हाल के दिनों में भारतीय पार्टी की राजनीति पर बढ़ते क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के प्रभाव क्या हैं?

हाल के दिनों में भारतीय पार्टी की राजनीति पर बढ़ते क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के प्रभाव क्या हैं?

अथवा

भारत की राष्ट्रीय पार्टियों का उल्लेख करते हुए इन पर क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को स्पष्ट करें।
उत्तर – वर्तमान में भारत में 7 राष्ट्रीय पार्टियां हैं। भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा तृणमूल कांग्रेस पार्टी । इसके साथ ही देश में अनेक क्षेत्रीय पार्टी भी हैं जो समय-समय पर राष्ट्रीय पार्टियों के निर्णयों को प्रभावित करती रहती हैं।
हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय दलों का उदय विशेष परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हुआ है। पंजाब में 1920 से ही अकालियों की राजनीति चलती आ रही है। कश्मीर में पहले मुस्लिम कांफ्रेंस बनी जिसे बाद में नेशनल कांफ्रेंस नाम से जाना गया। तमिलनाडु में जस्टिस पार्टी का गठन हुआ। 1949 में द्रमुक पार्टी का गठन हुआ। इसके अतिरिक्त बंगला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस जैसे कांग्रेस क्षेत्रीय दलों तथा विशाल हरियाणा पार्टी, असम गण परिषद आदि का भी उदय हुआ है। ये सभी दल किसी विशेष क्षेत्र अथवा अलग-अलग राज्यों में अपना प्रभाव रखने वाले रहे हैं।
> क्षेत्रीय दलों के उदय के कारण
> भारत एक बहुभाषी, बहुजातीय, बहुक्षेत्रीय और विभिन्न धर्मों का देश है। भारत जैसे विशाल एवं विविधताओं से भरे देश में क्षेत्रीय दलों के उदय के अनेक कारण हैं। पहला प्रमुख कारण जातीय, सांस्कृतिक एव भाषायी विभिन्नताएं हैं। विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अपनी समस्याएं होती हैं जिन पर राष्ट्रीय दलों या केन्द्रीय नेताओं का ध्यान नहीं जाता। परिणामस्वरूप क्षेत्रीय दलों का उदय होता है।
> यदा-कदा केन्द्र अपनी शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से करता रहा है। केन्द्र की शक्तियों के केन्द्रीयकरण की इसी प्रवृत्ति के कारण अनेक क्षेत्रीय दलों का जन्म हुआ है।
> उत्तरी भारत की प्रधानता को लेकर आशंकाएं भी क्षेत्रीय दलों के उदय का कारण रहा है।
> क्षेत्रीय दलों के उदय का प्रमुख कारण कांग्रेस दल का संगठनात्मक दोष भी है। केन्द्र में कांग्रेस की स्थिति तो मजबूत थी परन्तु राज्यों में कांग्रेस संगठन बिखरता जा रहा था। परिणामस्वरूप कांग्रेस में संगठन संबंधी फूट और कमजोरियां आ गई और राज्य स्तर के अनेक नेताओं ने क्षेत्रीय दलों के गठन में प्रमुख भूमिका निभाई।
> क्षेत्रीय दलों के उदय का कारण जातीय असंतोष भी रहा है। अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सामाजिक न्याय की मांग हेतु भी क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है।
> क्षेत्रीय दलों का स्वरूप
> हमारे देश में मुख्य रूप से तीन प्रकार के क्षेत्रीय दल पाए जाते हैं।
> पहला वे दल जो जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं एवं उन पर आधारित हैं। ऐसे दलों में अकाली दल, द्रमुक, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, झारखण्ड पार्टी, नागालैण्ड नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी आदि प्रमुख हैं।
> दूसरे वे दल जो किसी समस्या विशेष को लेकर राष्ट्रीय दलों विशेष रूप से कांग्रेस से पृथक होकर बने हैं। ऐसे दलों में बंगला कांग्रेस, केरल कांग्रेस, उत्कल कांग्रेस, विशाल हरियाणा आदि है।
> तीसरे प्रकार के दल वे दल हैं जो लक्ष्यों और विचारधारा के आधार पर तो राष्ट्रीय दल हैं किन्तु उनका समर्थन केवल कुछ लक्ष्यों तथा कुछ मुद्दों में केवल कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। ऐसे दलों में फारवर्ड ब्लॉक, मुस्लिम लीग, क्रान्तिकारी सोशलिस्ट पार्टी आदि प्रमुख हैं।
> अकाली दल एक राज्य स्तरीय दल है जिसका स्वरूप धार्मिक राजनीतिक रहा है। जब भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का प्रश्न उठा तो अकाली दल ने पंजाबी भाषा राज्य की माँग की जिसके परिणामस्वरूप 1966 में पंजाबी भाषी राज्य पंजाब का गठन हुआ। द्रविड़ मुन्नेत्र कडगम और अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम का गठन छुआ-छुत एवं जात-पात के बन्धनों को मिटाने के लिए हुआ था। इन दोनों क्षेत्रीय दलों का उद्देश्य है कि समाज के पिछड़े वर्गों को समान अवसर दिए जाए तथा छुआ-छूत को पूरी तरह समाप्त किया जाए, तमिल भाषा का एवं संस्कृति का प्रचार एवं हिन्दी के जबरन लादे जाने का विरोध किया जाए आदि।
>  बहुजन समाज पार्टी का लक्ष्य भी ब्राह्मणवाद का विरोध है, इनकी माँग थी कि ऐसी व्यवस्था की जाये जिसमें किसी भी वर्ग या जाति के लिए आरक्षण की आवश्यकता नहीं रहे। मुस्लीम लीग का मुख्य उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा करना है। कांग्रेस दल के कमजोर होने के कारण क्षेत्रीय एवं राज्यस्तरीय दलों का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
> वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है। इस नाते इस देश में प्रत्येक व्यक्ति, जाति, वर्ग और समाज की आवाज सत्ता के केन्द्र तक पहुंचे इसकी व्यवस्था की गई है। पिछले कुछ दशकों से हो रहे चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो यह समझ आता है कि वर्तमान में ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के लिए बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। क्षेत्रीय दलों के कारण इन राष्ट्रीय दलों को कई राज्यों में इनका सहारा लेना पड़ता है और हालात ये है कि भारतीय जनता पार्टी जो वर्तमान में केन्द्र की सत्ता में है उसका कई राज्यों में वजूद तक नहीं है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस, जिसने सबसे लम्बे समय तक देश में राज किया है वह अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। क्षेत्रीय दलों के बढ़े प्रभाव ने इन राष्ट्रीय दलों के समक्ष कई जगह तो अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो गई है।
आज राजनीतिक महाकुण्ड में क्षेत्रीय दलों को जो महत्त्व दिया जा रहा है उसका देश के एकात्मक संघीय ढाँचे पर गम्भीर बहुमुखी प्रभाव पड़ेगा। हमारे यहां पर अनेक क्षेत्रीय दल हैं। ये दल वर्ग संघर्ष और प्रांतवाद – भाषावाद के जनक हैं। कुछ
पार्टियां वर्ग संघर्ष को, कुछ पार्टियां प्रांतवाद और भाषावाद को बढ़ावा देने वाली पार्टियां बन गयीं हैं। इनकी तर्ज पर जो भी दल कार्य कर रहे हैं उनकी ओर एक विशेष वर्ग के लोग आकर्षित हो रहे हैं, जिन्हें ये अपना वोट बैंक मानते हैं। इस वोट बैंक को और भी सुदृढ़ करने के लिए ये दल किस सीमा तक जा सकते हैं कुछ कहा नहीं जा सकता। इसका परिणाम यह हुआ है कि भाषा, प्रांत और वर्ग की अथवा संप्रदाय की राजनीति करने वालों के पक्ष में पिछले 20 वर्षों में बड़ी शीघ्रता से जन साधारण का ध्रुवीकरण हुआ है। भाषा, प्रांत और वर्ग की कट्टरता जैसी दुर्भावना लोगों के रक्त में घुल चुकी हैं और इस भांति रम चुके हैं कि जनसाधारण रक्तिम होली इन बातों को लेकर कब खेलना आरंभ कर दे – कुछ नहीं कहा जा सकता।
क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों को अपने राज्य में चुनाव लड़वाते हैं और राज्य की राजनीति में राष्ट्रीय दलों का सहयोग लेकर सत्ता पर आसीन होते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनको अपने राज्य की राजनीति के लिए राष्ट्रीय दलों के सहारे की भी जरूरत नहीं है और जब ये क्षेत्रीय दल राष्ट्र की राजनीति में आते हैं तो ये राष्ट्रीय दल इनके सहारे से अपनी सरकार बनाते हैं।
क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर या जाति व्यवस्था के नाम पर उदित होते हैं और इसी कारण ये अपना प्रभाव अपने राज्य में बनाने में सक्षम रहे हैं। जातिय, भाषायी, सांस्कृतिक विभिन्नता एवं देश की विशालता भी क्षेत्रीय दलों के जन्म का प्रमुख कारण रही है।
क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने का एक बड़ा कारण कांग्रेस पार्टी भी रही है। कांग्रेस पार्टी में जब जब संगठन में बिखराव हुआ तब तब कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अपने क्षेत्र में दल बनाए और कांग्रेस से अलग हो गए। ममता बनर्जी, शरद पंवार, स्वर्गीय पी ए संगमा सहित ऐसे कई उदाहारण है जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपने दल बनाए और आज वे कांग्रेस के लिए सरदर्द बने हुए हैं।
इस तरह क्षेत्रीय दल के नेताओं की सोच अपने क्षेत्र विशेष की जाति, समाज व क्षेत्र के विकास की रहती है और इस कारण राज्य स्तर पर तो यह दल खूब विकसित हो जाते हैं परंतु जब देश की राजनीति की बात आती है तो ये दल देश की राजनीतिक सोच के आगे बौने नजर आने लगते हैं। सिर्फ सीट पाने की महत्वाकांक्षा के कारण और अपने पास सर गिनाने लायक सीटें होने के कारण इस दल नेता पद पा लेते हैं, ऐसे हालात में राष्ट्रीय दलों की मजबूरी होती है कि वे इन क्षेत्रीय दलों को महत्व दें और अपनी पार्टी लाइन से हटकर इनके साथ समझौता करें।
क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के बढ़ते हुए महत्त्व एवं भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। इन दलों की सफलता एवं असफलता से इनकी प्रासंगिकता मे कमी नहीं आई है। सरकार बनाने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो गई है तथा इनका विधानसभा की सत्ता में शामिल होना लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए उचित है।
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