भारत में आर्थिक सुधारों के बाद के काल में आर्थिक नियोजन की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए। इस सन्दर्भ में समझाइए कि किस प्रकार राज्य और बाजार देश के आर्थिक विकास में एक सकारात्मक भूमिका निबाह सकते हैं।
भारत में आर्थिक सुधारों के बाद के काल में आर्थिक नियोजन की प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए। इस सन्दर्भ में समझाइए कि किस प्रकार राज्य और बाजार देश के आर्थिक विकास में एक सकारात्मक भूमिका निबाह सकते हैं।
उत्तर – भारत में आर्थिक नियोजन- नियोजित अर्थव्यवस्था वह है जिसमें राज्य (आंशिक या पूर्ण रूप से) सहभागी होता है और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करता है। बाजार के लिए नियमों का निर्धारण करता है ताकि बाजार द्वारा अपनी मनमानी न की जा सके। उदाहरण के तौर पर (यू. एस. एस. आर) तथा चीन (1970 तक)।
भारतीय अर्थव्यवस्था को स्वतंत्रता पश्चात् एक नियोजित अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित किया गया जो पूर्व सोवियत संघ के समाजवादी मॉडल पर आधारित था। उसमें पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से अर्थव्यवस्था को गति देने का प्रयास किया गया जिसमें एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के तौर पर राज्य पाँच वर्ष के लिए अपने लक्ष्यों का निर्धारण कर, राज्य और बाजार अर्थव्यवस्था को गति देने का प्रयास करते थे। परन्तु इसमें समय के साथ कई खामियां आने लगी । जैसे, ज्यादतर क्षेत्रों पर राज्य का विशेषाधिकार था जिसमें बाजार के लिए कम विकल्प थे और जो थे उन पर भी सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा था। फलस्वरूप अर्थव्यवस्था की विकास दर 3.5% के आस-पास बनी रही जिसे भारतीय अर्थशास्त्री राज कृष्णा द्वारा हिन्दू विकास दर कहा गया।
• आर्थिक नियोजन के निम्न लक्ष्य होते हैं-
1. विकासः आर्थिक विकास किसी अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में वृद्धि करना है तथा यह पुनर्वितरण संबंधित पहलु तथा सामाजिक न्याय को संदर्भित करता है।
2. आधुनिकीकरण: तकनीक में सुधार ही आधुनिकीकरण है। यह संसाधन और विकास में नवाचार और निवेश द्वारा संचालित होता है। अतः शिक्षा आधुनिकीकरण की नींव है।
3. आत्मनिर्भरता : आत्मनिर्भरता का अर्थ है देश के संसाधनों पर निर्भर होना न कि अन्य देशों और निवेशों और विकास के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर होना। परंतु इसका मतलब कदापि यह नही है कि हम एक बंद अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं। बल्कि हमें अपने संसाधनों से देश में निर्मित वस्तु के निर्यात द्वारा विदेशी मुद्रा का अर्जन करके तथा देश की अर्थव्यवस्था में पुनर्नियोजीत कर विकास को बढ़ावा देना होगा।
4. सामाजिक न्यायः सामाजिक न्याय का अर्थ है समावेशी और न्यायसंगत विकास जहाँ असमानताएँ नहीं हों और विकास के लाभ सभी तक पहुँच सकें इसके लिए ग्रामीण-शहरी, पुरुष-महिला, जाति विभाजन जिसमें समाज के हासिए के सभी लोगों को शामिल किया जाता है तथा भारत की क्षेत्रीय विविधता को भी समाविष्ट करता है।
• नियोजन की प्रासंगिकता – आजादी से 1991 के सुधारों के बाद तक
जीवन स्तर को सुधारने के लिए प्रति व्यक्ति आय को बढ़ावा देना जिससे लोगों की क्रयशक्ति बढ़े और देश से गरीबी को दूर किया जा सके। इसके लिए कृषि, उद्योग, सेवा क्षेत्र, शक्ति, परिवहन एवं संचार और सभी क्षेत्रों की विकास दर को प्रेरित करना होगा। न्याय के साथ विकास, गरीबी हटाओ, समावेशी विकास जैसे शब्द इस बात की पुष्टि करते हैं कि राष्ट्रीय आय वृद्धि के साथ इसका समान वितरण जरूरी है ।
नियोजन प्रारम्भ होने पर यह सोचा गया कि कृषि एवं औद्योगिक विकास की गति को तीव्र करने से कुल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि के साथ रोजगार, अल्परोजगार एवं अदृश्य बेरोजगारी की समस्या स्वतः समाप्त हो जाएंगी और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने से जीवन स्तर उन्नतशील होगा। परन्तु, जब नियोजकों ने इस बात का अनुभव किया कि कृषि तथा औद्योगिक विकास की वृद्धि के साथ-साथ बेरोजगारी बढ़ रही है तो उन्होंने उसे रोजगार प्रधान बनाने के लिए विभिन्न योजनाओं द्वारा रोजगार सृजन एवं गरीबी निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये गये जो अनवरत सभी योजनाओं में किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जैसे- प्रधानमंत्री ग्रामीण स्व-रोजगार योजना, मनरेगा आदि।
नियोजन के माध्यम से आय की असमानताओं में कमी और समाजवादी समाज की स्थापना से प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर दिये जा सकते हैं जिसमें कि स्वतंत्रता के पश्चात् तथा 1991 के आर्थिक सुधारों के पाश्चत के तीस वर्षों में असमानता में लगातार वृद्धि हुई और गरीबी के स्तर में कमी आई। परन्तु, समाजवादी समाज की स्थापना में आय की असमानता महत्त्वपूर्ण रूप से कम होनी चाहिए ।
भारत ने 1990 के बाद अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्विकरण को अपनाया जिससे सरकारी नियंत्रण एवं विनियमन का प्रभाव कम हुआ, साथ ही नेहरू, पटेल, जैसे महान विभूतियों के लोकतांत्रिक समाजवाद के दर्शन को भी अक्षुण बनाए रखा गया। सिर्फ भौतिक समृद्धि, मानव जीवन को सुखी और सम्पन्न नहीं बना सकती । भौतिक समृद्धि के साथ सभी नागरिकों को समान अवसर मिलने चाहिए जिससे वैयक्तिक और सामूहिक विकास की नीतियाँ अपनायी जा सकें। अनुकुलतम उत्पादन के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक असमानताओं को दूर करने का प्रयास नियोजन कर्ताओं को करना होगा।
1991 के आर्थिक सुधारों के बाद ऐसा बिल्कुल नहीं है कि राज्य के स्वामित्व का पूर्णतः संकुचन हो गया है बल्कि राज्य संचालक की भूमिका से नियंत्रणकर्ता की भूमिका में आ गया है। इससे राज्य सामाजिक न्याय के उद्देश्यों के लिए बाजार को नियंत्रित करेगा क्योंकि बाजार का उद्देश्य लाभ कमाना है न कि समाज कल्याण अतः इसमें नियोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
भारत ने जो मिश्रित अर्थव्यवस्था के स्वरूप को अपनाया है उसमें अंतर्विरोधी प्रेरणाओं में एक ओर है निजी हित और दूसरी ओर है सामाजिक लाभ। जबकि नियोजन का लक्ष्य है इन प्रतिद्वन्दी हितों में तालमेल बिठाकर राष्ट्रीय हित को उन्नतशील करना।
• उपरोक्त के लिए राज्य को निम्न सावधानी रखकर आगे बढ़ना होगा –
1. आर्थिक आधारिक संरचना में विस्तार करना जिसमें कृषि एवं उद्योगों की उत्पादकता को बनाया जा सके और प्रत्यक्ष उत्पादक विनियोग क्षेत्र का विस्तार हो सके।
2. राज्य ने वित्तीय संस्थाओं पर नियंत्रण रखा और जीवन बीमा निगम और वाणिज्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। परन्तु 1991 के बाद वित्तीय संस्थाओं को भी निजी क्षेत्र के लिए खोला जा रहा है। किन्तु सरकार उनको यथा सम्भव निर्देशित कर सकती है।
3. एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक, आयोग की स्थापना की गई जिससे व्यापारिक घरानों या अन्य पूँजीपति उपभोक्ताओं का शोषण न कर सके परन्तु नये आर्थिक सुधारों के अंतर्गत इसको समाप्त कर दिया गया जिससे अर्थव्यवस्था में तेजी आयी।
4. कीमतों को नियंत्रित रखना जिससे जनमानस को कठिनाई का सामना न करना पड़े। यह आयोजन का उद्देश्य होना चाहिए परन्तु राज्य कीमतों की वृद्धि रोकने में असफल रहे हैं। व्यापारी कृत्रिम परिस्थितियाँ कायम कर कीमतों में वृद्धि कर देते हैं। इससे निपटना सरकार की जिम्मेदारी है।
5. शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से कमजोर वर्गों के बच्चों को सहायता देना जिससे उन्हें रोजगार मिले और उनका जीवन स्तर ऊँचा हो सके।
6. निजी क्षेत्र को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में ढालने की जरूरत हैं खासतौर पर 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद जिसमें पूँजीवादी समाज की परिग्रहणशील प्रवृति और लाभ प्रेरणा आयोजना प्रक्रिया में विकृति पैदा कर सकती है।
अतः नियोजन का आधार एक आदर्शवादी, दार्शनिक सोच वाले राज्य स्थापित करना है परन्तु आज भारतीय दर्शन के मूल्यों का ह्रास हो रहा है। लोगों में उपभोक्तावादी प्रवृतियां चरम की तरफ जा रही हैं। इन सभी चुनौतियों का सामना राज्य को करना है तथा साथ ही साथ अर्थव्यवस्था का विकास भी करना है।
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