यू.पी.पी.एस.सी. 2022 मुख्य निबंध

यू.पी.पी.एस.सी. 2022 मुख्य निबंध

> विशेष अनुदेश:
(i) प्रश्न-पत्र तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड से केवल एक-एक विषय का चयन कर कुल तीन निबंध हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा उर्दू भाषा में लिखिए।
(ii) प्रत्येक निबंध में कुल प्रयुक्त शब्दों की अधिकतम सीमा 700 शब्दों की है।
(iii) प्रत्येक निबंध के लिए 50 अंक निर्धारित हैं।
> खण्ड – क

1. अंध औद्योगीकरण पर्यावरण प्रदूषण का स्रोत है 

> पर्यावरण
प्रदूषण एवं उद्योग दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां उद्योग होगा, होगा ही। उद्योगों की स्थापना स्वयं में एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। प्रत्येक देश में उद्योग अर्थव्यवस्था के मूल आधार होते हैं। यह जीवन की सुख-सुविधाओं, रहन-सहन, शिक्षा- चिकित्सा से सीधे जुड़ा हुआ है। इन सुविधाओं की खातिर मनुष्य नित नए वैज्ञानिक आविष्कारों एवं नए उद्योग-धंधों को बढ़ाने में जुटा हुआ है। औद्योगीकरण ऐसा ही एक चरण है, जिससे देश को आत्मनिर्भरता मिलती है और व्यक्तियों में समृद्धि की भावना को जागृत करती है।
सन् 1947 में आजाद देश ने इस दिशा में सोचा और अपने देश की क्रमबद्ध प्रगति के लिए चरणबद्ध पंचवर्षीय योजनाएं बनाई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में देश में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, जो निरंतर बढ़ता ही रहा।
संसार में उद्योगों की प्रगति के साथ ही प्रदूषण की भी प्रगति हुई, जो वास्तव में भयावह एवं जानलेवा है।
> उद्योगों द्वारा होने वाले प्रदूषण
यह औद्योगिक क्रांति ही थी, जिसने पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया। बड़ी-बड़ी फैक्टिरियों के विकास और कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन के बहुत अधिक मात्रा में उपभोग के कारण अप्रत्याशित रूप से प्रदूषण बढ़ा है। किसी भी उद्योग के क्रियाशील होने पर प्रदूषण तो होगा ही। एक उद्योग से संबंधित कम-से-कम निम्न प्रक्रिया तो होती ही है
1. विषैली गैसों का चिमनियों से उत्सर्जन,
2. चिमनियों में एकत्रित हो जाने वाले सूक्ष्म कण,
3. उद्योगों में कार्य आने के बाद शेष,
4. चिमनियों में प्रयुक्त ईंधन के अवशेष एवं
5. उद्योगों में काम में आए हुए जल का बहाव ।
उद्योगों से होने वाले प्रदूषण हैं- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, औद्योगिक उत्सर्ग, बहिस्रव से पेड़ और फसलों की बर्बादी, जन हानि।
वायु प्रदूषण – किसी भी उद्योग की मशीनों को चलाने के लिए ऊर्जा उत्पादन तथा कच्चे माल की निर्धारित क्रियाविधि के फलस्वरूप जो भी उत्सर्जन होता है, उसका गैसीय भाग चिमनियों से निकलता है। इन चिमनियों से हानिकारक पदार्थ जब वायुमंडल में विसर्जित होते हैं तो प्रदूषण फैलता है।
वैज्ञानिक युग में मनुष्य एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा में अनेक उद्योग स्थापित कर रहा है। विभिन्न प्रकार के इन उद्योगों की उत्पादन इकाइयों से प्रतिदिन उत्पन्न विषैली गैसें जैसे-कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन तथा अन्य अपशिष्ट पदार्थों के कण वायुमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं।
जल-प्रदूषण- उद्योगों में उपयोग के बाद जो जल बाहर निकलता है, उसमें प्रकार के विषैले पदार्थ मिले रहते हैं। यदि यह सीधे नदियों या जलाशयों में डाल दिए जाते हैं तो उनका पानी पीने योग्य नहीं रह जाता। जल में रहने वाले जीव-जंतु अकाल मृत्यु पाते हैं। उस पानी का उपयोग करने वाले पशु और मानव अनेक असाध्य रोगों से ग्रसित हो जाते हैं।
ध्वनि प्रदूषण – औद्योगिक मशीनों की अधिक तीव्रता वाली ध्वनि तथा एमक्राफ्ट की मशीनों का शोर, मानव की साधारण या दैनिक दिनचर्या में बाधा तो डालता ही है, अधिक समय तक तीव्र ध्वनि में रहने से, सुनने की क्षमता का ह्रास होता है।
उद्योगों और वर्कशॉप में ध्वनि का अनुकूलतम स्तर 90 डेसिबल तय किया गया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह स्तर कई जगह 120 डेसिबल पाया गया है। ऐसा शोर श्रमिकों की सिर्फ श्रवण-शक्ति को ही हानि नहीं पहुंचाता, बल्कि उनकी उत्पादकता भी कम करता है।
मृदा प्रदूषण- उद्योगों, मानव, प्रकृति, मृदा की गुणवत्ता में हुआ ह्रास, मृदा प्रदूषण के अंतर्गत आता है। फैक्ट्रियों से निकले जहरीले अपशिष्ट पदार्थ तरल अवस्था में बहकर जल में मिल जाते हैं और जब यही प्रदूषित जल मिट्टी में मिल जाता है तो मृदा प्रदूषण फैलता है। कुछ प्रदूषणकारी पदार्थ जैसे नाइट्रोजन और सल्फर के ऑक्साइड पहले वायुमंडल में जाते हैं, फिर वर्षा के समय नाइट्रिक अम्ल (HNO ) तथा सल्फ्यूरिक अम्ल (H, SO ) के रूप में जमीन पर गिरकर मृदा में अम्लीयता बढ़ाते हैं।
> उद्योगों से प्रदूषण कम करने के उपाय
1. उद्योगों के स्थान का चयन बहुत सोच-समझकर करना चाहिए। वहां न तो अधिकृत नन क्षेत्र हों, न ही कृषि एवं आवासीय भूमि
2. फैक्ट्रियों की चिमनियों में ‘बैग फिल्टर’ लगा होना चाहिए। जब म इस फिल्ला से होकर गुजरता है, तब उसे फिल्टर के सिलेंडर से होकर गुजरना होता है, जिससे श्रृणु के कणिकीय पदार्थ नीचे बैठ जाते हैं, जबकि गैस बेलनाकार वैग से होकर बाहर निकलती है। यह गैस कणिकीय पदार्थों से मुक्त होती है।
3. उद्योगों में कार्य कर रहे ऊर्जा संयंत्र तथा गैसों व सूक्ष्मकणों को उत्सर्जित करने वाली चिमनियों से प्रदूषकों की मात्रा कम हो, इस हेतु प्रचलन में आ रहे स्क्रमवयं अवशोषक, साइक्लॉस, इलेक्ट्रोस्टेटिक प्रेसीपिटेटर्स, बैग फिल्सटर्स संयंत्रों का भरपूर उपयोग किया जाए।
4. ओजोन क्षयकारी रसायनों के स्थान पर वैकल्पिक रासायनिक यौगिकों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
5. उद्योगों से संबंधित होने वाली घटनाओं विषय में सभी श्रमिकों को जानकारी देना चाहिए।

2. उत्कृष्ट साहित्य के लिए नए मानक

> साहित्य
साहित्य समाज का दर्पण है। एक साहित्यकार समाज की वास्तविक तस्वीर को सदैव अपने साहित्य में उतारता रहा है। मानव जीवन समाज का ही एक अंग है।
मनुष्य परस्पर मिलकर समाज की रचना करते हैं। इस प्रकार समाज और मानव जीवन का संबंध भी अभिन्न है। समाज और जीवन दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। आदिकाल के वैदिक ग्रंथों व उपनिषदों से लेकर वर्तमान साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित किया है।
> साहित्यिक मानकों को निम्नलिखित शीर्षकों के तहत चित्रित किया गया है:
1. स्थायित्व: एक महान साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह सदैव रहता है। इसे बार-बार पढ़ा जा सकता है क्योंकि प्रत्येक पठन ताजा आनंद और नई अंतर्दृष्टि देता है और अर्थ और अनुभव की एक नई दुनिया खोलता है। इसकी प्रकृति स्थायी होती है।
2. कलात्मकताः यह गुण साहित्य की भाषा, स्वर और सौंदर्यशास्त्र को संदर्भित करता है, जो हमारे सौंदर्य की भावना को आकर्षित करते हैं।
3. गुणवत्ता: गुणवत्ता साहित्य की भावनात्मक शक्ति से जुड़ी होती है। एक साहित्य जो हमें गहराई में ले जाता है और हमारी भावना और कल्पना को उत्तेजित करता है वह महान साहित्य होता है। इसमें सामान्य जीवन और अनुभव के स्तर से ऊपर दर्शन देने और जगाने की क्षमता है।
4. सार्वभौमिकताः महान साहित्य सामयिक है और हमेशा प्रासंगिक है। यह सभी को, कभी भी, कहीं भी आकर्षित करता है, क्योंकि यह मौलिक भावनाओं, मौलिक सत्य और सार्वभौमिक स्थितियों से संबंधित है।
5. आध्यात्मिक मूल्य: नैतिक मूल्यों को सामने लाकर जो एक बेहतर व्यक्ति बनाता है, तथा साहित्य आत्मा को ऊंचा करता है। प्रेरित करने की क्षमता साहित्य के आध्यात्मिक मूल्य का हिस्सा है।
6. बौद्धिक मूल्य: आलोचनात्मक सोच को उत्तेजित करके, एक साहित्यिक कार्य हमें जीवन और मानव प्रकृति के बारे में मौलिक सत्य का एहसास कराकर अमूर्तता और तर्क की हमारी मानसिक प्रक्रियाओं को समृद्ध करता है।
7. शैली: इसका तात्पर्य उस अजीबोगरीब तरीके से है जिसमें लेखक जीवन को देखता है, अपने विचारों को बनाता है और उन्हें व्यक्त करता है।
साहित्य का इतिहास से गहरा संबंध है और एक जाति एक देश के इतिहास की खोज में, हम मूल रूप से उनकी अपनी संस्कृति और परंपराओं को समझते हैं, इसलिए साहित्य एक देश के लिखित रीति-रिवाजों और परंपराओं और उसके लोगों के सपनों और आकांक्षाओं को प्रस्तुत करता है।
महान या उत्कृष्ट साहित्य अपने समय के बारे में कुछ प्रस्तुत और व्याख्या कर सकता है, लेकिन इसके साथ मानवीय परिस्थितियों के बारे में भी दिखा सकता है। एक महान लेखक दुनिया की जांच करता है क्योंकि वह इसे देखता है और पाठक को उन टिप्पणियों के बारे में सचेत रूप से संवाद करता है। लेकिन इसके अलावा, एक महान साहित्य उन चीजों को भी व्यक्त कर सकता है जो एक लेखक ने जाने या अनजाने में देखी है।
एक उत्कृष्ट साहित्य उन विचारों पर आधारित होता है जो चौंकाने वाले, अप्रत्याशित, असामान्य, वजनदार या नए होते हैं। एक महान साहित्य की विशेषज्ञता हमें उन चीजों को देखने या सोचने के लिए प्रेरित करती है जो हमने पहले कभी नहीं की थीं। काम में अंतर्निहित विचार हमारी आदि श्रेणियों और सोचने के तरीकों को चुनौती देते हैं।
एक उत्कृष्ट साहित्य इतना जटिल होता है कि हर बार जब हम इसे पढ़ते हैं तो हमें कुछ नया प्रदान करता है, खासकर हमारे जीवन के विभिन्न चरणों में न केवल परस्पर विरोधी चरित्र, बल्कि परस्पर विरोधी विचार सभी महान कलाओं का आधार बनते हैं, और साहित्य के लिए भी यही होता है। यह पाठकों के लिए सभी पक्षों का मनोरंजन करने की अनुमति करता है।
साहित्य से उसका मस्तिष्क तो मजबूत होता ही है साथ ही साथ वह उन नैतिक गुणों को भी जीवन में उतार सकता है जो उसे महानता की ओर ले जाते हैं। यह साहित्य की ही अद्भुत व महान शक्ति है जिससे समय-समय पर मनुष्य के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
साहित्य ने मनुष्य की विचारधारा को एक नई दिशा प्रदान की है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की विचारधारा परिवर्तित करने के लिए साहित्य का आश्रय लेना पड़ता है। आधुनिक युग के मानव जीवन व उनसे संबंधित दिनचर्या को तो हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं, परंतु यदि हमें प्राचीन काल के जीवन के बारे में अपनी जिज्ञासा को पूर्ण करना है तो हमें तत्कालीन साहित्य का ही सहारा लेना पड़ता है।

3. जन धन योजना गरीबों का सारथी 

> समाज कल्याण
प्रधानमंत्री जन धन योजना गरीबी को ध्यान में रखकर बनाई गई है, जिससे उनमें बचत की भावना का विकास हो और साथ साथ उनमें भविष्य की सुरक्षा का एक अहम भाव भी जागे / प्रधानमंत्री जन धन योजना केंद्र सरकार का बड़ा और अहम फैसला है जो देश की नीव को मजबूत रखेगा, अगर जरूरत पड़ने पर हमारे पास पैसे हो तो हमारी सारी चिंताएं दूर हो जाती हैं। जीवन में आपात स्थिति कभी-न-कभी सामने आ जाती है। ऐसी स्थिति में अगर हमारे पास पैसा हो तो किसी के भी सामने हाथ फैलाना नहीं पड़ता है, लेकिन आज की पीढ़ी भौतिकतावाद से प्रभावित है। उनके जीवन का मूलमंत्र होता है कमाओ, खाओ और मौज करो लेकिन ऐसा करते समय वे दूरदर्शिता को भूल जाते हैं, भविष्य की चिंता नहीं करते और धन को बर्बाद करते रहते हैं। समझदारी इसी में होती है कि थोडा-थोड़ा पैसा बचाकर बैंक में जमा कराना चाहिए। इसलिए प्रधानमंत्री जन धन योजना गरीब जनता को सशक्त बनाने के लिए चलाई जा रही है। इसमें जिस भी देशवासी का एक भी बैंक अकाउंट नहीं है, उनसे बैंक अकाउंट खोलने की अपील की गई है। इसके अलावा अगर कोई भी भारतीय नागरिक अपने पहले से खुले हुए अकाउंट को प्रधानमंत्री जन धन योजना में शामिल करना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है उसे भी वह सभी सुविधाएँ दी जाएँगी जो सभी इस योजना के तहत दी जा रही हैं।
प्रधानमंत्री जन धन योजना भारत देश में वित्तीय समावेशन पर एक राष्ट्रीय मिशन है। इस योजना का मुखा उद्देश्य सभी परिवारों का बैंक खाता खुलवाना है। प्रधानमंत्री द्वारा स्वाध ीनता दिवस के अवसर पर लाल किले से घोषित प्रधानमंत्री जन धन योजना देश भर के गरीब लोगों को बैंक और अन्य वित्तीय सेवाओं से जोड़ने के लिए एक महत्वकांक्षी परियोजना है। जन धन योजना का आरंभ प्रधानमंत्री जन धन योजना की घोषणा 15 अगस्त, 2014 को हुई थी, लेकिन इसका शुभारम्भ 28 अगस्त, 2014 को भारतीय प्रध नमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने किया था। इस योजना की शुरू करने से पहले मोदी जी ने सभी बैंकों को ई-मेल भेजा था, जिसमें उन्होंने हर परिवार के लिए एक बैंक खाता जरूरी होने की घोषणा की थी। इस योजना के अंतर्गत सात करोड़ से भी ज्यादा परिवारों को प्रधानमंत्री जन धन योजना में भाग लेने और बैंक खाता खोलने के लिए बैंकों में घोषणा की। प्रधानमंत्री जन धन योजना के उद्घघाटन के दिन ही एक करोड़ पचास लाख खाते खोते गये थे।
इस योजना में लाख रुपए का बीमा होगा जो विपत्ति के समय पर परिवार की बहुत मदद करेगा। घर से बाहर नौकरी करने वाले लोग आसानी से पैसा घर पर भेज सकेंगे। ग्रामीण व पिछड़े इलाकों में लोगों की बचत और वित्तीय सुरक्षा भी बढ़ेगी। इस योजना के तहत जिनके पास आधार कार्ड या कोई अन्य पहचान नहीं है, उसका पहचान पत्र बनाया जाएगा। किसानों आम जनता और अन्य ग्रामीण लोगों के लिए कृषि जैसे अन्य कारणों के लिए लोन लेना सरल हो जाएगा। भारत में नकद धन का कम प्रयोग होगा, जिससे काले धन पर नियंत्रण लगेगा और सरकार का खर्च भी बच जाएगा, इसके साथ-साथ आमदनी भी बढ़ेगी। इस योजना के तहत छ: महीने तक संतोषजनक परिचालन के बाद ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी दी जाएगी। इस योजना के अंतर्गत ग्रामीण लोग भी वित्तीय सुविधाओं; जैसे- इंश्योरेंस, वाहन लोन, गृह लोन, फसल बीमा आदि से जुड़ सकेंगे। हर परिवार की महिला के लिए केवल एक खाते में 5000 रुपए तक की ओवरड्राफ्ट की सुविधा उपलब्ध है। प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत 30000 रुपए तक का जीवन बीमा व्यक्ति को उसकी मृत्यु पर सामान्य शर्तों की प्रतिपूर्ति पर ही देय होगा।
प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खाता धारकों को 30000 रूपए की न्यूनतम राशि का जीवन बीमा दिया जाएगा, इसके साथ लाख का एक्सीडेंटल बीमा भी दिया जायेगा। गरीब लोगों को आपत्ति के समय पैसे के लिए साहूकार पर निर्भर होना पड़ता है, जिस कारण साहूकार उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर उनसे मनचाहा ब्याज लेते हैं और गरीब कभी उस कर्ज से मुक्त नहीं हो पाता है। लेकिन प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खाता धारी छह महीने के अन्तराल में 5000 रूपए की राशि को सीधे बैंक से लोन के रूप में प्राप्त कर सकता है। अन्य बचत खाते के लिए खाताधारी को कुछ राशि बैंक खाते में जमा करवाना अनिवार्य होता है, यह राशि खाताधारी की ही होती है। लेकिन गरीबों की स्थिति को ध्यान रखकर प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत खाते बिना किसी राशि के खोले जा रहे हैं, जिन्हें जीरो बैलेंस सुविधा कहा जाता है।
> खण्ड – ख

4. जल संरक्षण के लिए नदी संयोजन आज की मांग

> पर्यावरण
पृथ्वी पूरे ब्रह्माण्ड का एकमात्र ऐसा ग्रह है, जहाँ पानी और जीवन आज की तारीख तक मौजूद है। इसलिये हमें अपने जीवन में जल के महत्व को दरकिनार नहीं करना चाहिये और सभी मुमकिन माध्यमों के प्रयोग से जल को बचाने की पूरी कोशिश करनी चाहिये । पृथ्वी लगभग 71% जल से घिरी हुई है हालांकि, पीने के लायक बहुत कम पानी है। पानी को संतुलित करने का प्राकृतिक चक्र स्वतः ही चलता रहता है; जैसे- वर्षा और वाष्पीकरण। हालांकि, धरती पर समस्या पानी की सुरक्षा और उसे पीने लायक बनाने की है जोकि बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध है। जल संरक्षण लोगों की अच्छी आदत से संभव है।
धरती पर जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये जल का संरक्षण और बचाव बहुत जरूरी होता है क्योंकि बिना जल के जीवन सभव नहीं है। पूरे ब्रह्माण्ड में एक अपवाद के रूप में धरती पर जीवन चक्र को जारी रखने में जल मदद करता है क्योंकि धरती इकलौता अकेला ऐसा ग्रह है, जहाँ पानी और जीवन मौजूद है।
जल संरक्षण का अर्थ पानी बर्बादी तथा प्रदूषण को रोकने से है। जल संरक्षण एक अनिवार्य आवश्यकता है क्योंकि वर्षाजल हर समय उपलब्ध नहीं रहता, अतः पानी की कमी को पूरा करने के लिये पानी का संरक्षण आवश्यक है। एक अनुमान के अनुसार विश्व में 350 मिलियन क्यूबिक मील पानी है। इसमें से 97 प्रतिशत भाग समुद्र से घिरा हुआ है।
वर्तमान समय में जल संरक्षण करना अति आवश्यक है क्योंकि जिस प्रकार से जल का दोहन हो रहा है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाली पीढ़ी जल की बूंद बूंद के लिए तरस सकती है। वर्तमान समय में महाराष्ट्र, राजस्थान तथा अन्य क्षेत्र आज भी पानी की कमी से जूझ रहे हैं।
जल संरक्षण के वैसे तो अनेक उपाय हैं परंतु वर्तमान समय में नदी का संयोजन एक महत्वपूर्ण उपाय है जिसके माध्यम से लाखों लोगों तक शुद्ध जल पहुंचा जा सकता है। इससे कई क्षेत्रों में सूखे की समस्या का समाधान हो सकता है ।
हाल के कुछ दिनों में बिहार, बंगाल, असम, राजस्थान जैसे राज्यों को भीषण बाढ़ से दो-चार होना पड़ा था। नदियों में जलीय अधिशेष को कम करने से बाढ़ से बचाव हो सकता है और इस अधिशेष को उपयुक्त जगह पहुँचाकर सूखे की समस्या से भी निजात पाई जा सकती है। यही कारण है कि कई दशकों से नदी जोड़ो परियोजना को अमल में लाने की बात होती रही है।
इस नदी जोड़ो परियोजना को बाढ़ और सूखे के हालातों का सामना करने के लिये उपयुक्त माना जा रहा है। नदी जोड़ो परियोजना एक ओर जहाँ संभावनाओं का द्वार खोल सकती है, वहीं दूसरी तरफ यह एक दिवास्वप्न भी साबित हो सकती है।
> नदी जोड़ो योजना के लाभ
1. इससे पीने के पानी की समस्या दूर होगी।
2. आर्थिक समृद्धि आएगी और लाखों परिवारों की आर्थिक बदहाली दूर होगी।
3. नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकल सकता है।
4. सिंचित रकबे में वर्तमान के मुकाबले उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
5.जल ऊर्जा के रूप में सस्ती एवं स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
6. नहरों का विकास होगा।
7. नौवहन के विकास से परिवहन लागत में कमी आएगी।
8. टूरिस्ट स्पॉट में वृद्धि होगी।
9. बड़े पैमाने पर वनीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा।
साथ ही ग्रामीण जगत के भूमिहीन कृषि मजदूरों के लिये रोजगार के तमाम अवसर पैदा होंगे, जो आर्थिक विकास को एक नई दिशा प्रदान करेगी।
नदी जोड़ो परियोजना एक बड़ी चुनौती तो है ही, लेकिन साथ में यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जल संबंधित मुद्दों को हल करने का एक अवसर भी है। अतः इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है और यह गंभीरता उस हद तक जायज कही जा सकती है, जहाँ नुकसान कम लेकिन फायदे ज्यादा हों। दुनिया में जितना पानी उपलब्ध है उसका लगभग चार फीसद ही भारत के पास है। इतने से जल में ही भारत को अपनी आबादी, जो दुनिया की कुल आबादी का लगभग 17 फीसद है, की जल संबंधी जरूरतों को पूरा करने का भार है। फिर भी करोड़ों क्यूबिक क्यूसेक पानी हर साल बहकर समुद्र में बर्बाद हो जाता है। ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना वरदान साबित हो सकती है। हालाँकि जरूरी यह भी है कि इसे तब अमल में लाया जाए, जब विस्तृत अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित हो कि इससे पर्यावरण या जलीय जीवन के लिये कोई समस्या पैदा नहीं होगी।

5. दूरदर्शन अपसंस्कृति की अगुवाई कर रहा है 

> संस्कृति
जनसंचार अर्थात् मीडिया के तीन प्रमुख स्रोत हैं- समाचार पत्र, आकाशवाणी और दूरदर्शन । इन तीनों माध्यमों में ‘दूरदर्शन ही एकमात्र दृश्य माध्यम है, जो जनता के मन मस्तिष्क पर दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ जाता है।
आज दूरदर्शन जिस तरह कार्यक्रम पेश कर रहा है, उसने हमारे नैतिक मूल्यों, संस्कृति व समृद्धशाली परम्परा को कुचला है, उसका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है। पूँजीवादी और उपभोक्तावादी युग में हम कह सकते हैं कि दूरदर्शन भी व्यवसायीकरण से बच नहीं पाया है।
आज दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रमों में हिंसा, आतंक, पश्चिमी जीवन शैली को अपनाने की होड्, यही सब तो दर्शकों को आज देखने को मिलता है। इस तरह के कार्यक्रमों को उच्च वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग सभी काफी मजे लेकर देखते हैं। एक समय था जब दूरदर्शन से रामायण, महाभारत, विश्वामित्र, भारत एक खोज आदि जैसे धारावाहिकों का प्रसारण होता था तो सभी वर्गों के लोग उसे चाव से देखते थे, परन्तु आज हम दूरदर्शन के किसी भी कार्यक्रम के स्तर से इस तरह की उम्मीद नहीं कर सकते जो सम्पूर्ण जनमानस को बाँध सके, भले ही कितने नए-नए चौनल क्यों न आ गए। नित्य नए-नए चौनलों, केबल व डिश एंटीना व सेटेलाइट चौनल से बराबरी करने के लिए दूरदर्शन ने भी अपनी सोच बदल दी है।
एक समय था जब दूरदर्शन से प्रसारित धारावाहिक ‘हम लोग’ व ‘बुनियाद’ जैसे धारावाहिक सुपर हिट रहे थे। ये धारावाहिक आम जनता के लिए थे, जिसमें हर वर्ग के लिए मनोरंजन था, परन्तु आज के धारावाहिकों की स्थिति दूसरी है, आज के धारावाहिक वर्ग विशेष को प्रभावित कर रहे हैं, जिनकी शैली का पूर्णतया पश्चिमीकरण हो चुका है, जो पश्चिम के मानदण्डों को ही श्रेष्ठ मानते हैं। इन धारावाहिकों में समाज की सभी मान्यताओं को खुलेआम चुनौती दी जा रही है, ज्यादातर धारावाहिकों में नकारात्मक चरित्रों की संख्या बढ़ती जा रही है, ‘शान्ति’ धारावाहिक इसका ज्वलन्त उदाहरण है। पहले के धारावाहिकों में एक घोषित खलनायक या खलनायिका होते थे, जिनसे कभी भी किसी अच्छे काम की आशा नहीं की जा सकती थी, परन्तु अब धारावाहिकों में नायक खलनायक या नायिका–खलनायिका की दूरी ही समाप्त होती जा रही है। बहुत कम ऐसे चरित्र हैं जो सशक्त हैं। इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि कब धन व सत्ता के लिए दो दोस्त आपस में दुश्मन हो जाएंगे, बाप-बेटा एक-दूसरे के विरुद्ध अदालत में पहुँच जाएंगे या माँ-बेटी पीठ-से- पीठ सटाकर बात करने लगेंगी। इन धारावाहिकों में उभरने वाली नारी भी बहुत हठीली व महत्वाकांक्षी है।
टी.वी. पर उन्मुक्तता की आँधी के चलते यौन सम्बन्ध, विवाहेतर सम्बन्ध, समलैंगिकता जैसे विषय भी बाजार में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं।
पहले इस पर विरोध भी होता था, पर अब धारावाहिकों के माध्यम से खुले आम इस तरह के विषय दर्शकों तक पहुँच रहे हैं, अभी भी भारतीय समाज इसे पूरी तरह से अपनी स्वीकृति नहीं दे सका है। फिर भी जिस गति से उसे इन सब चीजों की घुट्टी पिलाई जा रही है, उस परिप्रेक्ष्य में वह दिन दूर नहीं जब वह ‘सब चलता है’ कहकर आम दर्शक इसे भी स्वीकार कर लेगा।
कहते हैं छोटा पर्दा जिंदगी का आइना प्रस्तुत करता है, ऐसे में उसके चरित्रों का नकारात्मक होते चले जाना एक गम्भीर संकेत है। सीमा में रहने पर ही हर चीज सही कही जा सकती है, परन्तु अब तो हिंसा, सेक्स, रोमांस, प्रतिशोध जैसी प्रवृत्तियों के खुले आम प्रदर्शन ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया है। प्रबुद्ध वर्ग तो अपने आप को सँभाल ले रहा है, पर इसका सबसे बुरा असर युवा वर्ग पर पड़ रहा है, इस तरह की जीवन शैली से बहुत प्रभावित हो रहा है।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि हमारे देश के बुद्धिजीवियों को भारतीय दूरदर्शन के समाजशास्त्र को न केवल गहनता से समझना होगा, वरन् उन्हें उसकी भूमिका को समाजोपयोगी बनाने की दिशा में भी प्रयत्नशील बनना होगा। यदि हमने समय रहते अपनी प्रभावी राष्ट्रीय सांस्कृतिक नीति का निर्माण व कार्यान्वयन नहीं किया तो अवश्य ही हमारे राष्ट्रीय समाज को तीव्र ‘नैतिक प्रदूषण’, ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के पतनशील दौर से गुजरना होगा परिणाम यह निकलेगा कि विश्व समुदाय में भारतवर्ष अपनी सांस्कृतिक पहचान गँवा देगा। आचार्य तुलसी के शब्दों में “दूरदर्शन जीवन में जहर घोल रहा है। माँ के गर्भ में ही बच्चे कुसंस्कारों का शिकार हो रहे हैं। “
अतः जरूरत है दूरदर्शन ऐसे कार्यक्रम बनाए जो मनोरंजक, ज्ञानवर्धक हों साथ ही साथ भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत हों, तभी दूरदर्शन की महत्ता सही मायने में निखर कर सामने आएगी।

6. द्विखण्डी व्यक्तित्व में बंटी नारी

> समाज
वस्तुतः स्त्री प्रकृति की अनुपम कृति है, सुन्दर भी और जटिल भी । नारीजाति के प्रति में है, स्त्री – जीवन जीना अपने आप में एक चुनौती है।
प्रकृति ने स्त्री के साथ जो किया है और समाज उसके साथ जैसा व्यवहार करता आ रहा है, उसके मद्देनजर औरत की जिन्दगी त्रासदी, संघर्ष और पीड़ा से भरी है। कुछ विशेष हार्मोन्स की वजह से स्त्री की शारीरिक और मानसिक बनावट पुरूष से निश्चित ही भिन्न है। औरत पर प्रकृति और पुरूष की दोहरी मार है, जो पुरुष को नहीं सहना पड़ता है।
स्त्री को विशेष अंगों का अतिरिक्त भार उठाना पड़ता है और यथासंभव उन्हें दूसरे की नजरों से बचाना होता है । मासिक धर्म के समय हर माह होने वाले कष्ट और असुविधा को पुरूष क्या जाने । स्त्री को नौ माह तक शिशु को अपनी कोख में रखना होता है।
उस अवधि की मानसिक और दैहिक स्थिति को केवल एक औरत ही जानती है। भयानक प्रसव पीड़ा से भी उसे ही गुजरना होता है। फिर शिशु की देखभाल, स्तनपान, हर बीमारी में रात-रात जागना सब औरत के खाते में है।
निम्न मध्यम वर्ग परिवार में घर का अधिकांश कामकाज भी उसी के जिम्मे है। उसे पति को खुश भी रखना होता है चाहे वह किसी स्थिति में क्यों न हो। स्त्री को ही दो दशक तक अपने माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, के साथ बिताने के बाद घर परिवार और बचपन की यादों को दरकिनार कर एक नए घर में, नितांत नए लोगों के बीच जाना पड़ता है। लम्बी यादों की परम्परा और जुड़ाव से विमुक्त होने की पीड़ा को एक युवती ही जानती है। पुरूष व्यक्तित्व को इस विभाजन से कभी नहीं गुजरना पड़ता । शरीर और श्रम दोनों से स्त्री का शोषण होता है।
कहा जा सकता है कि माँ बनना कुदरत की बड़ी नियामत है, लेकिन माँ बनने के क्रम में औरत को जो झेलना – भोगना पड़ता है, क्या उसका सही-सही अनुमान पुरूष को है ? जिस द्विखंडित व्यक्तित्व को औरत जीती है, क्या उसका अहसास पुरूष को है? मुस्कान के पीछे तूफान का भान उसे है? समाज भी स्त्री को चैन से नहीं जीने देता। राह चलती सुन्दर स्त्री को कैसी-कैसी अश्लील फब्तियों और कामुक निगाहों का सामना करना पड़ता है। लोग उसे गिद्ध-दृष्टि से देखते हैं।
औरत के अकेले होने की बात भी नहीं रही। सरेआम बलात्कार हो रहे हैं। लोगों ने सारी शर्म-हया गिरवी रख दी है। अमानवीय कृत्य कर तनिक लज्जा नहीं आती। युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही युवती में होने वाले दैहिक परिवर्तनों और मन में उठते तूफानों और पल्लवित होते सपनों को केवल वही जानती है। उस समय की उसकी मनोदशा को विश्लेषित कर पाना आसान नहीं है। आभा बिखेरते अपने रूप-सौंदर्य और दिन पर दिन निखरती देह-यष्टि को संभालना उसके लिए मुश्किल है।
अतीत में जाएँ तो मनु महाराज ने तो यहाँ तक कह दिया था कि स्त्री को स्वाधीन नहीं रखना चाहिए। ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवन पुत्रस्तु सहिविरें भावे, न स्त्री स्वातंन्य मर्हति’ । अर्थात् स्त्री के बाल्यकाल में पिता के संरक्षण में, युवावस्था में पति के संरक्षण में तथा पति की मृत्यु के पश्चात बेटे के संरक्षण में रहना चाहिए । लगता है जैसे स्त्री का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं है।
आज औरत की दुनिया बदल रही है। नारी चेतना का विकास हुआ है। कई क्षेत्रों में वह पुरूष के कंधे से कंधे मिलाकर काम कर रही है। अंतरिक्ष में उड़ान भर रही है। शिक्षा, साहित्य और कला के क्षेत्र में नई ऊचाइयों छू रही हैं।
जरूरत इस बात की है कि स्त्री शिक्षित, विवेकी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बने। विरोध प्रतियोगी भाव से नहीं, मैत्री भाव से हो अन्यथा आवेशपूर्ण विरोध संघर्ष को गलत मोड़ दे सकता है। सवाल यह नहीं है कि स्त्री-पुरुष के लिए जिये, बल्कि पुरूष के साथ जिये। बराबरी से जिये। सम्मान के साथ जियें।
खण्ड – ग

7. बढ़ती क्षेत्रीयता और राष्ट्रीय एकता

> राष्ट्रवाद
भारतीय संविधान में सामाजिक समानता को मैलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी , और नेहरू जैसे स्वनामधन्य नीति प्रवर्तकों ने संविधान निर्माण के दौरान इस व्यवस्था का इस आधार पर पक्ष किया था कि संविधानिक स्वरूप प्राप्त कर लेने के बाद देश की सामाजिक व्यवस्था को क्षेत्रवाद से मुक्त होने का खुला अवसर प्राप्त होगा तथा देश में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव होगा जिससे सभी एक समान होंगे तथा साम्प्रदायिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय आधार पर उनमें विभेद नहीं होगा। संविधान के प्रवर्तन के इतने वर्षों बाद भी यह प्रश्न आज भी हमें उद्वेलित कर रहा है कि समता पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बावजूद भारत के राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक जीवन में भी क्षेत्रीय भेदभाव उसी तरह विद्यमान है, जिस तरह वह स्वतंत्रता पूर्व था।
क्षेत्रवाद की समस्या आज की समस्या नहीं है, स्वतंत्रता के पूर्व भी यह समस्या थी, किन्तु तब यह अंग्रेजों द्वारा प्रेरित थी जिसके पीछे उनकी ‘बांटों और राज करो’ की नीति थी । संविध ान में इस दुष्प्रवृत्ति को समाप्त करने के ध्येय से भारत को ‘राज्यों का संघ’ निरूपित किया गया। एकल नागरिकता, एकीकृत न्यायपालिका, शक्तिशाली केन्द्र, एकीकृत अखिल भारतीय सेवा जैसी व्यवस्था कर क्षेत्रीयता को समाप्त करने का हर संभव प्रयास किया गया, किन्तु स्वतंत्रता के बाद से प्राय: भारत में क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का तीव्र गति से विकास होता गया। स्थानीय स्तर के नेता अपनी भूमिका को बनाए रखने के लिए इस तरह की प्रवृत्तियों का पोषण करने में लगे हैं। यह भी कहा जा सकता है कि अंग्रेजो की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को अब हमारे राजनेताओं ने अपना लिया है।
साधारणतया क्षेत्रवाद या क्षेत्रीयता कोई नकारात्मक प्रवृत्ति नहीं है। अपने धर्म, संस्कृति, अपनी परम्पराओं अपने क्षेत्र से प्रेम करना एक अच्छी प्रवृत्ति है और इसके सकारात्मक प्रभाव ही होते हैं। इसमें बुराइयाँ तब पैदा हो जाती हैं, जब हम क्षेत्रवाद को राष्ट्रवाद से ऊपर स्थान देने लगते हैं। क्षेत्रवाद वास्तव में एक समाजशास्त्री अवधारणा है जिसे विभिन्न सामाजिक हितों की अभिव्यक्ति की धुरी कहा जा सकता है। एक क्षेत्र विशेष के लोगों द्वारा अपने क्षेत्र के लोगों के प्रति भावात्मक एकता होना स्वाभाविक लक्षण है, किन्तु इस स्वाभाविक प्रकृति में जब संकीर्णता आने लगती है तथा व्यक्ति अपने क्षेत्र के हितों के प्रति इतना अधिक संकेन्द्रित हो जाता है कि वह राष्ट्रवाद की भावना का परित्याग कर देता है। यह प्रवृत्ति देश की एकता एवं अखण्डता के लिए घातक होती है तथा देश की सांविधानिक प्रणालियों पर कठाराघात है।
क्षेत्रीयवाद के अनेकानेक कारण हैं। हमारे देश में कोई एक राज्य या क्षेत्र नहीं बल्कि पूरा देश क्षेत्रीयवाद से प्रभावित है। इसी क्षेत्रीयतावाद के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजनीतिक दलों तथा संगठनों का उदय हुआ है। क्षेत्रवाद की संकीर्ण मानसिकता के साथ अस्तित्व में आए इन संगठनों ने सदैव क्षेत्रवाद को हवा देकर राष्ट्रवाद की भावना को क्षति पहुंचाने का काम किया और अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया।
क्षेत्रवादी प्रवृत्तियों के कारण देश में अनेक समस्याएं उभरती हैं। इस प्रवृत्ति ने देश को धर्म, भाषा, जाति, सम्प्रदाय तथा क्षेत्र के आधार पर बांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज के युग में किसी एक स्थान पर रहकर कोई भी वर्ग विकास की कल्पना नहीं कर सकता है। भारतीय संविधान नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में रह कर आजीविका प्राप्त करने का अवसर देता है, किन्तु क्षेत्रीयवाद इसमें आड़े आता है। महाराष्ट्र इसका उदाहरण है जहाँ गैर मराठियों को इस आधार पर महाराष्ट्र से बाहर भगाया गया है कि वे वहाँ के मूल निवासी नहीं हैं। इससे एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या, द्वेष की भावना पनपती है।
क्षेत्रीयवाद को रोकना तथा इस प्रवृत्ति पर लगाम लगाना हमारे लिए आज सबसे बड़ी चुनौती है। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की सदढता के लिए आवश्यक है कि उसकी एकता और अखण्डता पर आंच न आए। इसके लिए हमारे राजनेताओं को आगे आना होगा।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट के लिए क्षेत्रीयतावाद एक विष है जो धीरे-धीरे राष्ट को खोखला कर देता है। भारत एक विशाल देश है और यहाँ सामाजिक और सांस्कृतिक विभिन्नता अन्य किसी देश की अपेक्षा बहुत अधिक है, किन्तु हम विविधता में एकता के पक्षधर हैं और यही हमारे देश की विशेषता है। हमें यह सदैव ध्यान रखना होगा कि हम भारतीय पहले हैं तथा मराठी, पंजाबी, राजस्थानी, असमी, बंगाली बाद में। देश की संप्रभुता एकता और अखण्डता का हमें सम्मान करना चाहिए और इसके लिए हमें उन ताकतों को जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा जो सिर्फ अपनी राजनीति को चमकाने के लिए क्षेत्रवाद का विष रूपी वृक्ष रोपते हैं। क्षेत्रीयतावाद की भावना एक क्षेत्र विशेष के लोगों को विकास और उन्नति के लिए प्रेरित करती है, किन्तु यह तब घातक हो जाती है जब यह राष्ट्रवाद से स्पर्धा करने लगती है।

8. बेरोजगारी निवारण में शिक्षा की भूमिका

> शिक्षा
घर की दीवार भी अब टूटकर मुँह चिढ़ा रही,
बेरोजगारी के जश्न में सबको शरीक होना था। 
बेरोजगारी के दर्द को बयाँ करती ये पंक्तियाँ बोल रही हों जैसे कि अब तो घर की दीवारों को भी इंतजार है, अगली पीढ़ी के रोजगार का । बेरोजगारी आज भारत की ही नहीं वरन् विश्व की सबसे बड़ी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं में से एक है। भारत में इस समय करोड़ों लोग बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं। कार्य अनुभव तथा आय के निश्चित क्षेत्र की अनुपस्थिति निर्धनता को जन्म देती है तथा इसके बाद निर्धनता व बेरोजगारी का यह दुश्चक्र सदा चलता रहता है। बेहतर अवसरों की तलाश में युवा गाँव, प्रदेश अथव देश से पलायन करते रहते हैं। ऐसे पलायन के फलस्वरूप उनका शोषण किये जाने का संकट बना रहता है। बेरोजगारी की अधिकता से उनका शोषण किये जाने का संकर बना रहता है। बेरोजगारी की अधिकता राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रगति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है।
बेरोजगारी से आशय है कि अपनी शिक्षा के अनुसार व्यक्ति के पास अपने भरण-पोषण के लिए कार्य न हो या फिर ऐसा व्यक्ति जिसका कार्य मौसम बदलने के साथ ही समाप्त हो गया हो बेरोजगार कहलाता है। किसी भी देश के विकास के लिए रोजगार होना अति आवश्यक है। भारत में लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं होने के कारण वे पूर्ण रूप से खाली बैठे रहते हैं। इसलिए उनका शिक्षित होना और अपने कार्यों को करना आवश्यक है ताकि उन्हें रोजगार मिल सके।
युवाओं में बेरोजगारी का मूल कारण अशिक्षा तथा रोजगारपरक कौशल की कमी है। बेरोजगारी व निर्धनता के निवारण का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा ही है। शिक्षा व्यापक अर्थों में लगभग हर सामाजिक-आर्थिक समस्या का समाधान बन सकती है, परंतु बेरोजगारी निवारण में इसकी भूमिका अतुलनीय है। यदि भारत में शिक्षा तंत्र को जड़ से लेकर उच्चतम स्तर तक सशक्त बना दिया जाए तो बेरोजगारी की समस्या का हल ढूँढ़ना बेहद आसान हो जाएगा। यह ध्यान देने योग्य है कि प्राथमिक स्तर पर अवधारणा विकास त्या उच्च स्तरों पर रोजगारपक कौशल विकास आधारित शिक्षा तंत्र को विकसित किया जाए) शिक्षा बेरोजगारी दूर करने का लगभग अकेला माध्यम है, परंतु यह भी सुनिश्चित व विनियमित किया जाना आवश्यक है कि कितने लोगों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान की जा रही है तथा शिक्षा प्राप्ति के बाद उनकी रोजगार तक पहुँच सुनिश्चित हो पाती है या नहीं। शिक्षित बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होने पर यह स्थिति राष्ट्र व अर्थव्यवस्था के लिये अच्छी नहीं मानी जाती। भारत वर्तमान में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या से ग्रस्त है। ऐसे में आगे बढ़ने के लिये अशिक्षितों को शिक्षा तथा शिक्षितों को उनकी क्षमता के अनुरूप रोजगार दिलाने हेतु पर्याप्त प्रयास किये जाने चाहिये।
वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप कैसा हो तथा आधारभूत संरचनात्मक संसाधनों की प्रकृति कैसी हो? यह एक विवाद का विषय है। देखा जाता है कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में कक्षा पाँच के छात्रों के पास न्यूनतम सामान्य ज्ञान भी नहीं होता। इस तरह से प्राथमिक स्तर पर ही असमान शिक्षा प्रणाली दो भिन्न मानसिक स्वा एवं योग्यता वाले छात्रों को जन्म देती है, जिन्हें रोजगार प्राप्त करने हेतु भविष्य में एक ही प्रतियोगी परीक्षा में प्रतिस्पद्धी बनना पड़ता है। सरकारी हाईस्कूल व इंटर कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम व उनमें पढ़ाने वाले अध्यापकों की योग्यता भी वर्तमान समय की मांग अनुरूप नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सीबीएसई व आईएससी जैसे केंद्रीय बोडों से निकलने वाले छात्र अपेक्षित रूप से राज्य बोर्ड के छात्रों से कुशल व भिन्न सोच वाले होते हैं। इस तरह माध्यमिक स्तर पर भी असमान प्रतिभा व योग्यता वाले छात्रों का एक वर्ग तैयार हो जाता है।
ऐसे में आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक एक समान शिक्षा प्रणाली लागू की जाए। स्कूलों के विभिन्न स्तरों को समाप्त कर एक समान स्कूल प्रणाली अगर लागू कर दी जाए तो गरीब व अमीर परिवार दोनों के बच्चों की मानसिक योग्यता एक प्रकार की होगी। शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के लिये निरंतर मूल्यांकन प्रक्रिया का होना बहुत आवश्यक है। इसके अलावा शिक्षा संस्थानों को अत्याधुनिक संसाधनां जैसेकंप्यूटर, प्रोजेक्टर, वाई-फाई अरि सुविधाओं से भी सुसज्जित होना चाहिये। हम पाते हैं कि शिक्षा समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम एक अस्त्र है, उसे कारगर बनाने हेतु उसका कुशल संचालन तथा लक्ष्य तय करना आवश्यक है। शिक्षा को रोजगार से जोड़कर बेरोजगारी एवं अन्य कई सामाजिक – आर्थिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।

9. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका 

> कृषि
कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का आधारभूत स्तंभ है । यह क्षेत्र न केवल भारत की जीडीपी में लगभग 15% का योगदान करता है, बल्कि भारत की लगभग आधी जनसंख्या रोजगार के लिये कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। यह क्षेत्र द्वितीयक उद्योगों के लिये प्राथमिक
उत्पाद भी उपलब्ध करवाता है।
1950-51 की बात करें तो उस वक्त भारत की कुल राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 61% था। वर्षों बाद वर्तमान की बात करें तो 2021-22 में देश की राष्ट्रीय आय में कृषि योगदान 20.19 प्रतिशत हैं। हालांकि आपको यह आंकड़े घटते हुए दिख रहे हैं। इसका कारण द्वितीय और तृतीय क्षेत्र में वृद्धि होना हैं। दूसरे देशों की तुलना में कृषि का योगदान देखे तो कई यूरोपीय देशों और अमेरिका में जीडीपी में कृषि का योगदान 1% तक ही है। क्योंकि कृषि राष्ट्रीय आय में बड़ी भूमिका निभाती है, इसलिए कृषि की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
2021-22 के आंकड़ों की तुलना अगर 1950 से करे तो जनसंख्या में लगभग 3 गुना वृद्धि हुई है। इसी के अनुरूप अगर 1950 और वर्तमान 2021-22 की कृषि की तुलना करें तो कृषि उपज में 4 गुना बढ़ोतरी हुई है। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि भारतीय कृषि की उपज पूरे भारत की जनसंख्या अर्थात 141 करोड़ की आबादी का पेट भरने में काबिलियत है ।
⇒ क्या आप सोच पा रहे हैं कि यह सब कैसे संभव हुआ ?
दरअसल एम. एस. स्वामीनाथन के 1960 की हरित क्रांति से उपज में बढ़ोतरी हुई है। इसी का प्रमाण है कि कृषि से पूरे भारत का पेट भरा जा सकता है। 1950-51 की बात करें तो प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन 395 ग्राम मिलता था। आज (2022) में 3 गुना जनसंख्या की वृद्धि के बाद प्रति व्यक्ति को 437 ग्राम अनाज उपलब्ध करवा रहे हैं,
किंतु वर्तमान समय में भारतीय कृषि क्षेत्र कई समस्याओं से जूझ रहा है। सिंचाई संबंधी सुविधाओं के अभाव के कारण मानसून पर निर्भरता, कृषि तथा किसानों की आय में कमी, छोटे एवं सीमांत जोत की समस्या, बाजार एवं अवसंरचना की अनुपलब्धता, प्रौद्योगिकी तथा तकनीक का अभाव, व्यावसायिक भावना का अभाव, जलवायु परिवर्तन तथा रासायनिक खादों के प्रयोग के कारण धारणीय कृषि से संबंधित समस्या भारतीय कृषि क्षेत्र में देखी जा सकती है।
प्रगति के सुनहरे अतीत पर खड़ा भारतीय कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में सदैव ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। भारत में विश्व का 10वाँ सबसे बड़ा कृषि योग्य भू-संसाधन मौजूद है। वर्ष 2011 की कृषि जनगणना के अनुसार, देश की कुल जनसंख्या का 61.5 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण भारत में निवास करता है और कृषि निर्भर है। उक्त तथ्य भारत में कृषि के महत्त्व को भलीभांति स्पष्ट करते हैं। वर्ष 2019 में देश के कृषि क्षेत्र में कई प्रकार के हस्तक्षेप और व्यवधान देखे गए। वर्ष 2019 के पहले हिस्से में 75000 करोड़ रुपए के रिकॉर्ड निवेश के साथ प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की शुरुआत की गई। हालाँकि वर्ष 2019 का दूसरा हिस्सा इस क्षेत्र के लिये आपदा के रूप में सामने आया और देश के कई हिस्सों में सूखे और बाढ़ की घटनाएँ देखी गई। इसके अलावा आर्थिक मंदी और सब्जियों खासकर प्याज तथा दालों की कीमतों में वृद्धि ने उपभोक्ताओं पर बोझ को और अधिक बढ़ा दिया। यह स्थिति मुख्यतः दो तथ्यों को स्पष्ट करती है:
• लोकलुभावन उपायों और प्रयासों का अर्थव्यवस्था पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ रहा है, और
• जलवायु प्रेरित आपदाओं की भेद्यता को कम करने के कई उपायों के बावजूद कृषि क्षेत्र और किसानों को नुकसान हो रहा है।
कृषि से संबंधित बाजार की समस्या के समाधान के लिये 585 मंडियों को ई-नैम योजना के तहत एकीकृत करने की बात की गई है, इसके अलावा 22,000 ग्रामीण मंडियों को ग्रामीण कृषि बाजारों के रूप में विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। क्षेत्र में अवसंरचना विकास हेतु दो करोड़ रूपए की निधि के साथ एक कृषि बाजार अवसंरचना कोष की स्थापना की जाएगी। इसके अलावा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना चरण-3 के द्वारा गाँवों को सभी मौसम में प्रयोग लाई जाने वाली सड़कों से जोड़ने पर भी बल दिया जा रहा है।
कृषि क्षेत्र में उद्यमिता को बढ़ाने के लिये भी महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गए हैं। मेगा फूड पार्कों के अलावा कृषि उत्पादों के लिये प्रसिद्ध जिलों को क्लस्टर के रूप में विकसित किये जाने की योजना है। इसके अलावा किसान उत्पादक संगठन और कृषि संभार तंत्र तथा प्रसंस्करण सुविधा एवं व्यावसायिक प्रबंधन को अपनाने के लिये ‘ऑपरेशन फ्लड की तर्ज पर ‘ऑपरेशन ग्रीन्स’ को शुरू करने का निर्णय लिया गया है।
कृषि क्षेत्र में छिपी बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिये कृषि संबंधित लघु एवं कुटीर उद्योग के विकास पर बल दिया गया है। इसके तहत मत्स्यिकी एवं पशुपालन से किसानों को क्रेडिट कार्ड की सुविधा प्रदान करने की बात की गई।
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