सन् 1977 से बिहार की राजनीति में जाति विषय पर एक संक्षिप्त एवं आलोचनात्मक निबंध लिखिये और उन कारणों पर विशेष रूप से प्रकाश डालिए जो वर्तमान स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं।

सन् 1977 से बिहार की राजनीति में जाति विषय पर एक संक्षिप्त एवं आलोचनात्मक निबंध लिखिये और उन कारणों पर विशेष रूप से प्रकाश डालिए जो वर्तमान स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं।

अथवा

भारत में 1977 के बाद राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है जो मूलतः जाति आधारित राजनीति करते हैं, की व्याख्या करते हुए वर्तमान स्थिति अर्थात् जाति की राजनीति की अपेक्षा विकास की राजनीति के “ज्यादा प्रभाव की चर्चा करें ।
उत्तर- ‘संपूर्ण क्रांति’ के दौरान जे. पी. ने छात्रों, किसानों, श्रमिकों आदि का आह्वान किया था। इस आंदोलन के फलस्वरूप बिहार के पिछड़े एवं शोषित वर्गों में राजनीतिक चेतना का प्रवाह हुआ। उन्होंने संगठित होकर प्रदर्शन किया एवं गिरफ्तारियां दी। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप जहां 1977 में केन्द्र में प्रथम गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। वहीं आंदोलन में भाग लेने वाले नेता जनता के बीच प्रसिद्ध हो गए। ये नेता निचली जातियों से संबद्ध थे, क्योंकि उच्च वर्गीय कांग्रेसी नेताओं ने आंदोलन में भाग नहीं लिया था। ‘संपूर्ण क्रांति’ से प्रसिद्ध हुए छात्र नेता लालू यादव, नीतीश कुमार एवं रामविलास पासवान बाद में प्रदेश की राजनीति में छाए रहे हैं। उसी प्रकार जार्ज फर्नांन्डिस जो श्रमिक आंदोलन से जुड़े हुए थे, इस आंदोलन से प्रसिद्ध हुए। अतः 1977 के बाद बिहार की राजनीति पर जाति का प्रभाव बढ़ गया। यद्यपि प्रारंभ में यह सिर्फ सामाजिक समरसता एक पिछड़ा वर्ग उत्थान के लिए ही बदलाव था परंतु बाद के वर्षों में इसमें अनेक जटिलताएं आ गईं एवं अब इसका नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है।
वर्तमान राजनीतिक स्थिति कुछ बदली है। लोगों के मन में जातिगत भेदभाव होने के बावजूद ‘विकास’ को प्राथमिकता दे रहे हैं एवं विभिन्न जातिगत समीकरणों को नकार रहे हैं, क्योंकि सामान्यजन को लगने लगा कि 1977 के बाद से यद्यपि नेतृत्व के स्तर पर परिवर्तन हुए लेकिन उन्हें इसका फायदा बिलकुल नहीं मिल पाया है। अतः पिछले दो विधानसभा चुनावों में इसका सीधा असर देखने को मिल रहा है। लेकिन फिर भी राजनीति में जाति की भूमिका पूर्णतः खत्म नहीं हुई। स्थानीय चुनावों में इसका स्पष्ट एवं व्यापक प्रभाव दिखता है। यदि चुनावों में जाति की भूमिका के मूल कारणों पर बिहार के विशेष संदर्भ में विचार करें तो सर्वप्रथम प्रारंभिक समय में पिछड़े वर्गों का शोषण एवं उनके राजनीति में अपेक्षित भागीदारी का अभाव रहा है। जैसे ही उन्हें मौका मिला, सामान्य जनता के बहुमत ने ऐसे नेताओं को विजयी बनाया। लेकिन जातिगत प्रभावों का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है। जैसे- राजनीति का अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, वोट बैंक की राजनीति तथा सामाजिक एकता में व्यवधान आदि । राजनेता अपनी जाति के अपराधियों को संरक्षण देते हैं एवं चुनावों में उनका इस्तेमाल करते हैं। जाति आधारित राजनीति वास्तव में लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि राजनीति में जातिवाद के प्रवेश से स्थिति इतनी खतरनाक हो जाएगी। आज बिहार के जनता ने जाति के राजनीति के उपर विकास की राजनीति को प्राथमिकता दी है।
> ‘संपूर्ण क्रांति’ (1974 ) के फलस्वरूप बिहार में शोषित, पिछड़े वर्ग में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ एवं 1977 में केन्द्र में कांग्रेस की सत्ता के समापन के साथ ही बिहार की राजनीति में पिछड़ी जाति के नेताओं का प्रभाव बढ़ना प्रारंभ हो गया।
> इसी दौरान लालू यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांन्डिस जैसे नेताओं का उदय हुआ। इनमें से कुछ नेताओं ने राजनीति में जाति का जमकर प्रयोग किया।
> वर्तमान समय में बिहार जातिगत राजनीति से उबर रहा है एवं जनता विकास की राजनीति करने वाले नेताओं को चुन रही है।
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