6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

6th JPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा- 2019

परीक्षा तिथि- 01/02/2019
विषय : सामान्य विज्ञान, पर्यावरण एवं तकनीकी विकास
Subject: General Science, Environment and Technology Development
1. निम्नलिखित वस्तुनिष्ठ प्रश्नों में से सही उत्तर का चयन करें। ( Choose the correct answer in each of the following objective question.)
I) 20 Hz से कम आवृत्ति वाले ध्वनि को कहते हैं (Sound of frequency below 20 Hz are called) :
(a) श्रव्य ध्वनि ( Audio sounds )
(b) अवश्रव्य ध्वनि (Infrasonics)
(c) पराश्रव्य ध्वनि ( Ultrasonics)
(d) पराध्वानिकी (Supersonics)
II) आप किसी वस्तु को जमीन से एक टेबल पर उठा कर रखते हैं। इस क्रिया में सम्पादित कार्य निर्भर नहीं करता है । (A body is lifted from the ground onto a table by you. The amount of work performed in the process not depends upon) :
(a) वस्तु को कौन-से पथ से आपने उठाया (the path along which you lifted the body)
(b) इस क्रिया में आपने कितना समय लगाया (the time taken by you in the process)
(c) वस्तु के वजन पर (the weight of the body)
(d) आप के वजन पर (your own weight)
III) सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाली पृथ्वी का पथ है : (The orbit of revolution of the earth around the sun is) :
(a) वृत्ताकार (Circular)
(b) दीर्घवृत्ताकार (Elliptical)
(c) परावलीय (Parabolic )
(d) दीर्घपरावलीय (Hyperbolic)
IV) जब एक संरक्षित बल किसी पिंड पर सकारात्मक कार्य करता हो, तो इसकी स्थितिज ऊर्जा : (When a conservative force does positive work on a body, its potential energy) :
(a) बढ़ती है (increases)
(b) घटती है (decreases)
(c) अपरिवर्त्तित रहती है (remains unaltered)
(d) बदलती रहती है ( fluctuates )
V) अनुवांशिकी विषय के पिता निम्नलिखित में से कौन है ? (Father of Genetics is) :
(a) मेंडल (Mendel)
(b) मॉर्गन (Morgan)
(c) मुलर (Muller)
(d) ह्यूगो डी व्रीस (Hugo de Vries)
VI) पूर्वावस्था के अवस्थाओं को क्रमबध सजा कर लिखें : ( Stages in proper sequence of Prophase I are) :
(a) जायगोटीन, लेप्टोटीन, पैकीटीन, डायकाइनेसिस, डिप्लोटीन (Zygotene, Leptotene, Pachytene, Diakinesis, Diplotene)
(b) लेप्टोटीन, जायगोटीन, पैकीटीन, डिप्लोटीन, डायकाइनेसिसि (Leptotene, Zygotene, Pachytene, Diplotene, Diakinesis)
(c) लेप्टोटीन, पैकीटीन, जायगोटीन, डायकाइनेसिस, डिप्लोटीन (Leptotene, Pachytene, Zygotene, Diakinesis, Diplotene)
(d) डिप्लोटीन, डायकाइनेसिस, पैकीटीन, जायगोटीन, लेप्टोटीन (Diplotene, Diakinesis, Pachytene, Zygotene, Leptotene)
VII) हीमोफीलिया (Haemophilia is) :
(a) एक छूत की बीमारी है ( an infectious disease)
(b) लिंग से संबंधित बीमारी है ( sex linked disease)
(c) कुपोषण के कारण होता है (caused by malnutrition)
(d) इनमें से कोई नहीं ( none of the above)
VIII) इनमें से किस ऑरगनेल को कोज़िका का “पावर हाऊस” कहा जाता है ? (The organelles called as “power housecell are) :
(a) गॉल्जी एपारेटस (Golgi apparatus)
(b) राइबोजोम्स (Ribosomes)
(c) माइटोकॉन्ड्रीया (Mitochondria)
(d) लाइसोजोम्स (Lysosomes)
IX) पौधों के लिये पोषक तत्व हैं (The major nutrients for plants are) :
(a) लोहा, मैंगनीज, जिंक (Fe, Mn, Zn)
(b) नाइट्रोजन, स्फुर, पोटाश (N, P, K)
(c) कॉपर, मौलिब्डेनम, बोरॉन (Cu, Mo, B)
(d) कोबाल्ट, क्लोरीन, सोडियम (Co, Cl, Na)
X) नीम पेड़ के उपयोग (The uses of Neem tree) :
(a) काष्ठ (Timber)
(b) औषधि (Medicinal
(c) खाद (Fertilizer)
(d) उपरोक्त सभी (All of the above)
XI) खाद्यान्न में निम्नलिखित फसलें सम्मिलित होती हैं (Food-grain includes the following crops) :
(a) धान्य एवं दलहन (Cereals and Pulses)
(b) धान्य एवं तेलहन (Cereals and Oil seeds)
(c) धान्य, दलहन एवं तेलहन (Cereals, Pulses and Oil seeds)
(d) धान्य, दलहन, तेलहन एवं मसाले (Cereals, Pulses, Oil seeds and Spices)
XII) योजना आयोग रिपोर्ट (1989) में वर्गीकृत कृषि मौसम क्षेत्रों में झारखण्ड किस क्षेत्र के अंतर्गत आता है ? (As per Planning Commission Report (1989) on Agroclimatic zones of India, Jharkhand comes under):
(a) मध्य पठार एवं पहाड़ी क्षेत्र (Central Plateau and hill region)
(b) पश्चिमी पठार एवं पहाड़ी क्षेत्र (Western Plateau and hill region)
(c) पूर्वी पठार एवं पहाड़ी क्षेत्र (Eastern Plateau and hill region)
(d) मध्यवर्ती गांगीय क्षेत्र (Trans Gangatic plain region)
XIII) किन चार घटकों द्वारा पारिस्थितिकी का निर्माण होता है ? (Which four components constitute an ecosystem?)
(a) जल, कार्बन, ऑक्सीजन, सल्फर (Water, Carbon, Oxygen, Sulphur)
(b) मृदा, तापमान, आद्रता, वर्षा (Soil, Temperature, Humidity, Rainfall)
(c) जैविक पदार्थ, उत्पादक, उपभोक्ता, वियोजक (Abiotic materials, Producers, Consumers, Decomposers)
(d) शाकाहारी, मांसाहारी, जीवाणु, परजीवी (Herbivores, Carnivores, Bacteria, Parasites)
XIV) रेन वाटर हारवेस्टिंग के क्या फायदे हैं? (The advantage of implementing rain water harvesting is) :
(a) यह ग्राऊंड वाटर को रीचार्ज करता है (It recharges ground water levels)
(b) पानी को बह जाने से रोकता है (It reduces run-off)
(c) बाढ़ से बचाता है (It avoids flooding)
(d) उपरोक्त सभी (All of the above)
XV) सरदार सरोवर प्रोजेक्ट किस नदी पर बना है? (Sardar Sarovar Project is built on) :
(a) सोन (Sone river)
(b) ताप्ती (Tapti river)
(c) नर्मदा (Narmada river)
(d) कोई नहीं (None of the above)
XVI) रेड डाटा बुक में कौन-सी सूचना है ? (Red data book provides data on) :
(a) लाल पुष्प वाले पौधों की (red flower plants)
(b) लाल रंग वाली मछलियों की (red coloured fishes)
(c) लाल रंग के कीड़ों की (red coloured insects)
(d) लुप्तप्रायः पौधे और पशुओं की (endangered plants & animals)
XVII) HIV एवं AIDS ( निवारण एवं नियंत्रण) एक्ट किस साल लागू हुआ ? (The HIV and AIDS (Prevention and Control Act was implemented in)
(a) 2014
(b) 2015
(c) 2016
(d) 2017
XVIII) GIS किस तरह के डेटा से संबंधित है ? (GIS deals with which kinds of data?) :
(a) संख्यात्मक डेटा (Numeric data)
(b) बाइनरी डेटा (Binary data)
(c) स्थानिक डेटा ( Spatial data)
(d) जटिल डेटा (Complex data)
XIX) पारम्परिक ऊर्जा स्रोत है (Conventional source of energy is) :
(a) पवन ऊर्जा (Wind energy)
(b) सौर ऊर्जा (Solar energy)
(c) कोयला (Coal)
(d) नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear energy)
XX) निम्नलिखित में से कौन कुष्ठ रोग के कारण हैं (Leprosy is caused due to) :
(a) क्लॉसट्रीडियम (Clostridium)
(b) सालमोनेला (Salmonella)
(c) माइकोबैक्टीरियम
(d) बैसीलम (Bacillus)
2. (Mycobacterium) अपश्रव्य एवं पराश्रव्य ध्वनियाँ क्या हैं? प्रकृति में अपश्रव्य ध्वनि से स्रोतों का नाम लिखें। पराश्रव्य ध्वनि की विशेषताओं एवं उपयोगों का वर्णन करें। (What are infrasonic and ultrasonic sounds? Name the sources of infrasonic sound in nature. Describe the characteristic and applications of ultrasonic sound.)
अथवा / OR
केप्लर के ग्रहीय गति के सिद्धान्त का वर्णन करें। चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के बीच प्रभेद बताएं । ( State Kepler’s laws of planetary motion. Distinguish between Lunar eclipse and Solar eclipse.)
3. लिंग सहलग्न वशांगति से आप क्या समझते हैं? इसे उदाहरण देकर समझाएं | (What do you understand by sex linked inheritance? Illustrate with suitable examples.)
अथवा / OR
पीयूष ग्रंथि के चार प्रमुख हॉर्मोस के नाम लिखें, इनके कार्यों की व्याख्या करें। (Name four important hormones of Pituitary gland. Discuss their functions)
4. कृषि वानिकी से आप क्या समझते हैं? कृषि वानिकी के महत्व एवं प्रबन्धन का वर्णन करें। (What do you mean by Agroforestry. Describe the importance of Agroforestry and their management.)
अथवा / OR
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या करें। (Explain in brief the salient features of Pradhan Mantri Phasal Beema Yojna)
5. ठोस अपशिष्ट का प्रबंध क्या है ? नगरीय और औद्योगिक अपशिष्ट के कारण, प्रभाव व नियंत्रण के उपाय लिखें। (What is solid waste management? Write causes, effects and control methods of urban and industrial waste.)
अथवा / OR
जलवायु परिवर्तन के प्रमाणों और कारणों का विवरण प्रस्तुत कीजिए | (Explain the evidences and causes of climate change)
6. वैश्विक ऊर्जा संकट क्या है? ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का विस्तृत विवरण लखें। ( What is global energy crisis ? Give a detailed account of alternative source of energy.) 32
अथवा / OR
कैंसर रोग की परिभाषा दें। कैसर के प्रकार का वर्णन करें। कारसेनोजेन्स की सूची दें। (Define cancer. Give an account of various kinds of cancers. Mention a list of carcinogens.)
प्रश्नोत्तर एवं उत्तर व्याख्या
उत्तर 1 : वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
I. (b) : उन अनुदैर्ध्य यान्त्रिक तरंगों को जिनकी आवृत्तियां निम्नतम श्रव्य आवृत्ति (20 HZ) से नीचे होती है अवश्रव्य तरंगें कहते हैं। इस प्रकार की तरंगों को बहुत बड़े आकार के स्रोतों से उत्पन्न किया जा सकता है। भूचाल के समय पृथ्वी में बहुत लम्बी तरंगें चलती हैं। ये अवश्रव्य तरंगें हैं।
II. (*) : जब m द्रव्य की किसी वस्तु को h ऊंचाई के किसी टेबल पर उठाकर रखी जाती है तब वस्तु की स्थितिज ऊर्जा (संपादित कार्य) mgh के बराबर होती है, जहां ‘g’ पृथ्वी का गुरुत्वीय त्वरण होता है। अतः इस क्रिया में स्पष्टतया संपदित कार्य वस्तु के वजन (mg) पर निर्भर करता है। अतएव, संपादित कार्य उत्तर विकल्प (a), (b) और (d) पर निर्भर नहीं करता है।
III.(b) : सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाली पृथ्वी का पथ दीर्घवृत्ताकार (Elliptical) है। इसके आकार गति एवं सूर्य से दूरी भिन्न-भिन्न होती है। पृथ्वी आंतरिक ग्रह है। सूर्य के चारों ओर परिक्रमण करने में इसे 365.25 दिन लगता है। सूर्य से इसकी औसत दूरी 249.6 मिलियन किमी. है।
IV. (b) :जब एक संरक्षित बल किसी पिंड पर सकारात्मक कार्य करता है तो इसकी स्थितिज ऊर्जा घट जाती है।
V. (a) : ग्रेगर जॉन मेंडल को आनुवंशिकी का पिता कहा जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम 1865 ई. में वंशागति की क्रिया विधि को समझाया। वर्ष 1906 में डब्ल्यू बैटसन ने इस शब्द का प्रतिपादन किया था।
VI. (b): पूर्वावस्था (Prophase I) के क्रमवार पांच अवस्थाएं हैं – लेप्टोटीन, जायगोटीन, पैकीटीन, डिप्लोटीन, डायकाइनेसिसि।
VII.(d) : यह रक्त संबंधी अनियमितता से जुड़ी बीमारी है। इसमें रक्त के थक्का जमने की प्रक्रिया बाधित होती है। सामान्यतः कटे-फटे अथवा घाव वाले स्थान से निकलने वाले रक्त में विभिन्न प्रकार की रासायनिक प्रतिक्रियाओं के चलते एक धागेनुमा पदार्थ फाइबिन के बनने से थक्का बनता है। इस रोग से ग्रसित होने पर उक्त रासायनिक प्रतिक्रियाओं में भाग लेने वाले पदार्थ (फैक्टर-VIII) का अभाव हो जाता है अर्थात यह बिल्कुल ही समाप्त हो जाता है।
VIII.(c):माइटोकॉन्ड्रीया को कोशिका का पॉवर हाउस कहा जाता है, क्योंकि इसमें मौजूद बहुत सारे श्वसन प्रकिण्व की मदद से इलेक्टॉन स्थानांतरण द्वारा एडिनोसिन ट्राइफॉस्केट (ATP) के रूप में ऊर्जा का निर्माण होता है। वस्तुतः इसी में भोज्य पदार्थ का ऑक्सीकरण होता है जिससे ATP का निर्माण होता है। यह एक महत्वपूर्ण कोशिकांग है जो कि सभी यूर्केरियोटिक कोशिकाओं में पाया जाता है।
IX. (a) : पौधों के लिये पोषक तत्व हैं
(i) लोहा – ऑक्सीजन के स्थानांतरण तथा कलोरोफिल एवं प्रोटीन के निर्माण में सहायक होता है। इसकी कमी से पत्तियां पीली पड़ने लगती है।
(ii) मैंगनीज – श्वसन, नाइट्रोजन, उपापचय पर्णहरित संश्लेषण तथा प्रकाश संश्लेषण में सहायक होता है। इसकी कमी से पत्तियों का पर्णहरित समाप्त होने लगता है और उन पर पीले धब्बे बनने लगते हैं।
(iii) जस्ता – एंजाइमों के निर्माण में सहायक होता है तथा इसकी कमी होने पर पौधों एवं उनकी पत्तियों की वृद्धि रुक जाती है। साथ ही बीजों का भी निर्माण नहीं हो पाता है।
X. (d) : नीम एक बहुपयोगी पेड़ है जिसकी लकड़ी, छाल, पत्तियां, फल सभी किसी न किसी रूप में मानव द्वारा उपयोग में लाये जाते हैं। इसकी लकड़ी (काष्ट) एक अच्छे गुणवत्ता युक्त कठोर प्रकृति की है जबकि इसके पत्ते और ब के तेल औषधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। नीम के बीजों से हर्बल खाद तथा कीटनाशक तैयार किये जाते हैं।
XI. (a) : खाद्यान्न फसलों के अंतर्गत खाने वाले अनाजों यथा- धान्य (गेहूं, चावल, मक्का आदि) तथा दलहन (अरहर, चना, सोयाबीन, मूंग, मसूर आदि) से है।
XII.(c) : योजना आयोग रिपोर्ट (1989) में वर्गीकृत कृषि मौसम क्षेत्रों में झारखण्ड पूर्वी पठार एवं पहाड़ी क्षेत्र के अंतर्गत आता है। झारखण्ड देश के कृषि जलवायु (पंद्रह कृषि क्षेत्रों में विभाजित) क्षेत्र – VII पूर्वी पठार और पहाड़ी क्षेत्र का एक हिस्सा है, जिसके आधार पर कृषि एवं वानिकी का समन्वित उपयोग किया जा सकता है।
XIII.(c): अजैविक पदार्थ, उत्पादक, उपभोक्ता तथा वियोजक द्वारा पारिस्थितिकी का निर्माण होता है।
1. अजैविक घटक : इसके तहत निम्नांकित तीन प्रकार के घटक आते हैं
(i) अकार्बनिक पदार्थ
(ii) कार्बनिक पदार्थ और
(iii) जलवायविक कारक
2. उत्पादक : ऐसे घटक जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, जैसे- पौधे।
3. उपोक्ता : ऐसे घटक जो उत्पादक द्वारा बनाये गये भोज्य पदार्थों का उपयोग करते हैं।
4. वियोजक या अपघटक : ऐसे घटक जो मरे हुए
उपभोक्ताओं को अपघटित कर उन्हें भौतिक तत्वों में
परिवर्तित कर देते हैं। इन्हें मृतपोषी भी कहा जाता है।
XIV.(d) : रेन वाटर हार्वेस्टिंग वर्षा जल को किसी खास माध्यम से संचय करने या इकट्ठा करने की प्रक्रिया है। इससे भूमिगत जल स्तर को बढ़ाया जा सकता है। इसके निम्नांकित फायदे हैं –
(i)यह भूमिगत जल स्तर को बढ़ाता है।
(ii) पानी को बेकार बह जाने से रोकता है।
(iii) बाढ़ नियंत्रण में सहायक होते हैं ।
XV.(c) : सरदार सरोवर नर्मदा नदी पर बना है। इसकी ऊंचाई 138 मी. तथा लम्बाई 1210 मी. है। इस परियोजना का उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाना और मध्य प्रदेश के लिये बिजली पैदा करना है। इसका निर्माण 1948 ई. में शुरु हुआ और 1953 ई. में बनकर तैयार हुआ एवं 1957 ई. से यह पूरी तरह काम करने लगा है।
XVI.(d):रेड डाटा बुक में लुप्तप्रायः पौधे और पशुओं की सूचना रहती है। विश्व की प्रथम रेड डाटा बुक 1 जनवरी, 1972 को प्रकाशित हुई। विश्व की अंतर्राष्ट्रीय संस्था IUCN (Internation Union for Conservation of Nature) ने अपने अधीनस्थ सरवाइवल सर्विस कमीशन नामक संस्था द्वारा इसे प्रकाशित किया था। अब तक पांच रेड बुक प्रकाशित हो चुके हैं, जो निम्नांकित हैं –
प्रथम बुक – स्तनधारी
दूसरी बुक – पक्षी
तीसरी बुक- मरुस्थलीय उभयचर
चौथी बुक – मछलियां
पांचवी बुक – वनस्पतियां-पौधे।
XVII.(*):HIV एवं AIDS (निवारण एवं नियंत्रण एक्ट, 2017 ) जो पूरे देश में 10 सितंबर, 2018 को लागू हुआ, का उद्देश्य देश में HIV और AIDS के प्रसार को रोकना और नियंत्रित करना, साथ ही वैसे लोगों को दंडित करना है जो इससे प्रभावित लोगों के साथ भेदभाव करते हैं ।
XVIII.(c): GIS (Geographic information system) को इस प्रकार से डिजाइन किया जाता है ताकि यह भौगोलिक तथा स्थानिक सभी प्रकार के डेटा का प्रबंधन, संकलन तथा प्रदर्शन कर सके।
XIX.(c): कोयला पारम्परिक ऊर्जा स्रोत है। ऊर्जा के वैसे स्रोत जिनका बहुत दिनों से परम्परागत रूप से उपयोग होने के कारण भंडार का ह्रास होते जा रहा है, ऊर्जा के पारम्परिक स्रोत कहलाते हैं, जैसे- कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस आदि। इसे ऊर्जा को ‘समाप्त स्रोत’ भी कहते हैं । XX.(c): कुष्ट रोग माइको बैक्टीरियम लैप्री नामक जीवाणु के
कारण होता है। इस रोग में संक्रमित स्थान की त्वचा में संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है, मुंह एवं संक्रमित स्थान की त्वचा मोटी हो जाती है, नाड़ियां सिकुड़ जाती हैं, संक्रमित स्थान पर रंगहीन धब्बे बन जाते हैं और अंततः त्वचा गलने लगती है।
प्रश्न 2: अपश्रव्य एवं पराश्रव्य ध्वनियाँ क्या हैं? प्रकृति में अपश्रव्य ध्वनि से स्रोतों का नाम लिखें। पराश्रव्य ध्वनि की विशेषताओं एवं उपयोगों का वर्णन करें। 
उत्तर : ध्वनि एक प्रकार की ऊर्जा है, जिसके कानों पर पड़ने से सुनने की संवेदना होती है। सिर्फ कंपायमान वस्तुओं से ही ध्वनि निकलती है। ध्वनि ऊर्जा का स्थानांतरण एक स्थान से दूसरे स्थान तक तरंगों के माध्यम से संभव बन पाता है।
ध्वनि तरंगों को आवृत्तियों के एक बहुत बड़े परास तक उत्पन्न किया जा सकता है। इस आधार पर उन्हें श्रव्य, अपश्रव्य तथा पराश्रव्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
जिन तरंगों को हमारा कान सुन सकता है उन्हें ‘श्रव्य’ तरंगें (Audible Waves) कहते हैं। इन तरंगों की आवृत्ति 20 से लेकर 20000 हर्ट्ज तक होती है।
> अपश्रव्य (Infrasonic) तथा पराश्रव्य (Ultrasonic) ध्वनियां –
अपश्रव्य ध्वनि ( Infrasonic Sound) उन अनुदैर्ध्य यान्त्रिक तरंगों को जिनकी आवृत्तियां निम्नतम श्रव्य आवृत्ति (20 हर्ट्ज) से नीचे होती हैं ‘अपश्रव्य तरंगें या अपश्रव्य ध्वनियां’ कहते हैं। इस प्रकार की तरंगों को बहुत बड़े आकार के स्रोतों से उत्पन्न किया जा सकता है। भूचाल के समय पृथ्वी में बहुत लम्बी तरंगें चलती हैं। ये अपश्रव्य तरंगें हैं। हमारे हृदय की घड़कन की आवृत्ति भी अपश्रव्य तरंगों के समान होती हैं।
> प्रकृति में अपश्रव्य तरंगें उत्पन्न करने के स्रोत
प्रकृति में ज्वालामुखी, हिमस्खलन भूकम्प, उल्कापिंड अपश्रव्य ध्वनि के प्रमुख स्रोत हैं। ग्वाटेमाला में फ्यूगों ज्वालामुखी के फूटने के दौरान अधिकतम 120 डिसीबल अर्थात लगभग 10Hz के नीचे ध्वनि उत्पन्न हुई थी । अंटार्कटिका में सक्रिय ज्वालामुखी माउण्ट इरेबस में अति तीव्र पराश्रव्य ध्वनि को मापा गया था जबकि सुने जाने योग्य ध्वनि की तीव्रता अति सामान्य थी। जापान के साकुरजीमा ज्वालामुखी के सक्रिय होने से पहले तीव्र संकेत को ग्रहण किया गया। समुद्री तूफान और लहर बहुत ही ज्यादा अपश्रव्य तरंगे उत्पन्न करते हैं। हरिकेन ( तूफान) द्वारा उत्पन्न किये गये अपश्रव्य ध्वनि पर पूर्व में किये गये अध्ययन से भविष्य में आने वाले हरिकेन की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
अनेक जीव-जन्तु अपश्रव्य श्रेणी के ध्वनि तरंगों को उत्पन्न और उनका प्रयोग करते हैं। हाथियों के चिंघाड़ने की आवाज 10 किमी की दूरी पर पहचाना गया, जिसकी माप 14Hz थी।
हाथियों के व्यवहारों के अध्ययन से पता है कि उन्होंने हवा में सुनने से पहले जमीन से गुजरने वाले तरंगों के प्रति पहले प्रतिक्रिया व्यक्त की क्योंकि तरंगें ठोस पदार्थों में अति तीव्र गति से गमन करते हैं । व्हेल और राइनो (गैन्डा ) बहुत ही निम्न आवृत्ति की ध्वनि उत्पन्न करते हैं। पापुआ न्यू गिनी और आस्ट्रेलिया में न उड़ने वाले कसोवरी (एक प्रकार का पक्षी) निम्न श्रेणी की ध्वनि (लगभग 23Hz ) उत्पन्न करते हैं।
ऑरोरल घटनाएं वायु में विद्युत विसर्जन द्वारा अपश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करते हैं। यह देखा गया है कि कुछ जंतु भूकंप से पहले परेशान हो जाते हैं। भूकंप मुख्य प्रघाती तरंगों से पहले निम्न आवृत्ति की अपश्रव्य ध्वनि उत्पन्न करते हैं, जो संभवतः जंतुओं को सावधान कर देती है।
> पराश्रव्य ध्वनि ( Ultrasonic Sound ) उन अनुदैर्ध्य यान्त्रिक तरंगों को जिनकी आवृत्ति (20000 हर्ट्ज) से ऊंची होती है, ‘पराश्रव्य तरंगे या पराश्रव्य ध्वनि’ कहते हैं। इन तरंगों को गाल्टन की शीटी द्वारा तथा दाब – वैद्युत प्रभाव (piezoelectric effect) की विधि द्वारा क्वार्ट्ज (और जिंक ऑक्साइड) के क्रिस्टल के कम्पनों से उत्पन्न करते हैं। इन तरंगों की आवृत्ति बहुत ऊंची होने के कारण ये अपने साथ बहुत ऊर्जा ले जाती हैं। साथ ही इनकी तरंग दैर्ध्य बहुत छोटी होने के कारण इन्हें एक पतले किरण- पुंज के रूप में बहुत दूर तक भेजा जा सकता है। इन गुणों के कारण इन तरंगों के अनेक लाभदायक उपयोग हैं।
उड़ते समय चमगादड़ ( bat ) पराश्रव्य तरंगें उत्पन्न करता है – ये तरंगें सामने पड़ने वाली वस्तुओं से परावर्तित होकर चमगादड़ के कानों पर वापस आती हैं। इससे चमगादड़ अंधेरे में उड़ते समय पेड़ों, दीवारों तथा अन्य वस्तुओं से अपने को टकराने से बचा लेता है।
> पराश्रव्य ध्वनि की विशेषताएं और उपयोग (Characteristics of Ultrasonic sound & some applications) पराश्रव्य ध्वनि की विशेषताएं –
> भौतिक विशेषताएं (Physical Characteristics) :
> पराश्रव्य ध्वनि की तंरग लम्बाई बहुत छोटी होती है जिससे गैस या द्रव की मात्रा बहुत अल्प होने पर भी उसमें ध्वनि का वेग नापा जा सकता है। इसलिए ध्वनि का वेग बहुत से ऐसे गैसों में और द्रवों में निकाले गये जिसमें पुरानी विधियों से निकालना असंभव था ।
> ध्वनि वेगों से गैसों के विशिष्ट ऊष्माओं का अनुपात y (y=cp/cv ) का मान निकाला जाता है जिससे गैसों के अणुओं की परमाणुकता ज्ञात होती है।
> बहुत से ठोसों का यंग गुणांक y और दृढ़ता गुणांक (Modulus of rigidity) n का मान सामान्य विधि से नहीं ज्ञात किया जा सकता है। उनका मान पराश्रव्य ध्वनि के वेग से ज्ञान कर लिया जाता है।
> रासायनिक विशेषताएं (Chemical Characteristics) :
> पोटासियम आयोडाइड (KI) के घोल में या हाइड्रोजन सल्फाइड (HS) में पराश्रव्य ध्वनि का संचार होने से इन यौगिकों में से I और S अलग हो जाते हैं। यह प्रतिक्रिया ऑक्सीडेसन (Oxidation) की है।
> इसके विपरीत भी पराश्रव्य ध्वनि से प्रतिक्रिया होती है। जिसे अवकरण (Reduction) कहते हैं। जैसे – मरक्यूरिक क्लोराइड का मरक्यूरस में बदल जाना।
> रबर और प्लास्टिक के अणु बहुत ही बड़े-बड़े होते हैं। ये छोटे अणुओं के बहुल्लीकीकरण (Polymerisation) क्रिया से बने होते हैं। यह क्रिया पराश्रव्य ध्वनि से बहुत सरल होती है।
> इसके विपरीत पराश्रव्य ध्वनि से बड़े अणु छोटे भी हो जाते हैं। जैसे- जिलेटिन के घोल में पराश्रव्य ध्वनि का संचार से उसकी श्यानता (Viscosity) घट जाती है। इससे स्पष्ट है कि अणु छोटे हो जाते हैं।
> जो द्रव आपस में नहीं मिलते उन्हें मिलाकर इमल्सन तैयार करना पराश्रव्य ध्वनि का काम है; जैसे जल और तेल, तेल और पारा कोई कार्बनिक (Organic) द्रव ।
> पराश्रव्य ध्वनि के उपयोग –
> कृषि तथा चिकित्सा विज्ञान में ( In Agriculture and Medical Science) :
> कुछ ऐसे छोटे-छोटे पौधे हैं जो पराश्रव्य तरंगों के डालने पर तेजी से बढ़ते हैं।
> ये तरंगें बैक्टीरिया का विनाश कर देती हैं। गठिया रोग के उपचार तथा मस्तिष्क में ट्यूमर का पता लगाने में पराश्रव्य तरंगें उपयोग में लायी जाती हैं।
> पराश्रव्य ध्वनि से पानी, दूध आदि को रोग के जीवाणुओं (बैक्टीरिया) से मुक्त किया जाता है।
> रक्त में लाल कण (Red cropuscul) की संख्या बढ़ जाने पर पराश्रव्य ध्वनि में उन्हें नष्ट किया जा सकता है।
> पराध्वनि तरंगों को हृदय के विभिन्न भागों से परावर्तित करा कर हृदय का प्रतिबिंब बनाया जाता है। इस तकनीक को ‘इकोकार्डियोग्राफी’ (ECG) कहा जाता है।
> पराध्वनि संसूचक एक ऐसा यंत्र है जो पराध्वनि तरंगों का उपयोग करके मानव शरीर के आंतरिक अंगों का प्रतिबिंब प्राप्त करने के लिए काम में लाया जाता है। इस तकनीक को अल्ट्रासोनोग्राफी कहते हैं। अल्ट्रासोनोग्राफी का उपयोग गर्भ काल में भ्रूण की जांच तथा उसके जन्मजात दोषों तथा उसकी वृद्धि की अनियमितताओं का पता लगाने में किया जाता है।
> पराध्वनि का उपयोग गुर्दे की छोटी पथरी को बारीक कणों में तोड़ने के लिए भी किया जा सकता है। ये कण बाद के साथ बाहर निकल जाते हैं। में मूत्र
> औद्योगिक उपयोग (Industrial Applications) :
> आजकल इन तरंगों का उपयोग कीमती कपड़ों तथा वायुयान व घड़ियों के पुर्जों की साफ करने में तथा चिमनियों की कालिख हटाने में किया जाता है।
> पराध्वनि प्रायः उन भागों को साफ करने में उपयोग की जाती है जिन तक पहुंचना कठिन होता है; जैसे- सर्पिलाकार नली, विषम आकार के पुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक अवयव आदि ।
> धात्विक घटकों को प्राय: बड़े-बड़े भवनों, पुलों, मशीनों तथा वैज्ञानिक उपकरणों को बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। धातु के ब्लॉकों में विद्यमान दरार या छिद्र जो बाहर से दिखाई नहीं देते। उनकी सूचना पराध्वनि तरंगो की मदद से प्राप्त की जाती है।
> विविध उपयोग (Miscellaneous Applications) :
> संकेत (Signal ) भेजना इन तरंगों द्वारा किसी विशेष दिशा में संकेत भेजे जा सकते हैं क्योंकि ये तरंगें बहुत पतले किरण-पुंज के रूप में बहुत दूर तक जा सकती हैं।
> समुद्र की गहराई ज्ञात करना व छिपे पदार्थों का पता लगाना इन तरंगों से समुद्र की गहराई तथा समुद्र में डूबी हुई चट्टानों, मछलियों तथा पनडुब्बियों की स्थितियां ज्ञात की जा सकती हैं। इन तरंगों के द्वारा उड़ते हुए हवाई जहाज की पृथ्वी से ऊचाई मापी जा सकती है।
> सोनार (SONAR Sound Navigation and Ranging ) – यह एक ऐसी विधि तथा युक्ति है जिसके द्वारा समुद्र में डुबी हुई वस्तु का पता लगाया जाता है। इससे पहले पराश्रव्य तरंगों को समुद्र के अंदर भेजा जाता है। ये तरंगे डूबी हुई वस्तु से परावर्तित होकर वापस लौटती हैं। जितने समय में ये तरंगें जाती हैं और वापस लौटती हैं उसे ज्ञात कर लिया जाता है। यदि यह समय 2t है तो समुद्र में तरंगों की चाल v है तो वस्तु की गहराई_d = v × t
> कुछ पशु (विशेष रूप से कुत्ते), डॉल्फिन तथा पक्षी (चमगादड़) पराश्रव्य तरंगों को सुन लेते हैं। गाल्टन सीटी (Galton Whistle) जिसे बजाने पर पराश्रव्य तरंगें निकलती हैं को बजाकर पेड़ों पर से चिड़ियों को भी उड़ाया जाता है।
> कपड़ों की धुलाई, विशेषकर ऊनी कपड़ों की पराश्रव्य ध्वनि से बहुत की उत्तम और शीघ्र होती है।
> पराश्रव्य ध्वनि के साधन से एक अंधा व्यक्ति रास्ते में बिना किसी भय से चल सकता है।
> जिस कमरे को चोर आदि से सुरक्षित रखना होता है उसे पराव्य ध्वनि से भर दिया जाता है। जब कमरे में चोर आता है तो कम्पनांक बदल जाने के कारण खतरे की घण्टी बजने लगती है।
अथवा
प्रश्न : केप्लर के ग्रहीय गति के सिद्धान्त का वर्णन करें। चन्द्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के बीच प्रभेद बताएं। 
उत्तर : जर्मनी के गणितज्ञ एवं खगोलविद जोहानेस केप्लर (Johannes Kepler 1571–1632) ने ग्रहीय गति के तीन नियमों की खोज की थी और सौर मंडल के ग्रहों की गति के लिये वह इनका उपयोग करते थे । वास्तव में ये नियम किन्ही भी दो आकाशीय पिण्डों की गति का वर्णन करते हैं जो एक-दूसरे का चक्कर काटते हैं।
> केप्लर के ग्रहीय गति के नियम
1. कक्षीय संरचना का नियम : प्रत्येक ग्रह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्तीय कक्षा (जिसकी दो नाभि होती हैं) में परिक्रमा करते हैं और प्रत्येक दीर्घवृत्तीय कक्षा की एक नाभि में सूर्य स्थित होता है। इसे ही केप्लर का प्रथम नियम कहते हैं।
2. ग्रहों की कक्षीय गति का नियम : किसी क्षण ग्रह को सूर्य से मिलाने वाली काल्पनिक रेखा एक समान समय-अंतराल में एक समान क्षेत्रफल तय करती है। इसे ही केप्लर का दूसरा नियम कहते हैं। इस नियम के द्वारा ग्रह की कक्षीय गति (चाल) परिभाषित होती है। सरल शब्दों में कहा जाये तो कक्षीय गति करते समय जब कोई ग्रह सूर्य से दूर होता है तब उस ग्रह की गति कम होती है। जबकि वही ग्रह जब सूर्य के नजदीक पहुंचता है। तब उस ग्रह की गति बढ़ जाती है। ग्रह को सूर्य से जोड़ने वाली रेखा समान समयान्तराल में समान क्षेत्रफल तय करती है।
अर्थात् क्षेत्रफल S = क्षेत्रफल S2
3. ग्रहों के परिक्रमणकाल का नियम: ग्रह के परिक्रमणकाल का वर्ग सूर्य से उस ग्रह की औसत दूरी के घन के अनुक्रमानुपाती होता है। अर्थात जो ग्रह सूर्य से जितना अधिक दूर रहेगा उसका परिक्रमणकाल उतना ही अधिक होगा। इसे ही केप्लर का तीसरा नियम कहते हैं। यह नियम केप्लर के दूसरे नियम का ही विस्तृत रूप है।
ग्रह द्वारा सूर्य की परिक्रमा के  कक्षीय अवधि का वर्गअर्ध-दीर्घ-अक्ष (semi-major axis) के घन के समानुपाती होता है।
यदि P एक चक्र में लगा समय तथा M = दीर्घ अक्ष की लंबाई हो तो P2/M3 = नियतांक = सभी ग्रहों के लिए समान
> सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण में अंतर
सूर्य और चंद्रमा से मनुष्य का गहरा नाता है। जिसके चलते सूर्य और चंद्रमा पर लगने वाले ग्रहण का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। दोनों ग्रहण एक खगोलीय घटना होते हैं। सूर्य ग्रहण तथा चंद्र ग्रहण में निम्नांकित अंतर है –
> पृथ्वी, सूर्य तथा चंद्रमा की स्थिति :
> चंद्र ग्रहण (Lunar Eclipse) : जब सूर्य और चंद्रमा के बीच में पृथ्वी आ जाती है तब सूर्य का प्रकाश चंद्रमा तक नहीं पहुँच पाता है जिसके प्रभाव से चंद्रमा की सतह पर अँधेरा छा जाता है। इस स्थिति को चंद्र ग्रहण कहते हैं। चंद्र ग्रहण सदैव पूर्णिमा की रात को होता है।
> सूर्य ग्रहण (Solar Eclipse) : जब पृथ्वी और सूर्य के बीच चंद्रमा आ जाता है। जिसके चलते सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता है और पृथ्वी की सतह के कुछ हिस्से पर दिन में भी अँधेरा छा जाता है। इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहते हैं। इसके साथ ही सूर्य ग्रहण केवल तभी होता है जब चंद्रमा अमावस्या को पृथ्वी के कक्षीय समतल के निकट होता है।
> चंद्र ग्रहण संपूर्ण पृथ्वी पर दिखाई देता है जबकि सूर्य ग्रहण कुछ स्थानों पर :
> चंद्रमा सूर्य से अत्यधिक छोटा हैं इसलिये उस तक सूर्य का प्रकाश बिल्कुल नही पहुंच पाता या आंशिक रूप से पृथ्वी से परावर्तित होकर पहुंचता हैं जिस कारण पूरा चंद्रमा पृथ्वी की छाया क्षेत्र में आ जाता हैं। इसलिये पृथ्वी पर जिस समय रात होती हैं वहां चंद्र ग्रहण हर क्षेत्र में लगता हैं।
> जबकि सूर्य के चंद्रमा से अत्यधिक बड़े होने के कारण वह उसे पूरा नही ढंक पाता तथा उसके कुछ भूभाग को ही ढंक पाता हैं या यूं कहें कि पृथ्वी के कुछ भूभाग पर ही अपनी छाया छोड़ पाता हैं, इसलिये उस समय पृथ्वी पर जहां जहां दिन होता हैं वहां हर क्षेत्र में सूर्य ग्रहण नही लगता।
> सूर्य ग्रहण में सूर्य नहीं दिखाई देता जबकि चंद्र ग्रहण में चांद लाल दिखाई देता है :
> चंद्र ग्रहण की स्थिति में सूर्य का प्रकाश चंद्रमा तक तो सीधे नही पहुंच पाता लेकिन वह पृथ्वी से परावर्तित होकर आंशिक रूप से या कम मात्रा में चंद्रमा तक पहुंचता है इसलिये वह मटमैला/ धुंधला या हल्का लाल दिखाई देता है। पूर्ण चंद्र ग्रहण की स्थिति में चंद्रमा तक प्रकाश बिल्कुल भी नही पहुंचता लेकिन उस समय सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर पहुंचने के कारण वह हमें लाल रंग का दिखने का आभास करवाता है।
> जबकि सूर्य ग्रहण की स्थिति में चंद्रमा सूर्य के प्रकाश में गतिरोध उत्पन्न करता है तथा उसके सामने होने के कारण पृथ्वी के कुछ भाग पर अपनी छाया छोड़ता है जहां सूर्य का प्रकाश नही पहुंच पाता। इसलिये चंद्रमा के अपने सामने आ जाने के कारण उस भूभाग पर सूर्य छुप जाता है।
प्रश्न 3: लिंग सहलग्न वशांगति से आप क्या समझते हैं? इसे उदाहरण देकर समझाएं।
उत्तर : लिंग सहलग्न वंशागति ( Sex – Linked Inheritance) : ऐसे गुण जिनके जीन्स (Genes) लिंग गुणसूत्रों पर पाये जाते हैं, लिंग सहलग्न गुण (Sex-Linked Characters) कहलाते हैं।
ये गुण लिंग के साथ ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं। ऐसे जीन्स जो लिंग सहलग्न गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाते हैं, लिंग सहलग्न जीन (Sex-Lined Genes) कहलाते हैं। इस तरह की वंशागति लिंग सहलग्नता या लिंग सहलग्न वंशागति (Sex-Linked Inheritance) कहलाती है। वस्तुतः ‘X’ गुणसूत्र पर स्थित जीन ही लिंग सहलग्न जीन कहलाते हैं, क्योंकि इनका प्रभाव नर एवं मादा दोनों पर पड़ता है। लिंग सहलग्नता की विस्तृत व्याख्या सबसे पहले मॉर्गन ने 1910 में प्रस्तुत की।
मनुष्य में रंग वर्णान्धता (Colour Blindness), हीमोफीलिया (Haemophilia), मायोपिया (Miopia), हाइपरट्राइकोसिस (Hypertricosis) गंजापन (Baldness) जैसे कई लिंग सहलग्न गुण पाये जाते हैं।
> वर्णांधता एवं हीमोफीलिया दो प्रमुख लिंग सहलग्न गुण हैं, जो बीमारी के रूप में पाये जाते हैं।
> लिंग सहलग्न गुण स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक पाये गये हैं।
> वर्णांधता (Colour Blindness) में जहां मनुष्य लाल एवं हरे रंग को पहचान नहीं पाता, वहीं हीमोफीलिया में शरीर में कहीं भी कट-फट जाने पर शरीर का सम्पूर्ण रक्त बाहर निकल जाता है, क्योंकि रक्त का थक्का नहीं जम पाता।
> मादा में रंग वर्णाधता प्रगट होने के लिए दो अप्रभावी जीन्स की जरूरत होती है, जबकि नर में एक ही अप्रभावी जीन की जरूरत होती है।
> नर कभी भी ऐसी जीनों का वाहक (Carrier) नहीं होता; वाहक का कार्य मादा ही करती है।
> वर्णाध मादा के पिता हमेशा ही वर्णाध होंगे तथा उनके पुत्र भी हमेशा वर्णाध होंगे।
> वर्णाध मादा तभी किसी वर्णांध पुत्री को पैदा करेगी, जब उसके पति भी वर्णाध होंगे।
> लिंग सहलग्न वंशागति का उदाहरण
मनुष्य में लिंग-निर्धारण ( Sex Determination in Human) : मनुष्य के 23 जोड़े गुणसूत्रों में से नर एवं मादा दोनों के 22 जोड़े गुणसूत्र समान ही होते हैं, जिन्हें ऑटोसोम्स (Autosomes) कहते हैं।
मादा के 23वें जोड़े के दोनों गुणसूत्र भी समान होते हैं, जबकि नर के 23वें जोड़े के गुणसूत्र असमान होते हैं। इनमें से एक लम्बा एवं दूसरा छोटा होता है। मादा एवं नर गुणसूत्र के विशेष जोड़े, जिन्हे लिंग गुणसूत्र ( Sex Chromosomes) कहते हैं, को क्रमशः ‘XX’ एवं ‘XY’ द्वारा निरूपित किया जाता है। मादा एवं नर के ये 23वें जोड़े गुणसूत्र ही लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा लिंग ( Sex) का निर्धारण हो पाता है। यदि निषेचन (Fertilization) के समय किसी अंडाणु से
‘X’ गुणसूत्र वाला शुक्राणु प्राप्त होता है, तो इससे बने युग्मनज में ‘XX’ गुणसूत्र होंगे, अर्थात् संतान मादा होगी। लेकिन यदि किसी अंडाणु से ‘Y’ गुणसूत्र वाला शुक्राणु मिलता है तो इससे बने युग्मनज में ‘XY’ गुणसूत्र होंगे, अर्थात् संतान नर होगी।
अथवा
प्रश्न : पीयूष ग्रंथि के चार प्रमुख हॉर्मोस के नाम लिखें, इनके कार्यों की व्याख्या करें। 
उत्तर : पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland) : कपाल (खोपड़ी) की स्फिनॉयड अस्थि (Sphenoid Bone) जिस गड्ढे में स्थित होती है, उसे सेलाटर्सिया (Selaturcia) कहते हैं। यह तालु (Palate) एवं मस्तिष्क के आधार तल के बीच उससे एक वृंत (Stalk) द्वारा सम्बद्ध रहती है ।
यह 1 सेंमी. लम्बी एवं 1.5 सेंमी. चौड़ी होती है तथा इसका भार 0.6 ग्राम होता है। इसके द्वारा कुल 13 हार्मोन स्रावित होते हैं। चूंकि तंत्रिका तंत्र, अंत: स्रावी ग्रंथियों की क्रियाओं का नियंत्रण तंत्रिकाओं तथा पियूष ग्रंथि के माध्यम से ही कर पाता है, अतः इस ग्रंथि को मास्टर ग्रंथि ( Master Gland) भी कहते हैं।
> पीयूष ग्रंथि के चार प्रमुख हॉर्मोन एवं उसके कार्य :
1. वृद्धि हार्मोन / सोमैटोट्रॉपिक हार्मोन (Growth Hormone / STH) : यह शरीर की, विशेषकर हड्डियों की वृद्धि का नियंत्रण करता है तथा प्रोटीन उपापचय को उत्तेजित करता है । इसकी कमी से मनुष्य में बौनापन (Dwarfism) आ जाता है जबकि इसकी अधिकता से Giantism अथवा Acromelogy नामक रोग हो जाता है, जिसमें मनुष्य की लम्बाई काफी बढ़ जाती है तथा हड्डियां मोटी एवं भारी हो जाती हैं।
2. गौनेडोट्रॉपिक हार्मोन (Gonadotropic Hormone or GTH) : जनद (Gonads) को उत्तेजित कर लैंगिक क्रियाशीलता को नियंत्रित करता है।
> यह दो प्रकार का होता है और ये दोनों ही मूलत: प्रोटीन होते हैं –
(i) Follicle Stimulating Hormone (FSH): वृषण की शुक्रजनक नलियों में शुक्राणुजनन करता है तथा अंडाशय में फॉलिकल (Follicle) की वृद्धि होती है।
(ii) Lutenizing Hormone (LH) : नर में इसके प्रभाव से अंतराल कोशिकाओं द्वारा टेस्टोस्टेरॉन (Testosterone) स्रावित होता है, जबकि मादा में एस्ट्रोजन (Estrogen) एवं प्रोजेस्टेरॉन (Progesterone) स्रावित होता है।
> मादा में GTH के अल्पस्रावण से अंडाशय (Ovary) का आकार क्षीण होने लगता है तथा गर्भाशय एवं योनि विलुप्त हो जाते हैं। नर में वृषण छोटे एवं कमजोर हो जाते हैं तथा शुक्रवाहिनी नष्ट हो जाती है।
> इसके अतिस्रावण से लैंगिक परिपक्वता (Sexual Maturity) जल्द आ जाती है।
3. थाइरोट्रॉपिक हार्मोन / थाइरॉयड स्टिमुलेटिंग हार्मोन (Thyrotropic Hormone / TSH) : यह थाइरॉयड ग्रंथि को अंत:स्रावित करने हेतु उत्तेजित करता है। इसकी कमी से थाइरॉक्सिन की कमी हो जाती है, जबकि अधिकता से इसकी वृद्धि हो जाती है।
थाइरॉइड हार्मोन के सामान्य दर से संश्लेषण के लिए आयोडीन आवश्यक है। हमारे भोजन में आयोडीन की कमी से अवथाइरॉइडता एवं थाइरॉइड ग्रंथि की वृद्धि हो जाती है, जिसे साधारणतया गलगंड कहते हैं । गर्भावस्था के समय अवथाइरॉइडता के कारण गर्भ में विकसित हो रहे बालक की वृद्धि विकृत हो जाती है। इससे बच्चे की अवरोधिक वृद्धि (क्रिटेनिज्म) या वामनता तथा मंदबुद्धि, त्वचा असामान्यता, मूक बधिरता आदि हो जाती हैं। वयस्क स्त्रियों में अवथाइराइडता मासिक चक्र को अनियमित कर देता है । थाइरॉइड ग्रंथि के कैंसर अथवा इसमें गांठों की वृद्धि से थाइरॉइड हॉर्मोन के संश्लेषण की दर असामान्य रूप से अधिक हो जाती है। इस स्थिति को थाइरॉइड अतिक्रियता कहते हैं, जो शरीर की कार्यिकी पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
थाइरॉइड हार्मोन आधारीय उपापचयी दर के नियमन में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ये हॉर्मोन लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण की प्रक्रिया में भी सहायता करते हैं। थाइरॉइड हार्मोन कार्बोहाइड्रेट्, प्रोटीन और वसा के उपापचय (संश्लेषण और विखंडन) को भी नियंत्रित करते हैं। जल और विद्युत उपघट्यों का नियमन भी थाइरॉइड हार्मोन प्रभावित करते हैं। थाइरॉइड ग्रंथि से एक प्रोटीन हॉर्मोन, थाइरोकैल्सिटोनिन (TCT) का भी स्राव होता है जो रक्त में कैल्सियम स्तर को नियंत्रण करता है। नेत्रोत्सेधी गलगण्ड (एक्सऑप्थैलमिक ग्वायटर) थाइरॉइड अतिक्रियता का एक रूप है।
4. एंटी डायरुटिक हार्मोन (ADH) / प्रिटेसिन (Pitressin) / वेसोप्रेसिन (Vasopressin) : इसके चलते छोटी-छोटी धमनियों का संकीर्णन होने लगता है, जिससे रक्त चाप बढ़ जाता है। चूंकि यह शरीर में जल संतुलन में सहायक होता है, अत: एंटीडायरुटिक (Anti-Diuretic) भी कहलाता है। यह जल का पुनरावशोषण बढ़ाकर मूत्र की मात्रा को कम कर देता है। इसके अल्प स्रावण से मूत्र में पानी की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि अतिस्रावण से न सिर्फ मूत्र कम आता है, बल्कि उसमें पानी की मात्रा भी घट जाती है।
प्रश्न 4: कृषि वानिकी से आप क्या समझते हैं? कृषि वानिकी के महत्व एवं प्रबन्धन का वर्णन करें।
उत्तर : कृषि वानिकी की अवधारणा (Concept of Agro-Forestry) : वनों को प्रकृति की अमूल्य धरोहर माना जाता है। वन एक ओर जहां मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, वहीं पर्यावरण संतुलन एवं सभ्यता संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत में जनसंख्या का दबाव दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है, जिसके फलस्वरूप वनों का संकुचन तथा दैनिक आवश्यकताएं जैसे- खाद्य पदार्थों, चारा जलावन आदि की आपूर्ति प्रभावित हो रही है। बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता भी घटी है एवं वर्तमान में कृषि भूमि का क्षैतिज विस्तार भी संभव नहीं है। इस परिपेक्ष्य में दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं सतत् उत्पादन वृद्धि के उपायों के साथ कृषि प्रणाली में विविधता की दृष्टि से कृषि वानिकी एक सकारात्मक विकल्प के रूप में देखा जाता है। वास्तव में कृषि वानिकी हमारे पूर्वजों द्वारा अपनायी गयी एक अत्यंत प्राचीन प्रचलित खेती विधि है, जिसके वैज्ञानिक पहलुओं पर अन्वेषण विगत सत्तर के दशक से प्रारंभ हुआ है।
कृषि वानिकी भूमि उपयोग की वह प्रणाली है, जिसमें काष्ठ प्रकृति के वृक्ष या झाड़ीदार पौधों के साथ खाद्यान्न फसलों का उत्पादन या घास चारा उत्पादन के साथ पशुपालन, मछलीपालन, मधुमक्खीपालन, सिल्क कीट या लाह उत्पादन इत्यादि को इकाई क्षेत्र पर स्थान व्यवस्था या समय क्रम से सतत् उत्पादन की दृष्टि से किया जाता है। उसके अंतर्गत उगाए जाने वाले वृक्ष बहुउद्देशीय दृष्टि से लाभकारी होकर कई प्रकार के सार्थक योगदान एवं उपयोगी सेवाएं प्रदान करते हैं। इसमें उगाये जाने वाले वृक्षों से उत्पादन के रूप में लकड़ी जलावन, काष्ठ, कोयला, चारा, फल, तेल, बेट छप्पर में प्रयुक्त होने वाली सामग्री आदि प्राप्त होते हैं। जबकि उपयोगी सेवाओं के अंतर्गत भूमि संरक्षण, मिट्टी उर्वरता में सुधार तथा उनका संरक्षण, घेराबंदी, वायु अवरोधी सुरक्षा, पर्यावरण प्रदूषण एवं सूक्ष्म जलवायु में सुधार इत्यादि संभव है।
> कृषि वानिकी के महत्व 
> कृषि वानिकी के निम्नांकित महत्व हैं –
> कृषि वानिकी, भूमि का बुद्धिमतापूर्ण उपयोग कर इकाई भूमि से अधिक उत्पादन सतत् रूप में प्राप्त करता है । दैनिक उपयोग के लिए लकड़ी चारा आदि की आपूर्ति से यह स्थानीय वनों पर दबाव घटाने में सहायक सिद्ध होता है। कृषि वानिकी अपनाने से निम्नांकित लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं –
> इस पद्धति के अंतर्गत बेमौसम वर्षा का उपयोग बहुवार्षिक प्रकृति के वृक्षों द्वारा संभव होता है। साथ ही भूमिगत जल की उपलब्धता भी बढ़ जाती है।
> इस प्रणाली के अपनाये जाने से भूमि एवं जल के संरक्षण में सहायता मिलती है तथा बहुमूल्य मृदा का संरक्षण संभव हो पाता है।
> कृषि वानिकी प्रणाली द्वारा फसलों के उत्पादन में प्रकृति विनाश जैसे- बाढ़, सूखा आदि के प्रभावों को अपेक्षाकृत कम किया जा सकता है तथा एक फसल के क्षतिग्रस्त होने पर दूसरे स्रोत से कुछ आमदनी सदैव संभव रहती है। जलछाजन प्रबंधन के अंतर्गत वानस्पतिक आवरण का अच्छादन सम्यक रूप से बढ़ाया जा सकता है।
> यह पद्धति किसानों को अपने स्रोतों के माध्यम से स्वावलम्बी बनाती है। जिससे वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त स्थानीय बाजार की मांग की आपूर्ति भी कर सकते हैं।
> वृक्षों के विभिन्न अंशों के सड़ने पर जैविक खाद अथवा उसके द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण द्वारा भूमि की उर्वरता में वृद्धि एवं मिट्टी के भौतिक गुणों के लाभकारी विकास में सहायता मिलती है।
> वृक्षों की जड़ों का मिट्टी में काफी गहराई तक विकास संभव होता है, जिससे नीचे की परत में स्थित पोषक तत्वों एवं नमी का समुचित उपयोग संभव होता है।
> दैनिक उपयोग के लिए जलावन, चारा एवं काष्ठ के उत्पादन होने से प्राकृतिक वनों पर दवाब कम हो जाता है तथा पशुपालन जैसा व्यवसाय सहज ही संभव हो सकता है।
> किसानों को सालोंभर रोजगार का अवसर प्राप्त होता है, जिससे किसान अधिक आर्थिक लाभ के भागीदार होते हैं। इससे उनके पोषण स्तर, स्वास्थ्य इत्यादि में सुधार होता है ।
> कृषि वानिकी से लघु एवं सीमान्त किसान जो सीमित संसाधनों की परिसीमा में रहते हैं। कम लागत तथा अल्पअवधि में उत्पादन वृद्धि कर लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
> कृषि वानिकी के उपयोग द्वारा अवक्रमित वनों के सुधार एवं पुनर्जीवीकरण में सहायता मिल सकती है। इसके अंतर्गत ग्रामीणों द्वारा ईंधन चारा और इमारती लकड़ी के पेड़ों के साथ-साथ आम, कटहल, आंवला, बेर, महुआ आदि फलदार वृक्षों को लगाया जा सकता है
> इसके साथ ही भूमि एवं जल संरक्षण की दृष्टि से सहायक झाड़ियां, घास, जड़ी-बूटियां भी लाभार्थी की जरूरत के अनुसार उगायी जा सकती है। यह आदिवासियों एवं वन पदाधिकारियों के पारस्परिक संबंधों में सौहद्र लाने की दृष्टि से उपयोगी हो सकता है।
> कृषि वानिकी के अंतर्गत बंजर एवं अवक्रमित भूमियों पर जैव ईंधन के लिए उपयोगी वृक्ष यथा जेटरोफॉ को उगाकर बायोडीजल का उत्पादन, प्रसंस्करण किया जा सकता है, जो जीवाष्म ईंधन के आयात के खर्च को घटाकर विदेशी मुद्रा की बचत में सहायक हो सकता है।
> जैव ईंधन के उत्पादन हेतु लगाये गये एवं कृषि वानिकी उत्पाद के प्रसंस्करण हेतु लगाये जाने वाले कल-कारखानों से रोजगार के अतिरिक्त अवसर प्राप्त होंगे।
> कृषि वानिकी का प्रबंधन
> कृषि वानिकी में फसलों के साथ वन वृक्षों को खेतों में उगाया जाता है। वृक्ष कतारों के मध्य खाद्यान्न फसलें अन्तवर्ती फसल के रूप में उगायी जाती है। वृक्ष या तो मुख्य खेत में कतारों या खेतों के मेढ़ों पर उगाये जा सकते हैं। जैसे- शीशम या सिरीश के साथ अरहर, मकई, राई, तोरी इत्यादि ।
> कृषि वानिकी के प्रबंधन में पौधा का चयन : कृषि वानिकी प्रणाली लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए विशेषकर असिंचित क्षेत्रों में उपयोगी होते हैं। इसलिए इसके प्रबंधन में वृक्षों का चयन किसानों को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप किया जाना चाहिए। वृक्षों के चयन की दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्य निम्नवत् हैं
> कृषि वानिकी के अंतर्गत उगाये जाने वाले वृक्ष स्थानीय रूप से उगने में सक्षम होने चाहिए। वृक्ष तेजी से बढ़ने वाला हो जिससे उसका आर्थिक जीवन काल 8 से 12 वर्षों में पूरा हो जाय।
> वृक्षों की स्वतः छंटाई (self pruning) की क्षमता हो तथा जल्दी-जल्दी शाखाओं के काटने पर वृक्ष या उसके प्रकाश संश्लेषण क्षमता पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। छतरी (canopy) परिधि तने की परिधि की तरह हो
> पत्तियों का वृक्ष पर विन्यास, सूर्य प्रकाश को भूमि तक जाने में कम से कम अवरोध पैदा करे। साथ ही पत्ते के झड़ने की प्रकृति, कृषि फसलों की वृद्धि के लिए लाभकारी हो ।
> पत्तियां शाखाएं इत्यादि मिट्टी में सुगमता से जैविक पदार्थों के रूप में परिवर्तित हो जाय।
> कुल मिलाकर वृक्ष की भूमि के उपरी सतह के भाग अनाज या चारा फसलों के लिए सूर्य प्रकाश पोषक तत्व तथा नमी के लिए कम से कम प्रतिस्पर्धा पैदा करे
> वृक्ष के जड़ों की प्रकृति इस प्रकार की हो कि वे मिट्टी की उस सतह से अपने लिए पोषक तत्व एवं नमी प्राप्त करें, जहां से कृषि फसलें नहीं ग्रहण कर पाती हैं। वृक्ष किसी प्रकार की कीट व्याधियों से मुक्त हो ।
> अथवा
प्रश्न : प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या करें।
उत्तर : प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्य प्रदेश में 18 फरवरी, 2015 को सीहोर से महत्वाकांक्षी फसल बीमा योजना की शुरुआत की। इस बार खरीफ फसल से देश भर के किसान इस योजना का लाभ उठा सकेंगे। केन्द्र सरकार ने 2015 की रबी फसल के बाद से पुरानी फसल बीमा योजना को निष्क्रिय कर दिया है और इस खरीफ से नयी फसल बीमा योजना प्रभावी कर दी गयी है। झारखण्ड सरकार ने भी प्रस्तावित प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को राज्य में लागू करने की स्वीकृति दे दी है। किसान अब खरीफ फसल से मात्र दो प्रतिशत के बीमा प्रीमियम पर खरीफ फसल व उसके बाद रबी महीने में 1.5 प्रतिशत बीमा प्रीमियम पर रबी फसल का बीमा करवा सकते हैं। वहीं, व्यावसायिक व बागवानी फसल के लिए मात्र पांच प्रतिशत की दर रखी गयी है। तिलहन फसल के लिए भी डेढ़ प्रतिशत बीमा प्रीमियम निर्धारित किया गया है।
पहले जहां किसानों को 50 प्रतिशत फसल के नुकसान पर बीमा योजना का लाभ दिया जाता था, वहीं अब मात्र एक तिहाई फसल के नुकसान पर बीमा योजना का लाभ प्राप्त होगा। सरकार ने राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना व संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का विलय कर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना तैयार की है।
> प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की प्रमुख विशेषताएं
> इस योजना के तहत आग लगने के अलावा बिजली गिरने ओला पड़ने, तूफान आने, चक्रवात, आंधी, बाढ़, जलभराव, जमीन धंसने, सूखा, खराब मौसम, कीट एवं फसल को होने वाली बीमारियों से नुकसान को शामिल किया गया है।
> फसल की बोआई का भी बीमा : अगर कोई किसान फसल की बोआई व रोपा के लिए पैसे खर्च करता है, पर उसके बाद भी खराब मौसम के कारण वह रोपाई-बोआई नहीं कर पाता है, तो बीमित राशि का 25% तक नुकसान का दावा वह कर सकता है।
> फसल की कटाई के बाद भी बीमा : कटाई के बाद रखी हुई फसल को चक्रवात, बेमौसम बारिश व स्थानीय आपदा जैसे- ओला, जमीन धंसने और जलभराव से होने वाले नुकसान का आकलन प्रभावित खेत के आधार पर किया जायेगा और इसके अनुसार ही किसान के नुकसान का आकलन कर दावा तय किया जायेगा।
> योजना का लाभ लेना हुआ सुगम : प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लाभ पाने के लिए किसान निकतटम बैंक शाखा, कृषि सहकारिता समिति, बीमा कंपनी के एजेंट से संपर्क कर सकते हैं। इस योजना के तहत बैंक केसीसी धारक किसान के लिए जरूरी प्रीमियम बीमा कंपनियों के पास स्वतः भेज देते हैं और किसानों का बीमा हो जाता है। जिन किसानों के पास केसीसी नहीं है, वे निकटतम बैंक या तय की गयी बीमा कंपनी के स्थानीय एजेंट को प्रीमियम का भुगतान करके फसल बीमा करा सकते हैं। इस योजना के तहत बीमा इकाई क्षेत्रीय दृष्टिकोण को अमल में लायी जायेगी। मुख्य फसलों के लिए बीमा इकाई ग्राम पंचायत स्तर पर होगी। अन्य फसलों के लिए बीमा इकाई राज्य सरकार द्वारा तय की जायेगी, जो गांव या पंचायत से बड़ी हो सकती है।
> तकनीक का होगा उपयोग : नयी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में फसल कटाई के आकलन की तस्वीरें खींच कर सर्वर में अपलोड की जायेगी, जिससे फसल कटाई के आंकड़े जल्द से जल्द बीमा कंपनी को मिल सकेंगे। इससे फसल बीमा के दावे का निबटान त्वरित गति से हो सकेगा। इस पद्धति में रिमोट सेंसिंग व ड्रोन तकनीक का भी इस्तेमाल किया जायेगा।
प्रश्न 5: ठोस अपशिष्ट का प्रबंध क्या है ? नगरीय और औद्योगिक अपशिष्ट के कारण, प्रभाव व नियंत्रण के उपाय लिखें।
उत्तर : ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (Solid Waste Management) : ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का संबंध अपशिष्ट पदार्थों के निकास से लेकर उसके उत्पादन व पुनः चक्रण द्वारा निपटान करने की देखरेख से है। अत: ठोस अपशिष्ट प्रबंधन को निम्न रूप में परिभाषित किया जा सकता है: ठोस अपशिष्ट के उत्पादन का व्यवस्थित नियंत्रण, संग्रह, भंडारण, ढुलाई, निकास पृथक्करण, प्रसंस्करण, उपचार, पुनः प्राप्ति और उसका निपटान।
अपशिष्ट प्रबंधन शब्द सभी प्रकार के कचरे से संबंध रखता है चाहे वह कच्चे माल की निकासी के दौरान उत्पन्न हुआ हो या फिर कच्चे माल के मध्य और अंतिम उत्पाद के प्रसंस्करण के दौरान निकला हुआ हो या अन्य मानव गतिविधियों जैसे नगरपालिका (आवासीय, संस्थागत व वाणिज्यक), कृषि संबंधी और विशेष (स्वास्थ्य देखभाल, खतरनाक घरेलू अपशिष्ट, माल का कीचड़) से संबंधित हो । अपशिष्ट प्रबंधन का अभिप्राय स्वास्थ्य, पर्यावरण या सौन्दर्यात्मक पहलुओं पर कचरे के प्रभाव को कम करने का है।
> अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित प्रमुख कार्य निम्नवत हैं
1.कचरे का उत्पादन
2. कचरा कम करना
3.कचरे को हटाना
4. कचरे की ढुलाई
5. अपशिष्ट प्रशोधन
6. पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग
7. भंडारण, संग्रह, ढुलाई और स्थानातरण
8. उपचार
9. भराव क्षेत्र निपटान
10. पर्यावरण महत्व
11. वित्तीय और व्यापारिक पहलू
12. नीति और अधिनियम
13. शिक्षण और प्रशिक्षण
14. योजना और कार्यान्वयन
> ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के कार्यात्मक तत्व
अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित अनेक कार्यों में से कुछ कार्य जो व्यवहारिक रूप से संपादित कराये जाते हैं अथवा कराये जा सकते हैं, वे निम्नवत हैं –
> अपशिष्ट उत्पादन : अपशिष्ट उत्पादन में वे गतिविधियां शामिल हैं जिसमें सामग्रियों को बे-मूल्य के रूप में पहचाना जाता है और या तो बाहर फेंक दिया जाता है या निपटान के लिए एकत्रित किया जाता है। अपशिष्ट संग्रहण और पृथक्करण : कचरा निपटान और पृथक्करण में वे गतिविधियां शामिल हैं जो कचरे के प्रबंधन से संबंधित हैं, जब तक कि उन्हें भंडारण कंटेनर में एकत्र करने के लिए रख नहीं दिया जाता। संग्रहण के अंतर्गत एकत्रण बिन्दु तक भरे हुए कंटेनरों की आवाजाही भी शामिल हैं। स्रोत पर ठोस कचरे के निपटान और भंडारण में अपशिष्ट घटकों का पृथक्करण एक महत्वपूर्ण कदम है।
> एकत्रीकरण : एकत्रीकरण के कार्यात्मक तत्व में न केवल ठोस अपशिष्ट और पुनर्नवीनीकरण योग्य सामग्री का एकत्रण शामिल है, बल्कि एकत्रण के बाद इन सामग्रियों का उस स्थान तक परिवहन भी शामिल है जहां एकत्रण वाहन को खाली कर दिया जाता है। यह स्थान एक सामग्री प्रसंस्करण सुविधा, एक स्थानान्तरण स्टेशन या एक लैंडफिल निपटान स्थल हो सकता है।
> पृथक्करण और प्रसंस्करण और ठोस कचरे का रूपांतरण: ठोस कचरे को स्रोत पर ही उनके प्रकृति के अनुरूप अलग-अलग श्रेणियों में पृथक कर विभिन्न निपटान स्थलों पर भेजा जाता है। जहां उनका आवश्यकतानुसार छोटे-छोटे टुकड़ों में रूपान्तरण किया जाता है। इस प्रक्रिया विशेष रूप से इस तथ्य की ओर ध्यान दिया जाता है कि अवशिष्ट पदार्थों के हानिकारक प्रभाव को न्यून किया जाये ताकि उसका अल्प अवधि में प्रभावी विघटन हो सके।
> स्थानांतरण और परिवहन : इस तत्व में दो चरण शामिल हैं –
1. छोटे संग्रह वाहनों में कचरे का बड़े परिवहन उपकरण में स्थानांतरण
2. कचरे का बाद का परिवहन, आम तौर पर लंबी दूरी पर, एक प्रसंस्करण या निपटान साइट के लिए
> निपटान : विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों के निपटान की सरल विधि है उसे आबादी से दूर निर्जन जमीन में गड्ढा बना कर दबा देना। यह विधि अपशिष्ट के जलाने के अपेक्षा ज्यादा सुरक्षित माना जाता है क्योंकि इसमें जलने से उत्पन्न हानिकारक ग्रीनहाउस गैसों यथा- क्लोरो फ्लोरो कार्बन का उर्ल्सजन नहीं होता है। विकसित देशों में अपशिष्टों को बड़ी-बड़ी भट्ठियों में भस्म करने की व्यवस्था की गयी है जो निपटान की अन्य विधियों में ज्यादा सुरक्षित है।
> ऊर्जा उत्पादन : नगरपालिका ठोस अपशिष्ट का इस्तेमाल ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है। कई तकनीकों का विकास किया गया है जो पहले से अधिक स्वच्छ और अधिक किफायती ऊर्जा उत्पादन के लिए MSW का प्रसंस्करण करते हैं, जिसमें शामिल है लैंड फिल गैस अवशोषण, दहन, पाइरोलिसिस, गैसीकरण और प्लाज्मा चाप गैसीकरण, जबकि पुराने अपशिष्ट भट्टी संयंत्र, उच्च स्तरीय प्रदूषकों का उत्सर्जन करते थे, हाल के विनियामक परिवर्तन और नई प्रौद्योगिकियों ने इस चिंता को काफी कम कर दिया है। स्वच्छ वायु अधिनियम के तहत 1995 और 2000 में EPA नियमों ने अपशिष्ट से ऊर्जा सुविधाओं से होने वाले डाईऑक्सिन उत्सर्जन को 1990 के स्तर से 99% से अधिक कम किया है, जबकि उत्सर्जन को 90% से अधिक कम किया गया है। EPA ने 2003 में इन सुधारों का उल्लेख किया और अपशिष्ट से ऊर्जा विधि को बिजली का एक स्रोत बताया जिसमें ‘- बिजली के किसी भी अन्य स्रोत के मुकाबले कमतर पर्यावरणीय प्रभाव है । ‘
> नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट के कारण
भारत में नगरीयकरण की प्रक्रिया तेज होने के साथ ही शहरों, कस्बों से निकलने वाले ठोस एवं तरल कचरे की मात्रा में भी भारी वृद्धि हो गई है। टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान के एक आकलन के अनुसार भारत में प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति कचरे की मात्रा छोटे कस्बों में 100 ग्राम तथा बड़े शहरों में 500 ग्राम तक है। यद्यपि, भारत में कचरे के बनने, संगृहीत करने तथा उसका निस्तारण करने के बारे में अधिकृत तौर पर कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं है। यद्यपि, देश के प्रमुख शहरों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कचरे की मात्रा में हुई वृद्धि शहरी जनसंख्या में हुई वृद्धि से कहीं अधिक है।
> नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट का प्रभाव
आम तौर पर ठोस कचरे के निस्तारण हेतु शहरों के किनारे खाली पड़ी भूमि पर राशिपतन की विधि ही अपनायी जाती रही है । जो कचरा निस्तारण की सर्वाधिक अस्वच्छ विधि है। इससे Leachate प्रभाव से भूमिगत जल स्रोत प्रदूषित होते हैं तथा खुले में कचरा डालने से मक्खियां, मच्छर, कॉकरोज, चूहे तथा अन्य कीट पैदा होकर बीमारियां फैलाने की सम्भावनाएं बढ़ा देते हैं। इसलिए स्थानीय निकायों के समक्ष अपने कस्बों एवं शहरों की गलियों सड़कों तथा आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखने के लिए प्रतिदिन निकलने वाले कचरे को उठाने, संगृहीत करने तथा उसका निस्तारण करने की समस्या अति गंभीर है।
> नगरीय तथा औद्योगिक अपशिष्ट का नियंत्रण
इस समस्या का स्थायी तौर पर समाधान ठोस कचरे को विभिन्न प्रकार की ऊर्जा में परिवर्तित कर देने में निहित है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं के गोबर तथा कृषि फसलों के कचरे के एन-एयरोबिक द्वारा ऊर्जा प्राप्त करने की विधि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही अपनायी जा रही है। तथापि ऊर्जा के एक वैकल्पिक स्रोत के रूप में ‘कचरे की ऊर्जा’ एक नवीन अवधारणा है। जिसे कोई बहुत अधिक सफलता नहीं मिल सकी। दूसरी ओर मीडिया जगत् और गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठन खाली जगह पर कचरा डालने या कचरे को जलाने की विधि की आलोचना करते रहे हैं, क्योंकि इससे ग्रीन हाउस गैसें, बीमारियां फैलाने वाले कीड़े-मकोड़े क्रमशः उत्सर्जित एवं पैदा होते हैं।
कचरा प्रबंधन एक जटिल समस्या है। जिसका सम्बन्ध केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों, स्थानीय नगर निकायों, समुदायों/ गैर-सरकारी संगठनों एवं न्यायपालिका आदि से है। कचरे से ऊर्जा सृजन की प्रक्रिया केन्द्रीय सरकार के स्तर से प्रारंभ होती है। भारत सरकार का गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय कचरे के निस्तारण हेतु पुनः प्रयोज्य प्रौद्योगिकियों तथा ऊर्जा बनाने के बारे में स्थानीय नगर निकायों को कचरा प्रबंधन की विधियों और उनके वित्तीयन हेतु सामान्य दिशा-निर्देश जारी करता है। इस कार्य में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की भी सक्रिय भूमिका है। इसी मंत्रालय ने सन् 2000 में म्युनिसिपिल ठोस कचरा प्रबंधन नियमावली जारी करके कचरे के जलाने तथा खुले ट्रकों में उसे डम्पिंग साइट तक ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
अप्रैल 2016 में वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 16 साल बाद कचरा प्रबंधन के नियमों को संशोधित कर लागू किया गया है।
अथवा
> प्रश्न : जलवायु परिवर्तन के प्रमाणों और कारणों का विवरण प्रस्तुत कीजिए। 
उत्तर : वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दे (Global Environmental Issues) : हमने विकास के नाम पर वृक्ष काटे तो ऑक्सीजन और कार्बन डाईआक्साइड का चक्र ही बिगड़ गया। एक तरफ शुद्ध हवा का अभाव होने लगा तो दूसरी तरफ कार्बन डाईआक्साइड ने विश्वतापन (Global Warming) की समस्या खड़ी कर दी। वृक्ष नहीं तो वर्षा भी नहीं । वर्षा नहीं तो आगे वृक्षों की संभावना भी नहीं। कमजोर वृक्षों ने पकड़ ढीली कर दी तो उपजाऊ मिट्टी कटने लगी, उत्पादन घटने लगा, लोग भुखमरी का शिकार होने लगे । जमीन की हालत गैर- उपजाऊ और बंजर की श्रेणी में आने लगी। औद्योगिक क्रांति का सहायता लिया तो चारों और प्रदूषण बिखर गया। साथ ही अपशिष्ट निस्तारण की समस्या आ गई। सब मिलाकर मनुष्य का जीवन कष्टमय बन गया।
अब सुखी जीवन की कल्पना पर्यावरण की समस्याओं से छुटकारा पाने में लग गई । जनसंख्या वृद्धि ने व्यक्तिगत, सरकारी तथा सभी अन्य प्रयासों को झुठला दिया। कुल मिलाकर आज स्थिति यह है कि पर्यावरण की समस्याओं के आगे हम बिल्कुल विवश और असहाय हो गये हैं और हमारे समक्ष जलवायु परिवर्तन (Climate Change), ग्लोबल वॉर्मिंग (Global Warming), हरित गृह प्रभाव (Green House Effect), अम्लीय वर्षा (Acid Rain), ओजोन परत विघटन (Ozone Layer Depletion) आदि पर्यावरणीय समस्याएं विकराल रूप में हमारे सामने प्रकट हो गई हैं।
जलवायु परिवर्तन (Climate change) : किसी बड़े भू-भाग के वायुमंडल के मूल तत्वों, जैसे वायुमंडलीय तापमान, वायुदाब, पवन तथा आर्द्रता के दीर्घकालीन दशाओं का औसत उस भू-भाग का जलवायु कहलाता है।
जलवायु परिवर्तन का आशय जलवायु में आने वाले व्यापक बदलाव से है। मौसम के स्वरूप में बदलाव खाद्य उत्पादन के लिए चुनौती पैदा कर सकता है, जबकि समुद्री स्तर में बढ़ोतरी तटीय जल भंडारों को दूषित कर सकती है और भयंकर बाढ़ की स्थिति पैदा कर सकती है। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में चट्टान एवं हिमस्खलन और कुछ आर्कटिक एवं अंटार्कटिक वनस्पति और प्राणी समूहों में बदलाव जैसे अन्य प्रभाव भी शामिल हैं।
वायु प्रदूषण का एक कारण विभिन्न स्रोतों से वायुमंडल में छोड़े जानेवाले विविक्त पदार्थ (Particulate Matters) भी हैं। वायुमंडल में जब ऐसे पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में एकत्र हो जाते हैं तब ऐसा हो सकता है कि और विकिरण के कुछ अंश इनसे परावर्तित होकर अंतरिक्ष में चले जाएं। ऐसी स्थिति में पृथ्वी का तापमान घट सकता है।
प्रकृति में होने वाली भौगोलिक क्रियाओं, जैसे पर्वतों का निर्माण, महाद्वीपों के उत्थापन तथा महाद्वीपीय विस्थापन ने पूरे विश्व की जलवायु को अत्यधिक प्रभावित किया है।
> जलवायु परिवर्तन के कारण –
1. पृथ्वी और सूर्य के बीच ज्यामितीय संबंध : मौसमी उलटफेर, धरती और सूरज के बीच ज्यामितीय रिश्तों पर टिका है। पृथ्वी का परिक्रमा पथ या पृथ्वी की कक्षा की आकृति सदैव एक समान नहीं रहती। यह लगभग एक लाख वर्ष के चक्र में गोलाकार से अण्डाकार रूप से बदलती रहती है। इसी कारण से सूर्य और धरती के बीच की दूरी तथा आपसी कोण में समय-समय पर परिवर्तन दिखाई देता है। यही फेर बदल धरती के जलवायु में परिवर्तन लाता रहता है ।
2. सौर विकिरण : मौसमी परिवर्तन के लिए जिम्मेदार दूसरा तथ्य सौर विकिरण है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि सौर विकिरण की कितनी मात्रा पृथ्वी पर आ रही है। इसमें विचारणीय तथ्य है कि कोई क्षेत्र विशेष किस-किस देशान्तर पर स्थित है तथा इस स्थान की ध्रुवों से सापेक्ष दूरी कितनी है।
3. महासागरों की भूमिका : वैश्विक जलवायु प्रणाली के नियामक के रूप में महासागरों की विशिष्ट भूमिका होती है।
इस संबंध में दो बातें उल्लेखनीय हैं –
(i) हमारा वायुमंडल पृथ्वी पर मौजूद 72% क्षेत्र की जलराशि के संपर्क में सदैव रहता है। जितनी उष्मा पूरे उर्ध्वाधर वायुमंडल में धारित होती है उतनी ही उष्मा महासागरों की सतह से केवल 3 मीटर की गहराई में धारित रहती है। सूर्य से आपतित विकिरण को महासागरों की सतह पहले अवशोषित करती है और फिर इसे वायुमंडल में धीरे-धीरे विकिरित करती है।
(ii) विशाल – मात्रा में उष्माधारिता क्षमता संपन्न होने के कारण महासागर जलवायु को स्थायित्व प्रदान कर सकते हैं।
4. अलनीनो की भूमिका : सागर गरम होने से मौसम में भारी उलट-फेर करने वाले अलनीनो की भूमिका महत्वपूर्ण है। अलनीनो में पूर्वी प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों में सागर की ऊपरी सतह पर पानी गर्म हो जाता है इससे सागर के ऊपर बहने वाली हवाएँ भी गर्म हो जाती हैं और उनका रुख पलट जाता है। 4.
5. वायुमंडलीय एरोसोल की उपस्थिति : वायुमंडलीय पारदर्शिता की भिन्नता ऐरोसोल की उपस्थिति के कारण होती है। वायुमंडल में लटके हुए तरल या ठोस कणों को एरोसोल कहते हैं। क्षोभमंडल में ऊर्ध्वाधार गतियां होने से वहां एरोसोल की औसत उपस्थिति दस दिन से ज्यादा नहीं हो पायी। कुछ शोध कर्त्ताओं का मत है कि क्षोभमंडल में एरोसोल की उपस्थिति के कारण पृथ्वी पर तापमान बढ़ता है तो कुछ का मत है कि घटना है।
6. वैश्विक ताप वृद्धि : वैश्विक ताप वृद्धि भी मौसम में भयानक परिवर्तन के लिए काफी हद तक जिम्मेवार है। वायुमंडल में बढ़ती उष्माशोषी गैसों जैसे- कार्बन डाईऑक्साइड, जलवाष्प, नाइट्रस ऑक्साइड आदि के कारण वायुमंडल अधि क उष्माशोषी होता जा रहा है और धरती अधिक गरम होती जा रही है।
> जलवायु परिवर्तन के प्रमाण
जलवायु परिवर्तन आज विश्व में एक खतरनाक रूप के साथ यह एक अंतर्राष्ट्रीय चुनौति बन चुकी है। मनुष्य आज इसका प्रभाव अनुभव करने लगा है क्योंकि मौसम का बदलता स्वरूप, में समुद्र बढ़ता जलस्तर तथा मौसम का रौद्र रूप इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। मानव निर्मित वैज्ञानिक अनुसंधान तथा मानव द्वारा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन पर्यावरण को बद से बदतर बना रहा है। यह अब तक के इतिहास के उच्चतर स्तर पर पहुंच चुका है। अतः अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयास प्रारंभ हो चुका है कि किस प्रकार इस बढ़ती वैश्विक समस्या से निपटा जाये। इस हेतु अब यह प्रयास किया जाने लगा है कि परम्परागत ऊर्जा के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा का
प्रयोग अंतर्राष्ट्रीय समुदाय किस प्रकार करे ताकि इस बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय समस्या का समाधान निकाला जाये।
> वन / वन्य जीव तथा जलवायु परिवर्तन : उत्सर्जित कार्बन को सोखने का सबसे सस्ता साधन वन है जो स्वयं भी तापमान में वृद्धि होने से प्रभावित हो रहा है। इससे केवल पेड़-पौधों ही प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि अन्य जीव-जन्तु भी स्वयं को अनुकूल वातावरण में ढालने के लिए अपने मूल निवास को छोडकर नजदीक के किसी अन्य स्थान में जा रहे हैं यह आनेवाले समय में मानव और जन्तुओं के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर रहा है।
झारखण्ड में जंगलों पर खनन और ईंधन की जरूरतों को पूरा करने के लिए दबाव बना हुआ है। झारखण्ड के संदर्भ में : झारखण्ड राज्य में सबसे अधिक प्रभाव वनों पर पड़ने की आशंका है। वनों के प्रकार में 60% 70% नकारात्मक परिवर्तन के कारण जैवविविधता के प्रभावित होने की संभावना व्यक्त की गयी है। इन परिवर्तनों से राज्य की सभी सामाजिक एवं पारिस्थितिकीय प्रणालियां प्रभावित होंगी।
> जलीय क्षेत्र और जलवायु परिवर्तन : भारतीय नदियों के बारे में जलवायु विज्ञान के प्रभाव के मूल्यांकन से पता चलता है कि देश के कुछ हिस्सों में सूखे की गंभीर स्थिति पैदा होने से हालात बिगड़ सकते हैं, जबकि देश के दूसरे हिस्सों में बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो सकती है। कच्छ और सौराष्ट्र, जो गुजरात के कुल क्षेत्र के करीब एक चौथाई तथा राजस्थान के कुल क्षेत्र के 60% हिस्से में फैले हुए हैं, को भारी जल संकट की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। माही, पेन्नार, साबरमती तथा तापी नदियों के कछार में भी पानी की कमी के हालात पैदा हो रहे हैं। कावेरी, गंगा, नर्मदा तथा कृष्णा नदियों के कछार में मौसमी नियमित जलभराव के हालात पैदा होंगे जबकि गोदावरी, ब्राह्मणी और महानदी के कछार में पानी की कमी नहीं होगी, परंतु उन क्षेत्रों में भीषण बाढ़ का खतरा बना रहेगा। हिमालय के हिमनदों के जलस्तर में कमी भी वैश्विक तापमान में वृद्धि में योगदान कर रही है। इसका भारतीय नदियों और अनेक एशियाई नदियों के जलस्तर पर गहरा असर पड़ रहा है। मध्य से लेकर उच्च ऊंचाइयों वाले स्थानों पर फसल के उत्पादन में 1 से 3 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तक स्थानीय तापमान में वृद्धि होने पर हल्की वृद्धि की संभावना है और कुछ क्षेत्रों में उससे ज्यादा तापमान पर फसल के उत्पादन में कमी आएगी। कम ऊंचाइयों पर, खासकर मौसमी सूखे तथा उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में फसल की उत्पादकता में स्थानीय तापमान में हल्की वृद्धि 1 डिग्री से 2 डिग्री सेंटीग्रेड के बावजूद कमी आएगी, जिससे भुखमरी की स्थिति पैदा होने का खतरा बढ़ेगा।
तटीय इलाकों पर समुद्र जल स्तर में वृद्धि का प्रभाव पड़ेगा। ज्यादा चिंता का विषय निचले पठारी क्षेत्र, खासकर गंगा नदी बेसिन वाले इलाके होंगे। समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की वृद्धि से बांग्लादेश के 30,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र और भारत के 5,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जल प्लावित हो जाएंगे। तापमान और वर्षा की स्थिति में बदलाव से प्राकृतिक पारिस्थितिकीय प्रणाली पर भी प्रभाव पड़ेगा।
> खान और जलवायु परिवर्तन : खनन संबंधी गतिविधियां स्थानीय क्षेत्रों को प्रदूषित करते हैं। निकाले गये खनिज और मिट्टी का ढ़ेर जमीन पर जमा हो जाता है जो कि बहकर नजदीक के जलाशयों और भूमि में बहकर जाता है। ऐसा अनुमान है कि 2006 में 1.6 विलियन टन अपशिष्ट पदार्थ, कोल, लौह अयस्क, चूना पत्थर और बाक्साइट का ढेर जमा हुआ था, इसके साथ ही खनन द्वारा होने वाले वायु प्रदूषत और खनिजों का परिहवन आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करते हैं। राज्य में खनन क्षेत्र बड़े नदियों के जल क्षेत्र में पड़ते हैं। अतः पानी से उत्पन्न समस्या एक सामान्य घटना है जिसका खान प्रबंधकों और सदस्यों द्वारा सामना किया जाता है।
उपर्युक्त समस्या के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक स्तर पर वनस्पति जगत एवं प्राणी जगत के खतरे की बढ़ते परिमाण / मात्रा को देखते संयुक्त राष्ट्र ने प्रयास शुरू कर दिया है। झारखण्ड राज्य इस पर्यावरणीय समस्या का मात्र एक अंश भर है। राज्य में जनजातियों का कुल जनसंख्या संकेन्द्रण जनगणना 2011 के अंतिम आकड़ों के अनुसार 26.2 प्रतिशत है जो प्राथमिक रूप से ग्रामीण है तथा अपने भोजन पानी के लिए मुख्य रूप से वर्षा तथा जलवायु आधारित कृषि पर निर्भर है। इस जलवायु परिवर्तन का सामाजिक आयाम तथा समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को इनके आय निर्माण की क्षमता, स्वास्थ्य शिक्षा, प्रवास, सामाजिक द्वंद / संघर्ष तथा भोजन एवं रोजगार में परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है।
प्रश्न 6: वैश्विक ऊर्जा संकट क्या है? ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का विस्तृत विवरण लखें ।
उत्तर : वैश्विक ऊर्जा संकट : विश्व के सभी देश आज विकास के पथ पर सबसे आगे निकल जाने को बेताब है। इसके लिए वे औद्योगीकरण से लेकर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तक के हर सम्भव- असम्भव उपाय कर रहे हैं। पिछली शताब्दी में ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों का बहुत दोहन हुआ है।
जिस तरह यह दोहन वर्तमान में हो रहा है, यदि इसी तरह आगे भी होता रहा, तो वर्ष 2050 के बाद पृथ्वी पर इन संसाधनों का अभाव हो जाएगा। ऊर्जा के संसाधनों के अभाव की यह स्थिति ऊर्जा संकट कहलाती है ।
ऊर्जा संकट को ठीक से समझने के लिए हमें सबसे पहले यह जानना होगा कि ऊर्जा क्या है? ऊर्जा वह शक्ति है, जिसकी
सहायता से कोई क्रिया सम्पन्न की जाती है। मनुष्य को कार्य करने के लिए ऊर्जा भोजन से मिलती है। हम अपने दैनिक जीवन में वैज्ञानिक यन्त्रों का प्रयोग करते हैं ।
इन वैज्ञानिक यन्त्रों को चलाने के लिए हमें खनिज तेल एवं विद्युत की आवश्यकता होती है। इस तरह, वैज्ञानिक यन्त्रों (मोटरगाड़ी, ट्रेन इत्यादि) की ऊर्जा का स्रोत खनिज तेल या विद्युत होता है। जिन संसाधनों से हमें ऊर्जा प्राप्त होती है, उन्हें हम ऊर्जा के स्रोत कहते है।
कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, सूर्य, पवन, जल इत्यादि ऊर्जा के विभिन्न स्रोत हैं। कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस इत्यादि का प्रयोग सदियों से हो रहा है, इन्हें ऊर्जा के परम्परागत स्रोत कहा जाता है। ऊर्जा के ये परम्परागत स्रोत सीमित हैं।
उद्योगों में, परिवहन में तथा घरेलू उपयोग में ऊर्जा के उपयोग में निरंतर वृद्धि होने के कारण अनेक ऊर्जा स्रोतों की कमी होने लगी है तथा ऊर्जा संकट के प्रति आज संपूर्ण विश्व में चिंता व्याप्त है । यदि विगत 25 वर्षों के आंकड़ों पर दृष्टिपात करें तो यह तथ्य उभर कर आता है कि विश्व स्तर पर ईंधन की खपत दुगनी, तेल एवं गैस की खपत चौगुनी और बिजली की खपत सात गुनी बढ़ गई हैं।
स्पष्ट है कि ऊर्जा संसाधन तीव्र गति से समाप्त होते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त जल विद्युत एवं आणविक शक्ति का उपयोग दिन-प्रतिदिन अधिक होता जा रहा है तथा उनका प्रभाव पर्यावरण पर भी देखा जा सकता है।
> ऊर्जा के वैकल्पिक ( गैर परंपरागत ) स्रोत
गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, गोबर-गैस, व्यर्थ जल-मल द्वारा विद्युत उत्पादन आदि सम्मिलित होते हैं, गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों से पर्यावरण सुरक्षित रहता है।
> जल विद्युत ऊर्जा : यह ऊर्जा का एक ऐसा स्रोत है जो जल प्रवाह से संबंधित होने के कारण अनवरत रह सकता है। संपूर्ण विश्व में जल विद्युत का लगभग 4250 टेरा वाट (TW) उत्पादन होता है। इसका उपयोग उद्योगों, परिवहन, कृषि, सिंचाई एवं घरेलू कार्यों में किया जा रहा है और इस उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है।
भारत में भी जल विद्युत का अत्यधिक विकास किया जा रहा है फिर भी लगभग 2 करोड़ यूनिट विद्युत की कमी है। विद्युत उत्पादन हेतु अनेक वृहत् एवं छोटे बांधों का निर्माण किया जा चुका है और 43 निर्माणाधीन हैं। जल विद्युत को ऊर्जा का ऐसा स्रोत माना जाता रहा है जिसका पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत प्रभाव नहीं होता किंतु यह धारणा गलत है। जल विद्युत हेतु बनाये गये बांधों से अनेक पारिस्थितिक प्रभाव होते हैं।
> आण्विक शक्ति : वर्तमान विश्व में आण्विक शक्ति एक प्रमुख ऊर्जा स्रोत के रूप में उभरा है जो मानवीय विकास का परिचायक है। इसमें परमाणु खनिज जैसे- यूरेनियम, थोरियम आदि का उपयोग कर तकनीकी प्रक्रिया से विद्युत उत्पादित की जाती है।
विश्व के न केवल विकसित देशों जैसे- अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, जापान, रूस आदि में परमाणु विद्युत का विकास हुआ है अपितु भारत में भी नाभिकीय ऊर्जा का विकास तीव्र गति से हो रहा है और इसका विश्व में सातवाँ स्थान है।
> सौर ऊर्जा : विगत कुछ दशकों में सौर ऊर्जा पर पर्याप्त अनुसंधान हो रहे हैं और इसका प्रयोग भी होने लगा है। सौर ऊर्जा का प्रयोग मकानों को ठण्डा अथवा गर्म रखने में, जल गर्म करने में, सौर पंप द्वारा पानी निकालने में, शुष्कक, सौर वातानुकूलन, सौर कुकर, सौर रेफ्रिजरेटर, सौर इंजन, सौर सेल द्वारा विद्युत उत्पादन आदि में होने लगा है।
जिन देशों में (जैसे- दक्षिणी- पूर्वी एशिया, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया के देशों में) वर्षपर्यंत सूर्य की किरणें उपलब्ध हैं वहां वर्षभर निर्बाध रूप से सौर ऊर्जा का उपयोग संभव है। भारत के भू-भाग पर लगभग 748 गिगा वाट (GW) सौर ऊर्जा प्रतिवर्ष उपलब्ध होती है। इस ऊर्जा हेतु विभिन्न प्रकार के संचायकों (कलेक्टर) का उपयोग किया जाता है। सौर ऊर्जा का विस्तृत उपयोग सौर विद्युत मीनार, सौर फार्म, सौर सरोवर, सौर चुम्बक द्रव गतिकीय संयंत्र में किया जाता है।
वास्तव में सौर ऊर्जा मानव के हाथ में अक्षय ऊर्जा का स्रोत है, आवश्यकता है इसे उत्पादित एवं संचय कर उपयोग करने की। इस दिशा में पर्याप्त शोध हो रही है और वह दिन दूर नहीं जब इसका उपयोग सामान्य हो जायेगा।
> पवन ऊर्जा : सौर ऊर्जा के समान ही वायु द्वारा ऊर्जा प्राप्त करना प्रचलित है। इसके लिये पवन चक्कियों का प्रयोग किया जाता है। जिन स्थानों पर वायु प्रवाह की गति लगभग 10 कि.मी. प्रति घंटा हो वहाँ पवन चक्की का उपयोग कर विद्युत उत्पादन कर इसका विविध प्रकार से उपयोग किया जा सकता है ।
> ज्वारीय ऊर्जा: समुद्र तटीय भागों में ज्वारीय ऊर्जा सामुद्रिक लहरों द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। इसका अति सीमित प्रयोग होने लगा है ।
> जैव ऊर्जा : कभी-कभी छोटे इंजन चलाने में भी जैव ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। जैव पदार्थ से ऊर्जा प्राप्त करने की भी पर्याप्त संभावनायें हैं। विभिन्न पौधों से एथानोल का उत्पादन कर उनका उपयोग डीजल, नेफ्ता तथा गैसोलीन के विकल्प के रूप में किया जा सकता है।
> एथानोल : गैसोलीन में 20 प्रतिशत के अनुपात से एथानोल मिलाकर उसकी खपत कम की जा सकती है। एथानोल गन्ना, लकड़ी, चुकन्दर, मक्का, कसावा आदि के अपशिष्टों द्वारा उत्पादित किया जा सकता है।
> अन्य स्रोत : सीमित ऊर्जा उत्पादन में गोबर गैस प्रमुख है। जानवरों के गोबर एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थों को एक साधारण प्लांट में डालकर उसमें उपस्थित मिथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, कुछ मात्रा हाइड्रोजन सल्फाइड आदि गैसों का ईंधन के रूप में उपयोग किया जाता है।
ऊर्जा संकट को हल करने तथा पर्यावरण को उनसे होने वाली हानि से सुरक्षित रखने हेतु गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत ही आशा की किरण हैं। इनका समुचित विकास एवं सर्वसाधारण में प्रचलन हेतु अभी पर्याप्त अनुसंधान की आवश्यकता है।
अथवा
प्रश्न: कैंसर रोग की परिभाषा दें। कैसर के प्रकार का वर्णन करें। कारसेनोजेन्स की सूची दें।
उत्तर : कैंसर की परिभाषा : मानव शरीर कई अनगिनत कोशिकाओं यानी सैल्स से बना हुआ है और इन कोशिकाओं में निरंतर ही विभाजन होता रहता है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है और इस पर शरीर का पूरा नियंत्रण होता है। लेकिन कभी-कभी जब शरीर के किसी विशेष अंग की कोशिकाओं पर शरीर का नियंत्रण बिगड़ जाता है और कोशिकाएं बेहिसाब तरीके से बढ़ने लगती हैं, उसे कैंसर कहा जाता हैं।
कैंसर की शुरूआत : मानव शरीर में जब कोशिकाओं के जीन में परिवर्तन होने लगता है, तब कैंसर की शुरुआत होती है। ऐसा नहीं है कि किसी विशेष कारण से ही जीन में बदलाव होते हैं, यह स्वंय भी बदल सकते हैं या फिर दूसरे कारणों की वजह से ऐसा हो सकता है, जैसे-गुटका-तंबाकू जैसी नशीली चीजें खाने से, अल्ट्रावॉलेट रे या फिर रेडिएशन आदि इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
ज्यादातर यह देखा गया है कि कैंसर शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता यानि इम्यून सिस्टम की कोशिकाओं को समाप्त कर देता है, परंतु कभी-कभी कैंसर की कोशिकाएं को इम्यून सिस्टम झेल नहीं पाता और व्यक्ति को कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी हो जाती है। जैसे-जैसे शरीर में कैंसर वाली कोशिकाएं बढ़ती रहती हैं, वैसे-वैसे ट्यूमर यानि एक प्रकार की गांठ उभरती रहती है। यदि इसका उपचार सही समय पर न किया जाए तो यह पूरे शरीर में फैल जाता है ।
> कैंसर के प्रकार
> डॉक्टर्स और शोधकर्ता मानते हैं कि कैंसर 200 से भी अधि क तरह का होता है और इसीलिए इनके लक्षण भी विभिन्न होते हैं। लेकिन हम उसी कैंसर के प्रकार के बारे में चर्चा करेंगे जिसने लोगों को बहुत तेजी से अपना शिकार बनाया है। ये हैं –
> ब्लड कैंसर : लोगों में सबसे तेजी से बढ़ने वाले कैंसर में ब्लड कैंसर सबसे आगे है। इस कैंसर में व्यक्ति के शरीर की रक्त कोशिकाओं में कैंसर पैदा होने लगता है और इसी के चलते शरीर में रक्त की कमी हो जाती है और कैंसर बहुत तेजी से शरीर में संक्रमित होना शुरू हो जाता है।
> फेफड़ों का कैंसर : फेफड़ों के कैंसर में व्यक्ति की स्थिति बहुत दयनीय और खराब हो जाती है। सांस लेने में परेशानी, बलगम जमने की दिक्कत, हड्डियों- जोड़ों में बेहिसाब दर्द और भूख ना लगना इसके प्रमुख लक्षण हैं। शरीर में अधिक कमजोरी का आभास होता है। हर समय बेवजह ही थकान महशुस होती है। फेफड़ों के कैंसर के बढ़ने की वजह धुम्रपान है।
> ब्रेन कैंसर : ब्रेन कैंसर व्यक्ति के सिर वाले भाग में पनपता है। ब्रेन कैंसर का ही दूसरा नाम ब्रेन ट्यूमर भी है। इस कैंसर वाले रोगी के दिमाग वाले भाग में एक ट्यूमर यानि गांठ बन जाती है और यह गांठ समय के साथ-साथ बड़ी होने लगती है और धीरे-धीरे पूरे मस्तिष्क में फैल जाती है।
> स्तन कैंसर : स्तन कैंसर या जिसे ब्रैस्ट कैंसर भी कहते हैं, यह विशेषकर महिलाओं को होता है, परंतु ऐसा नहीं है कि यह पुरुषों को नहीं हो सकता । इस कैंसर से ग्रसित औरतों के स्तन में एक प्रकार की गांठ बननी शुरु हो जाती है, जो धीरे-धीरे समयानुसार बढ़ने लगती है। यदि इससे बचाव करना है तो नियमित रूप से स्तन की जांच करवाते रहना चाहिए।
> चर्म यानि स्किन कैंसर : चर्म कैंसर यानि स्किन कैंसर के मामले भी देश में बहुत तेजी से सामने आए हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि स्किन कैंसर बहुत अधिक गर्मी में रहने, उचित भोजन न करने और शून्य शारीरिक गतिविधि करने से शरीर में पनपता है। स्किन कैंसर हर उम्र के व्यक्ति को हो सकता है।
> कारसेनोजेन्स एवं उसकी सूची
> कारसेनोजेन्स : कारसेनोजेन्स प्राकृतिक या मानव निर्मित पदार्थ हैं जो कुछ शर्तों के तहत ट्यूमर के गठन का कारण बन सकते हैं। ये एजेंट न केवल में, बल्कि जानवरों में भी कैंसर पैदा कर सकते हैं। कारसेनोजेन्स की प्रकृति भिन्न हो सकती है। ये केवल रासायनिक यौगिक नहीं हैं। यदि कैंसर का उत्पन्न करने में सक्षम है, तो जैविक और भौतिक वस्तुओं को भी कारसेनोजेन्स माना जाता है। रासायनिक कार्सिनोजन सबसे आम है।
जैविक कारसेनोजेन्स में हेपेटाइटिस बी वायरस, एपस्टीन-बार या पेपिलोमावायरस शामिल हैं। भौतिक कारसेनोजेन्स आयनिंग और पराबैंगनी विकिरण, एक्स-रे और गामा किरणें हैं ।
> रासायनिक कारसेनोजेन्स और उनका श्रेणी में विभाजन:
> पॉलीसाइक्लिक सुगंधित हाइड्रोकार्बन्स
> नाइट्रोजनस सुगंधित पदार्थ
> अकार्बनिक मूल के धातु और लवण
> अमीनो यौगिक
> नाइट्रोसो यौगिक और नाइट्रामाइन।
शरीर पर प्रभाव की प्रकृति द्वारा वर्गीकरण :
> नाइट्रेट्स
> कुछ रंजक और खाद्य योजक
> तेल दहन उत्पाद
> कार्बन मोनोऑक्साइड घटक
> बेंजीन
> प्लास्टिक के जलते हुए उत्पाद
> बेंजोपाईरिन (benzopyrene )
> मोल्ड कवक विषाक्त पदार्थों (एफ्लैटॉक्सिन)
> डाइऑक्सिनस
> विनाइल क्लोराइड
> फॉर्मलडेहाइड (formaldehyde)
> आर्सेनिक
> कैडमियम
> हेक्सावलेंट क्रोमियम
> अभ्रक
> कुछ पौधों के एल्कलॉइड।
> कारसेनोजेन्स पदार्थ न केवल मानव गतिविधि की प्रक्रिया में, बल्कि प्रकृति में भी बनते हैं।
> घरेलू अपशिष्ट जलाने पर डायोक्सिन, बेंजीन और अन्य चक्रीय हाइड्रोकार्बन, फॉर्मलडीहाइड बनते हैं।
> बेंजोपाइरीन तम्बाकू का धुआं भी एक कारसेनोजेन है। तम्बाकू के धुएं में कई अन्य कारसेनोजेन्स होते हैं, जैसे- आर्सेनिक, रेडियोएक्टिव पोलोनियम और रेडियम। जो सिगरेट में भी पाया जाने वाला विनाइल क्लोराइड, न केवल कार्सिनोजेनिक है, बल्कि टेराटोजेनिक (भूण के लिए हानिकारक ) भी है।
> शराब के उत्पाद भी कैंसर का कारण बन सकते हैं। यह साबित होता है कि एसिटालडिहाइड, जो इथेनॉल प्रसंस्करण के परिणामस्वरूप बनता है, डीएनए क्षति का कारण बन सकता है। खाना पकाने में फ्राइंग के दौरान, कारसेनोजेन्स तेल पिघलने के परिणामस्वरूप बनते हैं।
> कुछ दवाओं यथा प्रेडनिसोलोन, विन्क्रिस्टाइन, प्रोकार्बाजिन, एम्बियिन, टेमोक्सिफेन, मेथोक्सालिन, माईलेरान आदि में कारसेनोजेन्स होते हैं।
> कोयले तथा ग्रेफाइट के साथ लंबे समय तक संपर्क के परिणामस्वरूप त्वचा कैंसर विकसित हो सकता है। पेंट और वार्निश उद्यमों के श्रमिकों में मूत्राशय के कैंसर का प्रसार काफी अधिक है।
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