विविधता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

विविधता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— विविधता– भारतीय समाज में एक ऐसी अनोखी संस्कृति का विकास हुआ है जिसमें विविधता में एकता का अनुपम उदाहरण देखने को मिलता है। हमारे राष्ट्रगान में “पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड उत्कल बंगा” का समावेश है, हमारा राष्ट्रगान भी विविधता को व्यक्त करता है । यह विविधता इन्द्रधनुषी है। इसमें अनेक रंगों का सुन्दर मेल है। हमारे देश की विभिन्न संस्कृतियाँ फूल की पंखुड़ियों के समान हैं जिनके संयोजन से एक पुष्प बनता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति की विविधता इस प्रकार सुन्दरता बिखेर रही है मानो एक माला में विविध प्रकार के फूल गँथे हुए हैं। भारतीय संस्कृति की यह सुन्दरता अनूठी है। हमारे देश की विविधता एकता में समारस हो गई है। उसे अलग-अलग पहचानना अत्यन्त कठिन है।
विविधता के घटक—इसके निम्नलिखित घटक हैं—
(1) विभिन्न घटकों (यथा – संस्कृति, मानवता) की अन्तः निर्भरता का सम्मान करने की समझ ।
(2) अपने भिन्न का सम्मान एवं प्रशंसा करना ।
(3) विविधता के आधार पर ज्ञान के क्षेत्र का संवर्धन |
(4) अन्तराल दूर का साथ-साथ कार्य करना ।
विविधता के विभिन्न स्वरूप-विविधता के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित हैं—
(1) जनजातीय विविधता– देश के समस्त भागों में विभिन्न जनजातियाँ निवास करती हैं, इनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, व्यवसाय, विवाह संबंध पृथक-पृथक होते हैं।
(2) सामाजिक विविधता– सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से भारतीय समाज में विविधता है। कहीं एकाकी परिवार तो कहीं संयुक्त परिवार, कहीं पितृसत्तात्मक तो कहीं मातृसत्तात्मक परिवार हैं। प्रथाएँ, लोकाचार व परम्पराओं में भी विविधता है।
(3) भौगोलिक विविधता रण– भारत में भौगोलिक विविधता विस्तृत है। बर्फीले हिमालय की चोटियों, सूखे मरुस्थलीय क्षेत्र, सदाबहार वन क्षेत्र, विस्तृत पठानी मैदान एवं समुद्रतटीय क्षेत्रों की विविधता के साथ 3,287,267 वर्ग किलोमीटर में भारतवर्ष विस्तृत है। भौगोलिक दृष्टि से भारत के विविध पाँच क्षेत्र हैं – (i) उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र, (ii) गंगा-सिंधु का मैदान, (iii) दक्षिण का पठार, (iv) राजस्थान का मरुस्थल, (v) समुद्र का तटीय मैदान।
(4) प्रजातीय विविधता– भारतवर्ष को प्रजातियों का अजायबघर भी कहा जाता है यहाँ प्रजातियों के विभिन्न समूह है जिनमें इण्डो, आर्यन, द्रविण, पूर्व, द्रविण, मुण्डा एवं मंगोलायड प्रमुख हैं। यह वर्गीकरण प्रो. घुर्ये का है। बी.एस. गुहा ने छः भागों का उल्लेख किया है- नीग्रीटो, प्रोटो-आस्ट्रेलायड, मंगोलायड, मेडिटरेनियन, ब्राचीसेफाल और नार्डिल कार्य ।
(5) संजातीय विविधता– भाषा, धर्म, संस्कृति एवं प्रथा के आधार पर दूसरे समूह से अलग समूह जिसके सदस्यों की प्रजाति, खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन आदि समान हों, उसे संजातीय समूह कहा जाता है।
(6) अभिजात एवं जनसामान्य– इन दोनों वर्गों के सामाजिक आर्थिक स्तर, परम्पराएँ, संस्कृति, शिक्षा, भाषा इत्यादि में विविधता पाई जाती है।
(7) भाषाई विविधता– भारत बहुभाषा-भाषी राष्ट्र है यहाँ भाषा एवं बोलियों का जालसा बिछा है। भाषा के विविध रूप दिखाई देते हैं।
(8) सांस्कृतिक विविधता– सांस्कृतिक विविधता का ताना बाना अन्तः स्थापित है। भारतीय संस्कृति का विविधतापूर्ण स्वरूप गौरवमय हैं।
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