निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए—

निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए—

(i) सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक ज्ञान में अंतर
(ii) जॉन ड्यूवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
उत्तर— (i) सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक ज्ञान में अंतर–सामान्य रूप से ज्ञान के प्रमुख दो आयाम व्यावहारिक जगत में पाये जाते हैं जिन्हें सैद्धान्तिक ज्ञान एवं व्यावहारिक ज्ञान के रूप में जाना जाता है। सिद्धान्तों के ज्ञान का संबंध विचारों से होता है तथा व्यावहारिक ज्ञान का संबंध क्रियाशीलता ज्ञान के इन दोनों स्वरूपों की विविध विशेषताओं एवं आयामों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है—
1. सैद्धान्तिक ज्ञानः सैद्धान्तिक ज्ञान के स्वरूप को विभिन्न रूपों में निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) व्यवहार का आधार– विभिन्न प्रकार के सिद्धान्तों के आधार पर ही व्यवहार का निर्धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ, समस्त प्रकार के नैतिक सिद्धान्तों एवं चारित्रिक सिद्धान्तों के आधार पर ही मर्यादित एवं सद्व्यवहार की आधारशिला रखी जाती है। इसी प्रकार अनेक सिद्धान्त मानव के व्यवहार की कार्य शैली को निश्चित करने का प्रयास करते हैं। विद्वानों का मानना है कि जो सिद्धान्त समाजोपयोगी एवं व्यावहारिक होते हैं, उनको समाज के व्यक्तियों द्वारा व्यवहार में क्रियान्वित किया जाता है।
(2) वर्णन पर आधारित– सैद्धान्तिक ज्ञान पूर्णतः वर्णनात्मक होता है। इसकी उपयोगिता ही उसको व्यावहारिक रूप प्रदान करती है। भारतीय दर्शन में अनेक प्रकार के सिद्धान्तों का बाहुल्य है। इन सिद्धान्तों के माध्यम से व्यक्तियों ने अपने विचारों को प्रस्तुत किया है। जब ये विचार सम्पूर्ण समाज में अपनी उपयोगिता के कारण व्यवहार का एक अंग हो जाते हैं तब यह व्यावहारिक ज्ञान के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
(3) विचारों से संबंध– सैद्धान्तिक ज्ञान का विचारों से पूर्ण संबंध होता है। इन विचारों के आधार पर ही नवीन सिद्धान्तों का जन्म होता है तथा पुराने सिद्धान्तों को स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ, प्राचीन सिद्धान्तों के अनुसार अनुशासन की स्थापना में दण्ड का प्रयोग किया जाता है, परन्तु वर्तमान समय में इस सिद्धान्त को अस्वीकार किया जा चुका है। वर्तमान समय में दण्ड का निषेध करते हुए बालक में आत्मानुशासन की भावना का विकास किया जाता है।
(4) मनोविज्ञान का संबंध– सैद्धान्तिक ज्ञान की उत्पत्ति मानसिक विकास से अधिक संबंधित होती है। प्रथम अवस्था में कोई विद्वान अपने मानसिक विचारों को ही सिद्धान्त रूप में परिणित करता है। इस सिद्धान्त को द्वितीय अवस्था में समाज द्वारा परखा जाता है। इसके उपरान्त तृतीय अवस्था में सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप में परिणित किया जाता है। अतः सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि में मनोविज्ञान कार्य करता है।
(5) रुचि से संबंध– सैद्धान्तिक ज्ञान का संबंध विद्वानों की रुचि से संबंधित होता है। विद्वान अपनी रूचि के विषय को सिद्धान्त रूप में प्रतिपादित करते हैं। इन विचारों एवं सिद्धान्तों को उनकी उपयोगिता के आधार पर स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ, मॉण्टेसरी एवं फ्रॉबेल द्वारा शिक्षण व्यवस्था में खेल विधि का प्रादुर्भाव एक सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया । यह सिद्धान्त उन विद्वानों की रुचि से संबंधित था जिसे वर्तमान में व्यावहारिक रूप में स्वीकार किया गया ।
(6) क्रियाशीलता का अभाव– सिद्धान्तों का स्वरूप प्रथम अवस्था में क्रियाशीलता से विहीन होता है। उसमें क्रियाओं का वर्णन अवश्य किया जाता है परन्तु एक निश्चित एवं क्रमबद्ध रूप में क्रियाओं के सम्पन्न होने के लिये साधनों का वर्णन नहीं किया जाता है। धीरे-धीरे उसकी उपयोगिता उसको महत्वपूर्ण बनाने का करती है तथा उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करती है ।
(7) अमूर्त अमूर्त ज्ञान के सिद्धान्तों ज्ञान से संबंध– सैद्धान्तिक ज्ञान से होता है। अमूर्त ज्ञान की स्थिति में ही विभिन्न प्रकार का सृजन होता है। दर्शन शास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त इस तथ्य का प्रत्यक्ष उदाहरण है। दर्शन शास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को उनकी उपयोगिता के आधार पर ही व्यावहारिक ज्ञान में परिवर्तित किया जा सकता है, अवधारणा एक अमूर्त सिद्धान्त है परन्तु बालक के कार्य एवं व्यवहार को देखकर उसकी बुद्धि-लब्धि का अनुमान किया जा जैसे- बुद्धि की सकता है।
(8) तर्क एवं चिन्तन का प्रभाव– सैद्धान्तिक ज्ञान मानव की तर्क शक्ति एवं चिन्तन शक्ति से घनिष्ठ संबंध रखता है। मानवीय तर्कों एवं चिन्तन के आधार पर अनेक सिद्धान्तों का सृजन होता हैं शिक्षा जगत में अनेक प्रकार की सैद्धान्तिक उपलब्धियाँ मानव के तर्क एवं चिन्तन का ही परिणाम हैं। प्राचीन काल में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को एक महत्वहीन विषय माना जाता था परन्तु शिक्षाशास्त्रियों द्वारा इसकी उपयोगिता पर तर्कपूर्ण चिन्तन किया तो उन्होंने एक नवीन सिद्धान्त को जन्म दिया जो कि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को महत्वपूर्ण एवं बालक के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक मानता है।
2. व्यावहारिक ज्ञान– व्यावहारिक ज्ञान का संबंध मानव के कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रदत्त ज्ञान से संबंधित होता है। उदाहरणार्थ, अधिगम के विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त मनोविज्ञान में प्रचलित हैं। जब इन सिद्धान्तों का व्यवहार में प्रयोग किया जाता है तथा उनके कार्य एवं परिणामों का व्यावहारिक अध्ययन किया जाता है तब वह ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान की श्रेणी में आ जाता है। अतः जब कोई सिद्धान्त या निदम मानव समुदाय तथा व्यवहार में प्रयुक्त होता है तब वह व्यावहारिक ज्ञान के श्रेणी में आ जाता है। व्यावहारिक ज्ञान के विभिन्न आयाम एवं विशेषताओं को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) उपयोगिता– व्यावहारिक ज्ञान का प्रमुख आयाम उसके उपयोगिता है। व्यावहारिकता के क्षेत्र में उस सिद्धान्त या नियम को स्थान प्राप्त होता है जो मानव समाज के लिये उपयोगी होता है। शिक्षा के क्षेत्र में अनेक प्रकार के अनुसंधान एवं सिद्धान्त विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित किये हैं परन्तु व्यवहार में कुछ सिद्धान्तों को ही मान्यता मिली है; जैसे-जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त एवं थॉर्नडाइक का अधिगम सिद्धान्त आदि। इन सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने में इनकी उपयोगिता की ही महत्वपूर्ण भूमिका है।
(2) क्रियाशीलता– व्यावहारिक ज्ञान का द्वितीय आयाम उनकी क्रियाशीलता है। क्रियाशीलता के अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने व्यवहार का कुशलतम् रूप में संचालन नहीं कर सकता। व्यवहार की समस्त क्रियाएँ क्रियात्मक रूप में ही सम्पन्न की जाती हैं। अतः व्यावहारिक ज्ञान में क्रियाशीलता इसका अभिन्न अंग है।
(3) प्रयोग-प्रदर्शन– व्यावहारिक ज्ञान में प्रयोग-प्रदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान होता है। प्रयोग-प्रदर्शन के अभाव में कोई भी ज्ञान व्यावहारिक नहीं बन सकता क्योंकि प्रयोग-प्रदर्शन व्यावहारिक ज्ञान का अनिवार्य अंग है। कोई भी सिद्धान्त उस स्थिति में, व्यावहारिक बनता है जब समाज में उसका प्रयोग होता है तथा समाज द्वारा उसको मान्यता प्रदान की जाती है।
(4) कौशलों का विकास– व्यावहारिक ज्ञान का प्रमुख अनिवार्य तथ्य कौशल हैं। दूसरे शब्दों में कौशलात्मक ज्ञान ही व्यवहार में प्रयोग होता है, जैसे-साइकिल चलाना कार चलाना एवं घर बनाना आदि। इस प्रकार के कौशलों का प्रयोग व्यक्ति अपने जीवन में अनिवार्य रूप से करता है। इस प्रकार कौशलात्मक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान का अभिन्न अंग है। विभिन्न प्रकार के कौशलों का प्रयोग व्यक्ति अपने जीवन में अनिवार्य रूप से करता
(5) विकास का आधार– व्यावहारिक ज्ञान विकास का आधार होता है क्योंकि व्यवहार में व्यक्ति उस ज्ञान का ही प्रयोग करता है जो उसके लिये उपयोगी एवं लाभप्रद होता है, जैसे- कार चलाना एवं विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करना आदि । इन सभी कार्यों से समाज का विकास होता है तथा मानव जीवन स्तर उच्च होता है। अतः व्यावहारिक ज्ञान के द्वारा विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
(6) वास्तविकता के समीप– व्यावहारिक ज्ञान वास्तविकता के समीप होता है क्योंकि व्यवहार में अवास्तविक एवं कल्पनाओं से संबंधित ज्ञान अधिक समय तक नहीं हर सकता। इसलिये व्यावहारिक ज्ञान वास्तविकता एवं उपयोगी तथ्यों को अपने अन्तर्गत समाहित करता है। यह ज्ञान ही मानव को उन कार्यों को कारने की प्रेरणा देता है जो मानव समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ।
(7) कल्पनाओं का अभाव– व्यावहारिक ज्ञान में सामान्य रूप से कल्पनाओं का अभाव पाया जाता है। इस ज्ञान में कल्पना के आधार पर कोई कार्य नहीं किया जाता है वरन् प्रत्येक कार्य को करने के पीछे वास्तविक तथ्य छिपे होते हैं, जैसे – आत्मानुशासन की भवना के दृष्टिकोण को व्यवहार में प्रयोग करने के पीछे किसी कल्पना का समावेश न होकर आत्मानुशासन संबंधित वे वास्तविक तथ्य होते हैं जो इसको व्यवहार में प्रयोग करने के लिये बाध्य करते हैं।
(8) वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समीप– व्यावहारिक ज्ञान में वैज्ञानिकता का तथ्य समाहित होता है क्योंकि इस ज्ञान का संबंध वैधता एवं विश्वसनीयता से होता है। वैधता एवं विश्वसनीयता का वैज्ञानिक ज्ञान में पूर्ण समावेश होता है। सामान्य परिस्थितियों में वैज्ञानिक ज्ञान को व्यवहार में ही प्रयोग किया जाता है; जैसे-आत्मरक्षा के लिये शस्त्रों का प्रयोग, शैक्षिक क्षेत्र में मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग तथा व्यवहार में सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन स्तर आदि ।
(ii) जॉन ड्यूवी के अनुसारं शिक्षा के उद्देश्य– ड्यूवी के अनुसार, “शिक्षा के उद्देश्य व्यक्तियों के उद्देश्यों के अनुसार निर्धारित किए जाने चाहिए, शिक्षा के उद्देश्य ऐसे होने चाहिए जो व्यक्तियों में उन गुणों और क्षमताओं का विकास कर सकें जिनके द्वारा व्यक्ति जीवन में आने वाली समस्याओं एवं बाधाओं को सहजता से हल करके वर्तमान जीवन को जीते हुए भविष्य का भी मार्ग सुगम कर सके। व्यावहारिक कुशलता एवं सामाजिक जीवन में दक्षता ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।” ड्यूवी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं—
(1) सामाजिक कुशलता का विकास– ड्यूवी के अनुसार, मनुष्य अपनी समस्त गतिविधियाँ समाज में रहकर ही करता है। समाज को भली-भाँति समझना और खुद की समाज के साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया को ही ड्यूवी ने सामाजिक कुशलता माना हैं इनके अनुसार मनुष्यों में सामाजिक कुशलता का विकास करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता हैं।
(2) अनुभवों का पुनर्निर्माण और वातावरण के साथ समयोजन– ड्यूवी का मानना था कि संसार परिवर्तनशील है तो सत्य और मूल्य कैसे अपरिवर्तित रह सकते हैं जबकि मानव जीवन भी गतिशील है। अतः इसके आधार पर शिक्षा भी गतिशील एवं परिवर्तनशील होनी चाहिए। समय के साथ शिक्षा में बदलाव होंगे तो उसके उद्देश्य कैसे अछूते रहेंगे। शिक्षा का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जिससे मनुष्य बदलते समाज के अनुरूप स्वयं को समायोजित करता रहे।
(3) जनतंत्रीय जीवन का प्रशिक्षण– ड्यूवी प्रसिद्ध दर्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री होने के साथ-साथ जनतंत्र के समर्थ भी थे। ड्यूवी ने सामाजिक कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने के लिए एक व्यक्ति में सात प्राकर की क्षमताओं को बताया है। ये क्षमताएँ हैं – स्वास्थ्य, योग्य गृहस्थ, क्रिया करने की क्षमता, व्यवसाय, नागरिकता, अवकाश का सही उपयोग, नैतिकता एवं चरित्र । ड्यूवी ने इनका कोई मानदण्ड निर्धारित नहीं किया। फिर भी इनमें पूर्व निश्चित उद्देश्य – शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक तथा नागरिकता की शिक्षा निहित है। इनका स्वरूप समाज की बदलती स्थितियों के साथ बदलता रहता है।
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