक विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान का संश्लेषण किया और वास्तविक ज्ञान की संभावना का उल्लेख किया । इन्होंने बाहर पक्षों को सम्मिलित करने का प्रयास किया । वे इस प्रकार हैं—
(1) अनेकता,
(2) एकता,
(3) समग्रता,
(4) भाव,
(5) अभाव,
(6) सीमितता,,
(7) कारणता,
(8) गुणार्थकता
(9) अन्योन्यता,
(10) सम्भावना,
(11) वास्तविकता तथा
(12) अनिवार्यता ।
कान्ट ज्ञान की पूरी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ज्ञान का आरम्भ संवेदनाओं से होता है और वही से यह ज्ञान की ओर अग्रसर होता है एवं अन्तर्दृष्टि के अन्तर्गत जाकर समाप्त हो जाता है। वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्षीकरण से होता है परन्तु बाह्य संसार का बोध नहीं होता अपितु अपनी संवेदनाओं के आधार पर उनका ज्ञान अर्जित करते हैं। बोध से वस्तुओं की जानकारी होती है। कान्ट ने दो प्रकार के विश्व बताए हैं—
(1) परमार्थ सत्-परमार्थ सत् से बोध होता है तथा
(2) संवृत्ति सत्सं–वत्ति सत् से संवेदना होती है। कान्ट ने इन दोनों प्रकार के विचारों का एकीकरण किया है, जिसमें अनुभव और तर्क को ही सम्मिलित किया है।
वास्तविक ज्ञान- इस सम्बन्ध में दो बातें हैं–पहली, सत्य की प्रकृति और दूसरा, सत्य के मानदण्ड। इनकी व्याख्या तीन सिद्धान्तों से की गई है। यह इस प्रकार है—
(1) संसक्तता सिद्धान्त, (2) संवादिता सिद्धान्त तथा (3) प्रयोजन सिद्धान्त ।
सत्य एक विचार के रूप में होता है, विचार सत्य होता भी है और घटनाओं के द्वारा सत्य बनाया भी जाता है ।
पुष्टीकरण की प्रक्रिया के द्वारा विचार को सत्य बनाया जाता है । पुष्टीकरण आगमन चिन्तन के द्वारा किया जाता है, जिसमें प्रमाणों के संकलन के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं जिसे ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। इस सम्बन्ध में कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख यहाँ किया गया है ।
(1) संसक्तता सिद्धान्त–इस सिद्धान्त के अनुसार सत्यता संसक्तता है। संसक्तता का सामान्य अर्थ है संगति । संगति से इस सिद्धान्त के अनतर्गत आत्मसंगति तथा परस्पर-संगति दोनों ही समझा जाता है । आत्म-संगति आत्म-विरोध का अभाव है। यदि किसी को किसी वस्तु के सम्बन्ध में यह ज्ञान हो कि वह समूची वस्तुएँ ही समय में लाल और काली दोनों ही हैं तो निश्चय ही उसके ज्ञान में आत्म-विरोध है और वह असत्य है।
ज्ञान की सत्यता के सन्दर्भ में ‘संसक्तता’ का अर्थ संगति के अलावा परस्पर निर्भरता या पोषकता भी है। और यह स्वाभाविक है कि परस्पर पोषकता या निर्भरता का प्रश्न प्रायः वहीं उठेगा जहाँ किसी ज्ञान को ऐसे कुछ अन्य ज्ञान के उदाहरणों के सन्दर्भ में देखा जाए जो एक ही क्षेत्र या विषय से सम्बन्ध रखते हों और परस्पर एक तंत्र का निर्माण करते हों । वस्तुतः सत्यता सम्बन्धी संसक्तता सिद्धान्त में इस तन्त्र का बहुत अधिक महत्त्व है। कोई भी ज्ञान एक तंत्र के सन्दर्भ में ही सत्य या असत्य होता है । यदि उस पूरे तंत्र से, जिससे कोई ज्ञान सम्बन्धित है या जिसके अन्य अशों और पहलुओं के साथ जिसकी परस्पर निर्भरता है, अलग या स्वतंत्र होकर वह ज्ञान सत्य या असत्य नहीं होता।
(2) संवादिता सिद्धान्त–ज्ञान की सत्यता तथा असत्यता के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त सर्वसाधारण का सिद्धान्त मालूम पड़ता है। दर्शन में इसके प्रतिपादक तथा पोषक वे विचारक हैं जिन्हें वास्तववादी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान की सत्यता का अर्थ है ज्ञान का तथ्य या वास्तविकता के साथ मेल (agreement) अथवा संवाद । दूसरे शब्दों में, यदि हमारे ज्ञान के अनुरूप वास्तविकता में भी तथ्य हो तो हमारा ज्ञान सत्य होगा, अन्यथा असत्य ।
सत्य ज्ञान के सम्बन्ध में यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों के विचारों में अधिक अन्तर है, क्योंकि आदर्शवाद चेतना के अन्तर्गत विचार को ज्ञान की संज्ञा देता है। जबकि यथार्थवाद ज्ञान की कसौटी को उपयोगिता मानता है।
(3) प्रयोजन सिद्धान्त–यह सिद्धान्त निरपेक्ष आदर्शवाद का विरोध करता है। प्रयोजनवाद का किसी अमूर्त में विश्वास नहीं है अपितु संसार को परिवर्तनशील मानता है। ज्ञान की सत्यता का आकलन अनुभव के आधार पर ही किया जा सकता है। ज्ञान अर्जित करना, यह मानव की प्रकृति है और यह सापेक्ष परिवर्तन की अवधारणा में विश्वास रखता है और ज्ञान के लिए अनुभव को प्राथमिकता देता है ।
विलियम जेम्स के अनुसार, सत्य हमारे विचारों की एक विशेषता है। इसका अभिप्राय यह है कि हम किस विचार के बारे में सहमत हें एवं किस विचार के बारे में सहमत नहीं हैं। सत्य ज्ञान की पुष्टि हम अपने अनुभवों से कर सकते हैं। हमारे अनुभव ही सत्यता को सुनिश्चित करते हैं। विलियम जेम्स ने ज्ञान की सत्यता के लिए उपयोगिता के मानदण्ड को विशेष महत्त्व दिया है ।
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