क्षेत्र सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

क्षेत्र सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।

                   अथवा
कर्ट लेविन के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये ।
उत्तर— कर्ट लेविन का सिद्धान्त (Theory of Kurt Lewin)– कर्ट लेविन पहले व्यक्ति थे जिसने वैज्ञानिक रूप से कार्य किया तथा समूह गतिशीलता को प्रसिद्ध किया तथा सन् 1945 में Centre Research for Group Dynamics की स्थापना की तथा इससे सम्बन्धित अनेक अनुसंधान किए। कर्ट लेविन ने सन् 1951 में समूह गतिशीलता का क्षेत्र सिद्धान्त विकसित किया तथा उन्होंने बताया कि समूह उसके भाग की अपेक्षा बड़े होते हैं। चूँकि कर्ट लेविन एक गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिक थे । अतः उन्होंने अपने सिद्धान्त को ‘गेस्टाल्ट सिद्धान्त’ के अनुरूप प्रस्तुत किया ।
गेस्टाल्ट एक जर्मन शब्द है जिसका कोई पर्यायवाची शब्द हिन्दी में नहीं है लेकिन इस शब्द के निकट का अर्थ देने वाले शब्दों में से कुछ-आकार, रूप, संगठन, प्रकार या बनावट हैं।
इनका यह सिद्धान्त व्यवहार पर जोर देता है। इनका यह क्षेत्र सिद्धान्त अन्त:क्रिया के सिद्धान्त पर आधारित है। इन्होंने कहा कि व्यक्ति का व्यवहार जो समूह में होता है, वह व्यक्ति की वातावरण से अन्तः क्रिया पर आधारित होता है। उन्होंने इसका यह सूत्र दिया—
B = f (PE)
B = Behaviour → व्यक्ति का व्यवहार
f = Function कार्य
P = Personal Characteristics → व्यक्तिगत विशेषता
E = Environment → वातावरण
क्षेत्र सिद्धान्त की उत्पत्ति भौतिकी (Physics), रसायन शास्त्र (Chemistry) तथा गणित (Maths) से हुई है तथा इसे मनोविज्ञान में व्यवहार के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या के लिए उपयोग किया गया । इस सिद्धान्त की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान कर्ट लेविन (सन् 1890–1947) का रहा है। इन्हें इस सिद्धान्त का प्रवर्तक भी माना जाता है। इस सिद्धान्त की परिकल्पना ये है कि “प्राणी का व्यवहार उन सभी कारकों द्वारा प्रभावित होता है जो उसके वातावरण में उपस्थित होते हैं। “
इस सिद्धान्त को निम्न तीन भागों में बाँटकर इसका वर्णन किया गया है—
(1) व्यक्तित्व की संरचना (Structure of Personality) (2) व्यक्तित्व की गतिकी (Dynamics of Personality) (3) तथा व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)।
(1) व्यक्तित्व की संरचना (Structure of Personality)– लेविन ने इसकी व्याख्या के लिए गणित की एक शाखा सांस्थिति विज्ञान का सहारा लिया। इसमें वस्तुओं के सम्बन्धों (अंश-पूर्ण) का अध्ययन किया जाता है, जैसे— सम्बन्धों के सहारे उन्होंने मानव व्यवहारों का अध्ययन किया तथा व्यक्तित्व की संरचना को चार भागों में बाँटा है—
(i) व्यक्ति (Person or P)–लेविन का विचार था कि व्यक्ति एक तत्त्व है जो वातावरण से घिरे रहने के बावजूद अपने को वातावरण से भिन्न रखता है जिसमें
L = P + E
L= Life space या जीवन समष्टि व्यक्ति
P = Person या E = Environment या वातावरण
इस निम्न चित्र द्वारा समझा जा सकता है—
इसमें P एक बंद वृत्त में दिखाया गया है जिसकी दो प्रमुख विशेषताएँ होती हैं—
(अ) यह अपने वातावरण से अलग होता है ।
(ब) P अर्थात् व्यक्ति विभेदित भी होता है अर्थात् वह अपने वातावरण से ही नहीं बल्कि भीतरी रूप से दो भागों में बँटा होता है।
(ii) मनोवैज्ञानिक वातावरण (Psychological Environment or E)– इसे लेविन ने ‘E’ के रूप में संकेतिक किया है। व्यक्ति द्वारा अपने वातावरण का अनुभव किया जाना मनोवैज्ञानिक वातावरण कहलाता है । चित्र A में बड़े वृत्त के भीतर का क्षेत्र वस्तु वृत्त है जिसमें P का प्रतिनिधित्व हो रहा है, के बाहर का क्षेत्र मनोवैज्ञानिक वातावरण कहलाता है । P के समान E को भी लेविन ने कई भागों में बाँटा है ।
(iii) जीवन समष्टि ( Life Space or L)– यह इसके सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण प्रत्यय है जिसे ‘L’ द्वारा इंगित किया गया है अर्थात् P तथा E के मिलने पर जिस प्रत्यय का जन्म होता है उसे जीवन समष्टि ( Life Space) कहा जाता है तथा इसमें वे सभी वस्तुएँ शामिल होती हैं जिससे व्यक्ति का तात्कालिक व्यवहार प्रभावित होता है इसीलिए कहा जाता है—
L=P+E
(iv) वास्तविकता के स्तर (Levels of Reality)– लेविन ने बताया कि वास्तविकता तथा अवास्तविकता के कुछ स्तर होते हैं जो व्यक्ति या वातावरण पर लागू होते हैं। वास्तविकता से तात्पर्य ऐसी कल्पना से है जो व्यक्ति वास्तव में कर सकता है तथा अवास्तविकता जिसे वह नहीं कर सकता है। इन दोनों छोरों अर्थात् वास्तविकता तथा अवास्तविकता के बीच कई स्तर होते हैं।
(2) व्यक्तित्व की गतिकी (Dynamics of Personality)– लेविन ने कुछ गतिकी के सम्प्रत्ययों का प्रतिपादन किया जिससे पता चलता है कि किसी दी गयी परिस्थिति में व्यक्ति किस तरह का व्यवहार करता है जो निम्न हैं—
(i) ऊर्जा (Energy)– जिस ऊर्जा से मनोवैज्ञानिक कार्य होते हैं उसे लेविन ने मनोवैज्ञानिक ऊर्जा की संज्ञा दी है। इसकी उत्पत्ति तब होती है जब व्यक्ति में तनाव बढ़ जाता है जिससे तंत्र में असंतुलन हो जाता है तो उसे संतुलन करने में तंत्र क्रियाशील होता है तथा वह अपने सभी भागों में तनाव को एक समान करने में सफल हो जाता है तब ऊर्जा की उत्पत्ति रुक जाती है एवं तंत्र सामान्य अवस्था में आ जाता है।
(ii) तनाव (Tension)– यह वह स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति के क्षेत्रों के बलों के बीच में असंतुलन हो जाता है। लेविन महोदय ने तनाव के दो गुण बताये हैं—
(अ) तनाव का मुख्य गुण है कि यह संतुलन बनाने की दिशा में व्यक्ति को प्रेरित करता है ।
(ब) तनाव का दूसरा गुण है कि यह केवल व्यक्ति को ही नहीं
बल्कि आस-पास के लोगों को भी प्रभावित कर सकता है।
(iii) आवश्यकता (Need)– लेविन के अनुसार, आवश्यकता शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार की होती है। शारीरिक आवश्यकताओं में भूख, प्यास आदि तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकता में धनी बनने की आवश्यकता, उपलब्धि की आकांक्षा आदि होती है । आवश्यकता से तनाव की वृत्तियों में कमी होती है।
(iv) कर्षण शक्ति (Valence)– लेविन ने बताया कि मनोवैज्ञानिक वातावरण में कई क्षेत्र होते हैं और इस क्षेत्र के मूल्य व्यक्ति के लिए या तो धनात्मक होते हैं या ऋणात्मक। इसी मूल्य को इन्होंने कर्षण शक्ति की संज्ञा दी है। धनात्मक कर्षण शक्ति में व्यक्ति उस क्षेत्र में जाना चाहता है जिससे उसकी आवश्यकता की पूर्ति होती है लेकिन ऋणात्मक कर्षण शक्ति में वह उस क्षेत्र में नहीं जाना चाहता है जिससे उसकी ऋणात्मक कर्षण शक्ति बने ।
(v) सदिश (Vector)– इस तत्त्व को लेविन ने भौतिक विज्ञान या गणित से लिया तथा सदिश का प्रयोग मानव व्यवहार की व्याख्या हेतु किया। इससे तात्पर्य ऐसे बलों से होता है जो व्यक्ति के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं व उसे एक निश्चित दिशा में कार्य करने को प्रेरित करते हैं। इन्होंने सदिश को तीर रेखा (Arrow Line) से इंगित किया है ।
(3) व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)– कर्ट लेविन ने व्यक्तित्व के विकास हेतु विकास की अवस्थाओं का वर्णन नहीं किया है। इन्होंने वंशानुक्रम तथा वातावरण के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया लेकिन अपने समूह सिद्धान्त में इसके अन्तर्गत दो प्रत्यय बताए हैं—
(i) व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तन (Behavioural Changes)– लेविन के अनुसार, जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बढ़ती जाती है उसमें कई तरह के परिवर्तन आने आरम्भ हो जाते हैं। यही कारण है कि बाल्यावस्था की अपेक्षा वयस्कावस्था में व्यक्ति में बहुत परिवर्तन आते हैं। वह कम से कम समय में अधिक से अधिक उपलब्धि चाहता है। लेविन के अनुसार शिशुओं के शरीर में एक फैलने वाली क्रिया होती है जिसे उन्होंने सामान्य अन्तर्निर्भरता कहा है। तनाव के स्रोत आदि भूख प्यास कुछ भी हो तो यह तनाव समान रूप से पूरे शरीर में उत्पन्न होकर फैल जाता है व इसी से शिशु एक विशिष्ट क्रिया न कर सामान्य क्रिया करता है लेकिन जैसे-जैसे शिशु में परिपक्वता आती है वह सामान्य क्रियाएँ न कर विशिष्ट क्रियाएँ करता है, जैसेआरम्भ में बालक प्रत्येक चीज को पूरे हाथ से पकड़ना चाहता है लेकिन परिपक्व होने पर केवल उंगलियों का प्रयोग करता है अर्थात् सामान्य से विशिष्ट की ओर बढ़ता है।
(ii) विभेदीकरण तथा एकीकरण (Differentiation and Integration )— लेविन का कहना है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती है वह स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगता है तथा वास्तविक तथा अवास्तविक के बीच के अन्तर को समझने लगता है इसे ही इन्होंने विभेदीकरण (Differentiation) कहा है। लेकिन उम्र बीतने के साथ ही साथ व्यक्ति का व्यवहार अधिक संगठित एवं समन्वित होता जाता है। इसको इन्होंने एकीकरण (Integration) की संज्ञा दी है।
लेविन के सिद्धान्त का शैक्षिक उपयोग (Educational Implication of Levin’s Theory)– लेविन के सिद्धान्त के प्रमुख शैक्षिक उपयोग निम्न प्रकार से हैं—
(1) इनका सिद्धान्त अभिप्रेरणा पर जोर देता है। अतः छात्रों में अभिप्रेरणा का विकास शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए।
(2) प्राणी में आकांक्षा स्तर कम या अधिक होने पर बाधा होती है अतः छात्रों में आकांक्षा स्तर को एक स्तर तक बनाए रखना चाहिए।
(3) यह सिद्धान्त पुनर्बलन के महत्त्व को स्वीकार करता है लेकिन सावधानीपूर्वक इसका प्रयोग करना चाहिए।
(4) इसके अनुसार किसी कार्य की सफलता व्यक्ति में अहं (Ego), आकांक्षा स्तर पर निर्भर करती है। अतः इसका ध्यान रखना चाहिए।
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