रोहिंग्या शरणार्थी संकट की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। इस संकट की उत्पत्ति एवं समाधान में म्यांमार, चीन, भारत एवं बांग्लादेश की भूमिका का वर्णन कीजिए | रोहिंग्या शरणार्थियों के सन्दर्भ में मानवाधिकारों के हनन पर प्रकाश डालिए ।

रोहिंग्या शरणार्थी संकट की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। इस संकट की उत्पत्ति एवं समाधान में म्यांमार, चीन, भारत एवं बांग्लादेश की भूमिका का वर्णन कीजिए | रोहिंग्या शरणार्थियों के सन्दर्भ में मानवाधिकारों के हनन पर प्रकाश डालिए ।

अथवा

रोहिंग्या शरणार्थी संकट का आलोचनात्मक वर्णन करें। इस संकट की उत्पत्तिर एवं समाधान में म्यांमार, चीन, भारत और बांग्लादेश की भूमिका का अलग-अलग वर्णन करें। इस संदर्भ में मानवाधिकारों के हनन पर प्रकाश डालें।
उत्तर – रोहिंग्या समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अत्यन्त जटिल शरणार्थी समस्या के रूप में उभरी है। इसमें मानवाधिकार हनन, राज्य विहीनता (Statelessness ) आदि पक्ष शामिल है।
रोहिंग्या म्यांमार के रखाइन (अराकान) क्षेत्र के निवासी हैं तथा ये 7वीं शताब्दी में अराकान क्षेत्र में रहने वाले अरब, मुगल तथा बंगाली व्यापारियों के वंशज हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध में म्यांमार पर ब्रिटिश नियंत्रण के बाद रोहिंग्याओं की वफादारी अंग्रेजों के प्रति थी तथा 1947 में इन्होंने एक सेना का गठन कर जिन्ना से उत्तरी अराकान क्षेत्र का पूर्वी पाकिस्तान में विलय करने को कहा। माना जाता है कि इनके इसी कार्य ने इनके एवं म्यांमार सरकार के बीच समस्या के बीज बो दिये। 1948 में म्यांमार की स्वतंत्रता के बाद बौद्ध अधिकारियों ने ऐसी नीतियाँ बनानी शुरू कर दीं जिन्हें मुस्लिम समुदाय भेदभावपूर्ण मानता था।
1962 में सैन्य शासन की स्थापना से पूर्व इन्हें म्यांमार की राष्ट्रीयता प्राप्त थी तथा संसद, मंत्रिमण्डल व अन्य उच्च सरकारी पदों पर इनकी भागीदारी थी, किंतु बाद में 1982 के नागरिक कानून में, जो सैन्य शासकों द्वारा बनाया गया था, इन्हें गैर-राष्ट्रीय तथा विदेशी घोषित कर दिया गया। जातीय संहार से बचने के लिये बड़ी संख्या में रोहिंग्या म्यांमार छोड़कर पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब, थाईलैण्ड व मलेशिया जैसे देशों में रह रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार देश छोड़ने वाले रोहिंग्या लगभग 130,000 हैं।
रोहिंग्या शरणार्थी संकट की उत्पत्ति एवं समाधान में म्यांमार, चीन, भारत व बांग्लादेश की भूमिका :
 म्यांमार – दरअसल म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है, जबकि रोहिंग्याओं को मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी माना जाता है। हालांकि, लंबे समय से वे म्यांमार के रखाइन प्रान्त में रहते आ रहे हैं। बौद्धों का मानना यह है कि बांग्लादेश से भागकर
आए रोहिंग्याओं को वापस वहीं चले जाना चाहिये।
 रोहिंग्याओं और बौद्धों के बीच होने वाले छिटपुट टकराव को हवा तब मिली जब वर्ष 2012 में रखाइन प्रांत में हुए भीषण दंगों में लगभग 200 लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर रोहिंग्या मुसलमान थे। ये दंगे अगस्त, 2015 में तब शुरू हुए, जब एक बौद्ध महिला की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई और इसका इल्जाम तीन रोहिंग्याओं पर लगाया गया। इसके बाद तो अल्पसंख्यक रोहिंग्याओं और बहुसंख्यक बौद्धों के बीच कई बार हिंसक टकराव हुआ, लेकिन ज्यादातर जान गंवाने वाले रोहिंग्या ही बताए जाते हैं। म्यांमार के सुरक्षा बलों ने भी जब इन्हें सताना शुरू कर दिया तो इनके लिये म्यांमार में रहना कठिन हो गया।
चीन- रोहिंग्या मुस्लिम समस्या पर चीन ने तीन चरणों का प्रस्ताव रखकर उसको क्रियान्वित करने का म्यांमार और बांग्लादेश से अनुरोध किया है। यह प्रस्ताव रखाइन प्रांत को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है, जहां से छह लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान भागकर बांग्लादेश गए हैं। यह प्रस्ताव 51 एशियाई और यूरोपीय देशों के राजनयिकों की बैठक के दौरान रखा गया।
बांग्लादेश का दौरा करने के बाद म्यांमार पहुंचे चीन के विदेश मंत्री वांग ई ने कहा कि समस्या के समाधान के लिए  दोनों संबद्ध देशों का मिल-जुलकर काम करना जरूरी है। उनके सुझाए मसौदा के तहत –
> पहले चरण में शांति स्थापित करनी होगी जिससे लोगों के मन में विश्वास पैदा हो और कानून व्यवस्था स्थापित हो।
> वांग ई के अनुसार जब स्थापित हो जाए तब दोनों देशों को मिलकर शरणार्थियों की वापसी की प्रक्रिया शुरू करनी होगी।
>  तीसरे चरण में गरीबी की समस्या को दूर करने के प्रयास करने होंगे, जो विस्थापन की समस्या की सबसे बड़ी वजह होती है।
भारत – किसी तरह सीमा पार कर भारत में बड़ी संख्या में रोहिंग्या आ बसे हैं। भारत में इनकी कुल संख्या 10 से 12 हजार बताई जाती है, हालाँकि गृह मंत्रालय के पास जो अन्य आंकड़े मौजूद हैं उनके अनुसार भारत में रह रहे रोहिंग्याओं की संख्या लगभग 40 हजार है। भारत सरकार का गृह मंत्रालय देश में पहले से मौजूद रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजने के लिये कमर कस चुका है।
भारत ने 1951 के ‘यूनाइटेड नेशंस रिफ्यूजी कन्वेंशन’ और 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। दरअसल, इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने वाले देश की यह कानूनी बाध्यता हो जाती है कि वह शरणार्थियों की मदद करेगा। इसी की वजह से वर्तमान में भारत के पास कोई राष्ट्रीय शरणार्थी नीति नहीं है। लिहाजा शरणार्थियों की वैधानिक स्थिति बहुत अनिश्चित है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के विरुद्ध है।
जहां एक ओर भारत में शरणार्थियों की हिफाजत की ऐतिहासिक परंपरा रही है वहीं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और दक्षिण एशिया की एक प्रमुख शक्ति के तौर पर भारत को म्याँमार छोड़कर भाग रहे रोहिंग्याओं को अपने यहाँ शरण देनी चाहिये। विदित हो कि 1980 के दशक के उत्तरार्ध और 1990 के आरंभ में भारत ने म्याँमार से आने वाले हजारों शरणार्थियों का स्वागत किया था। तब नई दिल्ली ने न केवल उनके भोजन और आश्रय जैसे बुनियादी जरूरतों का ख्याल रखा था, बल्कि म्याँमार में उनके लोकतांत्रिक आंदोलन को जारी रखने के लिये आवश्यक सहायता भी प्रदान की थी।
विदित हो कि रखाइन राज्य में निरंतर जारी हिंसा के कारण दक्षिण-पश्चिम म्यांमार और भारत के पूर्वोत्तर में परिवहन ढांचे के विकास के उद्देश्य से आरंभ की गई ‘कालादान मल्टी-मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट’ और ‘भारत-म्यांमार – थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग’ जैसी परियोजनाएं बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। जब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा म्यांमार सरकार पर हिंसा खत्म करने और रोहिंग्या समस्या के समाधान के लिये दबाव बनाया जा रहा है तो भारत द्वारा इनकी अनदेखी करना एक बुद्धिमान रणनीतिक कदम नहीं होगा।
यूरोप और अमेरिका में शरणार्थियों के कारण सुरक्षा व्यवस्था को आज गंभीर खतरा है और कुछ हद तक उग्र दक्षिणपंथी प्रतिक्रियाओं का कारण भी यही है। ऐसे में भारत को अपनी शरण देने की परंपरा के नाम पर देश की सुरक्षा और अखंडता
को दाँव पर नहीं लगाना चाहिये। प्रारंभ में सरकार ने कुछ रोहिंग्याओं को समायोजित करने का प्रयास किया है लेकिन इसके तुरंत बाद उस क्षेत्र में विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गए हैं और इसका उदहारण जम्मू है। साथ ही यदि रोहिंग्या भारत में बसते हैं तो असहाय और बेरोजगार युवा रोहिंग्या पाकिस्तान की इंटर सर्विस इंटेलिजेंस और अंतर्राष्ट्रीय जिहादी संगठनों जैसे कि अल-कायदा तथा अन्य लोगों के लिये आसान शिकार होंगे।
रोहिंग्या मुसलमानों को वापस म्याँमार भेजने के केंद्र सरकार के हालिया कदम का विरोध करते हुए दो रोहिंग्याओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। हाल ही में केंद्र सरकार ने 40 हजार अधिक रोहिंग्याओं को वापस भेजने की योजना बनाई है। न्यायालय अब इस मामले में सुनवाई करेगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस संबंध में नोटिस जारी कर सरकार से जवाब माँगा है। याचिका दायर करने वालों ने अपनी दलील में कहा है कि सरकार का उन्हें वापस भेजने का फैसला संविधान के मूल्यों के खिलाफ है। चाहे कोई भारत का नागरिक हो या न हो, भारत का संविधान प्रत्येक इंसान को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है और रोहिंग्याओं को यदि इस समय म्याँमार भेजा जाता है तो वहां सेना द्वारा इन्हें मार दिया जाएगा। याचिका में कहा गया है कि उन्हें वापस भेजने का प्रस्ताव भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार), अनुच्छेद 21 (जीने और व्यक्तिगत आजादी का अधिकार) और अनुच्छेद 51 (सी.) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 51 (सी) में अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं संधियों के दायित्वों के अनुपालन का जिक्र किया गया है।
एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते भारत का यह दायित्व बनता है कि वह संकटग्रस्त लोगों के लिये अपने दरवाजे खुले रखे। जिस शरणार्थी को शरण देने की अनुमति दे दी गई है, उसे बकायदा वैधानिक दस्तावेज मुहैया कराए जाएँ, ताकि वह सामान्य ढंग से जीवन यापन कर सके। –
हालांकि, देशहित सर्वोपरि होता है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता। शरणार्थियों के कारण संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, कानून व्यवस्था के लिये चुनौती उत्पन्न होती है। सरकार के समाने सबसे बड़ा सवाल यह है कि रोहिंग्याओं को म्यांमार में वह भेजेगी कैसे और म्यांमार उन्हें वापस लेगा क्यों? हालांकि जून, 2018 को भारत सरकार ने 7 रोहिग्या शरणार्थियों को म्यांमार की सीमा पर वहां के अधिकारियों को सौप दिया था | अतः परिस्थितियों को देखते हुए शरणार्थियों को वापस म्यांमार भेजने से ज्यादा उचित एक पारदर्शी और जवाबदेह व्यवस्था का निर्माण करना है, ताकि शरणार्थियों का प्रबंधन ठीक से हो सके।
बांग्लादेश- बांग्लादेश में बड़ी संख्या में रोहिंग्या शरणार्थियों ने शरण ली हुई है। जनवरी, 2018 में शरणार्थियों के मुद्दे पर बांग्लादेश और म्यांमार के बीच आपसी सहमति बन गई है। दोनों ही देश 650000 रोहिंग्या शरणार्थियों को फिर से अपने देश में स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए हैं। दोनों देशों के बीच करार हुआ कि शरणार्थियों की समस्या को अब खत्म किया जाए और उन्हें एक बार फिर से बसाया जाए। इस करार के अनुसार बांग्लादेश इसके लिए पांच ट्रॉसिट कैंप बनाएगा जहां शुरुआत में दो रिसेप्शन सेंटर पर म्यांमार की ओर से आने वाले शरणार्थियों का स्वागत किया जाएगा। म्यांमार इन लोगों को अस्थायी रूप से ला फो कुंग में शरण देगा और जो लोग वापस आएंगे उनके लिए घर बनवाएगा। वहीं म्यांमार उन लोगों को भी फिर से बसाएगा जो अपने घरों से बेघर हो गए थे। दोनों ही देशों ने इन शरणार्थियों की पहचान के लिए एक फॉर्म भरवाने का भी फैसला लिया है। इस समस्या के दौरान जो बच्चे अनाथ हो गए या किसी वजह से अकेले रह गए हैं उनके लिए भी इंतजाम किए जाएंगे।
> रोहिंग्या शरणार्थियों के संदर्भ में मानवाधिकारों के हनन की समस्या
रोहिंग्या शरणार्थियों के संदर्भ में मानवाधिकारों के हनन की समस्या एक अत्यन्त जटिल समस्या है। पिछले कुछ वर्षों में पूरा विश्व शरणार्थी संकट से जूझ रहा है। कुछ समय पहले समुद्र तट पर औंधे मुँह लाल रंग की टी-शर्ट और ब्लू शॉर्ट पहने तीन वर्षीय मासूम अयलान कुर्दी की तस्वीर जब दुनिया के सामने आई तो यह शरणार्थी संकट का प्रतीक बन गई। दुनिया भर में इसकी भर्त्सना की गई। इस संदर्भ में मानवाधिकारों के हनन की समस्या पर निम्नलिखित बिन्दुओं के अंतर्गत विचार किया जा सकता है
> म्यांमार के विस्थापित मुस्लिम रोहिंग्या समुदाय जाति हिंसा एवं सैनिक कार्यवाही से बचने के लिए म्यांमार से भागे हैं । अन्य देशों द्वारा शरण न दिए जाने के कारण या तो ये मानव तस्करों के हाथ लग जाते है या समुद्र में ही भटकते रहते हैं। समुद्र में नाव में फंसे इन लोगों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र ने मानव आपदा की चेतावनी दी है ।
> वर्तमान में इस समुदाय के लोगों के खिलाफ हुई हिंसा पर संयुक्त राष्ट्र ने चिंता जताते हुए कहा कि ये दुनिया के सबसे प्रताड़ित लोगों में से हैं।
> “म्यांमार में सदियों से रहते आ रहे रोहिंग्या को वहाँ की नागरिकता से वंचित कर उन्हें राज्यविहीन बना दिया गया है।
>  संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि म्यांमार में सुरक्षा बलों द्वारा रोहिंग्याओं का सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी हत्या की जा रही है।
> रौहिंग्याओं को म्यांमार में भेदभाव का शिकार होना पड़ा है और इसका कारण म्यांमार की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ उन्हें नित्कृष्ट समझा जाता है।
> म्याँमार की विदेश मंत्री ‘आंग सान सू की’ को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया जा चुका है। परन्तु ‘ आंग सान सू की ‘ इस मुद्दे पर राजनीतिक कारणों से मौन रही है। यही कारण है कि कनाडा सरकार ने इनसे अपनी मानद नागरिकता की उपाधि वापस ले ली है।
> मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उन देशों के नागरिकों से भी संबंधित है जो देश पहले से ही गरीबी, भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहे है । भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान आदि ऐसे देश हैं जो शरणार्थियों के कारण होने वाले आर्थिक दबाव से पीड़ित हो सकते हैं।
 निष्कर्ष : इस समस्या के समाधान के लिये प्रभावित देशों तथा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को मिलकर कार्य करना चाहिये जिससे मानवीय गरिमा, मानवाधिकार तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के अनुरूप नीति का विकास कर लोगों की मदद की जा सके। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय रक्षा की जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत म्यांमार सरकार पर अपने लोगों की रक्षा के लिये दबाव डाल सकता है।
>  रोहिंग्या शरणार्थी समस्या के समाधान हेतु अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अनेक प्रयास कर सकता है, जैसे
> इस समुदाय की स्वैच्छिक वापसी, जिसके अंतर्गत शरणार्थी सुरक्षित एवं स्वेच्छापूर्वक अपने मूल देश वापस जा सकते हैं।
> स्थानीय एकीकरण, जिसके माध्यम से शरणार्थी स्थानीय समाज के सदस्य बन सकते हैं।
> पुनर्वास, जिसके अंतर्गत शरणार्थियों को स्थायी रूप से किसी तीसरे देश में बसाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय रक्षा की जिम्मेदारी के इस सिद्धांत को लागू तो करना चाहता है, किंतु म्यांमार सरकार इसमें सहयोग नहीं दे रही है।
>  रोहिंग्या शरणार्थी संकट की विवेचना
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *