“भारतीय संविधान अपनी प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है ।” इस घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए कौन-से संवैधानिक उपबंध दिए गए हैं?

“भारतीय संविधान अपनी प्रस्तावना में भारत को एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है ।” इस घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए कौन-से संवैधानिक उपबंध दिए गए हैं?

अथवा

प्रस्तावना का संक्षिप्त परिचय दें।
अथवा
42वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में शामिल किए गए ‘धर्मनिरपेक्षता, अखण्डता तथा समाजवादी’ शब्दों का उल्लेख करें।
अथवा
उन संवैधानिक उपबन्धों का उल्लेख करें जिनके द्वारा भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने हेतु क्रियान्वित किया गया है।
उत्तर – भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आधार जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किया वह उद्देश्य प्रस्ताव है, जो 13 दिसम्बर 1946 को संविधान निर्मात्री सभा में प्रस्तुत किया गया था। प्रस्तावना संविधान के लिए एक परिचय के रूप में कार्य करती है। 1976 में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसमें संशोधन किया गया था जिसमें तीन नये शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखण्डता को जोड़ा गया। संविधान की प्रस्तावना का निर्माण भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने हेतु किया गया। यह भारत के सभी नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता को सुरक्षित करती है और लोगों के बीच भाइचारे को बढ़ावा देती है।
 संविधान को प्रस्तावना में भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है। इस घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए निम्नलिखित संवैधानिक उपबन्ध किए गये हैं
समाजवादी (Socialist) : भारत ने समाजवाद के लोकतांत्रिक प्रारूप को अपनाया है, जैसे- समाजवादी लक्ष्यों की प्राप्ति शांतिपूर्ण एवं सहभागितापूर्ण तरीके से प्राप्त करना। इंदिरा गांधी ने कहा था कि समाजवाद का हमारा अपना प्रकार है, जहां मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र का सह-अस्तित्व है। भारत को समाजवादी राज्य बनाने के सन्दर्भ में संसाधनों का राष्ट्रीयकरण होने के बावजूद राज्य ने जनहित हेतु आर्थिक व्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप के अधिकार को सुरक्षित रखा गया है।
राज्य को नीति के निदेशक तत्व के अन्तर्गत समाजवादी व्यवस्था को लागू करने हेतु निर्देश देने के लिए अनेक उपबन्ध किये गये हैं। उल्लेखनीय है कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी ” शब्द अन्त:स्थापित करके यह सुनिश्चित किया गया कि भारतीय राजव्यवस्था का ध्येय समाजवाद है।
ध्यातव्य है कि यहां समाजवाद का अर्थ समूहवाद नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है, सामाजिक-आर्थिक सुधारों द्वारा सबको समान अवसर उपलब्ध कराना। इसी संशोधन द्वारा कुछ नये निर्देश जोड़कर समाजवादी ढाँचे को और आगे बढ़ाया गया। अनुच्छेद 39′ क’ अन्तःस्थापित करके राज्य पर कर्त्तव्य डाला गया है कि वह निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा और इस प्रकार काम करेगा कि सबके लिए समान न्याय सुनिश्चित हो, जैसा कि प्रस्तावना में घोषित है। अनुच्छेद 43′ क’ अन्तः स्थापित करके राज्य को यह निदेश दिया गया है कि वह उद्योग एवं अन्य उपक्रमों में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करे, आर्थिक न्याय की प्राप्ति के अर्थ में यह समाजवाद की ओर एक सशक्त कदम है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना : अनेक मतों (धर्मों) को मानने वाले भारत के लोगों की एकता और उनमें बंधुता स्थापित करने के लिए संविधान में धर्म निरपेक्ष राज्य का आदर्श रखा गया है। इसका अर्थ है कि राज्य सभी मतों / धर्मों की समान रूप से रक्षा करेगा और स्वयं किसी भी मत को राज्य के धर्म के रूप में नहीं मानेगा। पंथ निरपेक्षता एक संवैधानिक दर्शन का अंगीभूत सिद्धान्त है। 42वां संविधान संशोधन ने पंथ निरपेक्षता शब्द को संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित कर इस सिद्धान्त को औपचारिक रूप से अभिव्यक्त किया, जो मूल संविधान में पहले से ही अन्तर्निहित था। 42वां संविधान संशोधन 1976 द्वारा ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द अन्तः स्थापित करके सुनिश्चित किया गया कि पंथ निरपेक्षता संविधान के आधारिक अथवा मूलभूत ढांचे में से एक है।
प्रस्तावना में जिस विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का वचन दिया गया है उसे अनुच्छेद 25-28 में धर्म की स्वतंत्रता से सम्बन्धित सभी नागरिकों को मूल अधिकार के रूप में समाहित कर क्रियान्वित किया गया है, इसमें अनुच्छेद 27 एवं 28 उल्लेखनीय है –
अनुच्छेद 27 : यह घोषणा करता है कि ‘राज्य’ किसी नागरिक या संस्था को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था को पोषण हेतु करों की अदायगी करने के लिए बाध्य नहीं करेगा।
अनुच्छेद 28 : राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्थान में उपस्थित होने वाले व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए उसकी अथवा उसके संरक्षक की सहमति के बिना बाध्य नहीं किया जाएगा। संक्षेप में राज्य के स्वामित्व की शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा पूर्णत: प्रतिषिद्ध है, साम्प्रदायिक संस्थाओं में यह पूर्णतः प्रतिषिद्ध नहीं है, किन्तु इसे अन्य धर्मावलम्बियों पर उसकी सहमति के बिना अधिरोपित नहीं किया जा सकता।
लोकतान्त्रिक गणराज्य: प्रस्तावना में ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ का जो प्रावधान किया गया है वह लोकतंत्र, राजनैतिक और सामाजिक आदि दृष्टिकोण से विशिष्ट है। दूसरे शब्दो में न केवल शासन में लोकतंत्र होगा, बल्कि समाज भी लोकतन्त्रात्मक होगा जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता की भावना होगी।
गणराज्य : प्रस्तावना स्पष्ट शब्दों में यह घोषित करती है कि संविधान के अधीन सभी अधिकारों का स्त्रोत भारत के लोग हैं। 1949 में संविधान की रचना के पश्चात् से भारत ने स्वयं को गणराज्य घोषित किया। इससे तात्पर्य है कि हमारे राष्ट्र का प्रमुख निर्वाचित राष्ट्रपति है और राष्ट्रपति सहित सभी पदों पर किसी भी नागरिक की नियुक्ति हो सकती है।
प्रतिनिधिक लोकतंत्र : शासन की पद्धति के रूप में जिस लोकतंत्र की कल्पना की गई है वह प्रतिनिधिक लोकतंत्र है। इसे ‘संसदात्मक लोकतंत्र’ भी कहते हैं।
भारत में लोकतांत्रिक भावना को सुनिश्चित करने का उदाहरण बिहार विधानसभा के संदर्भ में दिया जा सकता है जब केन्द्र सरकार द्वारा 23 मई 2005 को बिहार विधानसभा भंग कर दी गई, जिसे एनडीए के विधायकों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वाई. के. सब्बरवाल की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने विधानसभा भंग किये जाने सम्बंधी केन्द्र सरकार की 23 मई, 2005 की अधिसूचना को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने हेतु भारतीय संविधान में अनेक प्रावधान किए गए हैं, जिन्हें केन्द्र एवं राज्यों की सरकारों द्वारा क्रियान्वित करने हेतु अनेक प्रयास भी किए जा रहे हैं।
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Sujeet Jha

Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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