वंशागति एवं विकास (Heredity and Evolution)
वंशागति एवं विकास (Heredity and Evolution)
वंशागति एवं विकास (Heredity and Evolution)
वंशागति (Heredity)
‘वंशागति’ का अर्थ माता-पिता से लक्षणों का सन्तानों तक जाना है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक DNA के द्वारा जाते हैं। DNA एक अणु है, जिस पर आनुवंशिक सूचनाएँ होती हैं तथा यह आनुवंशिक अणु की भाँति व्यवहार करता है। कुछ विषाणुओं को छोड़कर अन्य सब प्राणियों में DNA आनुवंशिक पदार्थ होता है, जबकि विषाणुओं में RNA आनुवंशिक अणु होता है।
प्रोकैरियोटिक तथा यूकैरियोटिक कोशिका में आनुवंशिक अणु की संवेष्टन (Packaging of Hereditary Material in Prokaryotic and Eukaryotic Cells)
यूकैरियोटिक कोशा में एक पूर्ण विकसित केन्द्रक होता है जिसमें केन्द्रक द्रव्य एवं केन्द्रक झिल्ली सभी पाए जाते हैं। जिसमें DNA न्यूक्लियोसोम के रूप में कुण्डलित होता है, जो हिस्टोन प्रोटीन के द्वारा जुड़ा रहता है। प्रोकैरियोटिक कोशा में केन्द्रक पर केन्द्रक झिल्ली (nuclear membrane) नहीं पाई जाती है। अतः इसका आनुवंशिक पदार्थ, कोशिका द्रव्य में ही उपस्थित रहता है। इसे न्यूक्लियोड या क्रोमेटिन बॉडी कहते हैं। कुछ जीवाणुओं में एक वृत्ताकार DNA भी पाया जाता है, जिसे प्लामिड कहते हैं। जीवाणु में हिस्टोन प्रोटीन के स्थान पर कुछ अन्य प्रोटीन पाई जाती हैं, जो DNA के फॉस्फेट समूह (phosphate group) से जुड़ी होती है।
DNA (Deoxyribo Nucleic Acid)
(i) DNA (Deoxyribo Nucleic Acid) एक लम्बा बहुलक है, जिसकी लम्बाई इसमें उपस्थित न्यूक्लियोटाइड्स की संख्या पर निर्भर करती है।
(ii) DNA न्यूक्लियोटाइड का बहुलक है, जिन्हें पॉलीन्यूक्लियोटाइड कहते हैं न्यूक्लियोटाइड के तीन घटक होते हैं जैसे नाइट्रोजनी क्षार, शर्करा, फॉस्फेट समूह |
(iii) नाइट्रोजनी क्षार (Nitrogenous Bases) ये दो प्रकार के होते हैं; प्यूरीन्स (एडीनीन तथा ग्वानीन) तथा पायरिमिडीन, (साइटोसीन, थायमीन तथा यूरेसिल) ।
◆ DNA में डीऑक्सी राइबोशर्करा पायी जाती है, जो नाइट्रोजनी से ग्लाइकोसिडिक बंन्ध (glycosidic bond ) द्वारा जुड़कर न्यूक्लियोसाइड बनाता है जैसे एडिनोसीन या डीऑक्सी एडिनोसीन, ग्वानोसीन या डीऑक्सी ग्वानोसीन, साइटीडीन या डीऑक्सी साइटीडीन तथा यूरीडीन या डीऑक्सी यूरीडीन।
◆ न्यूक्लियोसाइड, फॉस्फोएस्टर बन्ध (phosphoester bond) द्वारा फॉस्फेट ग्रुप से जुड़ जाता है तथा न्यूक्लियोटाइड बनाता है। फॉस्फेट, न्यूक्लियोसाइड के 5’–OH समूह से जुड़ता है।
◆ कई न्यूक्लियोटाइड, एक साथ 3′- 5’ फॉस्फोडाइस्टर बन्ध द्वारा पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला का निर्माण करते हैं।
◆ DNA में शर्करा के 5′ किनारे पर स्वतन्त्र फॉस्फेट समूह मिलता है तथा 3′ किनारे पर मुक्त हाइड्रोक्सील समूह जुड़ता है।
DNA का कूट (code) वाला भाग एक्सॉन व प्रोटीन न बनाने वाला भाग इन्ट्रॉन कहलाता है। 1953 में जेम्स वाटसन एवं फ्रान्सिस क्रिक ने DNA की संरचना का द्विकुंडली नमूना (double helical) पेश किया। यह नमूना माऊरीक विल्किन्स तथा रोजलैण्ड फ्रेन्कलिन के एक्स-रे- विश्लेषण के आधार पर दिया।
DNA के विभिन्न रूप (Various Forms of DNA)
कुछ विषाणुओं के DNA जैसे × 174 का DNA, जो ई. कोलाई पर आक्रमण करता है, एकल कुण्डलित होता है। DNA में न्यूक्लियोटाइड की संख्या के आधार पर उसे तीन प्रकार से विभाजित किया गया है A-DNA यह एक द्विकुण्डलित अणु है, जिसके प्रत्येक चक्र में 11 न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं। इसकी कुण्डलित सीधे हाथ की ओर होती है।
B-DNA इसमें एक चक्र में 10 न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं। यह भी सीधे हाथ की ओर कुण्डलित होते हैं।
Z-DNA इसमें एक चक्र में 12 न्यूक्लियोटाइड्स होते हैं, जो उल्टे हाथ की ओर कुण्डलित होता है।
RNA (Ribose Nucleic Acid)
◆ कुछ विषाणुओं में RNA आनुवंशिक पदार्थ के रूप में कार्य करता है। यह पहला आनुवंशिक पदार्थ था। RNA भी न्यूक्लियोटाइड का बना होता है।
◆ RNA द्विकुण्डली न होकर एक श्रृंखला का बना होता है। RNA में डीऑक्सी राइबोज शर्करा की जगह राइबोज शर्करा पाई जाती है।
◆ यह तीन प्रकार का होता है जैसे मेसेन्जर आरएनए (mRNA), राइबोसोमल आरएनए (tRNA) एवं ट्रान्सफर आरएनए (tRNA)
◆ इसमें थाइमीन के स्थान पर यूरेसिल नाइट्रोजन क्षार पाया जाता है।
मूल सिद्धान्त (Central Dogma)
यह मूल सिद्धान्त फ्रान्सिस क्रिक ने प्रस्तुत किया था, जिसके अनुसार आनुवंशिक सूचनाओं का बहाव DNA से RNA व इससे प्रोटीन की तरफ रहता है।
विकास (Evolution )
विकास एक क्रमिक परिवर्तन है, जिसमें किसी सरल जीवन रूप को जटिल जीवन रूप में परिवर्तित होना होता है जैसे की लगभग मिलियन सालों पहले के पुरातन जीवों से आज के नवीन जीवों का परिवर्तन होना। विकास पूर्णतया परिवर्तन रूपान्तरण की प्रक्रिया है, जिसमें सरल जीव से जटिल जीव का रूपान्तरण होता है।
जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life)
वैज्ञानिकों की परिकल्पना के अनुसार, हमारा ब्राह्मण्ड लगभग 15 बिलियन वर्ष पूर्व बना था । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति किसी भंयकर विस्फोटन द्वारा हुई थी, जिसे बिग बैंग सिद्धान्त ( Big Bang Theory) कहते हैं। इस सिद्धान्त के द्वारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की व्याख्या की जाती है। इसके अनुसार लगभग 20 बिालियन वर्ष पहले, ब्रह्माण्ड बहुत गर्म था, जोकि सघन तथा जल्दी फैलाव करता था। प्राथमिक फैलाव के बाद, ब्रह्माण्ड में कुछ गर्माहाट कम हुई, जिससे प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा इलेक्ट्रॉन जैसे उप परमाणु कणों का विकास ऊर्जा रूपान्तरण द्वारा हुआ। हजारों वर्षों पश्चात्, कुछ और अभिक्रियाएँ हुईं, जिससे प्रथम विद्युतकीय अनावेशित कण की उत्पत्ति हुई।
बिग बैंग के दौरान बने कण हाइड्रोजन, हीलियम तथा लिथियम के कुछ अंश थे। मुख्यतया ये माना जाता है, कि जीवन की उत्पत्ति 3600 मिलियन वर्ष पूर्व हुई है। साइनोबैक्टीरिया के जीवाश्म की खोज को इसका प्रमाण माना गया है। जीवन की उत्पत्ति का पुराना विचार निर्जीव से सजीव की उत्पत्ति माना गया है। इस विचार के अनुसार, सजीवों की उत्पत्ति किसी भी प्रकार के निर्जीव से हुई है। लुई पाश्चर ने इस विचार को अवमान्य करार दिया। जीवन की उत्पत्ति की सबसे मान्य व वैज्ञानिक सिद्धान्त ए आई ओपेरॉन, जे बी एस हेलडेन. एस एल मिलर तथा एस डब्लू फॉक्स नामक वैज्ञानिकों ने दी थी। इनके सिद्धान्त के अनुसार, जीवों की उत्पत्ति छोटे-छोटे अकार्बनिक व कार्बनिक यौगिकों के बनने से हुई, जिसका निर्माण कुछ अणुओं में होने वाली भौतिक रासायनिक क्रियाओं द्वारा हुआ।
जैव विकास (Biological Evolution)
यह एक जैविक प्रक्रिया है, जो किसी एक व्यक्ति अर्थात् व्यक्तिगत न होकर जीवों के समूह में होती है। किसी जनसंख्या के उत्पन्न होने का समय, उन जीवों के प्रजनन काल पर निर्भर करता है। यह विकास मुख्यतया जीन के स्तर पर होता है अर्थात् यह जनसंख्या की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपनी आवृत्ति परिवर्तित करता है।
कार्बनिक विकास के सिद्धान्त (Theories of Organic Evolution)
कार्बनिक विकास एक लगातार होने वाली परिवर्तन लाने वाली क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमें लम्बे समय के पश्चात् परिवर्तन होता है। विकास का जैविक क्रम में जीवन की उत्पत्ति तथा जीवों में विविधता (diversity) दोनों ही होते हैं। कार्बनिक विकास के कुछ वैज्ञानिक सिद्धान्त निम्न हैं
लैमार्कवाद (Lamarckism)
जीन बेपिस्टी डी लैमार्क (1744-1829) ने सर्वप्रथम विकास का सिद्धान्त प्रस्तुत किया था। लैमार्क ने 1809 में अपनी व्याख्या तथा सिद्धान्त को फिलोस्फी जुलोजिक (Philosophie Zoologique) नामक पुस्तक में प्रकाशित की। लैमार्क के जैव विकास के सिद्धान्त के दो मुख्य बिन्दु थे
(i) अंगों के उपयोग व अनुपयोग के सिद्धान्त के अनुसार जिन अंगों का उपयोग अधिक होता है, वे मजबूत व बड़े हो जाते हैं तथा जिनका उपयोग कम व नहीं होता, वे धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं।
(ii) उपार्जित लक्षणों की वंशानुगति के नियमानुसार, कुछ लक्षणों में होने वाली शारीरिक व रासायनिक परिवर्तन उनकी सन्तानों में भी वशानुगत हो जाते हैं, इसलिए इसे अनुकूलन का सिद्धान्त भी कहते हैं। लैमार्क ने अपने विचार को जिराफ के उदाहरण से स्पष्ट किया। उनके अनुसार, जिराफ की गर्दन पहले लम्बी नहीं थी परन्तु ऊँचे पेड़ों से भोजन लेने के कारण जिराफ की गर्दन लम्बी होती चली गई तथा ये लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानान्तरित होते चले गए परन्तु यह सिद्धान्त आज मान्य नहीं है।
डार्विनवाद (Darwinism)
डार्विनवाद परिकल्पना दो वैज्ञानिकों ने दी। अल्फ्रेड रसेल वैलेस ने योग्यतम की उत्तरजीविता (survival of the fittest) अर्थात् प्राकृतिक चयन (natural selection) के विचार को बताया। चार्ल्स डार्विन ने बताया की जीवन के लिए संघर्ष (struggle for existence) से प्रकृति को ऐसे सदस्यों के प्राकृतिक चयन का अवसर मिलता है, जो जाति के अन्य सदस्यों से अधिक योग्य होते हैं। डार्विन तथा वैलेस ने 1859 में इस सिद्धान्त की व्याख्या “The Origin of Species by Means of Natural Selection’ पुस्तक में की।
डार्विन सन् 1813 में एक (बीगल) नामक जहाज द्वारा दुनिया के भ्रमण पर गए थे। डार्विन ने गैलेपेगो द्वीप पर विकास की एक जीवित प्रयोगशाला देखी तथा पक्षियों की एक प्रजाति को देखा, जिसे डार्विन फिंच के नाम पर जाना जाता है। गैलेपेगो द्वीप का एक सामान्य पक्षी, मुख्य धरातल के पक्षियों से भिन्न था। इस द्वीप में डार्विन को प्राकृतिक चयन का सुझाव आया।
डार्विन दो किताबों, जिओलोजी के सिद्धान्त (Principles of Geology) जो कि चार्ल्स लॉयल द्वारा 1832 में लिखी गई जनसंख्या पर निबन्ध ‘Essay on Population’ जोकि 1799 में थॉमस मालथस द्वारा लिखी गई, से प्रभावित था, इन्हीं किताबों से उन्होंने अपने सिद्धान्त की व्याख्या की तथा सुझाव के लिए लिखा।
डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त की मूल सूचनाएँ निम्न प्रकार हैं
◆ नई जातियों के बनने के दर, उनके जीवन काल से सम्बन्धित है।
◆ प्रकृति, आनुवंशिक फिटनेस लक्षणों को चयनित करती है।
◆ चयन व उत्पत्ति के लिए सदैव आनुवंशिक आधार होता है।
◆ जीव, अपने वातावरण में रहने हेतु अनुकूलन करते हैं।
◆ अनुकूलन क्षमता आनुवंशिक होती है।
◆ प्रकृति द्वारा चयनित होना तथा अनुकूलन करना, योग्यता के लक्षण हैं।
उत्परिवर्तनवाद (Mutation Theory)
ह्यूगो डी ब्रीज (1848-1935), एक डच वनस्पति वैज्ञानिक, मेण्डल की खोज के एक पुनः खोजक थे। इन्होंने इवनिंग प्रिमरोज (Oenothera lamarckiana) नामक पादप में उत्परिवर्तन देखा तथा नई जाति की उत्पत्ति के लिए उत्परिवर्तनवाद सिद्धान्त दिया।
इस सिद्धान्त के मुख्य लक्षण निम्न हैं
उत्परिवर्तन द्वारा नई प्रजाति व जाति का विकास होता है।
(i) उत्परिवर्तन तथा अक्रमिक विभिन्नता, विकास के कच्चे माल हैं।
(ii) उत्परिवर्तन, अचानक होता है।
(iii) सभी उत्परिवर्तन, आनुवंशिक होते हैं।
(iv) एक ही प्रकार का उत्परिवर्तन विभिन्न जीवों में हो सकता है।
जैव विकास के समर्थन में प्रमाण (Evidences in Support of Evolution)
जैव विकास के समर्थन में विभिन्न स्रोतों से बहुत से प्रमाण प्राप्त हुए जो निम्नलिखित हैं
आकारिकी व तुलनात्मक शारीरिक विज्ञान से प्रमाण (Evidences from Morphology and Comparative Anatomy)
(i) समजात अंग (Homologous Organs) मौलिक समानता वाले अंगों को समजात अंग कहते हैं। विभिन्न जाति समजात अंग रखती है, जिससे पता चलता है कि कहीं न कहीं इनके पूर्वज समान होंगे। अतः समजातता जैव विकास का एक ठोस प्रमाण देती है।
उदाहरण मछली, मेंढक, सरीसृप तथा पक्षी, स्तनी सभी में रीढ की हड्डी होती है। पक्षी के पंख, मानव के हाथ तथा घोड़े के अग्रपाद में समान कंकाल होता है।
(ii) समरूप अंग (Analogous Organs) ऐसे अंग, जो समान कार्य करने के कारण समान दिखाई देते हैं परन्तु विकास तथा मौलिक रचना में भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं। उदाहरण कीटों के, पक्षियों के तथा चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं परन्तु मौलिक रचना में भिन्न होते हैं।
(iii) अवशेषी अंग (Vestigial Organs) बड़े जन्तुओं में कुछ स्पष्ट परन्तु निष्क्रिय अनावश्यक अंग होते हैं। इन्हें अवशेषी अंग कहते हैं। उदाहरण त्वचा के बाल, अकलदाढ़, अपेन्डिक्स, आदि। पूर्वजों में ये पूर्ण विकसित होते हैं लेकिन वातावरणीय दशाओं के बदल जाने से इनका महत्त्व समाप्त हो जाता है।
संयोजक जातियों से प्रमाण (Evidences from Connecting Link)
कुछ जातियाँ, निम्न वर्गीय तथा उच्च वर्गीय जातियों का सम्मिश्रण होती हैं। इन्हें संयोजक जातियाँ कहते हैं।
संयोजक जातियों के उदाहरण (Some Examples of Connecting Link)
जीव | संयोजक जातियाँ |
यूग्लीना | पादप तथा जन्तुओं |
प्रोटेरोस्पाँजिया | प्रोटोजोआ व स्पंजों |
नियोपिलाइना | एनीलिडा व मोलस्का |
पैरिपेटस | एनीलिडा व आर्थ्रोपोडा |
आर्किऑप्टेरिक्स | सरीसृप व पक्षियों |
प्रोटोथीरिया | सरीसृप व स्तनियों |
बैलेनोग्लोसस | अकशेरुकी व कशेरुकी |
डिपनोई | मछली व उभयचर |
आनुवंशिकी से प्रमाण (Evidences from Genetics)
किसी भी एक प्रजाति की संकरण प्रजाति, उस प्रजाति से बहुत नजदीकी समानताएँ प्रदर्शित करती हैं। उदाहरण घोड़े व गधे के संकरण से बनी खच्चर (Mule) प्रजाति ।
जैव आनुवंशिकी नियम या भ्रूणविकास से प्रमाण (Evidences from Biogenetic Law or Embryology)
यह सिद्धान्त हेकल ने दिया था। इस सिद्धान्त के अनुसार विशिष्ट लक्षणों से पहले, सामान्य लक्षण प्रदर्शित होते हैं अर्थात् Ontogeny Repeats Phylogeny विभिन्न समूहों के जीव, उनके भ्रूण से मेल रखते हैं।
जीवाश्म (Fossils )
जीवाश्म, मृतजीव के परिरक्षित अवशेष को कहते हैं। कभी-कभी मृत्यु के पश्चात् जीव के शरीर का पूरी तरह से अपघटन न होकर वह मिट्टी में सूखकर कठोर हो जाता है। जीवाश्म की आयु का पता ‘फॉसिल डेटिंग’ विधि द्वारा किया जाता है। जैसे लैड-यूरेनियम विधि या कार्बन डेटिंग विधि। जीवाश्मों के अध्ययन से जैव विकास का पता लगाया जाता है।
मानव की उत्पत्ति एवं विकास (Origin and Evolution of Human)
वह विकास की प्रक्रिया, जिससे आधुनिक मानव उत्पन्न हुआ है, मानव का विकास कहलाती है। इस प्रक्रिया में समय के साथ होने वाले परिवर्तन लगातार व एक श्रृंखला में होते हैं।
ये श्रृंखला निम्नलिखित हैं
◆ प्रथम स्तनधारी कर्कशा (Shrew) जैसे थे।
◆ डायनासॉर को धरातलीय सरीसृप माना जाता था। इनमें सबसे बड़ा ताइरेनोसोरस रेक्स था, जिसकी ऊँचाई लगभग 20 फुट थी।
◆ स्तनधारी, बच्चों को जन्म देते हैं तथा अपने अजन्मे बच्चों को माता के शरीर के अन्दर सुरक्षा प्रदान करते हैं।
◆ लोबिफिन्स प्रथम उभयचरी थे, जिन्हें मेंढक तथा सेलामेण्डर का पूर्वज माना जाता है।
◆ यह माना जाता है की भविष्य में मानव जीन उत्परिवर्तन, जीन पुनः संयोजन, प्राकृतिक चयन, आदि कारकों के कारण बदल सकता है। एच एल सैपाइरो ने इस भावी मानव को सेपियन्स फ्यूचूरिस कहा है।
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