“भारतीय राज्यों के असमान विकास ने कई सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को जन्म दिया है।” बिहार के विशेष संदर्भ में कथन का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

“भारतीय राज्यों के असमान विकास ने कई सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को जन्म दिया है।” बिहार के विशेष संदर्भ में कथन का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

अथवा

राज्यों के असमान विकास में भौगोलिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के साथ-साथ योजना नीति आयोग की भूमिका को स्पष्ट करें।
उत्तर- अर्थशास्त्री प्रो. किन्डलवर्जर के अनुसार, “आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य है अधिक उत्पादन, जबकि आर्थिक विकास में दोनों बातें शामिल होती हैं- अधिक उत्पादकता के साथ तकनीकी एवं संस्थागत व्यवस्थाओं में परिवर्तन। इस प्रकार आर्थिक समृद्धि की तुलना में आर्थिक विकास एक विस्तृत अवधारणा है। “
आजादी के बाद से केंद्र द्वारा राज्यों के बीच धन वितरण का आंकड़ा देखें तो स्पष्ट होगा कि बिहार जैसे पिछड़े राज्यों की तुलना में विकसित और अनुकूल औद्योगिक संरचना वाले राज्यों को हमेशा कहीं अधिक धन दिया गया है।
चूंकि देश का निर्माण राज्यों से होता है और यदि राज्यों का असमान विकास होता है तो इसका असर राष्ट्रीय सेहत पर पड़ना भी लाजमी है। केंद्र सरकार ने योजना/नीति आयोग का गठन इस उद्देश्य के लिए किया था कि वह सभी राज्यों का समग्र विकास करेगा। देश के जो राज्य विकास में पिछड़ रहे हैं, उन पर अतिरिक्त ध्यान देगा। लेकिन हुआ यह कि कुछ पिछड़े राज्यों को भारत की प्रगति में अवरोधक बता कर विकास की जिम्मेदारी उनके ही उपार्जनों पर ज्यादा डाल दिया गया। जाहिर है वर्तमान में यह तर्क-वितर्क करने का समय नहीं है कि देश के विकास में कौन ज्यादा योगदान दे रहा है और कौन कम। बल्कि हमें यह देखने की जरूरत है कि इस असमान विकास के लिए जिम्मेदार कौन है? वास्तव में विकास और उन्नति के कई रास्ते होते हैं और इसको कई कारक प्रभावित करते हैं। सरकारी नीतियां, वित्त आयोग द्वारा धन का वितरण और असमान भौगोलिक परिस्थितियां आदि भी विकास को प्रभावित करती हैं। अतः जरूरत इन अवरोधकों को दूर करने की है। कुल मिलाकर आज हमें साझा आर्थिक भविष्य की तरफ बढ़ने की दरकार है।
यह सच है कि देश के उत्तर और दक्षिण हिस्से विकास के कई मामलों में विपरीत ध्रुवों पर दिखते हैं। मानव विकास सूचकांक के आधार पर ही देखें तो केरल देश में हमेशा सबसे आगे रहा है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य सबसे निचले स्थान पर रहे हैं। अगर वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की बात करें तो महाराष्ट्र (32.24 लाख करोड़) के साथ देश का सबसे अमीर राज्य है और बिहार (6.86 लाख करोड़) के साथ 14वें पौदान पर है। अगर प्रति व्यक्ति आय की तुल्ना करें तो केरल 5.24 लाख के साथ सबसे अव्वल है तो बिहार सरकार आर्थिक समीक्षा (2021) के अनुसार बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना आय मात्र 50735 रुपये के साथ देश में निचले स्तर पर है। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी केरल और दिल्ली उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से काफी आगे हैं। लेकिन समय के साथ पिछड़े राज्यों और बीमारू राज्यों ने भी काफी प्रगति कर ली है और गरीबी से लड़ने में भी इन राज्यों ने काफी सफलता प्राप्त की है। इधर हाल के वर्षों में देश के साथ बिहार की प्रति व्यक्ति आय में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ओडिशा, जो कभी भारत में गरीबी का उदाहरण हुआ करता था, आज बदल गया है। उत्तर प्रदेश में भी तेजी से गरीबी में कमी आई है। ये राज्य लगातार संरचनात्मक बदलाव कर रहे हैं और ऊंची विकास दर भी हासिल कर रहे हैं।
बिहार की अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर की ग्रोथ दर हासिल करने के लिए या यूं कहें तो सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जैसे कई पहलुओं पर काम करने की जरूरत है। इस कोशिश में राज्य प्रशासन के सामने उन क्षेत्रों में बेहतर कदम उठाने की जरूरत है, जिसमें राज्य अच्छा कर रहा है और दूसरे पहलुओं को भी विकास के रास्ते तलाशने होंगे। एक नजर उन क्षेत्रों पर जिसमें आर्थिक विकास के लिए बिहार को ध्यान देने की जरूरत है –
 1. बाढ़ की समस्या पर जोर: देश में बिहार उन राज्यों में आता है जो बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। उत्तरी बिहार की लगभग 5-6 करोड़ आबादी हर साल बाढ़ से परेशान रहती है। बिहार में हर साल आने वाली बाढ़ का सबसे बड़ा कारण है-नेपाल। क्योंकि जब नेपाल में जलस्तर बढ़ता है और वहां से पानी छोड़ा जाता है तो वह उत्तरी बिहार के इलाकों में कोहराम मचा देता है इसलिए दोनों देशों को समझना होगा कि अगर इस समस्या से निपटारा पाना है तो नेपाल और भारत को एक साथ मिलकर एक कारगर प्लान पर काम करना होगा, स्थाई तटबंधों का निर्माण कर ‘नदी जोड़ो’ प्लान पर काम करना होगा। इस राज्य की लगभग 73.06 फीसदी भूमि बाढ़ से प्रभावित रहती है। नेपाल से सटे उत्तरी बिहार का एक बड़ा इलाका हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है, जिसकी वजह से बिहार की कुल आबादी का लगभग 76 फीसदी भाग बाढ़ से प्रभावित रहता है । इसका सबसे बड़ा कारण है नेपाल से कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कमला बलान, महानंदा, अधवारा जैसी नदियों का पानी नेपाल द्वारा छोड़ा जाना । बाढ़ प्रबंधन सुधार सहायता केंद्र (FMISC) का मानना है कि पिछले 40 वर्षों के दौरान उत्तरी बिहार के मैदानी इलाकों में सबसे ज्यादा बाढ़ दर्ज की गई है। साल 1978, 1987, 1998, 2004 और 2007, 2008, 2011, 2013, 2015, 2017 और 2019 में बिहार सबसे ज्यादा बाढ़ से प्रभावित रहा है। बिहार के मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, शिवहर, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, कटिहार, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, बेतिया, मोतिहारी और बेगूसराय जैसे जिले अक्सर बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित रहते हैं। इससे लोगों के जानमाल, मकान, फसल, मवेशी आदि की भयावह क्षति होती है। रोजगार के अवसर कृषि में शून्य हो जातें हैं। जिसके फलस्वरूप बिहार के लोगों की क्रयशक्ति निम्नतम स्तर पर पहुँच जाती है। बाढ़ की वजह से जल जमाव की समस्या बिहार में विशेषकर उत्तर बिहार में बहुत ही विकराल रहती है। वैसे बिहार के लगभग 28 जिले बाढ़ से प्रभावित रहते हैं और 2.5 लाख हेक्टेयर भूमि जल जमाव की समस्या से प्रभावित है। एक अध्ययन के अनुसार देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का 17.2% हिस्सा बिहार में है। बिहार में औसतन बाढ़ से हुई क्षति भारत देश में बाढ़ से हुई कुल क्षति का लगभग 12 प्रतिशत है। भारत देश के बाढ़ प्रभावित कुल जनसंख्या का 21% हिस्सा बिहार राज्य में निवास करती है। बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन के कारणों को अमर्त्य सेन के मॉडल से समझा जा सकता है। अमर्त्य सेन के अनुसार- “बंगलादेश में बाढ़ से आये बेरोजगारी एवं क्रयशक्ति में ह्रास ही बंगलादेश के दरिद्रता एवं अकाल के आधारभूत कारण हैं” ठीक उसी तरह बिहार के आर्थिक पिछड़ापन का प्रमुख कारण बाढ़ से आयी बेरोजगारी, आर्थिक क्षति एवं बदहाली है।
2. कृषि पर जोर: बिहार के आर्थिक विकास के लिए यह जरूरी है कि कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाई जाए और इसे बरकरार रखा जाए। राज्य के तीन कृषि रोडमैप इन मुद्दों को ध्यान में रख कर बनाये गये हैं। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि राज्य कामगारों को कृषि क्षेत्र से गैर कृषि क्षेत्र में ले जाने के लिए मध्य अवधि से लंबी अवधि की एक रणनीति बनाए ।
3. आधारभूत सुविधाओं का विकासः ढांचागत सुविधाओं के विकास में राज्य की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। बीते कुछ सालों में बिहार में इस दिशा में, खास कर, सड़क निर्माण में काफी काम हुआ है। हालांकि बिजली के क्षेत्र में बिहार में काफी सुधार हुआ है, पर अभी भी इसकी बहुत ही कमी है, बिजली उपलब्धता के घंटों में वृद्धि की जरूरत है। सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण और जल निकासी जैसे जल प्रबंधन पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
 4. बेहतर शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण: बिहार में बुनियादी शिक्षा की रीढ़ कहे जाने वाले सरकारी स्कूलों की दशा बहुत दयनीय है। यहां के शैक्षणिक संस्थान खास कर तकनीकी और उच्च शिक्षा के संस्थान देश के सबसे बुरे संस्थानों में एक हैं। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के इस युग में इसके महत्व को हमारी सरकारों को समझना होगा। बिहार सरकार को इस पर बहुत ही अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि बाहर में बसे बिहारियों से सामाजिक सुरक्षा, हुनर विकास, सूचना के प्रसार और व्यापार और वित्त के मामले में काफी कुछ हासिल कर सकते हैं।
5. शहरीकरण को तेज करने की चुनौती: बिहार के विकास की धीमी गति की एक वजह कम शहरीकरण भी है। राज्य की सिर्फ 11 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। इस मामले में राष्ट्रीय औसत 31 प्रतिशत है। यहां का जनघनत्व 1106 प्रति वर्ग किमी है, बिहार पूरे देश में सबसे अधिक जनघनत्व वाले राज्यों में एक है। इसके अलावा, बिहार में जो शहर हैं, वहां भी ढांचागत सुविधाएं और सेवाएं बुरी हालत में हैं। उन शहरों और कस्बों का अपने आप विकास भी नहीं हो सकता है। इन शहरी क्षेत्रों में विकास के पिरामिड के आकार की संरचना भी नहीं है। हालांकि राज्य से पलायन की वजह निर्माण क्षेत्र का छोटा होना और कम शहरीकरण का होना भी है, पर यह भी सच है कि कृषि उत्पादन प्रसंस्करण के लिए राज्य के बाहर ले जाए जाते हैं। यह बिहार में स्वतंत्र और मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी रणनीति नहीं है। इसके लिए यह जरूरी है कि मौजूदा शहरों मे ढांचागत सुविधाएं बढ़ाई जाएं और वहां आर्थिक गतिविधियां तेज की जाएं। इसके साथ ही बड़े गावों को छोटे कस्बों और बाजारों में बदला जाना भी आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि इसके लिए आर्थिक विकास और सुविधाओं का विकास किया जाए।
6. राजस्व का आधार बढ़ाना होगा : जहां तक विकास के लिए संसाधनों की बात है, बिहार में राजस्व लगातार बढ़ा है। पर राज्य की वित्तीय स्थिति सुधरने की बड़ी वजह केंद्र से मिलने वाला पैसा है। इस मामले में अभी काफी कुछ करने गुंजाइश है। इसमें राज्य में राजस्व से होने वाली आमदनी का आधार बढ़ाना भी शामिल है। इस मामले में इधर मछली पालन जैसे कई आर्थिक गतिविधियों में तेजी आई है।
7. मानव संसाधन पर ध्यान: बिहार से बाहर गए लोग राज्य का संसाधन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जबरदस्त गरीबी, जमीन पर ज्यादा दबाव और दूसरी प्रतिकूल वजहों से बिहार कमजोर संसाधनों वाली खुली अर्थव्यवस्था का माकूल उदाहरण है। यहां गरीबी का कुचक्र चलता रहता है, जहां गरीबी की वजह से एक बिंदु के बाद संसाधन नहीं बनते और इस वजह से राज्य को राष्ट्रीय औसत विकास स्तर तक निकट भविष्य में पंहुचने में दिक्कत होती है।
8. सिविल सोसायटी की भूमिका: दरअसल बिहार के ज्यादातर मुद्दे देश के मुद्दों के ही बड़े रूप हैं। इसमें जातियों और समुदायों में समाज के बंटे होने की चुनौती भी शामिल है। इसके साथ ही कमजोर सिविल सोसाइटी और कमजोर स्थानीय निकाय भी बड़ी चुनौती बन कर सामने आए हैं। इसलिए जरूरी है कि बिहार में जीवंत सिविल सोसाइटी और मजबूत स्थानीय निकायों का विकास किया जाए।
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