राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिए । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे किस प्रकार परिभाषित किया ?

राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिए । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे किस प्रकार परिभाषित किया ?

(56-59वीं BPSC/2016)
अथवा
राष्ट्रवाद क्या है? रवीन्द्रनाथ टैगोर के राष्ट्रवाद संबंधी आदर्शों की चर्चा कीजिए।
उत्तर– भारत में राष्ट्रीयता का विकास ब्रिटिश हुकूमत का शोषण के परिणाम था। इस राष्ट्रीयता की भावना ने भारतीय इतिहास की धारा को प्रभावित किया। राष्ट्रीयता के उदय के कारणों में सबसे महत्वपूर्ण है- भारतीय जनता का असंतोष । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे विश्व – मानवतावाद के सिद्धांत के तले नवीन स्वरूप प्रदान किया।
राष्ट्रीयता एक चेतना के रूप में है, क्योंकि यह संपूर्ण राष्ट्र को एक करने का कारगर उपाय है। समकालीन परिवेश में अंग्रेजों की विभेदकारी एवं शोषक नीतियों के कारण उपेक्षित जनसमूह का, आन्तरिक चेतना है जिसे पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त विद्वानों ने सैद्धान्तिक रूप देकर नयी चेतना दी। इससे सामान्य एवं उपेक्षित वर्ग को फायदा हुआ परन्तु, संभ्रांत वर्गों में इस नवीन चेतना के कारण खलबलाहट बढ़ी। ये चेतना कोई अकस्मात उठ कर खड़ी नहीं हो गई, बल्कि अंग्रेजी नीतियां भी इसकी सहायक रहीं। प्रशासनिक एकीकरण, रेल, डाक-तार सेवा ने संपूर्ण भारत को विचारधारा के तौर पर एक कर दिया। देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में व्यावसायिक आदान-प्रदान के फलस्वरूप विचारों का आदान-प्रदान हुआ तथा संयोगवश आर्थिक एकता भी स्थापित हुई। ऐसे में अंग्रेजी शिक्षा, पाश्चात्य विचारधारा ने भारतीयों की मानसिक जड़ता समाप्त कर उन्हें तर्क संगत, विवेकपूर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर प्रदान किया। भारतीय भी अब स्वतंत्रता, समता, प्रतिनिधित्व जैसे सिद्धांतों को समझने लगे। इसी तरह मिल्टन, शेली, वाल्टेयर, रूसो सदृश विद्वानों के दर्शनों एवं क्रांतिकारी कार्यों से प्रभावित हुए। राजनीतिक चेतना का संचार करने में प्रेस तथा साहित्यकारों का महत्व कम नहीं रहा है। प्रो. विपिन चन्द्र का मानना है कि इसी प्रेस के कारण राष्ट्रवादी विचारधारा तथा आधुनिक, सामाजिक, आर्थिक विचारों का संचालन हुआ और अखिल भारतीय चेतना का सृजन हुआ।
19वीं सदी के सामाजिक, धार्मिक आंदोलन ने भी राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में उल्लेखनीय कार्य किया। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज आदि ने लोगों में स्वदेश प्रेम की भावना जागृत की। रवीन्द्रनाथ टैगोर का आगमन राष्ट्रीयता के विकास में महत्वपूर्ण घटना है।
टैगोर का आध्यात्मिक मानववाद- टैगोर को मानव एकता में पूर्ण विश्वास था। वे सृष्टि को एक सावयव मानते हैं, जिसके सभी मनुष्य अंग हैं। टैगोर की मान्यता है कि सभी मनुष्य अनन्त विश्वात्मा की कृति हैं जो स्वयं को सुख-दुःख के माध्यम से पूर्णतः प्रभावित करते हैं।
राष्ट्रवाद एवं देशभक्ति- रवीन्द्रनाथ शुद्धतः राष्ट्रवादी थे। किंतु उनका राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं था और न राष्ट्र का उग्रवाद ही उन्हें स्वीकृत था। उन्हें इस बात से बेहद दुःख होता था कि यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों द्वारा एशिया और अफ्रीका के लोगों को गुलाम बना दिया गया है। जलियांवाला बाग काण्ड से उन्हें मर्मान्तक पीड़ा हुई और उन्होंने विदेशी सम्मान ‘सर’ की उपाधि का परित्याग कर दिया। उनका देशप्रेम और उनकी राष्ट्रवादिता उच्चकोटि की थी, जिसमें गांभीर्यपन था, छिछलापन नहीं। किंतु उग्र राष्ट्रवादिता को वे कतई पसंद नहीं करते थे।
अंतर्राष्ट्रीयता- टैगोर की दृष्टि विश्व – एकता की अनुभूति से अनुप्रमाणित थी। उनका मंतव्य था कि राष्ट्रीयता के कारण विश्व-प्रेम विकसित नहीं हो पाता है। उन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का समर्थन किया और भारत तथा विश्व की समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीयवाद की धारणा को प्रतिपादित किया। वे समूचे विश्व को एक राष्ट्र की डोर में बांधना चाहते थे। उन्होंने लिखा है कि अब हम यह जानने लगे हैं कि हमारी समस्या विश्वव्यापी है तथा संसार का कोई भी राष्ट्र दूसरों से पृथक रहकर अपना कल्याण ही नहीं कर सकता, या तो हम सब सुरक्षित रहेंगे या साथ-साथ ही विनाश के गर्त में आ गिरेंगे, उनकी विचारधारा अंतर्राष्ट्रीय होनी चाहिए।
इस प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व मानववाद एवं अंतर्राष्ट्रीयता के विचारधारा को प्रसार दे कर राष्ट्रवाद के दायरे को बढ़ाया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांत पर भी टैगोर के मानवीय एवं गैर-उग्र राष्ट्रवाद के सिद्धांत का प्रभाव पड़ा। रवीन्द्रनाथ जी राष्ट्रवाद के दायरे को बढ़ाने हेतु सदैव ही चिर-स्मरणीय रहेंगे।
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