संविधान और संवैधानिकता के बीच क्या अंतर है? भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत के बारे में गम्भीरता से जांच करें।

संविधान और संवैधानिकता के बीच क्या अंतर है? भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत के बारे में गम्भीरता से जांच करें।

अथवा

संविधान और संवैधानिकता के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का उल्लेख करें।
उत्तर- संविधान, मूल सिद्धांतों या स्थापित पंरपराओं का एक समुच्चय होता है, जिससे कोई राज्य या अन्य संगठन अभिशासित होते हैं। संविधान उन लिखित या अलिखित नियमों तथा कानूनों का समूह है जिसके द्वारा सरकार का संगठन, सरकार की शक्तियों का विभिन्न अंगों में विभाजन और इन शक्तियों के प्रयोग के सामान्य सिद्धांत निश्चित किये जाते हैं।
संविधान किसी संस्था को संचालित करने के लिये बनाया हुआ संहिता (दस्तावेज) है। यह प्राय: लिखित रूप में होता है। यह वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शासन का आधार है तथा उसके चरित्र एवं संगठन को निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग विधि को बताती है, यह राष्ट्र की परम विधि है तथा विशेष वैधानिक स्थिति का उपयोग करती है। सभी प्रचलित कानूनों को अनिवार्य रूप से संविधान की भावना के अनुरूप होना चाहिए यदि वे इसका उल्लंघन करेंगे तो वे असंवैधानिक घोषित कर दिए जाते हैं।
अर्थात् हम कह सकते हैं कि किसी देश या संस्था द्वारा निर्धारित किये गए वह नियम जिसके माध्यम से उस देश या संस्था का सुचारु ढंग से संचालन हो सके, उसे उस देश या संस्था का संविधान कहा जाता है। किसी भी देश का संविधान उस देश की राजनीतिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, नागरिकों के हितों की रक्षा करने का एक मूल ढांचा होता है, जिसके माध्यम से उस राष्ट्र के विकास की दिशा का निर्धारण होता है।
संविधानवाद (Constitutionalism) – संविधानवाद का सामान्य अर्थ यह विचार है कि सरकार की सत्ता संविधान से उत्पन्न होती है तथा इसी से उसकी सीमा भी तय होती है। संविधानवाद सरकार के उस स्वरूप को कहते हैं जिसमें संविधान की प्रमुख भूमिका होती है। अधिकारियों को मनमाने निर्णय की छूट होने के स्थान पर ‘कानून के राज्य का पक्ष लेना ही संविधानवाद है। संविधानवाद की मूल भावना यह है कि सरकारी अधिकारी कुछ भी, और किसी भी तरीके से करने के लिये स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि उन्हें अपनी शक्ति की सीमाओं के अन्दर रहते हुए ही कार्य करने की आजादी (या बंधन) है और वह भी संविधान में वर्णित प्रक्रिया (Procedures) के अनुसार।
ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही संविधानिक राज्यों का जन्म हुआ। मनुष्य द्वारा राजसत्ता के अत्याचार व दुरूपयोग से बचने के प्रयास के परिणामस्वरूप संविधानवाद का जन्म हुआ। आधुनिक संविधानवाद के विस्तृत आधार हैं, किन्तु इसका मूल आधार “विधि का शासन” (Rule of Law) ही माना जाता है। प्राचीन काल से ही ऐसे विविध विचारों पर चिंतन किया जाता रहा है जो राजसत्ता को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सके एवं उसके सद्-प्रयोग में सहायक बन सके। इस दृष्टिकोण से प्राचीनकाल से ही राजसत्ता एवं नैतिक अभिबन्धनों एवं धार्मिक मान्यताओं के साथ ही शाश्वत विधि, प्राकृतिक विधि, दैवीय विधि एवं मानवीय विधि के रूप में विभिन्न उपायों पर विचार करने की लम्बी परम्परा दिखाई देती है।
संविधान के मूल ढाँचे या आधारभूत सिद्धांतों की धारणा- संविधान के मूल ढाँचे की धारणा का आशय यह है कि संविधान की कुछ व्यवस्थायें अन्य व्यवस्थाओं की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, वे संविधान के मूल ढाँचे के समान हैं और समस्त संवैधानिक व्यवस्था उन पर आधारित है।
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य- सर्वप्रथम इस धारणा का प्रतिपादन सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा 24 अप्रैल, 1973 को मौलिक अधिकारों से संबंधित एक विवाद केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य पर निर्णय देते हुए किया गया। इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित या सीमित कर सकती है, किन्तु संविधान के अनुच्छेद 368 से संसद को संविधान के मूल ढांचे (basic structure) में परिवर्तन का अधिकार प्राप्त नहीं होता।”
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार (मई 1980) विवाद में भी सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा पुन: इस बात का प्रतिपादन किया गया। इसके अतिरिक्त 1975-76 की राजनीतिक स्थिति (Emergency) के समय तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा संविधान से छेड़-छाड़ की गई) के आधार पर यह अनुभव किया गया कि शासक वर्ग संसद पर अनुचित प्रभाव और नियंत्रण स्थापित कर संसद की सर्वोच्चता के नाम पर संविधान को खिलवाड़ का साधन बना सकता है, अतः शासन की इस शक्ति पर रोक लगाने के लिए “संविधान के मूल ढाँचे की धारणा को अपनाया जाना चाहिए।
1973 और 1980 के निर्णय में यह नहीं बताया गया कि “संविधान के मूल ढांचे (basic principles of the constitution ) या “आधारभूत ढांचे” के अंतर्गत संविधान की कौन-कौन-सी व्यवस्थाएं आती है। “मूल ढाँचे की धारणा” को कुछ स्पष्ट करने की एक चेष्टा 45वें संविधान संशोधन विधेयक में की गई थी, लेकिन राज्यसभा की असहमति के कारण उसे संविधान संशोधन विधेयक से निकाल दिया गया।
“संविधान के मूल ढाँचे” की धारणा से सहमति रखने वाले सभी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि संविधान के मूल ढाँचे में निम्नलिखित बातें अवश्य आनी चाहिए
1. संविधान का लोकतांत्रिक स्वरूप
2. संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप
3. नागरिकों के मूल अधिकार व स्वतंत्रताएं
4 लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के व्यस्क मताधिकार पर आधारित स्वतंत्र चुनाव
5. न्यायपालिका की स्वतंत्रता
इस प्रकार संविधान के मूल ढांचे (basic structure@principles) में अंतिम रूप से परिवर्तन का अधिकार संसद या राज्य विधान सभाओं को नहीं, वरन् स्वयं जनता को ही है। इसी कारण इस विचार को “जन सर्वोच्चता” या “जन-संप्रभुता की धारणा” (concept of people’s supremacy or people’s sovereignty ) का नाम भी दिया जा सकता है।
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