मानव स्वास्थ्य एवं रोग (Human Health and Diseases)

मानव स्वास्थ्य एवं रोग (Human Health and Diseases)

मानव स्वास्थ्य एवं रोग (Human Health and Diseases)

स्वास्थ्य (Health)
स्वास्थ्य वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य का शरीर सुचारू रूप से अपने कार्य पूरा करता है। स्वस्थ होना केवल शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक तथा सामाजिक रूप से ठीक होना भी है। जीव की शारीरिक या मानसिक संरचना को यदि किसी कारण से अवरूद्ध होना पड़ता है, तो वह रोगग्रस्त अवस्था कही जाती है।
स्वस्थ शरीर की यह रोगग्रस्त अवस्था विभिन्न कारकों से हो सकती है जैसे संक्रमण (infections), जीवन यापन का गलत तरीका, व्यायाम की कमी, खान-पान की गलत आदतें, आराम की कमी, खान-पान में जरूरी पोषक तत्वों की कमी से या कभी-कभी आनुवंशिक विकारों (genetic disorders) से भी शरीर रोगग्रस्त हो सकता है। अत: रोगी होने से बचाव हेतु सन्तुलित आहार ( balance diet ), स्वयं (अपनी) निजी व आस-पास की साफ-सफाई, निरन्तर व्यायाम, रोगों के प्रति जागरुकता, रोगों से बचाव, संक्रमण रोगों के प्रति टीकाकरण (vaccinations), जैसे उपायों को अपनाना चाहिए।
रोग (Disease)
रोग शरीर की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें शरीर की कार्यिकी ( anatomy) सुचारु रूप से न चलकर कुछ या अधिक परिवर्तित हो जाती है। रोग, शरीर की कार्यिकी में व्याधि उत्पन्न होना है। रोग की पहचान रोगी के शरीर में दिखने वाले कुछ असामान्य लक्षणों से होती है।
रोगों के प्रकार (Types of Diseases)
रोग को उनकी प्रकृति, उत्पन्नता तथा लक्षणों के आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया गया है। उदाहरण जन्मजात रोग व उपार्जित रोग।
जन्मजात रोग (Congenital Diseases)
जो रोग जन्म के साथ ही होते हैं, उन्हें जन्मजात रोग कहते हैं। इन रोगों में शरीर में संरचनात्मक तथा क्रियात्मक व्याधि (abnormalities) उत्पन्न हो जाती है। जन्मरोग आनुवंशिक रोग या पोषण की कमी के कारण हो सकते हैं। इन रोगों का आक्रमण गर्भावस्था (pregnancy) के दौरान ही होता है। ये गर्भस्थ शिशु को गर्भ में किसी प्रकार के आघात से भी उत्पन्न हो सकते हैं।
जब ये रोग गर्भावस्था के प्रथम महीने में होते हैं, तो इन्हें, नवजात (neonatal) रोग कहते हैं। इन रोग के कारकों को जन्म से सम्बन्धित विकार कहते हैं, जिसमें विकासशील शिशुओं को हानि पहुँचती है।
उदाहरण खण्ड तालु (cleft palate), ओठ का कटना (harelip), पाँव का फिरा होना (club foot), मंगोलिज्म (mangolism), नील शिशु का जन्म (blue baby syndrome), पाँचवी अंगुली का मुड़ा होना (5th finger curvature), तीसरा चूषक (third nipple), डिस्प्लेसिया, एरिथ्रोब्लास्टोसिस।
उपार्जित रोग (Acquired Diseases)
रोग जो शरीर में जन्म के पश्चात् उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपार्जित रोग कहते हैं तथा इन्हें जन्मोपरान्त उपार्जित (post-foetally acquired) रोग भी कहते हैं, ये विभिन्न कारणों जैसे चोट लगना, संक्रमण होना या पोषण की कमी से हो सकते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं अर्थात् संक्रामक रोग एवं असंक्रामक रोग।
संक्रामक रोग (Communicable Diseases or Infectious Diseases)
ये रोग. फैलने वाले रोग होते हैं, जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलते हैं। इन रोगों के कारकों को संक्रमण रोगाणु (infectious agent or pathogen) कहते हैं, जो विषाणु, जीवाणु, कवक, शैवाल, आदि सूक्ष्मजीव होते हैं तथा गोलकृमि जैसे निमेटोड, मच्छर, मक्खी, जूँ आर्थ्रोपोडा भी हो सकते हैं। ये सूक्ष्मजीव वायु, जल, भोजन, मिट्टी के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रोग को फैलाते हैं। इनके कारक प्रोटोजोआ तथा फीताकृमि भी होते हैं। ये रोगाणु एक रोगी के शरीर में अपनी वृद्धि करके फिर दूसरे व्यक्ति को संक्रमित करते हैं। संक्रामक रोगों में कुछ क्रियाएँ होती हैं जैसे बीमारी तथा रोगाणु की शरीर में उपस्थिति एवं वृद्धि।
मानव में होने वाले कुछ सामान्य संक्रामक रोग (Some Common Communicable Diseases in Humans)
संक्रामक रोगों को उनके रोगाणु या कारक के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है
विषाणु जनित रोग (Viral Diseases)
विषाणुओं के संक्रमण द्वारा होने वाले रोगों को विषाणुजीव रोग कहते हैं।
कुछ सामान्य विषाणु जनित रोग (Some Common Viral Diseases) 
विषाणु परजीवी होते हैं तथा बहुत से रोगों के कारक होते हैं
(i) हैपेटाइटिस (Hepatitis) यह मुख्यतया यकृत व अन्य अंगों के ऊतकों, कोशिकाओं में सूजन आने से होता है। यह खुद भी रुक सकती है तथा फाइब्रोसिस व सिरहोसिस रोग में परिवर्तित हो जाती है, जिससे यकृत को अत्यधिक क्षति पहुँचती है।
इसके लक्षण कभी-कभी प्रकट नहीं होते, परन्तु अधिकांशतया पीलिया व एनोरेक्सिया रोग उत्पन्न कर देता है। हिपेटाइटिस मुख्यतया तीन प्रकार का होता है अर्थात् हैपेटाइटिस-A, B एवं C
हैपेटाइटिस – A यह गम्भीर यकृत रोग है, जो हैपेटाइटिस-A विषाणु (HAV) द्वारा होता है। इसके मुख्य लक्षण बुखार, अकड़ाहट व बेचैनी है।
अन्य लक्षण भूख में कमी, पीलिया, रुधिर से पित्त का पृथक होना तथा मूत्र द्वारा विसर्जन, दस्त तथा मिट्टी के रंग का मल होना है।
टीकाकरण (Vaccination) अच्छी साफ-सफाई द्वारा बचाव सम्भव ।
हैपेटाइटिस – B यह हैपेटाइटिस – B विषाणु (HBV) द्वारा होता है, जो वीर्य, योनि तरल जैसे तरल पदार्थों द्वारा फैलता है, परन्तु यह लार (saliva) व आँसू द्वारा नहीं फैलता।
HAB का जीनोम गोल द्विकुण्डलित DNA का बना होता है, जो अपनी प्रतिकृति RNA माध्यमिक कारक द्वारा रिवर्स प्रतिलेखन (reverse transcription) द्वारा बनता हैं।
टीकाकरण (Vaccination) (3 महीनों में 3 डोज) द्वारा बचाव सम्भव है।
हैपेटाइटिस – C यह हैपेटाइटिस-C विषाणु (HCV) द्वारा फैलता है, तथा रुधिरादान द्वारा (blood transfusion) व रोगी व्यक्ति से सम्बन्ध होने पर फैलता है।
टीकाकरण (Vaccination) इसका कोई टीका नहीं बना है। इसका केवल बचाव किया जा सकता है, इलाज नहीं ।
(ii) बर्ड फ्लू (Bird Flu) यह इन्फ्लूएन्जा विषाणु द्वारा फैलता है, जो प्राथमिकतया पक्षियों को संक्रमित करता है, जो व्यक्ति पक्षी पालन केन्द्र में काम करते हैं तथा अधपका व अपका मीट, अण्डे खाते हैं, इस रोग से ग्रस्त होते हैं।
इसके लक्षण बुखार, खाँसी, गले में दर्द, पेशीय खिंचाव, आँख में संक्रमण एवं टॉन्सिल है। इसके बचाव हेतु टीकाकरण कराया जाता है, अर्थात् प्रतिरक्षी टीका या लक्षण दिखाई देने के 12-24 घण्टे के अन्दर प्रतिटॉक्सिन डिफ्थीरिया का इन्जेक्शन दिया जाता है।
(iii) एड्स (AIDS or Acquired Immuno Deficiency Syndrome) उपार्जित प्रतिरक्षीहीनता रोग है, जो मानव प्रतिरक्षीहीनता विषाणु (HIV) द्वारा होता है, जो मानव प्रतिरक्षी तन्त्र (immune system) को प्रभावित करता है।
AIDS को सर्वप्रथम रोग नियन्त्रण व बचाव केन्द्र (Centres for Disease Control and Prevention or CDC) ने 1981 में पहचाना था। HIV एक लेन्टीविषाणु है (रेटरोविषाणु कुल का सदस्य)। यह प्रतिरक्षी तन्त्र को नष्ट करके शरीर को अन्य रोगों से लड़ने में अयोग्य बना देता है।
एड्स का संक्रमण निम्न प्रकार से होता है
◆ मुख, योनि व गुदा सम्भोग द्वारा ।
◆ रक्तादान द्वारा तथा रोगी व्यक्ति की इस्तेमाल की हुई सीरिज (syringe) द्वारा।
◆ माँ से बच्चे में रुधिर द्वारा व स्तनपान द्वारा।
एड्स के लक्षण निम्नलिखित हैं
◆ वजन में कमी
◆ रात में मूत्र विसर्जन व पसीना आना
◆ खाँसी एवं सिरदर्द
◆ धुन्धला दिखाई देना
◆ साँस लेने में परेशानी
◆ ठण्ड लगना
◆ त्वचा पर चकते
एड्स हेतु टेस्ट निम्नलिखित हैं
◆ एन्जाइम-सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (immunosorbent assay) / एन्जाइम प्रतिरक्षा आमापन (ELISA/ELIA)
◆ रेडियो प्रतिरक्षी संघनन आमापन / अप्रत्यक्ष फ्लूरोसेन्ट प्रतिबॉडी आमापन (RIP/IFA)
◆ पॉलीमरेज श्रृंखला अभिक्रिया (PCR) – .
◆ वेस्टर्न ब्लॉट (Western Blot)
उपचार (Treatment) इसका उपचार प्रति-रेटरोविषाणु दवाइयों द्वारा तथा लोगों में इसके बचाव के प्रति जागरुकता जगाकर किया जा सकता है।
(iv) पीत ज्वर (Yellow Fever) यह एक गम्भीर विषाणु रोग है, जो पीत ज्वर विषाणु के मादा एडिज एजिप्टी (Aedesagypti) मच्छर के काटने से फैलता है।
यह विषाणु लसिका गाँठों में प्रतिकृतयन करता है तथा द्रुमिका कोशिकाओं (dentritic cells) को संक्रमित करता है। वहाँ से यह यकृत में जाकर यकृत कोशिकाओं (hepatocytes) को संक्रमित करता है। इस रोगों के लक्षण बुखार, ठण्ड, भूख में कमी व बैचेनी है। इसमें मुख्यतया कमरदर्द व सिरदर्द होता है, जो तीन दिन में सुधर जाते हैं। कुछ व्यक्तियों में यह दोबारा हो जाता है, जिससे उदर (abdomen) में दर्द व यकृत को नुकसान होता है। इन सब लक्षण में रुधिर स्राव व वृक्क के रोगों कि आशंका बढ़ जाती है।
(v) स्वाइन फ्लू या सुअर एन्फ्लुएंजा (Swine Flu/Swine Influenza or Pig Influenza) यह स्वाइन इन्फ्लूएन्जा विषाणु द्वारा फैलता है, जो सुअर द्वारा मानव में फैलता है। 2009 में, स्वाइन फ्लू विषाणु के एक प्रकार H1N1 ने लोगों को संक्रमित किया। इस रोग के लक्षण बुखार, खाँसी, गले में दर्द, शरीर में दर्द, सिरदर्द, ठण्ड व अकड़ाहट है। इसका उपचार टीकाकरण द्वारा सम्भव है ।
मलेरिया (Malaria)
यह प्लाज्मोडियम प्रोटोजोआ द्वारा होने वाला एक सामान्य रोग है। यह प्रोटोजोआ मादा एनॉफिलीज मच्छर द्वारा फैलता है, जो इस रोग को इसके बीजाणु (sporozoites) द्वारा फैलाती है। प्लाज्मोडियम कि विभिन्न प्रजाति प्लाज्मोडियम वाइवेक्स, प्ला. मलेरी एवं प्ला. फेल्सीपेरम विभिन्न प्रकार के मलेरिया रोगों के कारक है।
मेलिग्नेंट मलेरिया प्लाज्मोडियम फेल्सीपेरम द्वारा फैलता है, जो सबसे खतरनाक व मृत्यु जनित होता है।
मलेरिया के लक्षण (Characteristics of Malaria)
◆ कमजोरी, ठण्ड लगना, सिरदर्द, पेशियों में दर्द, बेचैनी, उल्टी व दस्त ।
◆ मलेरिया द्वारा एनीमिया व पीलिया भी हो सकता है क्योंकि इसमें लाल रुधिराणुओं की कमी हो जाती है।
◆ यदि इसका तुरन्त इलाज न हो तो जीवन को खतरा हो सकता है क्योंकि शारीरिक अंगों को रुधिर की कमी हो जाती है।
◆ गम्भीर अवस्था में इस रोग द्वारा वृक्क शूल (kidney failure), मानसिक असन्तुलन (mental confusion) कोमा व मृत्यु भी हो सकती है।
जीवाणु जनित संक्रामक रोग (Bacterial Communicable Disease) 
जीवाणुओं द्वारा विभिन्न संक्रमित रोग फैलाए जाते हैं।
कुछ सामान्य जीवाणु जनित रोग (Some Common Bacterial Diseases) 
जीवाणु जनित कुछ सामान्य रोग निम्न हैं
(i) तपेदिक (Tuberculosis) इसे सामान्य रूप से TB कहते हैं, जो माइकोबैक्टीरियम जीवाणु द्वारा होता है। यह लसिका गाँठों व रक्तदान द्वारा फैलता है।
यह मुख्यतया फेफड़ों में होता है। अधिकांश लोगों में इसके लक्षण दिखाई नहीं देते हैं, क्योंकि इसका जीवाणु अक्रिय अवस्था में शरीर में रहता है, परन्तु जिन व्यक्तियों में प्रतिरक्षी तन्त्र कमजोर होता है (HIV ग्रसित या वृद्ध व्यक्तियों में) उनमें यह सक्रिय हो जाता है, जो ग्रसित ऊतकों व अंगों की मृत्यु का कारक होता है। यदि इसका इलाज न हुआ, तो यह मृत्यु जनित भी हो सकता है। यह ग्रसित व्यक्ति के साथ रोज सम्पर्क में आने से फैलता है। इसका इलाज अक्रिय अवस्था में दवाइयों द्वारा सम्भव है।
(ii) टायफॉइड (Typhoid) यह साल्मोनेला टाइफी जीवाणु द्वारा फैलता है। यह जीवाणु विषाक्त जल व भोजन द्वारा छोटी आँत में चला जाता है तथा फिर रुधिर द्वारा शरीर के अन्य अंगों को प्रभावित करता है। इसके लक्षण तेज ज्वर (39-40°C), कमजोरी, पेट दर्द, कब्ज, सिरदर्द, भूख में कमी है। गम्भीर अवस्था में आँत में रोग होने से मृत्यु भी हो सकती है। निदान टेस्ट वाइडल टेस्ट (Widal test)
(iii) टिटेनस (Tetanus or Lock jaw) इस रोग में लम्बे समय तक तन्त्रिका पेशियों में संकुचन होता है। यह क्लॉस्ट्रिडियम या बैसिलस टिटेनी जीवाणु द्वारा फैलता है।
संक्रामक रोगों से बचाव के उपाए (Preventive Measures of Infectious Diseases) 
संक्रामक रोगों से बचाव हेतु निजी व सार्वजनिक सफाई अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है
(i) निजी साफ सफाई जैसे शारीरिक सफाई, साफ जल, साफ भोजन, साफ सब्जी व फलों का सेवन।
(ii) सार्वजनिक साफ-सफाई जैसे अपशिष्ट तथा उत्सर्जी पदार्थों का उचित अपघटन, जल स्रोतों की सफाई जैसे पूल, टैंक, आदि ।
(iii) रोगों के वाहकों का समापन।
(iv) मच्छरों से सुरक्षा तथा मच्छर रोधी दवाइयों का प्रयोग।
(v) टीकाकरण तथा प्रतिजैविकी कार्यक्रमों का उचित व सख्ती से पालन।
(vi) प्रतिजैविकी व अन्य दवाइयों का प्रयोग।
असंक्रामक रोग (Non-Communicable Disease)
रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक नहीं फैलते उन्हें असंक्रामक रोग कहते हैं। ये रोग बाह्य कारकों द्वारा होते हैं जैसे पोषण में कमी, किसी चोट के कारण आदि। ये निम्न होते है जैसे प्रोटीन की कमी (क्वाशियोरकर), विटामिन-B की कमी (पेलेग्रा), विटामिन-C (स्कर्वी), विटामिन-D (रिकेट्स), आयोडीन की कमी (गॉइटर) से होने वाले रोग।
असंक्रामक रोगों के प्रकार (Types of Non-Communicable Diseases)
असंक्रामक रोग निम्न प्रकार के हो सकते हैं जैसे हीनताजन्य रोग, ह्वासित रोग, आनुवंशिक रोग तथा मानसिक रोग।
ह्यसित रोग (Degenerative Diseases)
यह शरीर के किसी भी अंग के नष्ट होने से उत्पन्न होते हैं जैसे कैंसर, हृदयाघात, मधुमेह, गठिया, आदि।
कैंसर (Cancer)
कैंसर रोग में सामान्य कोशिकाएँ, अपनी वृद्धि नियन्त्रक क्षमता खो देती हैं तथा अनियन्त्रित व असामान्य कोशिकाओं का गुच्छा बन जाती है, जिसे नियोप्लाज्म (neoplasm) कहते हैं ।
इन कोशिकाओं को कैंसर कोशिकाएँ (cancerous cells) कहते हैं तथा जिन जीन्स के कारण कैंसर होता है, उन्हें ओंन्कोजीन्स (oncogenes) कहते हैं।
कैंसर, वृद्ध व्यक्तियों में अधिक सामान्य होता है क्योंकि उनमें उत्परिवर्तन अधिक सामान्य होते हैं।
कैंसर कोशिकाएँ अपनी अनियन्त्रित वृद्धि के कारण दूसरी कोशिकाओं को भोजन से वंचित कर देती हैं। ये कैंसर कोशिकाएँ रुधिर प्रवाह द्वारा दूसरी जगह जाकर नया ट्यूमर बना लेती हैं। इस गुण को विक्षेप (metastasis) कहते हैं।
कैंसरजनित कारक (Carcinogenic Agents )
कैंसर रोग के कारकों को कैंसरजनित कारक कहते हैं। ये भौतिक जैसे X-किरणें, UV-किरणें, रेडियोधर्मी पदार्थ तथा कुछ अन्य आयनीकृत किरणें, जो DNA, RNA में उत्परिवर्तन करती हैं। ये जैविक कारक भी होते हैं जैसे विषाणु उदाहरण DNA विषाणु, सिमियन विषाणु 40 तथा RNA विषाणु का वर्ग-रेटरो विषाणु तथा कुछ रासायनिक कारक; जैसे निकोटिन, कैफीन, कॉल्वीसीन, पॉलीसाइक्लिक हाइड्रोकार्बन, सेक्स हॉर्मोन्स तथा स्टिरॉइड।
कैंसर के लक्षण (Symptoms of Cancer)
घाव का न भरना, अत्यधिक रुधिर स्राव, ब्रेस्ट में गाँठ या अन्य किसी अंग में गाँठ, खाँसी, अपाचन, निगलने में परेशानी, आदि ।
कैंसर के प्रकार व उनकी उत्पत्ति (Types of Cancer and their Origin)
उत्पत्ति कैंसर के प्रकार
त्वचा, आन्तरिक अंगों व ग्रन्थिय अंगों (glandular organs) का कैंसर । कार्सिनोमास
पेशी, अस्थि, उपास्थि संयोजी उतकों (connective tissue) का कैंसर । सार्कोमास
मस्तिष्क में तथा केन्द्रिय तन्त्रिका तन्त्र के सहयोगी ऊतकों का जाल । ग्लिमर
त्वचा पर रंजकीय तिल ( pigmented moles) | मिलेनोमा (सबसे भयावह कैंसर )
लसिका तन्त्र । लिम्फोमास या होड़किन्स रोग (अब लिम्फोमा)
आँख (आनुवंशिक ट्यूमर) । रेटिनोब्लास्टोमा
कैंसर निर्धारण व निदान (Cancer Detection and Diagnosis) 
कैंसर का पता निम्न तकनीकों द्वारा किया जा सकता है
◆ X-किरणों द्वारा रेडियोग्राफी आन्तरिक अंगों में कैंसर का पता लगाती है।
◆ बायोप्सी में ऊतक के टुकड़े को काटकर उसे सूक्ष्मदर्शी में देखकर रोग का पता किया जाता है।
◆ रुधिर व मेरुरज्जु टेस्ट, कोशिका की संख्या को गिनकर रोग का पता करते हैं।
◆  रेजोनेन्स इमेजिंग में आयनीकृत किरणों तथा मजबूत चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव से जीवित ऊतकों में आए अन्तर को पहचानते हैं।
◆ मोनोक्लोनल प्रतिबॉडी (monoclonal antibodies) को कैंसर विशिष्ट प्रतिजन के विरोध में प्रयोग करके कैंसर का पता लगाते हैं।
◆ कम्प्यूटरीकृत टोमोग्रॉफी में X-किरणों का उपयोग कर आन्तरिक ऊतकों का 3-D प्रतिबिम्ब बनाते हैं।
कैंसर का इलाज (Treatment of Cancer)
कैंसर का इलाज निम्न तकनीकों द्वारा होता है
◆ किमोथेरैपी (Chemotherapy) इस विधि में कैंसर कोशिकाओं को मारने हेतु, रासायनिक दवाइयों का उपयोग करते हैं, परन्तु उनके अन्य प्रभाव भी होते हैं जैसे बाल झड़ना, आदि।
◆ सर्जरी (Surgery) ट्यूमर को सर्जरी द्वारा खत्म व निकाला जा सकता है तथा बाद में कैंसर कोशिकाओं को फैलने से रोका जा सकता है।
◆ रेडियोथेरैपी (Radiotherapy) ट्यूमर कोशिकाओं को किरणों द्वारा मारा जाता है तथा आस-पास की कोशिकाओं की रक्षा की जाती है।
◆ इम्यूनोथेरैपी (Immuno therapy) जैविक रूपान्तरकों जैसे α- इन्टरफेरॉन द्वारा प्रतिरक्षी तन्त्र को सक्रिय कर, ट्यूमर खत्म करने में सहायता की जाती है।
हृदयाघात (Heart Attack)
हृदयाघात में हृदय पेशियाँ हमेशा के लिए खराब हो जाती हैं। इस रोग के कारण शिरा का व्यास कम हो जाना है, जिससे रुधिर उसमें से बह नहीं पाता है। शिरा में बीच-बीच में वसीय पदार्थ, कैल्शियम, प्रोटीन व कोशिकाएँ जम जाती हैं, जिससे शिरा का मार्ग रुधिर परिसंचरण हेतु बन्द हो जाता है। हृदय पेशियों को पोषण हेतु ऑक्सीकृत रुधिर की आवश्यकता होती है, जो उसे शिराओं द्वारा मिलता है। यह रुधिर फेफड़ों से हृदय तक परिसंचरित होता है। हृदयाघात से कभी-कभी मृत्यु भी हो जाती है। इसका मुख्य कारण झटका, अपूर्ण परिसंचरण, कमजोर पम्पिंग तथा बन्द स्थानों से रुधिर स्रावण है।
मधुमेह (Diabetes)
जब रुधिर में ग्लुकोज (शर्करा) की मात्रा अधिक हो जाती है, तब मधुमेह रोग होता है, जो समय तक चलता है। इन्सुलिन की शरीर में कमी होने से रुधिर में शर्करा बढ़ जाती है। इन्सुलिन हॉर्मोन अग्न्याशय की लैंगरहैन्स की द्वीपिकाओं की β-कोशिकाओं द्वारा स्रावित होता है। यह हॉर्मोन रुधिर के अत्यधिक शर्करा को संचित ग्लाइकोजन में परिवर्तित कर देता है।
मधुमेह मुख्यतया दो प्रकार का होता है
टाइप-1 मधुमेह में शरीर में उपयुक्त इन्सुलिन सावित नहीं होता है। इसे इन्सुलिन प्रतिरोधक कहते हैं। इन्सुलिन शर्करा को रुधिर से बाहर ले जाकर, उसे ऊर्जा में परिवर्तित कर देता है, परन्तु इन्सुलिन की कमी में, शरीर अपनी असा व पेशियों को तोड़ना शुरू कर देता है, जिससे वजन कम हो जाता है। इसमें रुधिर धारा अम्लीय हो जाती है, जिससे खतरनाक डीहाइड्रेशन (diabetic ketoacidosis) हो जाता है।
टाइप -2 यह टाइप-1 से अधिक सामान्य है, जिसमें शरीर में इन्सुलिन का बिल्कुल निर्माण नहीं होता है। यह 40 वर्ष की आयु से अधिक वाले व्यक्तियों में तथा जवान लोगों में भी अधिक सामान्य है। यह दक्षिणी एशिया, अफ्रीका-कैराबीन तथा मध्य पूर्वी क्षेत्रों में अधिक प्रसारित है। इस रोग में इन्सुलिन के निर्माण में कमी (insulin deficiency) तथा इन्सुलिन के उपयोग में कमी (insulin resistance) आ जाती है।
गठिया (Arthritis)
यह जोड़ों से सम्बन्धित रोग है, जिसमें एक या अधिक जोड़ों में सूजन आ जाती है। गठिया से अन्य कई रोग भी जुड़े होते हैं, जिसमें जोड़ों में दर्द जैसे ऑस्टियोअर्थराइटिस, रिह्यूमेटाइड अर्थराइटिस, सेप्टिक अर्थराइटिस, गाउट एवं मिथ्यगाउट रोग मुख्य है। गाठिया के मुख्य लक्षण सूजन, जोड़ों में अकड़ाहट, हाथ व पैरों के उपयोग में कमी, थकान व जोड़ों के हिलने-डुलने में कठिनाई है।
इसका इलाज मुख्यतया शारीरिक थेरैपी, जीवन शैली में परिवर्तन, दवाइयों का उपयोग, जोड़ों को बदलना व सर्जरी है लेकिन रिह्यूमेटाइड अर्थराइटिस व ऑस्टियोअर्थराइटिस का कोई इलाज नहीं है।
◆ रिह्यूमेटाइड अर्थराइटिस (Rheumatoid Arthritis – RA) यह एक लम्बे समय तक चलने वाला रोग है, जिसमें जोड़ों व आस-पास के ऊतकों में सूजन आ जाती है। यह अन्य अंगों को भी प्रभावित करता है।
◆ ऑस्टियोअर्थराइटिस (Osteoarthiritis) यह कार्टिलेज विघटन से होने वाली जोड़ों की सूजन है। यह रोग उम्र बढ़ने से, आनुवंशिकता व किसी चोट के कारण होता है। इसका मुख्य लक्षण जोड़ों में दर्द है।
◆ गाउट (Gout) यह एक प्रकार का गठिया रोग है। इसमें अचानक से जोडों में जलन के साथ दर्द, अकड़ाहट व जोड़ों में सूजन आती है। इसमें अंगूठे का आकार बढ़ जाता है। ये दौरे बार-बार हो सकते हैं, जब तक इसका इलाज न हो। समय के साथ यह रोग जोड़ों को कण्डरा व अन्य ऊतकों को हानि पहुँचाता है। यह पुरुषों में अधिक सामान्य है।
हीनताजन्य रोग (Deficiency Diseases)
रोग जो किसी पोषक तत्व जैसे विटामिन, खनिज तत्व, कार्बोहाइड्रेट, आदि की कमी से होते हैं। इन रोगों को हीनताजन्य रोग कहते हैं ।
मानव में होने वाले कुछ सामान्य हीनताजन्य रोगों का विवरण निम्न हैं
घेंघा (Goitre)
घेंघा थायरॉइड ग्रन्थि के फूलने से होता है परन्तु यह कैंसर जनिक नहीं होता है। इस रोग के रोगी में थायरॉइड हॉर्मोन का स्तर यूथायरॉइडिज्म (euthyroidism), अवटुअतिक्रियता (hyperthyroidism) व हाइपोथायरॉइडिज्म हो सकता है।
थायरॉइड ग्रन्थि तितली के आकार की गर्दन के आधार पर कण्ठ से नीचे स्थित होती है। यदि इसका आकार सामान्य से अधिक बढ़ जाएँ तो इसे घेंघा रोग कहते हैं, इसमें दर्द नहीं होता है परन्तु इसमें खाँसी व सटकने में परेशानी होती है।
यह किसी मानव के आहार में आयोडीन की कमी से होता है। कुछ रोगियों में इसके लक्षण दिखाई नहीं देते है। अत: इस रोग का पता ही नहीं चलता है। इसके कुछ सामान्य लक्षण निम्न हैं
◆ आवाज में फटापन
◆ अत्यधिक खाँसी
◆ सटकने में परेशानी (कम सामान्य)
◆ गले में तनाव
◆ साँस लेने में तकलीफ (कम सामान्य)
एनीमिया (Anaemia)
रुधिर में लाल रुधिराणुओं या हीमोग्लोबिन की कमी को एनीमिया रोग कहते हैं। रुधिर के हीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन जुड़कर रुधिर व ऊतकों तक जाती है। यदि हीमोग्लोबिन कम हो जाए, तो शरीर के ऊतकों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाती।
रुधिर इसका लक्षण अकड़ाहट है क्योंकि अंगों को पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने से अंग पूरी तरह कार्य नहीं कर पाते हैं। एनीमिया आनुवंशिक भी होता है तथा जन्म के समय शिशुओं में भी होता है। गर्भावस्था में माताओं में भी लौह की कमी से यह रोग हो सकता है। यह रोग स्त्रियों में मासिक धर्म होने के कारण पुरुषों से अधिक होता है। एनीमिया के चार सौ से अधिक प्रकार हैं, जिन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है
◆ रूधिर बहने के कारण हुआ एनीमिया
◆ लाल रुधिराणुओं की कमी के कारण हुआ एनीमिया
◆ लाल रुधिराणुओं के अपक्षयन (destruction) से हुआ एनीमिया
आनुवंशिक रोग (Genetic Disorders)
आनुवंशिक रोग किसी व्यक्ति को उसके माता या पिता द्वारा जन्म से ही मिले होते हैं। ये निषेचन के समय गुणसूत्रों की संख्या में कमी या उनके ज्यादा होने के कारण भी होते हैं। वर्णान्धता (colour blindness), टर्नर्स सिन्ड्रोम (Turner’s syndrome), क्लाइनफेल्टर (Klinefelter’s syndrome), हीमोफीलिया (haemophilia), मंगोलिज्म (Down syndrome/mongolism), पटाऊ सिन्ड्रोम (Patau’s syndrome)।
कारण (Causes) इनका कारण जीन उत्परिवर्तन है। अर्थात् ये सभी रोग या तो गुण सूत्रों के नंबर में बदलाव की वजह से होते हैं या उनके ऊपर स्थित जीन की संरचना या नंबर में बदलाव की वजह से होते हैं।
प्रोजेरिया
यह एक बहुत ही दुर्लभ आनुवंशिक रोग है जिसमें वृद्ध होने की प्रक्रिया बहुत तेजी से और बहुत पहले ही शुरु हो जाती है। यह रोग जिसका नाम एक ग्रीक शब्द “गेरास” (अर्थात् वृद्ध) से लिया गया है। यह रोग लगभग 4 लाख बच्चों में से किसी एक से मिलता है। इस रोग का सबसे खतरनाक रूप हचिनसन-गिलर्फोड प्रोजेरिया सिनड्रोम है। इस रोग का कारण एक जीन में उत्परिवर्तन है।
यह जीन लेमिन A (LMNA) है, जो केन्द्रक को कोशिका में मध्यास्थ रखने हेतु आवश्यक प्रोटीन बनाता है, जब इस जीन में समस्या होती है, तो उत्परिवर्तन के कारण कोशिका में अस्थायीपन होता है, जो प्रोजेरिया रोग का कारक होता है।
इस रोग के लक्षण एक अलग पहचान दिखाते हैं 
◆ मन्द विकांस (औसत ऊँचाई व वजन)
◆ मुख के अनुसार बड़ा सिर
◆ अल्प विकसित नेत्र, पलकों का अपूर्ण बन्द होना
◆ बाल झड़ना (पलकों, भौंह के बाल ) एवं झुर्रीदार त्वचा
◆ मोटी आवाज एवं दृश्य शिराएँ
इस रोग के स्वास्थ सम्बन्धित लक्षण
◆ गले की त्वचा का मोटा व कसा होना
◆ देर से या गलत दन्त विकास
◆ सुनने में परेशानी, त्वचा के नीचे वसा की कमी, पेशीय द्रव्यमान का कम होना
◆ इन्सुलिन प्रतिरोधकता
◆ प्रोजेरिया का इलाज सम्भव नहीं है परन्तु भविष्य में हो सकता है।
मानसिक रोग (Mental Disorders)
मानसिक रोग एक मानसिक अवस्था है, जिसका प्रभाव व्यवहार पर दिखाई देता है। ये रोग तनाव से होते हैं, जो व्यक्ति के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं।
यह मस्तिष्क के एक ही भाग की कार्यिकी से भी सम्बन्धित हो सकते हैं।
कुछ मानसिक रोगों का विवरण निम्नलिखित है
अल्जाइमर रोग (Alzheimer’s Disease)
यह डिमेंटिया का सामान्य प्रकार रोग है, जिसका कोई इलाज नहीं है। बढ़ने के साथ यह रोग मृत्यु का कारण भी बन जाता है। इसे सर्वप्रथम जर्मन साइकाइट्रिस्ट व न्यूरोपैथोलोजिस्ट अलओइस अल्जाइमर ने सन् 1906 में बताया तथा इनके नाम पर ही इस रोग का नाम रखा गया है। सामान्यतया यह रोग 65 वर्ष की आयु के बाद ही पहचाना जाता है।
डिस्लेक्सिया (Dyslexia)
यह याद करने से सम्बन्धित रोग है, जिसमें पढ़ने में कठिनाई होती है। इसे विशिष्ट अक्षमता भी कहते हैं, जो शिशु में सामान्य रोग है। ये सामान्य दृष्टि व दिमाग वाले शिशुओं में होता है। कभी-कभी कई वर्षों तक यह पहचाना ही नहीं जाता है, यहाँ तक कि वयस्क होने तक भी।
यह मस्तिष्क के विकास से सम्बन्धित जीन से जुड़ा रोग है, जो आनुवंशिक होने के कारण कई पीढ़ियों में पाया जाता है। ये दिमाग के भाषा से सम्बन्धित भाग को प्रभावित करते हैं। इन लक्षणों की पहचान बच्चों के स्कूल जाने से पूर्व मुश्किल है। स्कूल जाने के बाद बच्चों के अध्यापक सबसे पहले इसके लक्षण को पहचानते हैं। इसके लक्षण निम्न हैं
◆ देर से बोलना
◆ नए शब्दों को देर से सीखना
◆ कविता बोलने में परेशानी
इस रोग का इलाज नहीं है। यह जीवनभर रहने वाला रोग है, जो आनुवंशिक लक्षणों से होता है। यद्यपि इस रोग से ग्रसित बच्चे स्कूल में उचित व विशिष्ट पढ़ाई कार्यक्रमों द्वारा सफलता प्राप्त करते हैं। भावनात्मक साथ व सहारा इसके इलाज में अत्याधिक प्रभावी होता है।
प्रतिरक्षा (Immunity)
प्रतिरक्षा शरीर की रोगाणु से लड़ने की क्षमता को कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है
जन्मजात प्रतिरक्षा (Innate Immunity)
जन्मजात प्रतिरक्षा में वे सभी सुरक्षा तत्व सम्मिलित होते हैं, जो जीव में जन्म से होते हैं। यह अविशिष्ट प्रकार का प्रतिरक्षण तन्त्र है। इसमें रोगाणुओं से तथा बाहरी तत्वों से सुरक्षा हेतु रोक तन्त्र होता है जैसे त्वचा, पेट में अम्ल, आँख से आँसू, सफेद रुधिराणु आदि ।
उपार्जित प्रतिरक्षा (Acquired Immunity) 
यह रोगाणु विशिष्ट, जन्म के बाद विकसित होने वाला तथा जीवन भर रहने वाला प्रतिरक्षण तन्त्र है। यह तन्त्र रोगाणुओं के सम्पर्क में आने के बाद या टीकाकरण (vaccination) द्वारा विकसित होता है। इसके लक्षण निम्न हैं
(i) विशिष्टता (Specificity) अर्थात् विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं की पृथक पहचान करना।
(ii) याददाश्त (Memory) अर्थात् दूसरी बार उसी रोगाणु के हमला करने पर जल्दी प्रभाव उत्पन्न करना। यह इस तन्त्र का विशिष्ट लक्षण है।
उपार्जित प्रतिरक्षा के प्रकार (Types of Acquired Immunity)
उपार्जित प्रतिरक्षा को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है
(i) सक्रिय प्रतिरक्षा (Active Immunity ) यह प्रतिरक्षा प्रतिजन (antigen) के सम्पर्क में आने पर विकसित होता है, जिसके फलस्वरूप प्रतिरक्षी (antibody) बनती है।
संक्रमण या टीकाकरण के दौरान रोगाणुओं के सम्पर्क में आने पर सक्रिय प्रतिरक्षण तन्त्र का विकास होता है। यह धीमी परन्तु ज्यादा समय तक चलने वाली प्रक्रिया है, जिसका कोई अन्य असर नहीं होता है।
इस प्रतिरक्षा के कुछ उदाहरण निम्न हैं
◆ टीकाकरण द्वारा विकसित प्रतिरक्षण
◆ प्राकृतिक संक्रमण द्वारा विकसित प्रतिरक्षण
(ii) निष्क्रिय प्रतिरक्षा (Passive Immunity) इस प्रतिरक्षा में प्रतिरक्षी बाहर से दिए जाते हैं। यह उस अवस्था में होता है, जब प्रतिरक्षी तन्त्र की आवश्यकता कम समय में होती है। यह जल्दी असर करता है, परन्तु कुछ ही दिनों तक रहता है।
इस प्रतिरक्षण के कुछ उदाहरण निम्न हैं
◆ माता से आवनाल (placenta) द्वारा शिशु में गई प्रतिरक्षी
◆ माँ के दूध द्वारा दी गई प्रतिरक्षी। माँ के दूध (colostrum) में IgA होता है। यह पीले रंग का तरल होता है, जो शिशु के जन्म के पश्चात् माँ के स्तनों द्वारा स्रावित होता है।
प्रतिरक्षी (Antibodies)
प्रतिरक्षी रोगाणु के विरुद्ध B-लिम्फोसाइट द्वारा बने प्रोटीन कण होते हैं। T-कोशिकाओं द्वारा प्रतिरक्षी नहीं बनते हैं अपितु यह B-कोशिकाओं की इनके उत्पादन में सहायता करते हैं।
मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी (Monoclonal Antibodies)
ये एकल विशिष्ट प्रतिरक्षी होती है, जो एक जैसी प्रतिरक्षण कोशिकाओं के बनने के कारण एक-समान होती है परन्तु पॉलीक्लोनल प्रतिरक्षी विभिन्न प्रकार की प्रतिरक्षी कोशिकाओं की बनी होती हैं।
जादुई गोली (magic bullet) का विचार सर्वप्रथम पॉल अहरलिच ने 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में दिया। इन्होंने कहा की एक पदार्थ एक रोगाणु के खिलाफ विशिष्टीकृत कर बनाया जाए तथा उसके विरुद्ध एक विष भेजा जाए। पॉल अहरलिच तथा एली मैटचिनकौफ को कार्यिकी व चिकित्सा में अपने कार्यों के लिए सन् 1908 में नोबेल पुरस्कार मिला तथा इन्होंने सन् 1910 में सिफिलिस का प्रभावी इलाज बनाया।
प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया (Immune Responses) 
प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया दो प्रकार की होती है
(i) प्राथमिक प्रतिक्रिया (Primary Response) वह प्रतिक्रिया है, जो रोगाणु के प्रथम बार आक्रमण द्वारा होती है। इस प्रतिक्रिया के पश्चात् इसका विवरण याद्दाश्त में संचित हो जाता है।
(ii) द्वितीयक प्रतिरक्षण प्रतिक्रिया (Secondary Immune Response/Anamnestic Response) उसी रोगाणु के दोबारा आक्रमण करने पर होती है अर्थात् यह प्राथमिक से ज्यादा तेजी से होती है। इसमें स्वयं तथा बाहरी अणुओं को पहचानने की क्षमता होती है क्योंकि यह अत्यधिक विशिष्ट प्रतिक्रिया है। प्राथमिक व द्वितीयक प्रतिरक्षण प्रतिक्रिया B व T-लिम्फोसाइट्स द्वारा उत्पन्न होती है।
प्रतिरक्षण (Immunisation)
यह एक प्रक्रिया है, जिसमें किसी व्यक्ति का प्रतिरक्षा तन्त्र किसी कारक के विरुद्ध दृढ़ हो जाता है। प्रतिरक्षा तन्त्र के महत्त्वपूर्ण अवयव T-कोशिका, B-कोशिका व प्रतिरक्षी है, जो प्रतिरक्षण द्वारा विकसित होती है। स्मृति B-कोशिका व स्मृति T-कोशिका, बाहरी अणु के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हेतु जिम्मेदार होती है। निष्क्रिय प्रतिरक्षण में ये तत्व शरीर में सीधे डाले जाते हैं ना की शरीर स्वयं इन्हें बनाती है।
एलर्जी (Allergies)
यह अतिरंजित (exaggerated) एवं अतिविशिष्ट प्रक्रिया है, जो प्रतिरक्षा तन्त्र द्वारा वातावरणीय कारकों के विरुद्ध होती है, जब किसी व्यक्ति का सामान्य प्रतिरक्षा तन्त्र किसी हानिकारक पदार्थ उदाहरण धूल, परागकण, गर्मी, ठण्ड, धागे, आदि एलर्जी कारकों (allergens) से क्रिया करता है, तो एलर्जी प्रतिक्रिया होती है। एलर्जी कारकों के विरूद्ध IgE प्रकार की प्रतिरक्षी बनती हैं। इसके लवण छींक, आँखों से पानी आना, लाल चकते, बहती हुई नाक, साँस लेने में तकलीफ (अस्थमा), आदि हैं।
एलर्जी मास्ट कोशिकाओं द्वारा हिस्टेमिन व सिरोटोनिन नामक रसायनों के स्रावित होने से होती है। इनकी प्रति दवाइयाँ जैसे प्रति हिस्टेमिन, एड्रीनेलिन व स्टिरॉइड्स, आदि एलर्जी के प्रभाव को तुरन्त कम कर देते हैं। आज के समय में बच्चों में एलर्जी बहुत सामान्य है, जो अत्यधिक नाजुक होने व प्रतिरक्षा में कमी के कारण होती है।
स्वप्रतिरक्षा (Autoimmunity )
यह वह अवस्था है, जिसमें शरीर अपने व बाहरी अणुओं में अन्तर नहीं कर पाता है तथा प्रतिरक्षी तन्त्र अपने ही अणुओं को नष्ट करना प्रारम्भ कर देता है। इससे शरीर को नुकसान होता है तथा कई प्रकार की प्रतिरक्षी रोग होते हैं जैसे रिह्यूमेटॉइड गठियाँ, एडिसन रोग, हाशिमोटो रोग, आदि ।
जैव चिकित्सीय तकनीकें (Biomedical Techniques ) 
इसमें औषधियों के लिए प्राकृतिक विज्ञान (विशेष रूप से जीव विज्ञान और शारीरिक विज्ञान) के सिद्धान्तों के प्रयोग सम्मिलित हैं। बहुत से निदानकारी उद्देश्यों के लिए विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया जाता है जिनका विवरण आगे दिया गया है।
ये तकनीकें मुख्यतया दो प्रकार की होती हैं
1. इन्वेसिव तकनीकें (Invasive Techniques )
इन तकनीकों में यान्त्रिक विधि का प्रयोग एक विशेष अंग पर किया जाता है, जिससे रोगी को किसी भी प्रकार की असहजता अथवा उसके ऊतकों पर दुष्प्रभाव हो सकता है। उदाहरण एंजियोग्राफी (Angiography), एण्डोस्कोपी (Endoscopy), आदि।
कुछ सामान्य इन्वेसिव तकनीक निम्नलिखित हैं
(i) खुली सर्जरी ( Open surgery) वृक्क, गाल ब्लैडर, हृदय एव न्यूरो सर्जरी
(ii) मिनिमल इन्वेसिव प्रक्रिया (Minimal invasive procedure) क्रायोसर्जरी, माइक्रोसर्जरी, एन्जियोप्लास्टी, लेप्रोस्कोपिक सर्जरी, आदि ।
एंजियोप्लास्टी (Angioplasty)
यह यान्त्रिक तकनीक है, जिसमें धमनियों को खोला या सिकोड़ा जाता है। इसमें एक खाली व पिचका गुब्बारा तार के साथ (balloon catheter) को पतली जगहों पर पानी के दाब द्वारा (75-100 गुना ज्यादा रुधिर दाब) डाला जाता है। यह रुधिर वाहिकाओं में वसा को घोलता है तथा रुधिर प्रवाह हेतु उचित स्थान बनाता है। बाद में गुब्बारे को निकाल लिया जाता है।
अंग ट्रान्सप्लान्ट (Organ Transplant )
इस तकनीक में एक जीव से अंग को दूसरे जीव में डाला जाता है क्योंकि उसमें अंग खराब या बीमार होता है परन्तु . आज किसी जीव की कोशिकाओं (स्टेम सैल) से कृत्रिम अंग भी बनाए जा रहे हैं। यदि अंग उसी व्यक्ति में ट्रान्सप्लान्ट कराया जाता है, तो उसे ऑटोग्राफ्ट (autograft) कहते हैं। यदि ट्रान्सप्लान्ट दो समान जाति के जीवों में हो, तो उसे एलोग्राफ्ट (allograft) कहते हैं। ये जीवित या तुरन्त मृत जीव से लिए जाते हैं ।
2. नॉन- इन्वेसिव तकनीकें (Non-Invasive Techniques )
इस प्रकार की रोग निदान ( diagnostic) तकनीकों में यान्त्रिक विधि का उपयोग नहीं किया जाता है तथा रोगी को किसी प्रकार की असहजता अथवा खतरा नहीं होता है। उदाहरण सोनोग्राफी ( sonography), सीटी स्कैन (CT scan), एम आर आई (MRI), आदि।
कुछ रोग निदान तकनीकें निम्नलिखित हैं
X – किरणें रेडियोग्राफी (X-Ray Radiography)
X-किरणों की खोज रोइटजैन ने 1895 में की थी। यह मुख्यतया दृश्य तकनीक है, जिसमें विद्युत चुम्बकीय किरणों जैसे X-किरणों का उपयोग किया जाता है, जिनमें किसी पदार्थ को भेदने की क्षमता होती है। इस विधि में X-किरणों की रेखा रोगी के शरीर से निकलकर फोटोग्राफिक प्लेट पर एक प्रतिकृति बनाती है। इस तकनीक से हृदय, फेफड़े अथवा अस्थियों में रोगों का पता लगाया जाता है।
वाहिकालेख (Angiography)
इस विधि का उपयोग रुधिर वाहिनियों (blood vessels) के अन्दर अथवा हृदय के आन्तरिक भागों को देखने के लिए किया जाता है। पुरानी विधि में इसमें किसी प्रतिदीप्तिशील अथवा किसी प्रतिकूल पदार्थ (contrasting agent) को शरीर में प्रवेश कराकर किया जाता था। इस विधि में प्रतिकृति की तीव्रता बढ़ाने वाले पदार्थों (image intensifiers) को वास्तविक प्रतिकृति को बनाने तथा कैथोड किरण नलिका (Cathode Ray Tube or CRT) का प्रयोग प्रतिकृति को देखने में किया जाता है।
कम्प्यूटेट टोमोग्राफिक स्कैनिंग (Computed Tomographic Scanning or CT Scan) 
यह एक विशेष रेडियोग्राफिक तकनीक है, जिसमें X-किरण तथा कम्प्यूटर तकनीक के सम्मिश्रण को आन्तरिक अंगों के 3-D प्रतिकृति (image) बनाई जाती है तथा देखी जाती है। इसे कम्प्यूटरीकृत एक्सियल टोमोग्राफी (computerised axial tomography) भी कहा जाता है।
चुम्बकीय रेसोनन्स इमेजिंग (Magnetic Resonance Imaging MRI) 
यह एक महँगी तकनीक है, जिसका उपयोग मुख्यतया मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु से सम्बन्धित रोगों का पता लगाने में किया जाता है। यह मस्तिष्क के सफेद घूसर पदार्थ (white and grey matter) के विभेदीकरण में भी प्रयोग किया जाता है। इसके द्वारा कैंसर तथा रुधिर प्रवाह का भी पता लगाया जाता है।
इस तकनीक में हाइड्रोजन अणु में उपस्थित प्रोटॉन के चुम्बकीय गुण का उपयोग किया जाता है। यह प्रोटॉन जब उच्च चुम्बकीय क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो यह एक चुम्बक की व्यवहार करता है। मानव शरीर में उपस्थित पानी के हाइड्रोजन अणु में प्रोटॉन पाया जाता है, जो पानी व ऊतक में विभेदीकरण करता है, जिससे शरीर में अधिक पानी व कम पानी वाले ऊतकों में विभेदीकरण होता है। अत्यधिक कम पानी वाले ऊतकों की उपस्थिति MRI में नहीं पाई जाती है।
अल्ट्रासाउण्ड प्रतिकृतिकरण (Ultrasound Imaging Sonography) 
इस तकनीक में अल्ट्रासाउण्ड का उपयोग शरीर के आन्तरिक भागों की प्रतिकृति बनाने में किया जाता है। अल्ट्रासाउण्ड मुख्यतया उच्च आवृत्ति (frequency) वाली ध्वनि तरंग (sound waves) होती है, जिनका विस्तार 2000 K-20 kHz से ज्यादा होती है, जो 1-15 MHz के मध्य होती है। ये किरणें एक भौतिक प्रभाव उत्पन्न करती है, जिन्हें पीजो विद्युत प्रभाव (piezo electric effect) कहते हैं।
यह तकनीक वृक्क पथरी, यकृत सिरोसिस, गर्भाशय में किसी प्रकार का रोग व गाल ब्लैडर में पथरी का पता लगाने में प्रयोग की जाती है।
इस विधि द्वारा गर्भावस्था तथा भ्रूण में किसी भी प्रकार की विकृति का पता लगाया जा सकता है।
शरीर की जैव ऊर्जा कार्य सम्बन्धी कुछ तकनीकें (Some Techniques Related to Monitor Body’s Vital Functions)
1. इलेक्ट्रोएनसिफेलोग्राफी (Electroencephalography EEG)
यह तकनीक मस्तिष्क की विद्युत गतिविधि को नापने में प्रयोग की जाती है। यह मुख्यतया मिर्गी (epilepsy), मस्तिष्क की सूजन (encephalitis), विक्षिप्तता (dementia), रक्तस्राव (haemorrhage), मस्तिष्क के आघात तथा ट्यूमर के निदान में प्रयोग किया जाता है। यह तकनीक कोमा में गए व्यक्ति की मस्तिष्क अवस्था भी बताती है। इसकी क्रियाविधि मस्तिष्क के न्यूरॉन्स पर होने वाले विद्युत धारा के प्रभाव में आए अन्तर पर निर्भर करती है।
न्यूरॉन चार प्रकार की तरंगों का संचरण मस्तिष्क की विभिन्न क्रिया विधियों में करते हैं
(i) एल्फा तरंग (a-rays) इसकी आवृत्ति 8-13 MHz तक होती है, जो एक वयस्क व्यक्ति की जागती हुई तथा आँख बन्द की हुई अवस्था में संचरित होती है।
(ii) बीटा तरंग (B-rays) इसकी आवृति 14-30 Hz तक होती है तथा ये शान्त, आँख बन्द किए हुए वयस्क के मस्तिष्क में संचरित होती है।
(iii) थीटा तरंग (e-rays ) इसकी आवृत्ति 4-7 Hz होती है, जो 2-5 वर्ष के शिशुओं में तथा वयस्कों में भावात्मक तनाव के दौरान संचरित होती है।
(iv) डेल्टा तरंग (S-rays) इसकी आवृत्ति कम होती है, जो छोटे शिशुओं में जागती अवस्था व गहरी निद्रा के दौरान संचरित होती है।
2. प्रतिरक्षी थेरेपी (Immunotherapy)
इस चिकित्सीय तकनीक में रोग का निदान प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को बढ़ाकर या कम कराकर किया जाता है। प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने वाली प्रतिरक्षी थेरेपी को सक्रियण प्रतिरक्षी थेरेपी तथा प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को दमन करने वाली प्रतिरक्षी थेरेपी को दमनकारी प्रतिरक्षी थेरेपी कहते हैं।
3. हॉर्मोन थेरेपी (Hormone / Hormonal Therapy)
यह चिकित्सा के क्षेत्र में हॉर्मोन का प्रयोग करना है। विलोमात्मक प्रतिक्रिया वाले हॉर्मोन का प्रयोग इस थेरेपी में अधिक किया जाता है।
इसके कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण निम्नलिखित हैं
◆ कैंसर के इलाज में।
◆ हॉर्मोन प्रतिस्थापन थेरेपी।
◆ क्लाइनफेल्टर सिन्ड्रोम के इलाज में।
◆ पुरोस्थ कैंसर के इलाज में इसे एंशेजन वचित थेरेपी कहते हैं।
◆ पुरुषों में रोग या उम्र के कारण टेस्टोस्टेरॉन प्रतिस्थापन थेरेपी।
◆ टर्नर सिन्ड्रोम के इलाज में।
4. पाजीट्रॉन इमिशन टोमोग्राफी (Positron Emission Tomograply or PET) 
यह नाभिकीय चिकित्सीय प्रदर्शन तकनीक है, जिसमें शरीर कि प्रक्रियाओं की 3-D प्रतिबिम्ब बनता है। इस तकनीक में शरीर में एक जैविक सक्रिय अणु पर पालीटॉन इमिटिंग रेडियो न्यूक्लिड (टेसर) डाला जाता है, जिससे निकलने वाली गामा किरणों को यह सिस्टम पकड़ता हैं। टेसर सान्द्रता की 3-D प्रतिबिम्ब का कम्प्यूटर विश्लेषण करते हैं। कुछ आधुनिक मशीनो द्वारा CT X-किरण स्कैन द्वारा ही साथ में ही PET भी कर लिया जाता है।
5. चक्रीय धमनी बाइपास सर्जरी (Coronary Artery Bypass Surgery)
यह एक सर्जिकल प्रक्रिया है, जिससे एन्जाइना व मुख्य धमनी (artery) की बिमारियों का निदान किया जाता है। इस तकनीक में शरीर के किसी भाग की धमनी में या शिरा को चक्रीय धमनी से मिलाया जाता है, ताकि सिकुड़ी हुई धमनी में रुधिर न जाकर बाइपास मार्ग से हृदय पेशियों (myocardium) तक चला जाए। इस प्रक्रिया में हृदय को रोक लिया जाता है तथा हृदय फुफ्फुसीय बाइपास तकनीक (cardio pulmonary bypass technique) द्वारा चक्रिय धमनी बाइपास वर्ग को धड़काया जाता है। अतः इस सर्जरी को ऑफ पम्प सर्जरी (off pump surgery) भी कहते हैं।
किट्स में उपस्थित कुछ रोग निदान तकनीकें (Some Diagnostic Technique Available in Kits)
(i) एन्जाइम सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (Enzyme Linked Immuno Sorbent Assay or ELISA) यह चिकित्सीय प्रतिरक्षा तन्त्र की एक आधारभूत विधि है, जिसमें प्रतिजन एवं प्रतिरक्षी की परस्पर क्रिया (antigen-antibody interaction) के आधार पर रोगों का निदान किया जाता है। मुख्यतया HIV का निदान इसी विधि द्वारा किया जाता है।
एलिजा (ELISA) निम्न प्रकार का होता है
प्रत्यक्ष एलिजा (Direct ELISA) इस तकनीक में प्रतिजन को एक ठोस आधार पर जोड़कर उसकी क्रिया एन्जाइम सहलग्न प्रतिरक्षी से की जाती है।
अप्रत्यक्ष एलिजा (Indirect ELISA) इस तकनीक में प्रतिजन को ठोस आधार पर जोड़कर प्राथमिक प्रतिरक्षी के बाद द्वितीयक एन्जाइम सहलग्न प्रतिरक्षी डाली जाती है, जो प्राथमिक प्रतिरक्षी एवं प्रतिजन की क्रिया को दर्शाती है। इस तकनीक के द्वारा सीरम में विशिष्ट प्रतिरक्षी का पता लगाया जाता है।
प्रतियोगी एलिजा (Competitive ELISA) इस तकनीक में प्रोटीन व प्रतिरक्षी को साथ में डाला जाता है, जो प्रतिजन से क्रिया के लिए प्रतियोगिता करती है। द्वितीयक प्रोटीन से अत्यधिक विशिष्ट परिणाम प्राप्त होता है।
सैंडविच एलिजा ( Sandwich ELISA) इस तकनीक में प्रतिरक्षी को ठोस आधार पर जोड़कर उसके ऊपर सीरम डाला जाता है, जिसमें मौजूद प्रतिजन का पता लगाना होता है। उसके पश्चात् एन्जाइम सहलग्न प्रतिरक्षा डाली जाती है, जो प्रतिजन से क्रिया कर दृष्टिगत परिणाम देती है। यह क्रिया रोगाणु प्रतिजन का पता लगाने के लिए सबसे उचित तकनीक है।
(ii) गर्भावस्था जाँच किट्स (Pregnancy Test Kits) इन किट्स का उपयोग किसी स्त्री की गर्भावस्था का पता “लगाने में किया जाता है। यह विधि स्त्री के रुधिर अथवा मूत्र से गर्भावस्था का पता लगाती है। गर्भावस्था का पता लगाने वाली सबसे नवीन तकनीक रोजेट अवरोधन आमापन (roosete inhibition assay) है, जो आरम्भिक गर्भावस्था कारक (Early Pregnancy Factor or EPF) का पता निषेचन के मात्रा 48 घण्टों बाद लगा सकती है।
आज के समय में घर में ही स्त्रियों द्वारा गर्भावस्था का पता लगाने वाले किट्स मौजूद हैं, जो मानव कोरियोनिक गोनेडोट्रोपिन हॉर्मोन (Human Chorionic Gonadotropin Hormone or HCG) की मूत्र में उपस्थिति के आधार पर गर्भावस्था की पुष्टि करते हैं। उदाहरण आई-श्यूर (i-sure), कॉनफायर 1 स्टेप (confir 1 step), आदि।
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