गांधीजी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों की महत्ता का वर्णन कीजिए।

गांधीजी के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों की महत्ता का वर्णन कीजिए।

(63वीं BPSC / 2019 )
अथवा
गाँधीजी के शांति और अहिंसा के मूल सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए उनके सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों का उद्घाटन कीजिए, साथ ही इस दिशा में उनके द्वारा चलाए गए प्रमुख कार्यक्रमों अथवा अभियानों की चर्चा करें।
उत्तर – विश्व शांति और अहिंसा के अग्रदूत भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आजादी की लड़ाई में राजनैतिक आजादी के साथ-साथ शांति और समन्वय के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण भारत में सामाजिक समता की स्थापना का लक्ष्य भी सामने रखा था। देश की आजादी के लिए ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ को भी हथियार बनाया जा सकता है, यह बात अगर दुनिया को किसी ने सिखाई है तो वह हैं- महात्मा गांधी। गांधीजी ने यह साबित ही नहीं किया बल्कि दुनिया को यह मंत्र भी दिया कि सत्य और अहिंसा के दम पर बड़ी से बड़ी और मजबूत सत्ता को भी उखाड़ फेंका जा सकता है। उनका सामाजिक और सांस्कृतिक दर्शन दुनिया के कल्याण के लिए महज एक विचार मात्र नहीं था, बल्कि उनका संपूर्ण व्यक्तित्व ही मानवीय सरोकार से लैस था। उनके सपनों का भारत मानव कल्याण से अभिपूरित ‘रामराज्य’ सदृश्य था। गाँधीजी का सत्यप्रयास विश्व मानवता के लिए था, जहाँ किसी जाति वर्ग के प्रति घृणा का स्थान नहीं है, सबों के लिए सत्य, प्रेम और करूणा ही आदर्श है। भारत गुलाम क्यों बना, इसके कारणों की खोज करते हुए उन्होंने पाया कि जाति-भेद, अस्पृश्यता, सामाजिक अन्याय, महिलाओं का गौण दर्जा, श्रम को नीच समझना आदि अनेक कारण थे जिनसे हमारा देश और समाज इतना कमजोर बना। उन सभी कारणों के निराकरण हेतु गाँधीजी ने आजादी की लड़ाई के साथ-साथ विभिन्न रचनात्मक कार्यक्रम भी चलाए।
अस्पृश्यता निवारणः इंग्लैण्ड से लेकर द. अफ्रीका तक के अपने वकालती सफर में गाँधीजी को गोरों के रंगभेद और नस्लभेदी नीति के दंश को कई मोर्चों पर झेलना पड़ा था। उन्होंने 1893 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों एवं अफ्रीकियों के वैधानिक अधिकारों की लड़ाई का सफल नेतृत्व किया। 1915 में भारत वापसी के उपरांत गाँधीजी ने अस्पृश्यता निवारण को आजादी की लड़ाई साथ जोड़कर आजादी के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति को छुआछूत मिटाने के काम में भी लगाया। इस कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने 1932 में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की और गांधीजी ने इन अछूतों को ‘हरिजन’ का नाम दिया, जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। आगे चलकर उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ के साथ देश के अधिकतर नेताओं को जोड़ा। गाँधीजी द्वारा चलाए गए ‘हरिजन सेवक संघ’ का कार्य भारत के हर प्रदेश में चलता रहा जिसका सबसे बड़ा हिस्सा था इस समाज के बालक-बालिकाओं की शिक्षा हेतु छात्रालयों तथा विद्यालयों को चलाने का । पण्डित गोविन्द वल्लभ पंत (उत्तर प्रदेश), श्री सी. राजगोपालाचारी (तमिलनाडु), पण्डित गोपीनाथ बरदोलै (असम), राजेन्द्र प्रसाद तथा जगजीवनराम (बिहार), मोरारजी देसाई (गुजरात), पण्डित वियोगीहरि (मध्य प्रदेश), सेनापति बापट (महाराष्ट्र) आदि अनेकों नेता गाँधीजी के अस्पृश्यता-निवारण कार्य के अगुवा बने। उस जमाने में छुआछूत का भयंकर रूप था पर गाँधीजी की प्रेरणा से हजारों ने इस काम को उठाकर अनेकों विपदाएँ झेली, असीम कष्ट भुगते और अपने उद्देश्य में काफी सफलता भी पाई। गाँधीजी द्वारा चलाए गए अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक समता की स्थापना के कार्य के पीछे एक अनोखा दर्शन है-‘प्रायश्चित’ का। गाँधीजी कहा करते थे कि जिनके पुरखों ने अस्पृश्यता चलाने का पाप किया है, उन्हीं को प्रायश्चित के रूप में अस्पृश्यता निवारण का कार्य करना चाहिए और अछूत माने जाने वाले भाई-बहनों की सेवा कर उन्हें समानता के धरातल पर लाना चाहिए। इस दर्शन को अंजाम देते हुए अनेकों उच्चवर्णीय माने जाने वाले व्यक्तियों ने इस कार्य का बीड़ा उठाया। प्रायश्चित की यह भूमिका अहिंसा द्वारा समाज में परिवर्तन लाने की पद्धति को प्रकट करती है, पोषक को सेवक बनाती है, क्रोध को नहीं, करुणा को परिवर्तन का माध्यम बनाती है, संघर्ष द्वारा नहीं, सौहार्द्र पर आधारित सहयोग द्वारा समाज की गलत मान्यताओं में बदलाव लाती है। गाँधीजी ने जिस प्रकार राजनैतिक आजादी हासिल करने के लिए एक तरफ अहिंसा और सत्याग्रह की पद्धति अपनाई, तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के साथ मित्रता बनाए रखते हुए उनकी हुकूमत को मिटाया भी। ठीक उसी तरह अस्पृश्यता निवारण के कार्य की सफलता के साथ-साथ दोनों समाजों में सौहार्द्र बनाए रखने का भी प्रयास जारी रखा। गाँधीजी का सिद्धांत था कि अन्याय को मिटाना है तो अन्याय करने वाले का हृदय परिवर्तन करना है। पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। ( पूर्व राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने अपने सम्मान में हरिजन सेवक संघ के दिल्ली परिसर में आयोजित समारोह में गाँधीजी के प्रति अपने उद्गार में कहा था, “अगर गाँधीजी के ‘हरिजन सेवक संघ’ का वह छात्रावास नहीं होता तो मैं अपने जीवन में कुछ नहीं बनता; आज किसी गाँव में गायें चराता होता । “)
मन्दिर प्रवेश अभियान: गाँधीजी उस मन्दिर में नहीं जाते थे जहाँ अस्पृश्यों का प्रवेश वर्जित था। उनका मन्दिर में प्रवेश कराने के अनेकों कार्यक्रम गाँधीजी की प्रेरणा से चलाए गए। केरल के वायकोम मन्दिर प्रवेश हेतु सत्याग्रह चलाया जिसके लिए गाँधीजी ने आचार्य विनोबा भावे को भेजा था। मदुरै के मीनाक्षी मन्दिर में प्रवेश – कार्य के लिए माता रामेश्वरी नेहरू वहां पहुँची थीं। इस कार्य में वैद्यनाथ अय्यर आदि सेवकों को पण्डों की लाठियों का शिकार होना भी पड़ा था। बिहार के वैद्यनाथधाम में हरिजन भाईयों को साथ लेकर प्रवेश करने पर विनोबाजी पर पण्डों ने प्रहार किया था जिससे वे सदा के लिए श्रवणशक्ति खो बैठे थे।
स्वच्छता और भंगी मुक्ति अभियान: गाँधीजी का मानना था कि साफ-सफाई ईश्वर भक्ति के बराबर है और इसलिए उन्होंने लोगों को स्वच्छता बनाए रखने संबंधी शिक्षा दी थी। उन्होंने स्वच्छता को लेकर कई अभियान चलाए, वे लगातार जनता को साफ-सफाई के बारे में आवश्यक बातों को बताते रहे । उनका कहना था कि स्वच्छता किसी एक तबके का कार्य नहीं है, बल्कि यह सभी का काम है। साफ-सफाई में सबके बराबर हिस्सेदारी की बकालत करते थे। इसलिए भंगी मुक्ति कार्यक्रम को गाँधीजी बहुत अधिक महत्व देते थे। सफाई कर्मचारियों के बच्चों की पढ़ाई, उन्हें वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराना तथा उठाऊ-पाखानों का बहाऊ – पाखानों में परिवर्तन आदि कार्य ‘हरिजन सेवक संघ द्वारा चलाए गए कार्यों में विशेष स्थान रखते थे। इसी कार्य के लिए जीवन समर्पित करने वाले गुजरात हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष श्री ईश्वरभाई पटेल ‘पद्मश्री’ से विभूषित किए गए। गाँधीजी का एक स्वप्न था कि कभी सफाई कर्मचारी परिवार की कोई लड़की भारत के राष्ट्रपति पद को विभूषित करे। उन्होंने यह भी कहा था कि अगर मुझे दुबारा जन्म लेना पड़ा तो मैं चाहूँगा कि किसी सफाई कर्मचारी के घर जन्म लूँ। गाँधीजी के ‘स्वच्छ भारत’ के सपनों को साकार करने के उद्देश्य से हाल के वर्षों में भारत सरकार ने उनके सम्मान में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ और ‘सत्याग्रह से स्वच्छाग्रह’ जैसे सराहनीय कार्यक्रम चलाया है।
महिला उत्थान: गाँधीजी करूणा एवं दया के प्रतिमूर्ति थे। वैसे तो वे समूची मानवजाति का सम्मान करते थे, परंतु महिलाओं के लिए उनके हृदय में अत्यंत गहरी सहानुभूति और आदर का भाव मौजूद था। वे महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले अधिक सुदृढ़ और सहृदय मानते थे। वे नारी को ‘अबला’ कहने के भी सख्त खिलाफ थे। उनकी यह धारणा उनके आचरण, लेखों तथा व्याख्यानों में अनेक बार प्रकट हुई हैं। इस संदर्भ में महात्मा गांधी का यह उद्धरण जानने योग्य है, “उन्हें अबला पुकारना महिलाओं की आंतरिक शक्ति को दुत्कारना है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें उनकी वीरता की कई मिसालें मिलेंगी। यदि महिलाएं देश की गरिमा बढ़ाने का संकल्प कर लें तो कुछ ही महीनों में वे अपनी आध्यात्मिक अनुभूति के बल पर देश का रूप बदल सकती हैं। ” मई 1919 की सुरत की एक सभा में महिलाओं को सम्बोधित करते हुए गांधीजी ने कहा कि “हिन्दुस्तान में जिस हद तक पुरुष सांसारिक, धार्मिक और राजनीतिक मामलों में भाग लेते हैं, जब तक स्त्रियां उस हद तक भाग नहीं लेंगी तब तक हमें भारत-भाग्योदय के दर्शन नहीं हो सकेंगे। “
समूचे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने अनेक महिलाओं को न केवल स्वतंत्रता संघर्ष में कूदने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उन्हें नेतृत्व करने का भी अवसर दिया। स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, सुशीला नैयर, विजय लक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली जैसी कई अन्य महिला नेत्रियों ने कांग्रेस को सशक्त बनाने में योगदान दिया। इसके अलावा बहुत-सी महिलाओं ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से सामाजिक उत्थान तथा अन्य रचनात्मक कार्यों को अपनाया। महिलाओं की इस आंतरिक शक्ति को गाँधीजी सत्याग्रह जैसे अहिंसक हथियार के लिए सर्वथा उपयुक्त मानते थे। उनका यह भी दृढ़ विश्वास था कि सत्याग्रह ने महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकालकर समाज एवं देश की सेवा करने का मौका दिया है। यह बात उनके इस कथन से स्पष्ट होती है, “मैंने महिला – सेवा को रचनात्मक कार्यक्रम में शामिल किया है, क्योंकि सत्याग्रह ने स्वतः ही महिलाओं को जिस तरह अंधेरे से बाहर निकाल दिया है वैसा इतने कम समय में और किसी भी उपाय से नहीं हो सकता था। ” विभिन्न आंदोलनों में औरतों को शरीक करने के साथ-साथ उनके सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के कार्यक्रम भी चलाए। उल्लेखनीय बात यह है कि नारी मुक्ति का शोर मचाने की बजाय उन्होंने महिलाओं को एकदम सहज ढंग से स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया।
ग्रामोदय अभियानः गाँधीजी का कथन “ भारत गांवों का देश है, और इसकी आत्मा गांवों में बसती है।” उनका मानना था कि गांवों के विकास के बिना भारत की समृद्धि की बात करना सिर्फ कोरी कल्पना होगी। बुनियादी संसाधनों एवं सुविधाओं की दृष्टि से गांवों को नजरअंदाज करने वाली नीतियों का सदा वे विरोध करते थे । ‘चलो गांवों की ओर’ जैसे कई अभियान भी वे चलाए । उनका मानना था कि हमारा ग्रामीण समाज भारतीय मूल्यों एवं परंपराओं का वाहक है। भारतीय किसान नर में नारायण का रूप है और वही भारत का सच्चा संत है, क्योंकि वह करोड़ों जिंदगियों का पालनहार है। हाल के दशकों में उनके सम्मान में ‘महात्मा गाँधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ (मनरेगा) चला कर भारत सरकार ने गाँधीजी के इस सपने को साकार करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाया है।
शिक्षा द्वारा चरित्र निर्माण: गाँधीजी एक प्रमुख राजनीतिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं समाज सुधारक होने के साथ-साथ एक महान शिक्षा शास्त्री भी थे। उनके अनुसार शिक्षा द्वारा बालक का विकास इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह स्वयं को पहचान सके व स्वयं के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार करने में सफल हो । एक स्कूल निरीक्षण के दौरान गाँधीजी ने शिक्षकों से कहा था कि “आप अपने छात्रों को किताबी पढ़ाई के साथ-साथ खाना पकाना और सफाई का काम भी सिखा सकें तभी आपका विद्यालय आदर्श होगा । ” गाँधीजी शिक्षा को चारित्रिक विकास का आधार मानते थे। उन्होंने शिक्षा में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने पर बल दिया था। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य स्वावलम्बन या आत्म निर्भरता है। नैतिकता, भ्रातृत्व, सह अस्तित्व व चारित्रिक उच्चता उनके धर्म के मूल आधार थे ।
धार्मिक सहिष्णुता: गाँधीजी मानव कल्याण वाले आचरण को ही धर्म मानते थे। अक्सर वे कहा करते थे “मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है, सत्य मेरा भगवान है और अहिंसा उसे साकार करने का साधन है। परमात्मा का कोई धर्म नहीं है। मैं उसे धार्मिक कहता हूँ, जो दूसरों का दर्द समझता है।” गांधीजी का लोकप्रिय भजन था- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे’। जब कुछ हिन्दू सनातन धर्मियों ने गाँधीजी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिए प्रेरित किया तो उन्होंने हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों के बारे में पढ़ने-जानने से पहले किसी धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखाई। चूंकि गाँधीजी धर्म को आस्था के बजाए तर्क की कसौटी पर परखना चाहते थे । परन्तु, बाद में श्रीमद्भगवद्गीता से गाँधीजी का हार्दिक लगाव प्राय: आजीवन बना रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलता रहा, क्योंकि गीता को उन्होंने धर्म ज्ञान से बढ़कर कर्म ज्ञान का अपना साध्य माना था। गाँधीजी ने धार्मिक मतभेदों व धार्मिक कट्टरपन के विरूद्ध भी संघर्ष किया और स्पष्ट किया कि राज्य को धर्म के विषय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। गाँधीजी ने विद्यालयों में धर्म की शिक्षा का भी बहिष्कार किया। क्योंकि उन्हें भय था कि इनमें जिन धर्मों की शिक्षा दी जाती है अथवा पालन किया जाता है वे मेल के स्थान पर झगड़े उत्पन्न करते हैं। उन्होंने धर्म निरपेक्षवाद के सिद्धांत को सामाजिक न्याय और समानता के साथ जोड़ा। उनका कथन था कि भारत प्रमुख धर्मों का आश्रय स्थल रहा है और समय के साथ-साथ बहुधर्मीयता के रूप में उभरा है। हमारा व्यापक दृष्टिकोण व गहरी सहिष्णुता ही सामाजिक असामंजस्य, धार्मिक मतभेद और साम्प्रदायिक तनाव को मिटा सकती है। ईश्वर तो सत्य व प्रेम है, ईश्वर एक है, सिर्फ सब अलग अलग व्याखयाएं करते हैं। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ ही उनका आदर्श धर्म था। सत्य, सेवा और सर्वोदय ही उनका जीवन दर्शन था।
निष्कर्षतः गाँधीजी एक प्रमुख राजनीतिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं समाज सुधारक होने के साथ-साथ मानवता के सच्चे पुजारी थे जिनका मुख्य उद्देश्य था- एक ऐसे रामराज्य की स्थापना जहां सर्वोदय समाज का कल्याण होगा, धन का नहीं, स्नेह और सहयोग की भावनाएं होंगी, घृणा एवं पृथकता नहीं, शोषण के स्थान पर परहित एवं संचय की प्रवृत्ति के स्थान पर त्याग की प्रवृत्ति होगी। लेकिन वर्तमान में कई मोर्चों पर सुधार के बावजूद आजादी के आठवें दशक में भी समाज में जाति-भेद, शोषण, घृणा और राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि जैसे अनेक कुधारणाओं के कारण अक्सर हिंसा के सहारे मानवता का हनन हो रहा है। अतः हम कह सकते हैं कि गांधीजी आज भी हम सभी के लिए प्रासंगिक बने हुए हैं और जब-जब मानवता लहूलुहान होगी तब-तब उनके सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों की हमें जरूरत होगी।
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