भारत में नये आर्थिक सुधार -कार्यक्रमों की उपलब्धियों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

भारत में नये आर्थिक सुधार -कार्यक्रमों की उपलब्धियों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

(45वीं BPSC/2002 )
उत्तर – भारत में नये आर्थिक सुधार का सूत्रपात 1991 के भुगतान संकट के कारण हुआ। इस संकट से निकलने के लिए भारत सरकार ने विश्व – बैक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का दरवाजा खटखटाया। उनसे 7 बिलियन डॉलर का ऋण भुगतान संकट का सामना करने के लिए मिला। लेकिन कुछ शर्तें लगा दी जिसके फलस्वरूप सरकार को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (Liberalisation, Privatisation and Globalisation – LPG) की नीति के साथ अपने आर्थिक कार्यों की रूपरेखा बदलनी पड़ी।
नये आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप उद्योगों के प्रति उदारीकरण अपनाई गई। अल्कोहल, सिगरेट, जोखिम भरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटों, इलेक्ट्रॉनिकी, विमानन तथा औषधि भेषज; इन छ: उत्पाद श्रेणियों को छोड़ अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित उद्योगों में प्रतिरक्षा, परमाणु ऊर्जा एवं रेल परिवहन ही बचे हैं। इसके अलावा वित्तीय क्षेत्र में सुधार करते हुए इसे रिजर्व बैंक के नियंत्रण से थोड़ी छूट दी गई। रिजर्व बैंक को अब इस क्षेत्र के सहायक की भूमिका में कर दिया गया है। बैंकों की पूंजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 50% कर दी गई । विदेशी निवेशक संस्थाओं (FII) तथा व्यापारी बैंक, म्युचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है। इसी प्रकार सरकार की राजकोषीय नीतियों में भी बदलाव हुआ है। प्रत्यक्ष कर एवं निगम कर की दरों में 1991 के बाद से कमी की गई है। विदेशी विनिमय सुधार हेतु सर्वप्रथम अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में रुपये का अवमूल्यन किया गया। इससे देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में वृद्धि हुई। हानिकारक और पर्यावरण संवेदी उद्योगों के उत्पादों को छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं पर से आयात लाइसेंस व्ययस्था समाप्त कर दी गई। उसी प्रकार भारतीय वस्तुओं को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में स्पर्धा शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें निर्यात शुल्क से मुक्त कर दिया गया है ।
आर्थिक सुधारों के अंतर्गत सरकार निजीकरण पर भी विशेष ध्यान दे रही है। निजीकरण का तात्पर्य किसी सार्वजनिक उपक्रम के स्वामित्व या प्रबंधन का सरकार द्वारा त्याग । इसके तहत सरकार सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर हो रही है अथवा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सीधे निजी हाथों बेच दिया जा रहा है। इसी तरह सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को प्रबंधकीय निर्णयों में स्वायत्तता प्रदान कर उनकी कार्यकुशलता को सुधारने का प्रयास किया है। इन्हें ‘महारत्न’, ‘नवरत्न’, ‘लघुरत्न’ का विशेष दर्जा दिया जा रहा है।
 नये आर्थिक सुधारों की तीसरी प्रक्रिया वैश्वीकरण है जिसका WTO द्वारा घोषित आधिकारिक अर्थ “वस्तुओं, सेवाओं, निवेश और श्रम-शक्ति का एक देश से दूसरे देश में अप्रतिबंधित आवागमन ।” अतः वैश्वीकरण संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण का प्रयास है।
सुधार कार्यक्रम को आरंभ हुए लगभग दो दशक हो चुके हैं। यदि हम सुधारों के पहले ही संवृद्धि दर (1980-81) को देखें तो यह 5.6% थी, जो 1992-2001 की अवधि में 6.4% हो गई एवं 2010-11 की संवृद्धि दर 8.6% है। अतः कुल मिलाकर संवृद्धि दर में काफी सुधार हुआ है। लेकिन यह संवृद्धि मुख्यतः सेवा क्षेत्र के बढ़ते योगदान का परिणाम है। इसी समय में कृषि और उद्योगों की संवृद्धि में गिरावट भी आई है। यद्यपि वाहन, कल-पुर्जों, इंजीनियरी उत्पादों, सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों, वस्त्र आदि के सफल निर्यातक के रूप में भारत विश्व – बाजार में जम गया है । आर्थिक सुधारों ने सामाजिक क्षेत्रकों में सार्वजनिक व्यय की वृद्धि पर विशेष रूप से रोक लगा दी है। इसका विकास और जनकल्याण आदि पर बुड़ा प्रभाव पड़ा है।
 अत: उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के माध्यम से वैश्वीकरण का भारत सहित अनेक देशों पर सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव पड़ा हैं। उच्च संवृद्धि दर के आधार पर विकास को आंकलित करना भी पूर्णतः तर्कसंगत नहीं है। संवृद्धि
कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रही है, जैसे- दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त, मनोरंजन, पर्यटन और परिचर्या सेवाएं, भवन निर्माण, व्यापार आदि। कृषि विनिर्माण जैसे आधारभूत क्षेत्रक (जो देश के करोड़ों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं) इन सुधारों से लाभान्वित नहीं हो पाए हैं।
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