राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के सामाजिक और आर्थिक चिन्तन की व्याख्या कीजिए।

राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के सामाजिक और आर्थिक चिन्तन की व्याख्या कीजिए।

(65वीं BPSC/2020 )
लोहिया एवं जयप्रकाश के सामाजिक, आर्थिक स्तर पर उनके बुनियादी सोच को उद्घाटित करें।
अथवा
लोहिया के सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए उनके द्वारा सुझाए गए उपायों का उल्लेख करें।
उत्तर – राम मनोहर लोहिया और उनका समाजवाद
राजनीतिक अधिकारों के पक्षधर रहे डॉ. लोहिया ऐसी समाजवादी व्यवस्था चाहते थे जिसमें सभी की बराबर की हिस्सेदारी रहे। वह कहते थे कि सार्वजनिक धन समेत किसी भी प्रकार की संपत्ति प्रत्येक नागरिक के लिए होनी चाहिए। उन्होंने एक ऐसी टीम खड़ी की जिससे समाजवादी आंदोलन का असर लंबे समय तक महसूस किया जाए। डॉ. लोहिया रिक्शे की सवारी नहीं करते थे। वे कहते थे “एक आदमी एक आदमी को खींचे यह अमानवीय है । “
डॉ. राम मनोहर लोहिया का पूरा जीवन सादगी भरा रहा। गरीबी अमीरी की बढ़ती खाई को पाटने में उनके योगदान अहम हैं। आज के दौर में उनके विचार और ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं। डॉ. लोहिया ने एक बार कहा था कि “जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं “। यह सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है और जब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रहेगी, प्रासंगिक बना रहेगा। उन्होंने जोर दिया था कि यह व्यवस्था (राइट टू रिकॉल) संविधान संशोधन कर लागू की जाए। कुछ साल पहले अन्ना के आंदोलन के समय एक शब्द काफी चर्चा में था और वह था “ राइट टू रिकॉल”। लेकिन इस सिद्धांत को कभी राम मनोहर लोहिया ने भी देश को अपनाने पर जोर दिया था।
जयप्रकाश नारायण और उनका समाजवाद – जयप्रकाश नारायण भी महात्मा गांधी और बिनोबा भावे की तरह ‘सर्वोदय’ के चरम लक्ष्य में विश्वास करते थे। सर्वोदय से उनका अभिप्राय सभी लोगों के जीवन के सभी क्षेत्रों में कल्याण से था। सर्वोदय शब्द जॉन रस्किन की पुस्तक ‘Unto The Last’ से महात्मा गांधी ने लिया था। इस पुस्तक का सार है- “सबकी भलाई में ही अपनी भलाई है।” महात्मा गांधी और बिनोबा भावे के सर्वोदय से संबंधित विचारों को स्वीकारते हुए जयप्रकाश नारायण ने भी सबके कल्याण पर बल दिया। वे समाज के हर वर्ग का जीवन स्तर अच्छा बनाना चाहते थे। वे भारतीय समाज में समग्र क्रान्ति लाना चाहते थे ताकि भारतीय समाज का आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास हो सके। जयप्रकाश नारायण ने कहा है- “सर्वोदय योजना कोई भावुकता प्रधान योजना न होकर सामाजिक क्रान्ति का एक सुझा जयप्रकाश नारायण का मानना था कि शांतिपूर्ण व नैतिक साधनों द्वारा देश में सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति लाई जा सकती है। इसलिए उन्होंने लोगों को भूदान, ग्रामदान और सम्पत्ति दान के लिए प्रेरित किया। उनका ध्येय सर्वोदय समाज की स्थापना करना था। उन्होंने सर्वोदय समाज में दलीय राजनीति को कोई महत्व नहीं दिया । सर्वोदय आन्दोलन की सफलता के लिए उन्होंने नैतिक साधनों पर जोर दिया। उनका कहना था कि “सर्वोदयी समाज में न केवल न्याय व समता के अवसर प्राप्त होंगे बल्कि एक ऐसी जनतंत्रीय व्यवस्था भी होगी जो व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आधारित होगी और व्यक्ति अपनी शासन व्यवस्था का स्वयं निर्माण करेगा। यह व्यवस्था विकेन्द्रीकृत होगी, जिसमें ज्यादा सत्ता व संसाधन ग्राम सभा के पास होंगे। “
उनका विचार था कि उद्योगों के राष्ट्रीयकरण मात्र से ही समाजवाद की स्थापना सम्भव नहीं है। इससे नौकरशाही के हाथ मजबूत होते हैं तथा केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है। इसी तरह बड़े स्तर के उद्योग भी आर्थिक विषमता को बढ़ावा देते हैं, कम नहीं करते। इसलिए उन्होंने विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया और छोटे-छोटे उद्योगों को आर्थिक विषमता दूर करने में सहायक बताया। उन्होंने कृषि के क्षेत्र में भी समाजवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया कि भूमि का स्वामित्व जोतने वालों के हाथ में में हो, जमींदारी प्रथा को समाप्त किया जाए तथा सहकारी कृषि को बढ़ावा दिया जाए। इसके अतिरिक्त सहकारी ऋण तथा बाजार व्यवस्था आदि के माध्यम से किसानों को साहूकारों व व्यापारियों के शोषण से मुक्त किया जाए।
लोहिया के आर्थिक विचार- आजाद भारत ने आर्थिक विकास की जो नीति अपनायी, डॉ. लोहिया उसके विरोधी थे। उन्होंने यहां तक कहा था कि हिंदुस्तान नया औद्योगिक नहीं प्राप्त कर रहा है, बल्कि यूरोप और अमेरिका की रद्दी मशीनों का अजायबघर बन रहा है। पश्चिम की नकल करके जिस उद्योगीकरण का इंतजाम हुआ है उससे न तो देश में सही औद्योगिक नींव पड़ सकती है, और न ही अर्थव्यवस्था में आंतरिक शक्ति और स्फूर्ति आ सकती है। सही उद्योगीकरण उसको कहते हैं जिसमें राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने के साथ गरीबी का उन्मूलन होता जाता है। नकली उद्योगीकरण में असमानता और फिजूलखर्ची के कारण गरीबी भी बढ़ती जाती है। पूंजी निवेश की बढ़ती मात्रा, साधनों पर सरकारी स्वामित्व और विकास के लिए संभ्रांत वर्ग की अगुआई, भारत के पुनरुत्थान के लिए पर्याप्त शर्त नहीं हैं। विकेंद्रित अर्थव्यवस्था, प्रौद्योगिकी का नया स्वरूप और वैकल्पिक मानसिक रुझान से ही तीसरी दुनिया पूंजीवाद और साम्यवाद से बचते हुए आर्थिक विकास का रास्ता तय कर सकती है। आर्थिक सैद्धांतिक रूप से डॉ. लोहिया की नीति एक वैकल्पिक विकास पद्धति की रूपरेखा है। यदि भारत में डॉ. लोहिया की – आर्थिक नीति का प्रयोग होता तो देश की आर्थिक व्यवस्था में आंतरिक स्फूर्ति आती, जिससे यहां का विकास तेज होता, राष्ट्रीयता गतिशील होती और यह प्रयोग दूसरे विकासशील देशों के लिए उदाहरण बनता। लोहिया की आर्थिक विकास नीति एक वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक सिद्धांत की खोजी नीति है। इसका आधार छोटी मशीन, विकेंद्रित व्यवस्था और सरल जीवनशैली है। इसका लक्ष्य ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जो लोगों में स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को सुदृढ़ बना सके। यह सिर्फ गांधीवादी ही कर सकता है। लेकिन सरकारी गांधीवादी नहीं जो गांधी को सत्ता प्राप्ति के लिए बाजार में बेचता है। मठी गांधीवादी भी नहीं जो पूंजीवादी व्यवस्था के रहते भी चैन से सो सकता है। यह सिर्फ कुजात गांधीवादी ही कर सकता है जो पूंजीवाद से अनवरत लड़ने की इच्छा शक्ति रखता है और जो करुणा और क्रोध भरे दिलो-दिमाग से हिंसा का प्रतिकार मात्र अहिंसा के लिए नहीं बल्कि समता, संपन्नता और न्याय के लिए करता है।
जयप्रकाश नारायण के आर्थिक विचार – हमारे देश के आर्थिक विकास की ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो सबसे पिछड़े लोगों की ओर सबसे पहले ध्यान दे। सबसे पहले किनारे या किनारे पड़ गए या पिछड़े रह गए लोगों से शुरूआत करना जरूरी है। आज के विकास की प्रचलित विचारधारा इस प्रश्न की एकदम उपेक्षा करती है ।
वर्तमान उद्योगवाद-फिर वह भले ही पूंजीवादी हो, समाजवादी या कम्यूनिस्ट हो – इन सबने भौतिकवादी प्रवृति को बढावा दे रखी है, उसके साथ लोकिंत्र का मेल नहीं खाता। दोनों साथ नहीं चल सकते। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि यह मनुष्य की वास्तविक जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता और इससे स्वशासन एवं स्वतंत्रता की चाहत को कभी पूरा नहीं किया जा सकता। उपरोक्त राजनीतिक विचारों का अध्ययन करने के बाद कहा जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण एक राजनीतिक दार्शनिक होने के साथ-साथ एक सामाजिक दार्शनिक भी थे। उनका आदर्श भारतीय समाज का पुनर्निर्माण करना था। उन्होंने जीवनभर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन लाने का प्रयास किया।
लोहिया और जयप्रकाश में वैचारिक समानता – राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण एक ही रेल के दो पटरी थे। शायद इन दोनों शख्सियतों से बड़ा समाजवादी नेता भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुआ। दोनों ही नेता गांधीजी के कदमों पर चलने वाले शीर्ष नेता थे जो कभी आजादी से पहले अंग्रेजों से लोहा लेते हुए सैकड़ों बार जेल गए तो वहीं आजादी के बाद भ्रष्ट सरकार को आंख दिखाने के जुर्म में भी जेल गए। राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण को अगर एक ही गाड़ी की सवारी कहा जाए तो गलत ना होगा लेकिन सिर्फ कुछेक कारणों की वजह से दोनों ने नाजुक समय में एक-दूसरे का साथ छोड़ा और उसका परिणाम यह हुआ कि जो समाजवादी आंदोलन कभी देश में अपने चरम पर था वो बाद में बिलकुल खत्म हो गया। राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का व्यक्तित्व भी बेहद विचारणीय है। इतिहासकारों का मानना है कि जयप्रकाश अति सद्भाव से ओत-प्रोत थे और बोलचाल में बेहद नरम थे । यूं तो लोहिया की तरह उनमें भी सत्तालोलुपता वह अपने आसपास के लोगों से बड़ी जल्दी प्रभावित लेश मात्र नहीं थी, मगर उनके विचारों में स्पष्टता की कमी थीं। हो जाते थे। विवादस्पद प्रश्न पर स्पष्ट राय देने तथा उस पर अड़े रहने में जय प्रकाश को हिचक होती थी । इतिहास भी साक्षी है कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलीनीकरण की समस्या हो या कांग्रेस के साथ सहयोग का विवाद जय प्रकाश अकसर ढुलमुल नीति अपनाते थे और यही वजह रही कि लोहिया को उनसे नाराजगी थी।
राम मनोहर लोहिया को लगता था कि जयप्रकाश नारायण एक बेहतरीन संचालक और उनके समाजवादी आंदोलन को शिखर तक ले जाने में सहायक होंगे लेकिन जेपी के स्वभाव से वह दुखी थे। अपने रोष को उन्होंने एक बार निम्न कथनों के द्वारा जगजाहिर भी किया- “देश की जनता का तुमसे लगाव है, तुम चाहो तो देश को हिला सकते हो, बशर्ते देश को हिलाने वाला खुद ना हिले । ”
जयप्रकाश और लोहिया के वैचारिक विभेद- भारत की आजादी से पहले राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण गांधीजी के साथ ही कार्य करते थे लेकिन आजादी के बाद जब कश्मीर के बंटवारे की बात आई तो दोनों के विचारों में टकराव हुए और अल्प समय के लिए दोनों अलग हो गए। –
दरअसल इसके पीछे जयप्रकाश नारायण का नेहरू प्रेम था। जेपी नेहरूजी की विचारधारा से बेहद प्रभावित थे और अकसर उनका समर्थन करते थे इसके विपरीत राम मनोहर लोहिया को नेहरूजी और कांग्रेस की कई नीतियों से बेहद निराशा थी । समाजवादी आंदोलन का यह दुर्भाग्य रहा कि जयप्रकाश नारायण और राम लोहिया के बीच मतभेदों के कारण दोनों का व्यक्तित्व व गुण परस्पर पूरक होते हुये भी आपसी सहयोग का सिलसिला टूट गया। कई लोग मानते थे कि राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की विचारधारा तो एक थी लेकिन उनके बीच जोड़ने वाली कड़ी गुम थी। आजादी से पहले इस कड़ी का रोल गांधीजी ने अच्छी तरह निभाया लेकिन उनकी मौत के बाद दूसरा कोई ना था। कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी. कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते हैं. डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव कायम रखने में नाकाम साबित हुई।
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