यू.पी.पी.एस.सी. 2021 मुख्य निबंध

यू.पी.पी.एस.सी. 2021 मुख्य निबंध

विशेष अनुदेश:
(1) प्रश्न-पत्र तीन खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड से केवल एक-एक विषय का चयन कर कुल तीन निबंध हिन्दी अथवा अंग्रेजी अथवा उर्दू भाषा में लिखिए।
(ii) प्रत्येक निबंध में कुल प्रयुक्त शब्दों की अधिकतम सीमा 700 शब्दों की है।
(iii) प्रत्येक निबंध के लिए 50 अंक निर्धारित हैं।
खण्ड – क

1. कला और सामाजिक मुक्ति

> समाज
संसार के सभी जीवों में मनुष्य सबसे सर्वश्रेष्ठ जीव है, क्योंकि उसके पास बुद्धि एवं है। आत्मरक्षा की प्रवृत्ति एवं प्रजनन क्षमता लगभग सभी जीवों में पाई जाती है और वह इन्हीं से संतुष्ट भी हो जाते हैं, परंतु मनुष्य इन्हीं से संतुष्ट नहीं रह पाता है, वह इससे अलग भी सोचता है। संभवत: यही विचार मनुष्य के अंदर कला को जन्म देता है।
वास्तव में कला क्या है इसका सही जवाब दे पाना संभव नहीं है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कला के लिए अपना विचार दिया था- “ अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही कला है। ‘
इटली के महान् विद्वान ने भी कला को अभिव्यक्ति का साधन मानते हुए कहा है – “कला का सम्बन्ध केवल स्वानुभूति से प्रेरित प्रक्रिया से है। जब कोई कलाकार स्वानुभूति को सहज, स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त कर देता है, तो वही कला का रूप धारण कर लेता है। अतः अभिव्यक्ति की पूर्णता ही कला है… अभिव्यक्ति ही उसका सौन्दर्य है। “
वास्तव में कला सुंदरता की अभिव्यक्ति होती है और साथ में समृद्धि की परिचायक भी, ऐसा कहा जाता है कि जिस जाति की कला जितनी समृद्ध और सुंदर होगी वह जाति उतनी ही गौरवशाली एवं प्राचीन होगी।
कला समाज को प्रभावित भी करती है एवं समाज से प्रभावित भी होती है, अतः किसी ने इसको समाज की अभिव्यक्ति माना है तो किसी ने कला को समाज का परिवर्तन ।
भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो चित्रकला, हस्त कलाएँ, भित्ति चित्र, गीत-संगीत, अभिनय, साहित्य, भवन निर्माण आदि सभी को कला की परिधि में शामिल किया जाता है। जैसे कि बिहार की मधुबनी चित्रकारी, आंध्र प्रदेश की निर्मल चित्रकारी, गुजरात का डांडिया, भारतनाट्यम नृत्य, कथकली नृत्य, असम का बिहू नृत्य, रामायण, महाभारत, ताजमहल, दिलवाड़ा के जैन मंदिर आदि के माध्यम से सौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है।
यह सब कला के विभिन्न रूप हैं, जिनसे भारतीय संस्कृति की रचना हुई है। भारत की कला और उनसे जुड़ी रचनाएं बहुत ही पारंपरिक एवं साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली होती हैं कि उनसे देश की समृद्ध एवं गौरवशाली विरासत का खुद ही अनुमान हो जाता है।
कला और जीवन का घनिष्ठ संबंध होता है। कला के माध्यम से कभी संघर्ष किया जाता है तो कभी उस संघर्ष से मुक्ति पाई जाती हैं। कला यश प्राप्ति, शांति प्राप्ति तथा समाज को सही राह दिखाने का माध्यम भी बनती है। कला के माध्यम से ही हमारे देश में विभिन्न सामाजिक वर्गों ने अपना उच्च कीर्तिमान स्थापित किया है। इसके अनेक उदाहरण हैं जैसे कि बिहार राज्य की मिथिला पेंटिंग कला के क्षेत्र में अपना विशेष महत्व रखती है। मिथिला पेंटिंग के माध्यम से बिहार राज्य में पुरुष प्रधानता एवं सामंती समाज में नारी मुक्ति एवं सामाजिक न्याय के रास्ते खोले हैं। यहां पर अनेक ऐसी महिलाएं हैं जिनको मिथिला पेंटिंग में दक्षता हासिल है और इसके माध्यम से महिलाएं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में गई हैं तथा अपनी एक नई पहचान बनाई हैं। मिथिला पेंटिंग के माध्यम से यहां महिलाओं को समाज में एक अलग पहचान मिली है तथा उनकी आर्थिक स्थिति में भी काफी सुधार हुआ है। जहां पर ये महिलाएं घर की चारदीवारी के अंदर ही अपना जीवन काट रही थीं, आज इस कला ने उनको नई पहचान दी है।
ऐसा कई बार हुआ है कि कला ने मानव जाति को एक नई राह दिखाई, कभी साहित्य के माध्यम से तो कभी सिनेमा के रूप में, कभी चित्रकला के माध्यम से तो कभी किसी अन्य रूप से, परन्तु आलोचना की प्रवृत्ति इसके सामानान्तर चलती रहती है ।
कला के क्षेत्र में सामान्यतः नया प्रयोग करने पर कभी-कभी विरोध भी झेलना पड़ता परंतु यह सब कलाकार की प्रतिभा पर निर्भर करता है कि उसके द्वारा किया गया कृत्य समाज को एक नई राह दिखाता है या नहीं। कला का सकारात्मक होना अति आवश्यक होता है क्योंकि कला का सीधा संबंध समाज को प्रभावित करता है। अतः जिस प्रकार से हमारी विभिन्न प्राचीन कलाओं ने हमारे देश के समाज को विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों में पिरोया है उसी प्रकार से वर्तमान में भी विभिन्न प्रकार की कला समाज को एक सकारात्मक रूप दे रही है।
अतः यह कला का दायित्व होता है कि वह निरर्थक एवं अन्य परंपराओं और रीति-रिवाज का अंत करे जिससे समाज को एक नई दिशा प्रदान हो एवं साथ में समाज का दायित्व बनता है कि वह कला से उनकी सकारात्मकता को ग्रहण करें। क्योंकि कला के बिना एक सभ्य समाज की कल्पना करना कठिन है। आज विभिन्न प्रकार की रूढ़िवादिता की मान्यताएं कला के माध्यम से समाज से मुक्त हुई हैं।

2. धर्म निरपेक्ष राजनीतिः आवश्यकता और चुनौतियां

> राजव्यवस्था
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म से न धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है, बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आजादी से मानने की छूट देता है। किसी भी देश की राजनीति जितनी अधिक धर्मनिरपेक्ष होगी, उस देश का लोकतंत्र उतना ही अधिक मजबूत होगा। अतः राजनीति में यह आवश्यक हो जाता है कि वह धर्मनिरपेक्ष हो तथा सभी राजनीतिक दल धर्म के आधार पर अपना प्रचार-प्रसार न करें।
दुनिया के तकरीबन सभी देशों में एक से ज्यादा धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। अतः यह जाहिर हो जाता है कि हर देश में किसी एक धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा होगी। अब अगर अधिक बहुमत वाले धर्म के लोग सत्ता में पहुंच जाते हैं तो उनका समूह दूसरे धर्मों के खिलाफ भेदभाव करने और उन्हें परेशान करने के लिए सत्ता एवं राज्यों के आर्थिक संसाधनों का उपयोग कर सकता है, जिसके चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो सकता है। राज्य में बहुमत चाहे तो अल्पसंख्यकों को उनके धर्म के अनुसार जीने से रोक सकता है। अतः धर्म के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव उन अधिकारों का उल्लंघन होता है जो एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी धर्म को मानने वाले प्रत्येक नागरिकों को प्रदान होता है। यह मुख्य कारण होता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य और धर्म को अलग रखा जाता है।
भारतीय लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्ष राजनीति व्यवस्था को ही अपनाया है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने आप में एक अनूठी अवधारणा है, जिसे भारतीय संस्कृति की विशेष आवश्यकता और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अपनाया गया है। भारत अपने आप में एक विभिन्न धार्मिक समुदाय का विशाल लोकतंत्र है, अतः यहां पर धर्मनिरपेक्ष राजनीति का होना अति आवश्यक हो जाता है।
परंतु वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में एक बदलाव देखने को मिलता है, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीति का ध्रुवीकरण कर रहे हैं। इस राजनीतिक ध्रुवीकरण की वजह से विभिन्न राजनीतिक दलों ने सत्ता प्राप्त करने के लिए भारतीय समाज को अलग-अलग भागों में बांट दिया है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार के दंगे, धार्मिक उत्पीड़न, असामाजिक गतिविधियां समाज में देखने को मिलती हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता का लोभ इतना बढ़ गया है कि वह सत्ता हासिल करने के लिए समाज को जाति एवं धर्म के आधार पर बांटने लगे हैं जिसके कारण हमारी धर्मनिरपेक्ष राज्य होने की जो छवि है वह धूमिल हो रही है तथा हमारेमम संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का भी उल्लंघन हो रहा है। राजनीति का बढ़ते ध्रुवीकरण की वजह से समाज में मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं भी बढ़ रही हैं। अतः धर्म आधारित राजनीति करना वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों की मजबूरी हो गई है क्योंकि धर्मनिरपेक्ष राजनीति के आधार पर कोई भी राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने में सफल नहीं हो पाता है। हमारा समाज ही विभिन्न राजनीतिक दलों का वोट बैंक बनकर रह गया है, वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में वोटर विकास एवं सुरक्षा के आधार पर वोट न देकर प्रत्याशी को अपनी जाति के आधार पर चुनते हैं, जिसकी वजह से राजनीति धार्मिक एवं जातिगत आधार पर बंट गई है।
अतः किसी भी देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उस देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति का होना अति आवश्यक है क्योंकि देश में विभिन्न धार्मिक समुदाय के लोग निवास करते हैं तथा सबके धार्मिक हित अलग-अलग होते हैं। अतः यह राजनीतिक दलों की भी जिम्मेदारी हो जाती है कि वह सभी धार्मिक समुदाय के हितों की रक्षा करें और संविधान को सर्वोपरि रखें। किसी भी धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला है। अतः जनप्रतिनिधियों को ध्यान में रखना चाहिए कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में धर्म एक विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला होता है, अतः उसे वोट बैंक के लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाना चाहिए, साथ ही राजनीति को धर्म से अलग करके देखा जाना चाहिए। धर्मनिरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को समान महत्व एवं समान संरक्षण मिलता है। यह राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी हो जाती है कि कोई भी धर्मनिरपेक्ष राज्य की छवि को धूमिल करने की कोशिश न करें।

3. भारत में उच्च शिक्षा और शोध की स्थितिः भविष्य की राहें

> शिक्षा
समाज में शिक्षा का महत्व उतना ही है, जितना जीवन जीने के लिए जल का होना। सशक्षा के उपयोग तो अनेक हैं, परंतु उसे सही और नई दिशा देने की आवश्यकता है। शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि एक व्यक्ति अपने परिवेश से परिचित हो सके। शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक अहम भूमिका निभाती है। हम अपने जीवन में शिक्षा के इस साधन का उपयोग करके सफलता के मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं। शिक्षा का उच्च स्तर लोगों की सामाजिक और पारिवारिक सम्मान तथा एक अलग पहचान बनाने में मदद करती है।
भारत में शिक्षा व्यवस्था आज भी काफी अच्छी हालत में नहीं है। उच्च शिक्षा क्षेत्र में भारत की स्थिति काफी दयनीय है। इस क्षेत्र को अगर पहुंच, समानता और गुणवत्ता के स्तर पर जांचें, तो हम तीनों ही स्तर पर अपनी युवा पीढ़ी को न्याय देने में अक्षम रहे हैं। भारत का शिक्षा तंत्र अमेरिका एवं चीन के बाद सबसे बड़ा शिक्षा तंत्र है। पिछले 70 वर्षों में देश में विश्वविद्यालयों की संख्या में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है एवं महाविद्यालयों में 13%, विद्यार्थियों की संख्या में 60% और शिक्षकों की संख्या में 25% की वृद्धि हुई है। सभी को उच्च शिक्षा के समान अवसर प्रदान कराने की नीति के अंतर्गत संपूर्ण देश में विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। परंतु, इसके बावजूद भी उच्च शिक्षा की सुलभता का सपना साकार नहीं हो पा रहा है। स्वतंत्रता के 7 दशक के बाद भी उच्च शिक्षा प्रणाली अभी तक पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाई है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा जारी विश्वविद्यालय रैंकिंग के आधार पर दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालयों को स्थान प्राप्त नहीं हो पाया है। भारत का निम्न रैंकिंग में होने के कारण खराब शैक्षणिक प्रदर्शन, छात्रों को प्राप्त होने वाली खराब रोजगार की स्थिति, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त होने वाले शैक्षणिक पुरस्कारों का आभाव, व्यावसायिक शैक्षणिक कार्यक्रम को मान्यता देने में खराब ट्रैक रिकॉर्ड और शोध एवं अनुसंधान के लिये धन का अभाव इत्यादि प्रमुख हैं।
उच्च शिक्षा में सुधार करने के लिए जितना आवश्यक विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं शिक्षकों की स्थिति में सुधार करना है, उतना ही आवश्यक उच्च शिक्षा में शोध की स्थिति में भी सुधार करना है क्योंकि बिना शोध के उच्च शिक्षा अधूरी है। किसी भी देश के सतत विकास के लिए वहां का शोध उतना ही महत्वपूर्ण होता है, जितना कि प्राकृतिक एवं अन्य संसाधन । निःसंदेह राष्ट्र के सतत विकास में प्राकृतिक, मानवीय एवं अन्य संसाधनों का समुचित प्रयोग एवं प्रबंधन आवश्यक है। शोध, जहां एक और सतत विकास हेतु नवीन योजनाओं, क्रिया – विधि एवं विभिन्न प्रकार के नवाचारों का आधार होता है, वहीं दूसरी ओर चल रही योजनाओं की प्रभावशीलता का अध्ययन एवं मूल्यांकन करके सुधार हेतु बहुमूल्य सुझाव भी प्रस्तुत करता है। इसीलिए सरकार की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि उच्च शिक्षा के साथ-साथ शोध को भी अधिक बढ़ावा देना चाहिए । हालांकि शोध को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न प्रोग्राम जैसे कि UGC NETJRF, PMRF, Ph.D इत्यादि विश्वविद्यालय स्तर पर विद्यार्थियों के लिए चलाए जाते हैं। विद्यार्थी विभिन्न प्रकार की शोध में सम्मिलित होकर उच्च कोटि का शोध भी प्रस्तुत कर रहे हैं, परंतु फिर भी वैश्विक स्तर पर बढ़ते शोध के स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए यह काफी नहीं है। भारत वैश्विक स्तर पर बौद्धिक संपदा, पेटेंट एवं गुणवत्ता युक्त शोध में वह मुकाम हासिल नहीं कर पाया है जो कि उसे हासिल कर लेना चाहिए। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण शोधार्थियों को मिलने वाली कम सुविधाएं हैं।
अतः आने वाले समय में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को अपने उच्च शिक्षण संस्थान एवं शोध संस्थानों में काफी सुधार करने की आवश्यकता है ताकि हम वैश्विक स्तर पर अपनी शैक्षणिक व्यवस्था को स्थापित कर सकें।
पाठ्यक्रम को इस प्रकार से डिजाइन किया जाना चाहिये, जिससे वह उच्च शिक्षा को कौशल / व्यावसायिक प्रशिक्षण और इंडस्ट्री इंटरफेस के साथ एकीकृत कर सके। भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा छात्रों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ज्ञान, कौशल और क्षमता प्रदान की जानी चाहिये। यह छात्रों को वैश्विक नागरिक के रूप में अपनी प्रासंगिकता बढ़ाने वाले वैश्विक दृष्टिकोण को विकसित करने में सहायक होगा।
अतः देश के भविष्य को और बेहतर बनाने के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों एवं शोध संस्थानों को वैश्विक स्तर के शोध संस्थानों के बराबर की सुविधाएं प्रदान करने की आवश्यकता है क्योंकि हमारे देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है बल्कि संसाधनों की कमी है।
खण्ड – ख

4. नये कृषि कानून और किसान आंदोलन

कृषि
भारत में कृषि आदिकाल से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण भाग रही है। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ भारत में कृषि के जोत का आकार भी घटता गया है तथा कृषि क्षेत्र में नवीनतम तकनीकी एवं वैज्ञानिक गतिविधियों की कमी के कारण कृषि आय में भारी गिरावट आई है। पिछले कई वर्षों से सरकारों ने किसानों के हितों का ध्यान रखते हुए कृषि क्षेत्र में बड़े बदलाव लाने का काफी प्रयास किया है, परंतु अधिकतर प्रयास असफल ही रहे हैं। अतः हाल ही में केंद्र सरकार ने भारत में कृषि क्षेत्र में कुछ परिवर्तन लाने के लिए एवं कृषि क्षेत्र की चुनौतियों को दूर करने के लिए जून 2020 में कृषि सुधार से जुड़े तीन विधेयक प्रस्तुत किए, जिन्हें संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया।
> कृषि क्षेत्र में लागू किए गए विधेयक निम्नलिखित हैं – 
1. कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधायक, 2020
2. किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक, 2020
3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020
इन तीनों बिलों के पास होने पर देशभर के किसानों एवं किसान संगठनों ने इन बिलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया।
पंजाब विधानसभा ने तो केंद्र के आदेशों को खारिज करते हुए एक प्रस्ताव पारित भी किया था। इस कृषि विधेयक का विरोध विपक्षी दलों द्वारा भी काफी बड़े पैमाने पर किया गया। सरकार द्वारा इन तीनों बिल को किसानों के हित में बताया जा रहा था, हालांकि पूरे भारत में किसान इन तीनों बिलों का जमकर विरोध कर रहे थे। सितंबर 2020 में यह बिल पेश किया गया और 26 नवंबर 2020 को दिल्ली के बॉर्डर पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब के किसान धरने पर बैठ गए। इसके बाद देश के सभी भागों से किसान धीरे-धीरे इस आंदोलन से जुड़ते गए और अंततः परिणाम यह हुआ कि दिल्ली के सभी बॉर्डर जैसे गाजीपुर बॉर्डर, सिंधु बॉर्डर इन पर भारी मात्रा में किसान ट्रैक्टर ट्राली के साथ एकत्रित हो गए और इस आंदोलन को और मजबूती मिलने लगी। किसानों का इन बिल को लेकर यह मानना था कि खुले बाजार में फसल बेचने पर कुछ समय के लिए तो फायदा हो सकता है, परंतु एमएसपी पर जो कीमत किसानों को मिलती है, खुले बाजार में वह कीमत बाद में मिलनी बंद हो जाएगी तथा वही किसान अनुबंध खेती का विरोध कर रहा था। किसानों का कहना था कि ग्रामीण क्षेत्र में किसान इतने सक्षम नहीं हैं कि वह प्राइवेट कंपनी के साथ अपनी फसलों का मोल – भाव कर सकें तथा उनका मानना था कि प्राइवेट कंपनियां फसल की क्वालिटी में कमी बताकर उनकी कीमत में कटौती कर सकती हैं। नए कानून में सरकार दलहन, तिलहन, आलू एवं प्याज को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट से हटा चुकी थी। इन्हीं सब मुद्दों को लेकर किसान नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे। यह आंदोलन धीरे-धीरे काफी मजबूत होता गया और इसमें अधिकतर पंजाब, हरियाणा, एवं पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की भागीदारी थी। 26 जनवरी 2021 को इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। किसान अपने ट्रैक्टर ट्राली के साथ दिल्ली की सड़कों पर उतर आए और लाल किले पर पहुंच गए और जिसमें काफी लोग चोटिल हुए और काफी सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ। इसकी वजह से पुलिस प्रशासन एवं कानून व्यवस्था पर भी सवाल उठाए गए। यह आंदोलन अंत में असंवैधानिक हो चुका था क्योंकि हमारे संविधान में भारतीय लोगों को शांतिपूर्वक विरोध करने का अधिकार दिया गया है न कि हिंसक रूप से विरोध करने का। भारत में करोना जैसी विषम परिस्थिति में भी किसान दिल्ली के बॉर्डर पर डटे रहे, जिसकी वजह से काफी किसान करोना से संक्रमित हुए और उनकी मौत भी हो गई ।
सरकार ने हालांकि किसानों के साथ कई बार इन बिलों को लेकर वार्ता की, परंतु किसान संगठन एवं सरकार के बीच कोई भी सुलह का रास्ता नहीं निकल पाया।
हालांकि एक वर्ष तक जब सरकार एवं किसान संगठनों के बीच कोई भी सुलह का रास्ता नहीं निकला तो बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु पर्व पर देश को संबोधित करते हुए यह तीनों कृषि बिल वापस लिए तथा इसके बाद किसानों ने अपना आंदोलन समाप्त कर अपने घर वापस गए।
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसमें कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत में अभी भी अधिकतर लोग कृषि क्षेत्र के माध्यम से ही अपना जीवन यापन करते हैं। अतः भारत में कृषि क्षेत्र में सुधार करना सरकार की एक महत्वपूर्ण भूमिका हो जाती है। परंतु इसी के साथ सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि कृषि क्षेत्र में जो भी सुधार हो पहले किसानों को उन सुधारों के बारे में अच्छे से समझाना होगा ताकि भविष्य में इस प्रकार का आंदोलन दोबारा देखने को नहीं मिले।

5. नागरिकता संशोधन कानून और समावेशी भारत 

> राजव्यवस्था
किसी भी देश में रहने के लिए किसी व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है- उस देश की नागरिकता का होना । जब किसी व्यक्ति के पास किसी देश की नागरिकता होती है तभी वह उस देश में मिल रही विभिन्न सुविधाओं का लाभ ले सकता है अन्यथा बिना नागरिकता के वह उस देश में परदेसी समझा जाता है। किसी भी देश की नागरिकता को पाने के लिए विभिन्न देशों के अलग-अलग प्रावधान हैं; जैसे कि भारत के परिप्रेक्ष्य में अगर बात करें तो भारत का नागरिक बनने के लिए विभिन्न प्रकार के आयाम होते हैं; जैसे कि या तो नागरिकता जन्म के आधार पर मिलती है, या फिर माता-पिता का किसी एक का उस देश का निवासी होना जरूरी होता है।
अभी हाल ही में भारतीय संसद में नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 पारित किया गया, जो राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अधिनियम बन गया, नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 को नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन करने के लिए लाया गया। नागरिकता अधिनियम 1955 भारत में नागरिकता प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के आधार प्रदान करता है जैसे कि जन्म, वंशानुगत, पंजीकरण और क्षेत्र इत्यादि । इसके अलावा भारत के विदेशी नागरिक कार्ड धारकों के पंजीकरण और उनके अधिकारों को भी यह अधिनियम नियंत्रित करता है। हालांकि अवैध प्रवासियों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करना प्रतिबंधित है। यहां अवैध प्रवासी से तात्पर्य ऐसे विदेशी व्यक्ति से है जो अवैध दस्तावेजों और बिना पासपोर्ट के देश में प्रवेश करता है या फिर वैध दस्तावेजों के साथ देश में प्रवेश करता है, लेकिन दी गई समय अवधि के बाद भी देश में रुका रहता है। अवैध प्रवासियों पर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है, और उन्हें सजा भी हो सकती है।
नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 में किए गए संशोधन के अनुसार 30 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारत आए हिंदू, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों एवं ईसाईयों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा।
इन प्रवासियों को भारतीय नागरिकता का लाभ प्रदान करने के लिए केंद्र सरकार ने विदेशी अधिनियम 1946 और पासपोर्ट अधिनियम 1920 में भी छूट प्रदान की है। नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के तहत आने वाले अवैध प्रवासियों के लिये नागरिकता का यह प्रावधान संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। इन आदिवासी क्षेत्रों में कार्बी आंगलोंग (असम), गारो हिल्स (मेघालय), चकमा जिला (मिजोरम) और त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र जिला शामिल हैं। हालांकि इस अधिनियम का काफी विरोध भी हुआ है क्योंकि आलोचकों का तर्क है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत
संविधान की प्रस्तावना में निहित है। वही भारत में कई अन्य देशों से भी शरणार्थी जिनमें श्रीलंका, तमिल और म्यांमार से आए हिंदू रोहिंग्या को इस अधिनियम में शामिल नहीं किया गया है।
अब सरकार की यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी हो जाती है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम कानून के पारित होने के बाद जिन विदेशी नागरिकों को भारत में आने का प्रावधान किया गया है, उन लोगों को बेहतर आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि अच्छी तरीके से मिल पाए, तथा आने वाले उन लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हो सके। हालांकि जिस प्रकार से हमारे देश में बेरोजगारी एक सबसे बड़ी समस्या है जिससे आने वाले प्रवासियों को बेहतर रोजगार उपलब्ध कराना काफी कठिन हो जाता है।
भारत में जिस प्रकार से समावेशी विकास की अवधारणा को अपनाया है, इस अवधारणा में इन लोगों को भी शामिल करना होगा। भारतीय संदर्भ में समावेशी विकास कोई नई अवधारणा नहीं है। अगर हम प्राचीन धर्म ग्रंथों का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि उनमें भी सब लोगों को साथ लेकर चलने का भाव निहित है। ‘सर्वे भवंतु सुखिन’ में इसी बात की पुष्टि की गई है कि सब लोग सुखी रहें। 1990 के दशक में उदारीकरण के बाद समावेशी विकास की अवधारणा नए रूप में उभरी थी क्योंकि उदारीकरण के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ जोड़ने का मौका मिला था। देश के लोग इस धारणा के तहत देश और राज्यों की परिधि से बाहर निकल कर वैश्विक संदर्भ में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे।
अतः नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के तहत आने वाले शरणार्थियों को हमारे देश में समावेशी विकास के तहत जोड़ने में अधिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। उनके लिए बेहतर आवास एवं रोजगार के उपलब्ध कराने के लिए सरकार को नई योजनाओं पर ध्यान देना होगा तथा इसी के साथ भारत में रह रहे अल्पसंख्यकों को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करानी होगी, ताकि उनके मन में अपने साथ भेदभाव होने जैसी भावना पैदा न हो।

6. वैश्विक पर्यावरण में बदलाव का प्रभाव: चुनौतियां और रास्ते

> पर्यावरण
जलवायु परिवर्तन ऐसे दो शब्द हैं जो अक्सर आजकल काफी ज्यादा चर्चा में रहते हैं। जलवायु परिवर्तन मुख्यतः इसलिए चर्चा में रहता है क्योंकि इसका प्रभाव सामान्यतः किसी एक व्यक्ति, किसी एक देश या फिर किसी एक क्षेत्र पर न पड़कर, वैश्विक रूप से संपूर्ण विश्व पर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से वैश्विक पर्यावरण में भी काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। जिस संसार में हम रहते हैं उसमें खुशियां मनाने एवं उसकी प्रशंसा करने के कई कारण होते हैं। इसमें हम पर्यावरण को भी शामिल करते । अगर इस पर्यावरण में बदलाव देखने को मिलेगा तो कहीं-न-कहीं हमारी खुशियों हैं।
में बाधा पैदा होगी। इस पर्यावरण के बदलाव के अनेक कारण हैं। हम सभी सामान्यतः वैश्विक पर्यावरण के उत्तराधिकारी हैं इसीलिए हम सभी इसकी लगातार गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं। अगर वैश्विक पर्यावरण में गिरावट एक सीमा से अधिक बढ़ जाएगी तो हमें खतरनाक परिस्थिति में रहना होगा। प्रदूषण, ओजोन छिद्र, हरित गृह (ग्रीन हाउस) प्रभाव, मरुस्थलीकरण, जैव विविधता के नुकसान, तेल रिसाव, नाभिकीय आपदाओं, खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन; ये सब वैश्विक पर्यावरण की कुछ समस्याएँ हैं, जिन पर सामूहिक रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
इसी के साथ मानव गतिविधियों में वृद्धि, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण के कारण पर्यावरण में तेजी से गिरावट आई है। इन्होंने जीवन प्रणाली को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। लम्बे समय से, हम प्रकृति के साथ, एक निरर्थक व आत्मघाती युद्ध लड़ रहे हैं। इसका नतीजा, आपस में जुड़े तीन पर्यावरणीय संकटों के रूप में सामने है। जलवायु व्यवधानों, जैव विविधता की हानि, और प्रदूषण के कारण मानवता पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है, और इन समस्याओं की वजह वैश्विक पर्यावरण में बदलाव है।
मानवता का कल्याण पृथ्वी के स्वास्थ्य की रक्षा करने में निहित है। हम भूमि एवं समुद्री पर्यावरण का बड़े पैमाने पर दोहन कर रहे हैं, जिसकी वजह से वैश्विक पर्यावरण की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं जो एक चुनौती के रूप में संपूर्ण विश्व के सामने खड़ी है। । समय से पहले गर्मी का आगमन, या फिर कहीं पर बाढ़, भूकंप, अत्यधिक वर्षा, अत्यधिक बर्फबारी और अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
हमने अपनी वैश्विक अर्थव्यवस्था को तो काफी मजबूत कर लिया है, परंतु इसको मजबूत करने के चक्कर में हमने अपने वैश्विक पर्यावरण को खो दिया है। प्रदूषण जनित बीमारियों की वजह से हम हर वर्ष लगभग 90 लाख लोगों तथा 10 लाख से अधिक पौधों एवं पशुओं की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर जा रही हैं ।
बढ़ती वैश्विक पर्यावरण की समस्या से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर वैसे तो काफी महत्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं, परंतु वे अभी पर्याप्त नहीं है। इस चुनौती से निपटने का एकमात्र उपाय टिकाऊ विकास है, जिसके जरिये पृथ्वी व मानवता का कल्याण सुनिश्चित किया जा सकता है। कार्बन उत्सर्जन पर और भी अधिक कर (टैक्स) लगाया होगा, जीवाश्म ईंधनों को मिलने वाला अनुदान हटाकर, उसे प्रकृति अनुकूल समाधानों के लिये उपलब्ध कराना होगा। साथ ही कृषि के ऐसे तरीकों से बचना होगा, जिससे प्रकृति नष्ट या प्रदूषित होती हो । कृषि में अधिक से अधिक रासायनिक खाद के बजाय जैविक खाद का प्रयोग करना होगा। –
इसके लिये यह अहम है कि प्रकृति को देखने का नजरिया बदलना होगा और नई दृष्टि के साथ पर्यावरण संरक्षण व बहाली के लिये नीतियों व गतिविधियों में प्रत्यक्ष निवेश करना होगा।
वैश्विक पर्यावरण को जिस प्रकार से हम सबने मिलकर क्षति पहुंचाई है, उसी प्रकार से सभी को मिलकर प्रयास करने से वैश्विक पर्यावरण में सुधार किया जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि विज्ञान और नीति निर्माण के जरिये किस तरह वर्ष 2030 तक टिकाऊ विकास लक्ष्य हासिल करने और 2050 तक, एक कार्बन तटस्थ दुनिया की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। गरीबी उन्मूलन, भोजन व जल सुरक्षा पर टिकाऊ विकास लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिये, पर्यावरण क्षरण का अन्त किया जाना बेहद अहम है। टिकाऊ कृषि व मत्स्यपालन के समाधानों, आहार में बदलाव लाने और भोजन की बर्बादी को कम करने से, वैश्विक स्तर पर भुखमरी, निर्धनता, कुपोषण से निपटने में मदद मिलेगी।
साथ ही प्रकृति के लिये ज्यादा भूमि और महासागर भी उपलब्ध हो सकेगा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम-से-कम करना होगा, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगानी होगी और साथ ही लोगों को जागरूक करने के लिए छोटे-छोटे प्रोग्रामों का आयोजन करना होगा ताकि लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हों तथा इसको सुरक्षित रख सकें ।
खण्ड – ग

7. कोविड-19 के प्रभाव में वैश्विक अर्थव्यवस्था

> अर्थव्यवस्था
वर्ष 2019 में कोविड – 19 एक भयंकर महामारी के रूप में आया, जिसकी वजह से संपूर्ण विश्व में एक भय का माहौल पैदा हो गया और सभी लोगों का जन-जीवन एकदम थम – सा गया। कोविड-19 की वजह से काफी लोग मौत की भेंट चढ़ गए और साथ ही संपूर्ण f विश्व की अर्थव्यवस्था स्थिर हो गई। यह एक ऐसा दौर था जिसकी वजह से काफी लोग बेरोजगार हुए, भुखमरी का शिकार हुए और बेघर भी हो गए। हालांकि कोविड- 19 का यह दौर अभी तक रुका नहीं है बल्कि मामलों में थोड़ी कमी जरूर आई है, परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था को काफी धक्का लगा है।
कोविड- 19 महामारी के चलते पिछले 2 साल विश्व अर्थव्यवस्था के लिए काफी कठिन रहे हैं। कोविड-19 संक्रमण की बार-बार नई लहरों का आना, आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान, और हाल ही में मुद्रास्फीति के कारण नीति निर्माण के लिए यह समय काफी चुनौतीपूर्ण रहा है।
कोविड- 19 वायरस के प्रकोप के चलते बहुत सी कंपनियां सीमित समय के लिए अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति करने के लिए वायरस प्रभावित क्षेत्रों के बजाय अन्य देशों की तरफ रुख कर रही हैं ताकि वे अपने उत्पादों की मांग पूरी कर सकें। कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से पहले, दुनिया के कई बड़े निर्यातक देशों में उत्पादन सेक्टर का आउटपुट 2019 में लगातार गिरावट की ओर बढ़ रहा था। व्यापारिक संघर्ष के तनावों की वजह से बाजार में जो अनिश्चितता उत्पन्न हुई थी, उस कारण से जापान,
जर्मनी और दक्षिणी कोरिया, जैसे कई देशों में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का आउटपुट कमजोर हो रहा था और मैन्यूफैक्चरिंग का वैश्विक पीएमआई 50 प्रतिशत से भी नीचे चला गया था। इसका मतलब था कि वर्ष 2019 में विश्व की अर्थव्यवस्था आधिकारिक रूप से सिमट रही थी और ‘पुराने औद्योगिक’ और सामान के उत्पादन की इस गिरावट के दौरान, सेवा क्षेत्र और उपभोक्ता बाजार के विस्तार के चलते विश्व अर्थव्यवस्था की गतिविधियों में प्रगति हो रही थी। दुनिया के विकासशील देश हों या विकसित देश, दोनों में सेवा क्षेत्र और उपभोक्ता बाजार में रोजगार के अधिकतर अवसर उत्पन्न हो रहे थे। इन्हीं के कारण वित्तीय बाजारों में उछाल आ रहा था और निवेश पर अच्छा रिटर्न मिल रहा था।
परंतु, फिर 2019 में कोविड- 19 जैसी भयंकर महामारी के आने की वजह से सीधे विश्व के उपभोक्ता केंद्रों जैसे चीन और भारत एवं एशिया के अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं पर सीधा प्रहार किया। इसका नतीजा यह हुआ कि विकास की आर्थिक गतिविधियां ठहर गई ।
इस वायरस की वजह से हवाई यात्रा, शेयर बाजार, आपूर्ति श्रृंखला लगभग सभी क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। इस वायरस की वजह से वैश्विक आर्थिक इंजन के रूप में जाने जाने वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है, जबकि इसके कारण चीनी अर्थव्यवस्था पहले से ही मुश्किल स्थिति में है।
शेयर बाजार से निवेशकों का बाहर निकलने के कारण शेयर बाजार सूचकांक में लगातार गिरावट आई है। शेयर बाजार धारक अधिकतर सुरक्षित क्षेत्र जैसे कि सरकारी बांड में निवेश कर रहे हैं, जिससे कीमतों में तेजी एवं उत्पादकता में कमी दिखाई दे रही है। अमेरिकी बाजार में वर्ष 2008 के आर्थिक संकट के बाद सबसे अधिक खराब अनुभव कोरोनावायरस के दौरान किया गया, जिसके कारण अमेरिकी बाजार में 13% से भी अधिक गिरावट आई है।
Apple, Nvidia, Adidas जैसी कंपनियाँ इससे अधिक प्रभावित हो सकती हैं क्योंकि ये चीन के आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर हैं, इन्हें भविष्य में बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था कोरोनावायरस के दौरान सबसे अधिक प्रभावित हुई है।
हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था पर भी इसके नकारात्मक प्रभाव देखने को मिले हैं, क्योंकि जिन वस्तुओं की हमारी निर्भरता चाइना पर थी उनमें काफी कमी देखी गई है। भारत अपने कुल आयातित माल का 19%, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तुओं का 67% एवं उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं का 45% चीन से आयात करता है।
हालांकि खाद्यान्न क्षेत्र में भारत ने रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन किया है, कोरोनावायरस के बावजूद भी हमारे देश में खाद्यान्न की कोई कमी नहीं रही और सरकार द्वारा भी बेघर हुए लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की योजना जैसे फ्री में राशन वितरित किया गया।
अतः कोरोनावायरस की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को काफी क्षति हुई है, परंतु अब धीरे-धीरे यह पटरी पर लौट रही है। कोरोना वैक्सीन बनने की वजह से कोरोना महामारी में भी कमी देखने को मिल रही है। कोरोना वायरस जैसी बीमारी की पहचान, प्रभाव, प्रसार एवं रोकथाम पर चर्चा अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा की जानी चाहिये ताकि इस बीमारी पर नियंत्रण पाया जा सके तथा आम लोगों को भी सचेत रहने की आवश्यकता है और अर्थव्यवस्था को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कुछ और अच्छे कदम उठाने की आवश्यकता है।

8. लोकतंत्र चुनाव और जाति 

> राजव्यवस्था 
बुलेट से ज्यादा बैलट पेपर ताकतवर होता है – अब्राहम लिंकन
अब्राहम लिंकन द्वारा दिए गए इस वक्तव्य में बैलट पेपर को अत्यधिक ताकतवर बताया गया है क्योंकि किसी भी देश में लोकतंत्र की मजबूती का आधार उस देश के निष्पक्ष रूप से कराये गये चुनाव होते हैं।
लोकतांत्रिक प्रणाली को विश्व में काफी देशों ने अपनाया है, जिसमें से भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में सभी मजहब एवं जाति को बराबर का दर्जा प्राप्त होता है एवं लोकतांत्रिक प्रणाली संविधान के आधार पर चलने वाली प्रणाली होती है। लोकतंत्र में राजनेता का चयन एक चुनाव प्रणाली के आधार पर होता है, जिसमें एक निष्पक्ष चुनाव आयोग का गठन किया जाता है जो निष्पक्ष आधार पर चुनावों का आयोजन कराता है। राजनेता का चुनाव करते वक्त लोकतंत्र में यह उम्मीद की जाती है कि प्रत्येक उम्मीदवार निष्पक्ष आधार पर एवं सभी जाति एवं धर्म को एक मानते हुए चुनाव लड़े। इसी आधार पर लोकतंत्र को मजबूती मिलती है।
भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न प्रकार के मजहब एवं जाति के लोग निवास करते हैं, अतः यहां पर लोकतंत्र में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि निष्पक्ष चुनाव हो तथा चुनाव में जातियों का ज्यादा ध्रुवीकरण न हो। परंतु वर्तमान समय में चुनाव प्रणाली में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। राजनीति का ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। भारतीय समाज जाति आधारित समाज है और यहां चुनावों में भी जाति को काफी महत्व दिया जाता है। राजनीति भी जाति के प्रभाव से मुक्त नहीं है और टिकटों के बंटवारे से मतदान तक में जाति का प्रभाव नजर आता है।
भारतीय समाज में आम आदमी के दिल में अभी भी जाति आधारित सवाल बना हुआ है क्योंकि यहां पर शादी-विवाह आज भी जाति आधार पर ही होता है, यहां तक कि लोग दोस्ती करते वक्त भी इन सवालों को अपने ध्यान में रखते हैं। फिर जब नेता विधायक या सांसद के लिए टिकट बांटते हैं तो वह जाति, परिवार के बारे में काफी सोचते हैं। इसलिए उनकी तरफ से जाति की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है।
हालांकि राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए जाति आधारित चुनाव की तरफ ज्यादा अग्रसर होते हैं। जाति-आधारित भेदभाव अभी भी स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बाधा पहुँचा रहा है। अभी भी किसी व्यक्ति की जाति उसके सामाजिक संबंध, उसे प्राप्त अवसरों, उसके उत्पीड़न, उसके प्रति व्यवहृत असमानता का आधार बनी हुई है; साथ ही, स्वतंत्र भारत में जिस न्याय की कल्पना की गई थी, वह अभी तक साकार नहीं हो सकी है।
हालांकि भारतीय लोकतंत्र में लोगों के विचारों में काफी परिवर्तन भी आया है, जाति आध ारित चुनाव प्रणाली को काफी आघात भी पहुंचा है। जिस प्रकार से काफी राजनीतिक दल, दलित आधारित राजनीति करते थे, उन लोगों को काफी चुनावों में हार का सामना करना पड़ा है क्योंकि शिक्षा का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही लोगों की सोचने की स्थिति में भी परिवर्तन आने लगा है। वर्तमान में काफी लोग अब जाति आधारित राजनीति को न देखकर शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की तरफ ध्यान दे रहे हैं और इसी आधार पर चुनाव भी कर रहे हैं। उनको इस बात का एहसास हो गया है कि पिछले 70 वर्षों से राजनीतिक दल सिर्फ जाति आधारित वोटों का ध्रुवीकरण करके सत्ता हासिल करने का प्रयास करते रहे हैं एवं उन्होंने कभी भी सत्ता हासिल करने के बाद जिस जाति के आधार पर सत्ता में आए उनका कभी भी उत्थान करने के बारे में नहीं सोचा। वर्तमान में भी काफी जातिगत समुदाय ऐसे हैं, जिनका अभी तक भी अच्छे से विकास नहीं हो पाया। यह समुदाय आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आर्थिक रूप से काफी कमजोर है। अतः अब लोग जाति आधारित चुनाव प्रणाली को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, बल्कि विकास के आधार पर राजनीतिक दल का चुनाव कर रहे हैं।
अतः लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए यह अति आवश्यक हो जाता है कि उस लोकतंत्र में चुनाव; धर्म या जाति आधार पर न होकर सिर्फ विकास के आधार पर हो तथा सभी समुदाय के लोगों के हितों का ध्यान रखा जाए क्योंकि जाति आधारित चुनाव समाज में हिंसा और भेदभाव को जन्म देते हैं। अतः लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए लोगों को भी जागरूक होने की आवश्यकता है, उनको भी यह देखने की आवश्यकता है कि हमें अपना नेता ऐसा चुनना चाहिए जो जात-पात में रुचि न रखता हो बल्कि जो शिक्षा, स्वास्थ्य एवं विकास पर ज्यादा ध्यान दे।
लोकतंत्र में राजनीति का जो ध्रुवीकरण जाति आधारित हो रहा है उसको लोकतंत्र में रहने वाली जनता ही कम कर सकती है।

9. वर्तमान में भारत की विदेश नीति: दशा और दिशा 

> अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत की विदेश नीति का पहला और व्यापक उद्देश्य किसी अन्य देश की तरह अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करना है। “राष्ट्रीय हितों” का दायरा काफी व्यापक है। उदहारण के लिए इसमें शामिल हैं: क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए हमारी सीमाओं की सुरक्षा, सीमा पार आतंकवाद का मुकाबला करना, ऊर्जा सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, साइबर सुरक्षा संक्षेप में पहला उद्देश्य भारत को पारंपरिक और गैर पारंपरिक खतरों से बचाना है।
किसी भी अन्य देश की तरह भारत की विदेश नीति भी अपने प्रभाव को अधिक व्यापक बनाने में सभी राष्ट्रों में अपनी भूमिका बढ़ाने में और एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपने आप को स्थापित करने में सफल हो रही है। हालांकि वर्ष 2021 विदेश नीति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए चुनौतियां और अवसर प्रस्तुत करता है। जैसे कि दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देश चीन एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा है एवं हमारे पड़ोसी देश नेपाल, भूटान, श्रीलंका आदि पर चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिए एक बड़ी चिंता का कारण है। इसके अतिरिक्त कोविड- 19 की वजह से पूरे विश्व में चीन की जो आलोचना हुई थी और यूरोपीय संघ के द्वारा चीन पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए गए थे, हाल ही में चीन तथा यूरोपीय संघ के बीच निवेश समझौते पर हुई चर्चाओं ने कोविड – 19 महामारी के बाद चीन के अलग-थलग पड़ने के जो मिथक थे वे समाप्त हो गए हैं, जिसकी वजह से चीन की स्थिति और भी अधिक मजबूत हुई है।
इसके अलावा भारत एवं अमेरिका के बीच बढ़ते संबंधों के कारण भारतीय विदेश नीति के कई निर्णयों की वजह से रूस और ईरान जैसे पारंपारिक सहयोगी के साथ संबंध भी कुछ कमजोर हुए हैं। ऐसी स्थिति में शक्ति संतुलन के लिए भारत को विदेश नीति की चुनौतियों से निपटने के साथ उपलब्ध अवसरों का सावधानीपूर्वक लाभ उठाने की आवश्यकता है।
भारत जिस प्रकार से उभरती हुई अर्थव्यवस्था बन रहा है, उसी आधार पर भारत के विदेशी संबंध भी आज काफी मजबूत हो रहे हैं, परंतु इसके साथ काफी चुनौतियां भी सामने हैं। जिस प्रकार से भारत का पड़ोसी देश चीन तेजी से आर्थिक एवं सैन्य क्षेत्र में प्रगति कर रहा है और भारत का प्रतिद्वंद्वी भी है तो ऐसी स्थिति में भारत के लिए यह काफी जरूरी बन जाता है कि वह अपनी विदेश नीति को और अधिक मजबूती प्रदान करे क्योंकि चीन एकमात्र प्रमुख देश है जिसकी अर्थव्यवस्था में वर्ष 2020 के अंत तक सकारात्मक वृद्धि दर देखने को मिली और साथ ही वर्ष 2022 में भी इसमें और तेज गति से वृद्धि होने की उम्मीद है। सैन्य क्षेत्र में भी चीन ने काफी उन्नति की है, हाल ही में वर्ष 2021 में अपने तीसरे विमान वाहक पोत को लांच करने की घोषणा की है, साथ ही यह हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपने प्रभुत्व को मजबूत करने की दिशा में बढ़ रहा है। वही चीन एवं पाकिस्तान के बीच बढ़ती नजदीकी अभी भारत के लिए खतरे से कम नहीं है क्योंकि चीन का हमेशा से भारत को कमजोर करने का रवैया रहा है। एशिया क्षेत्र में चीन की यह नीति रही है कि वह सबसे विकसित और शक्तिशाली देश हो, परंतु की प्रभुता चीन को बर्दाश्त नहीं होती है।
हाल ही के वर्षों में जैसे-जैसे भारत एवं अमेरिका के बीच संबंधों में मिठास आया है तो इसके विपरीत हमारा काफी पुराना दोस्त रहा रूस भी इन संबंधों को ज्यादा महत्व नहीं दे रहा है क्योंकि हाल ही के वर्षों में रूस ने अपनी सीमा के अंदर के मामलों में अधिक रुचि दिखाई है और इसके अतिरिक्त वर्ष 2014 में क्रीमिया पर कब्जे के बाद और उस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने रूस को चीन के साथ अपने संबंधों को और अधिक मजबूत करने के लिए प्रेरित किया है।
परंतु, इसके विपरीत भारतीय विदेश नीति में इतने उतराव-चढ़ाव के बीच भी भारत के विदेशी संबंध काफी मजबूत हैं। जिस प्रकार से हाल ही में रूस एवं यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है, उसी स्थिति में दोनों देशों के द्वारा उम्मीद की जा रही है कि भारत उनके बीच मध्यस्थता कराए तो यह भारत की बढ़ती विदेश नीति का ही परिणाम है।
अतः वर्तमान समय में भारत की विदेश नीति कुछ देशों को लेकर तो कठिन दौर में है, परंतु वैश्विक तौर पर भारतीय विदेश नीति ने एक अच्छा मुकाम हासिल किया है, जिसमें और सुधार करने की आवश्यकता है। पड़ोस प्रथम अर्थात नेवरहुड फर्स्ट नीति को अपनाने की आवश्यकता है, जिसके तहत भारत के पड़ोसी देश नेपाल, भूटान, मालदीव, म्याँमार और श्रीलंका जैसे अपने कुछ पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारने का प्रयास करना चाहिये ।
वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य की बदलती वास्तविकताओं के बीच यदि भारत मात्र एक आकांक्षी भागीदार के बजाय एक अंतर्राष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहता है तो उसे अपनी विदेश नीति के साथ सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा।
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